Sunday, April 10, 2011

अरब देशों में क्या जे़हाद का परचम लहरायेगा ?


Rajasthan Patrika 10 Apr 2011
अरब देशों में जो हलचल इस वक्त मची हुई है, उसे दुनिया, खासकर यूरोप और अमरीका दिल थामकर देख रहे हैं। क्योंकि इस बात के साफ संकेत मिल रहे हैं कि अगर इन देशों में लोकतांत्रिक व्यवस्था स्थापित होती है तो मज़हबी मानसिकता वाले दल, जैसे मुस्लिम ब्रदरहुड या हमास हावी रहेंगे। उस स्थिति में ट्यूनिशिया, मिस्र, लीबिया, सीरिया व यमन में क्या जेहादी मानसिकता का बोलबाला हो जायेगा? क्योंकि इन संगठनों की, इन देशों की आवाम पर अच्छी पकड़ है। हमास ने तो कभी इज़रायल के अस्तित्व को स्वीकार ही नहीं किया और लगातार वहाँ आत्मघाती हमले करता रहा है। ऐसी हालत में लोकतंत्र की स्थापना की यह कवायद बेमानी हो जायेगी। जैसाकि पाकिस्तान में हो रहा है। जहाँ पिछले कुछ वर्षों में लगभग 40 हजार लोग आतंकी हमलों में मारे जा चुके हैं। ज़ाहिर-सी बात है कि अगर ऐसी हुकूमतें इन देशों में काबिज़ होती हैं तो वे सभी गैर इस्लामी देशों के लिए खतरा बन जायेंगी। इसलिए पश्चिमी देशों का चिंतित होना स्वाभाविक है।

पर ज़मीनी हकीकत कुछ और भी बयान कर रही है। जन आन्दोलनों की जो बात इन देशों में आयी है। उसकी पृष्ठभूमि में युवा पीढ़ी का आक्रोश, जो अपने तानाशाह हुक्मरानों या तेल निर्यातक देशों के शेखों के विलासितापूर्ण जीवन से बेहद नाराज हैं। इन युवाओं ने फेसबुक और इण्टरनेट का सहारा लेकर इन आन्दोलनों की ज़मीन तैयार की है। ये वो पीढ़ी है जो कट्टरपंथी इस्लाम की ज़ेहादी मानसिकता से इŸाफाक नहीं रखती। दुनिया की अपनी समझ और आगे बढ़ने की महŸवकांक्षा ने इनके मन में यह बात बैठा दी है कि जे़हादी मानसिकता ने इस्लाम की छवि पूरी दुनिया में खराब की है। यह पीढ़ी मज़हब के खिलाफ नहीं है, पर मज़हब को राजनीति और आर्थिक प्रगति पर हावी होने भी नहीं देना चाहती। इस पीढ़ी ने कठमुल्ला मानसिकता वाले सामाजिक या राजनैतिक नेताओं से भी तीखी बहस छेड़ दी है। यह बहस उनके मुल्कों के राजनैतिक ढाँचे के प्रारूप और उसके भविष्य को लेकर है। इसलिए यह मानना कि अरब देशों की क्रांति दुनिया में जे़हाद बढ़ा देगी, सही नहीं होगा। क्योंकि ये युवापीढ़ी ऐसा आसानी से होने नहीं देगी।

दूसरी तरफ, जहाँ तक मुस्लिम ब्रदरहुड की बात है, उसका रवैया भी बदला हुआ है। दशकों बाद फिर से अपनी राजनैतिक ज़मीन तलाशता हुआ यह बड़ा संगठन मौजूदा हालातों का आंकलन कर रहा है और इसके नेता बार-बार दुनिया की मीडिया के सामने यह बात रख रहे हैं कि अगर वे सत्ता में आते हैं तो उनका स्वरूप शांतिपूर्ण सहअस्तित्व का होगा। जिसमें दूसरे मज़हबों, खासकर ईसाइयों और यहूदियों के प्रति कोई द्वेष भावना नहीं होगी। वे ज़ेहाद को समर्थन नहीं देंगे। वे लोकतांत्रिक मूल्यों को स्थापित करेंगे। वे शरीयत के कानून को उस हद तक ही लागू करेंगे, जिसमें आदमी के मौलिक अधिकारों का हनन न हो। वे शरीयत के कानून के अनुसार महिलाओं को दबायेंगे नहीं, बल्कि उन्हें अपने हक के साथ खुलकर जीने और आगे बढ़ने का मौका देंगे।

