Sunday, September 26, 2010

प्लेसमेंट एजेंसियों पर शिकंजा कसे

पिछले हफ्ते कोलकाता के एक अंग्रेजी दैनिक में खबर छपी की एक 27 वर्षीय महिला मध्यप्रदेश में एक परिवार में मई 2010 में नौकरी करने गई थी, तीन महीने से लापता है. उसके बूढ़े पिता और बच्चे उसके लौटने का बेसब्री से इंतज़ार कर रहे हैं. उन्होंने 20 सितम्बर को कोलकाता के थाने में रिपोर्ट दर्ज करा दी है. यह खबर पढ़ कर वह परिवार जिसने उसे नौकरी पर रख था घबरा गया. क्योंकि नौकरी पर आने के दूसरे ही दिन यह बंगाली महिला ज़िद करने लगी कि उसे वापिस कोलकाता जाना है. प्लेसमेंट एजेंसी से फोन पर उसकी बात करवा कर, जैसे वह आई थी वैसे ही उसे ट्रेन का टिकट दिलाकर ट्रेन में बिठा दिया गया. पर वह कोलकाता नहीं पहुंची तो इसकी खबर नौकरी देने वाले को कैसे हो? क्यों नहीं तीन महीने से उसके परिवार या प्लेसमेंट एजेंसी ने खोज खबर ली ? चिंता में उन्होंने अपने बाकी स्टाफ से पूछा कि वो जाते समय क्या कह कर गई थी ? तो इस पर सिक्यूरटी गार्ड ने बताया कि कह रही थी कि, दक्षिण दिल्ली के कोटला क्षेत्र में एक प्लेसमेंट एजेंसी है मैं वहाँ जाउंगी और दिल्ली में रहूंगी.

खोज करने पर वह एजेंसी मिल गई और पता चला कि यह महिला तीन महीने से इसी एजेंसी के माध्यम से दिल्ली में नौकरी कर रही है. दिल्ली पुलिस की दबिश के बाद उस एजेंसी ने दो घंटे में उस महिला को वहां प्रस्तुत कर दिया. दिल्ली पुलिस ने कोलकाता पुलिस को सूचना दी और उसे दिल्ली के नारी निकेतन में भेज दिया.

सामान्य सी दिखने वाली यह कहानी बड़ी गहरी साजिश की ओर इशारा करती है. जिसकी गहराई से पड़ताल होनी चाहिए. सिने स्टार शाइनी आहूजा कि नौकरानी ने पहले बलात्कार का आरोप लगाया, उसे जेल भिजवाकर फिर अब कहती है कि उसने झूठा आरोप लगाया था. जानकारी मिली है कि प्लेसमेंट एजेंसियां इसी तरह का ताना-बाना बुनकर संपन्न परिवारों को फंसा लेती हैं फिर उन्हें कानून का डर दिखा कर उनसे मोटा पैसे ऐंठती हैं. तीन तरह के आरोप लगते हैं नाबालिग लड़की से छेड़-छाड़ के, गर्भधान कर देने के या गायब कर देने के. आरोप लगते ही और मामला पुलिस में जाते ही नौकरी देने वाला घबरा जाता है. घबराहट में वो इनके जाल में फंस जाता है.

उपरोक्त मामले में तो परिवार के ऊँचे संपर्क पुलिस में होने के कारण वे बच गए और महिला बरामद हो गई पर ज़्यादातर लोग इस गिरफ्त आसानी से नहीं छूट पाते. यह गंभीर समस्या बनती जा रही है. एक तरफ बंगाल, झारखण्ड, उड़ीसा, केरल, बिहार, मध्यप्रदेश के गरीब परिवार नौकरी की तलाश में संपन्न राज्यों की तरफ मुंह करते है और दूसरी तरफ कामकाजी व्यस्त जीवन जीने वाले परिवार या संपन्न परिवार घरेलू काम के लिए ऐसी महिलाओं को ढूँढ़ते हैं जो विश्वसनीय हों. प्लेसमेंट एजेंसियां इसी दूरी को पाटती हैं. कायदे से उन्हें अपनी व्यवस्था पारदर्शी और विश्वसनीय बनानी चाहिए. पर जैसा उपरोक्त मामले में हुआ. क्या कोटला की एजेंसी ने इस महिला को रखने से पहले उसकी तहकीकात की ? क्या उसके परिवार से रजामंदी ली ? यदि हाँ तो उसका परिवार कैसे कह सकता है कि वो गायब हो गई ? अगर यह रजामंदी लिए बिना ही उसे रख लिया तो क्या यह नए मालिक के साथ धोखाधड़ी नहीं है कि किसी महिला का अतीत और अता पता जाने बिना उसे किसी के घर में नौकरी पर रखवा दिया. कल कोई ऊंच-नीच हो जाये और यह महिला कोई अपराध करके भाग जाए तो उसे कहाँ से ढूंढेगे ? इसका कोई जवाब एजेंसी के पास नहीं है.

जांच का विषय है कि ऐसी एजेंसियां आपस में एक नेटवर्क से जुडी रहती हैं और फिर मिलकर ब्लैकमेलिंग का यह खेल खेला जाता हैं. कहीं प्लेसमेंट की आड़ में इन महिलाओं को वैश्यावृत्ति के धंधे में तो नहीं डाला जाता ? यह सब जांच का विषय होना चाहिए. ऐसे लोग जिन्हें अपने घरेलू नौकर के झूठे आरोपों को झेल कर ब्लैक मेल का शिकार होना पड़ा हो, अगर इस अखबार के नाम पत्र लिखते हैं तो यह जांच करना और आसान हो जायेगा.

पर तस्वीर का दूसरा पहलू भी है. ऐसी गरीब लाचार महिलाओं को नौकरी देने वाले अक्सर उनका शोषण भी करते हैं. उन्हें यातना या शारीरिक कष्ट देते हैं. उनसे वासना तृप्ति करते हैं. उनको छुट्टी नहीं देते. उनका वेतन मार लेते हैं. इसीलिए ऐसी महिलाओं के अधिकारों की सुरक्षा के लिए हर शहर में जागरूक महिलाओं को एक साझा मंच बनाना चाहिए. हर शहर में तमाम ऐसी संपन्न पढ़ी-लिखी महिलाएं रहती हैं जिनके पास दिन भर करने को कुछ खास नहीं होता. ताश के पत्ते या किट्टी पार्टी में दिन गुज़र जाता है. दूसरी तरफ इन्हें अपने ही बच्चे पालने कि फुर्सत नहीं होती. बच्चे आयाओं के सहारे पलते हैं. ऐसे में आयाएं संपन्न परिवारों का अहम हिस्सा बन चुकी हैं. इनकी मांग हमेशा पूर्ती से ज्यादा रहती हैं. इसलिए भी अगर संपन्न महिलाएं एक संस्था बना कर इस समस्या से निपटती हैं तो उनका और उनके परिवार का काम अच्छी तरह चलेगा. हर बात के लिए सरकार कि ओर मुह ताकना कोइ अकलमंदी नहीं है. जब तक समाज में आर्थिक विषमता हैं घरेलू नौकरों की ज़रूरत बनी रहेगी. ऐसे में इस समस्या का हल समाज को ढूँढना चाहिए वरना एक तरफ गरीबों का शोषण होगा और दूसरी तरफ संपन्न लोग नाहक ब्लैकमेल का शिकार होंगे.

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