Sunday, April 18, 2010

बेचारे शशि थरूर!

जब कभी कोई राजनैतिक दल भ्रष्टाचार के मुद्दे पर शोर मचाता है तो उसका मकसद भ्रष्टाचार को समाप्त करना नहीं होता। आरोपी को सजा दिलवाना भी नहीं होता। केवल राजनैतिक लाभ उठाने के मकसद से शोर मचाया जाता है। ताजा मामला शशि थरूर का है।  रोंदेवु स्पोर्ट्स की भागीदार सुनन्दा पुष्कर उनकी मित्र, पे्रयसी या भावी पत्नी हैं, यही आधार काफी है उन पर भ्रष्टाचार का आरोप लगाने को। विपक्षी दल सरकार को घेर रहे हैं। सत्तारूढ़ दल के प्रवक्ता यह कहकर पल्ला झाड़ रहे हैं कि रोंदेवु स्पोर्ट्स के व्यवसायिक मामले में हस्तक्षेप का हक किसी को नहीं बनता। शशि थरूर की निजी जिन्दगी से दल का कोई वास्ता नहीं। पर विपक्ष थरूर के इस्तीफे की माँग पर अड़ा है। इंका आलाकमान और उनके समर्थित भारत के प्रधानमंत्री पर थरूर को हटाने का दबाव बनाया जा रहा है। क्या फैसला होता है, यह तो जल्द ही सामने आ जायेगा। पर इस माहौल में कुछ सवाल जरूर खड़े होते हैं।

शोर मचाने वाले दलों के नेता क्या दावे से कह सकते हैं कि उनका दामन पाक-साफ है? उन्होंने आज तक जीवन में जो भी धन और सम्पत्ति अर्जित की है, वह सीधे और नैतिक रास्तों से की है? जो भी चुनाव लड़े हैं, वह काले धन से नहीं लड़े? उनके देशभर में कहीं कोई व्यवसायिक हित नहीं हैं? उन्होंने कभी भी अपने पद का दुरूपयोग किसी चहेते या भाई-भतीजे के आर्थिक लाभ के लिए नहीं किया? जब कभी उनके ही दल के बड़े नेता किसी घोटाले में फंसे या आरोपित हुए, तो भी उन्होंने धर्मराज युधिष्ठिर की तरह सच का साथ दिया और अपने ही दल के नेताओं के खिलाफ संसद में ऐसे ही शोर मचाया जैसा वे आज शशि थरूर के खिलाफ मचा रहे हैं? अगर यह सच है तो शशि थरूर को सजा दिलवाने की माँग करने वाले सांसदों का समर्थन किया जाना चाहिए और उन्हें सार्वजनिक जीवन में नैतिकता और निष्पक्षता के उच्च मानदण्ड स्थापित करने के लिए सम्मानित किया जाना चाहिए। पर सब जानते हैं कि ऐसा कुछ भी नहीं है। जो ललित मोदी आज भाजपा नेताओं की मदद लेकर शशि थरूर को नैतिकता का आईना दिखा रहे हैं, उनके राजस्थान की तत्कालीन मुख्यमंत्री वसुन्धरा राजे के कार्यकाल में क्या कारनामे रहे उससे राजस्थान की जनता ही नहीं और भी बहुत लोग वाकिफ हैं। दिवंगत फिल्मी सितारे राजकुमार का एक डाॅयलाग यहाँ उपयुक्त रहेगा, ‘जिनके घर के शीशे के होते हैं, वे दूसरों पर पत्थर नहीं फैंकते