पर जैसा हम सब अनुभव से जानते हैं कि इस्लाम के मानने वाले समाज में व्यापक अशिक्षा के कारण कठमुल्ले नेतृत्व का प्रभाव और पकड़ कहीं ज्यादा गहरी और व्यापक होती है। यह वह वर्ग है जो किसी भी धर्म का हो, धर्मान्धता के बाहर न निकल पाता है और न ही सोच पाता है। धर्म के नाम पर दुनिया में पिछले दो हजार सालों में जो हजारों युद्ध हुए हैं और जिनमें करोड़ों लोग मारे गये हैं, औरते बेवा हुयी हैं और बच्चे यतीम हुए हैं, संस्कृतियाँ नष्ट हुयी हैं और खून की नदियाँ बही हैं, वह सब इस धर्मान्धता के कारण ही हुआ है। मज़हब इन लोगों के कारण आदमी को रूहानी नहीं, हैवान बना देता है। फिर भी यह हर मज़हब में बकायदा अपना वजू़द रखते हैं और मौका मिलते ही हावी हो जाते हैं। अरब देशों में अगर नयी राजनैतिक व्यवस्था बनती है तो यह वर्ग निज़ाम और रियाया पर हावी होने की पुरज़ोर कोशिश करेगा। पर दूसरी ओर हमारे सामने मलेशिया, इण्डोनेशिया और तुर्की का उदाहरण है। जहाँ सत्तारूढ़ दल और सरकार दोनों ही इस्लाम को मानते हैं। पर उनकी हुकूमत में हर मज़हब के लोग खुलकर जीते हैं और बराबरी का दर्जा हासिल किये हैं। एक दूसरे के प्रति नफरत नहीं, बल्कि प्रेम और सौहार्द का सम्बन्ध है। यह आदर्श स्थिति है। जिसे अरब देशों की आवाम को अपनाना चाहिए। इस जियो और जीने दोके माहौल में पूरी दुनिया में अमनचैन और तरक्की होगी।

उधर पश्चिमी दुनिया के देशों को भी यह समझना होगा कि यूरोप और अमरीका की तरह धर्मनिरपेक्ष सत्ता की स्थापना पूर्वी देशों में सम्भव नहीं है। फिर वो अरब हो या दक्षिण एशिया या दक्षिण-पूर्व एशिया। यहाँ का समाज धर्म, संस्कृति और राजनीति के घालमेल में भेद नहीं करता। पश्चिमी देशों में मध्य युग में चर्च की हुकूमत और दखलअंदाजी के खिलाफ जो जनान्दोलन हुए थे, उन्होंने धर्म संस्कृति को राजनीति से अलग करके ही दम लिया। इसलिए उन्होंने धर्मनिरपेक्षता की परिकल्पना विकसित की। जबकि हमारे समाजों में धर्म को सत्ता का मार्गदर्शक माना गया है। फिर वो चाहे इस्लाम हो, हिन्दू धर्म हो या बौद्ध धर्म हो। हाँ, इस सम्बन्ध में बड़ी नाज़ुकता होती है। इसलिए संतुलन बनाकर चलना होता है। उम्मीद की जानी चाहिए कि इण्टरनेट के मार्ग पर दुनिया से जुड़ी अरब देशों की युवापीढ़ी इस ऐतिहासिक और सामाजिक तथ्य को संजीदगी से समझेगी और ऐसी व्यवस्था कायम करवायेगी जिससे दुनिया में अमन चैन कायम हो।

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