शशि थरूर ने अगर कुछ भी अनैतिक किया है तो विपक्ष, मीडिया व खुद प्रधानमंत्री उसकी आसानी से उपेक्षा नहीं करेंगे। पर पिछले तीन दशक की पत्रकारिता में मैंने अनुभव किया है कि प्रायः ऐसे नेताओं पर कीचड़ ज्यादा उछलती है जो राजनीति में पारंपरिक छवि से भिन्न अपनी कुछ विशिष्ट पहचान लिये होते हैं। राजनीति के घिसे मँजे लोग तो बड़े से बड़ा घोटाला भी इस सफाई से कर जाते हैं कि आसानी से पकड़े न जाऐं। अगर पकड़े जाते हैं तो या तो मीडिया मैनेज कर लेते हैं या मोटी चमड़ी के बनकर सारे विवाद को अनदेखा कर देते हैं। किरकिरी तो शशि थरूर जैसे उन नेताओं की होती है जिनके व्यक्तित्व की चमक बाकी लोगों को अच्छी नहीं लगती। राजीव गाँधी का भी यही हश्र हुआ। वे बेचारे भोले-भाले पायलट राजनीति की समझ से परे थे। उनके सरल आचरण से जो लापरवाही हुई, उसका विपक्षी दलों ने तिल का ताड़ बना दिया। एक सोचा समझा अभियान चलाकर राजीव गाँधी की छवि को बिगाड़ने की भरपूर और काफी हद तक कामयाब कोशिश की गयी। जबकि उस वक्त राजीव गाँधी पर भ्रष्टाचार के आरोप लगाने वाले विश्वनाथ प्रताप सिंह के तीन प्रमुख सहयोगियों विद्याचरण शुक्ल, आरिफ मोहम्मद खान और सतपाल मलिक का दामन पाक-साफ है, ऐसा दावा तो वो खुद भी नहीं कर सकते। राजीव गाँधी को हराकर सत्ता में आये दलों के नेताओं ने राजा हरीशचन्द्र की तरह आचरण किया हो, इसके प्रमाण नहीं मिलते। जबकि इसके विपरीत आचरण के तमाम प्रमाण मिल जायेंगे। पर राजीव गाँधी तो शहीद हो ही गये। ताजा लोकसभा चुनाव के कुछ समय पहले प्रधानमंत्री डाॅ. मनमोहन सिंह पर हल्ला बोला गया कि वे एक कमजोर प्रधानमंत्री हैं। जो आतंकवाद और भ्रष्टाचार जैसे मुद्दों पर कड़े फैसले नहीं ले सकते। पर इस अभियान को चलाने वाले नेताओं को जब उनके कार्यकाल की याद दिलायी गयी तो यह हमला शान्त हो गया क्योंकि हमलावरों के हथियार भौंतरे हो गये थे। पर काफी दिन तक एक शरीफ प्रधानमंत्री पर हतोत्साहित करने का सोचा-समझा अभियान चलाया गया। इसलिए प्रधानमंत्री को शशि थरूर के मामले में ठण्डे दिमाग से फैसला लेना चाहिए। अगर इस बात पर सन्देह नजर आये कि थरूर का इस रोंदेवु स्पोर्ट्स की डील में कोई हिस्सा था, तो उन पर कार्यवाही की जा सकती है। लेकिन विपक्ष के शोर मचाने पर मीडिया के इस मामले को उछालने पर अपनी राय कायम नहीं करनी चाहिए।

1993 में जब मैंने देश के 115 बड़े राजनेताओं और आला अफसरों को जैन डायरी हवाला काण्ड में लिप्त पाया और उन्हें सी.बी.आई. से चार्जशीट करवाया, तो ऐसा देश के इतिहास में पहली बार हुआ था। सबको लगा कि राजनैतिक हालात अब तेजी से बदलेंगे। इस घोटाले से व्यवस्था में दरार तो जरूर आयी, पर भ्रष्टाचार घटने की बजाय बढ़ गया। नेताओं ने भी समझ लिया कि सी.बी.आई. और सर्वोच्च न्यायालय के बावजूद उनका कुछ नहीं बिगड़ा। इसलिए वे और भी निरंकुश हो गये। आजादी के बाद से समय-समय पर सत्ता पक्ष के घोटाले सामने आते रहे हैं और विपक्ष उन पर संसद में शोर मचाता रहा। सजा दिलवाना न कोई चाहता था और न किसी को मिली। सी.बी.आई. जाँच के नाम पर नाटक हुए और तथ्यों को दबा दिया गया। भ्रष्टाचार के मामले पर शोर मचाने से ज्यादा जरूरत इस बात की है कि इससे निपटने के जो कारगर उपाय हैं, उनको अपनाने में आने वाली अड़चनों को दूर करने का अभियान चलाया जाए। जिससे भ्रष्टाचार का कैंसर बढ़ने से रोका जा सके। पर देखने में यही आया है कि ऐसे मुद्दों पर शोर मचाने वाले बदलाव नहीं चाहते, केवल राजनैतिक लाभ चाहते हैं। इसलिए शशि थरूर का भविष्य क्या होगा, कहना सम्भव नहीं। पर इतना जरूर है कि इस विवाद से निकलकर वे और परिपक्व राजनेता बनेंगे। 

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