Sunday, August 17, 2008

कितने आजाद हैं बुद्धिजीवी ?

Rajasthan Patrika 17-08-2008
जब हम अपनी आज़ादी की 51वीं वर्षगांठ मना रहे हैं तभी रूस में वैचारिक आजादी के सितारे, नोबेल पुरस्कार विजेता एलेक्जेंडर सोलझेनित्स के महाप्रयाण पर लोग आंसू बहा रहे हैं। सोलझेनित्स ने कम्युनिस्ट शासन के खिलाफ इतना दबंगाई से लिखा कि उन्हें देश निकाला दे दिया गया। ठीक वैसे ही जैसे आजादी की लड़ाई के दौर में अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ लिखने वालों से गोरी सरकार कड़ाई से निपटती थी। उनके प्रकाशन जब्त कर लिए जाते थे। उन्हें जेलों में डाल दिया जाता था या देशद्रोही करार कर दिया जाता था। यह सब सहकर भी गुलाम भारत के बुद्धिजीवियों ने समझौता नहीं किया और हमें आजादी मिली।

आजादी के बाद हम विदेशी हुकूमत के गुलाम नहीं थे। हमारी सरकार लोकतांत्रिक तरीके से चुनी गयी थी। हमारे यहां संसद में पक्ष और विपक्ष दोनों थे। संविधान में हमें लिखने और बोलने की आजादी दी गयी थी। आपातकाल के स्याह दौर को छोड़कर या पश्चिमी बंगाल की साम्यवादी सरकार के खिलाफ खड़े हुए नक्सलवादियों पर हुए दमन को छोड़कर, देश में शायद ऐसा कोई दौर नहीं गुजरा जब इस देश के बुद्धिजीवियों से उनकी आवाज छीनी गयी हो या सरकार के खिलाफ लिखने और बोलने पर दमनात्मक कारवाही की गयी हो। फिर क्या वजह है कि हमारे देश के बुद्धिजीवी आजाद नहीं हैं ? वे गुलाम की तरह जीते हैं। विश्वविद्यालयों में, शोध संस्थानों में, साहित्य में और पत्रकारिता में कितने लोग हैं जो आत्मा की आवाज पर लिखते हैं। देश के करोड़ों निरीह लोगों के हक में बोलते हैं ? देश में कितने बुद्धिजीवी ऐसे हैं जो सच को सच कहने की ताकत रखते हैं ?

क्या वजह है कि खुद को बुद्धिजीवी बताने वाले अपनी बुद्धि को गिरवी रखकर जीते हैं ? फिर भी भ्रम यही पाले रहते हैं कि हम ही देश को समझते हैं, दूसरे नहीं। दरअसल आजादी के बाद विशेषकर तीसरी पंचवर्षीय योजना के विफल होने के बाद नेहरू खेमे में घबराहट हो गयी। जो सपने दिखाये गये थे पूरे नहीं हो रहे थे। स्थिति हाथ से निकल रही थी। तब पंडित नेहरू के प्रबंधकों ने विरोध का स्वर दबाने के लिए बुद्धिजीवियों को ‘मैनेज’ करना शुरू किया। उन्हें विदेश यात्रा, फैलोशिप, सरकारी समितियों की सदस्यता, सरकारी मकानों के आवंटन, प्राथमिकता के आधार पर अनेक सार्वजनिक सेवाओं को मुहैया कराना जैसे तमाम हथकंडे अपनाये गये।

सरकार के इस नए रूख को सबसे पहले ’साम्यवादी बुद्धिजीवियों’ ने पकड़ा और इस हद तक पकड़ा कि इस देश की सोच पर, शिक्षा पर, सूचना तंत्र पर, ये लोग हावी हो गये। ऐशोआराम की एक बेहतर जिंदगी जीने के लालच में इन्होंने न सिर्फ खुद को सरकार का चारण और भाट बना लिया बल्कि सच कहने वालों को अपने संस्थानों में हर स्तर पर दबाने का काम भी किया। इनका जाल इस कदर फैल गया कि ये देश की सभी प्रमुख बौद्धिक संस्थाओं पर हावी हो गये। इनकी देखा-देखी अनेक गांधीवादियों और समाजवादियों की भी यही हालत हो गयी।

ऐसे माहौल में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की विचारधारा से जुड़े पढे लिखे लोग खुद को राष्ट्रभक्त बता कर सरकारी बुद्धिजीवियों का उपहास करते थे। तब लगता था कि जब संघ समर्पित सरकार बनेगी तो यह लोग सत्ता की मोहिनी से दूर रहकर देश हित में लिखेगें और बोलंेगे। पर ऐसा नहीं हुआ। राजग के शासनकाल में या जिन-जिन प्रांतों में भाजपा की सरकार रही है और आज भी है, वहां संघ से जुड़े बुद्धिजीवियों ने भी वही आचरण दिखाया जो पूर्ववर्ती सरकारों के दौर में साम्यवादी और समाजवादी बुद्धिजीवियों का था। अपने राजनैतिक आकाओं के विरुद्ध बोले जा रहे सच को दबाना, झूठ का प्रचार करना, प्रतिभाओं की उपेक्षा कर भाई-भतीजावाद करना, एक ही तरह के मुद्दे पर मौके के अनुसार अलग-अलग टिप्पणी करना और यहां तक कि सत्ता की दलाली करना। अपवाद हर दौर में रहे हैं। लेकिन केवल अपवाद ही।

लगता है कि सत्ता की मोहिनी इतनी आर्कषक है कि किसी भी विचारधारा में पले-बढ़े बुद्धिजीवी क्यों न हों, भौतिक सुख की लालसा में अपनी खुद्दारी और हैसियत को भूल जाते हंै। सरकार के भाट बन कर तमाम फायदे लेते हैं और जब उनकी विरोधी विचारधारा के लोग सत्ता में आते हैं तो यही बुद्धिजीवी मुखर हो जाते हैं। तिल का ताड़ बना देते हैं। कोई मंच नहीं छोड़ते तूफान मचाने से। यही आचरण हर पक्ष करता है। हर पक्ष अपने मौके पर निजी लाभ के लिए देश और समाज का हित बलि चढ़ा देता है। यही वजह है कि जब जिसकेे पक्ष के लोग सत्ता में आते हैं उसी पक्ष के चारण और भाट बुद्धिजीवियो को पद्मभूषण देने से लेकर सांसद, राजदूत और न जाने क्या-क्या बनाया जाता है। इस तरह सच्चाई को दबाकर, झूठ का साथ देकर, अपने फायदे के लिए समाज के हित की उपेक्षा करके जीवन जीने वाले बुद्धिजीवी कैसे हो सकते है ?

ऐसे लोग न तो समाज को दिशा दे सकते हैं और न ही समाज में उठ खड़े होने का जज़्बा पैदा कर सकते है। आजाद भारत के लोगों के लिए यह बहुत दुखद स्थिति है कि इसने बुद्धिजीवियों की एक जमात खड़ी नहीं की। बुद्धिजीवियों के नाम पर राजनैतिक दलों के दरबार में खड़े रहने वाले याचक पैदा किए हैं। पर संतोष की बात यह है कि फिर भी देश में हजारों लोग ऐसे हैं जो सही लिखते बोलते और सोचते हैं पर उन्हें जानबूझकर गुमनामी के अंधेरे में रखा जाता है। उन्हें अखबारों में छापा नहीं जाता, कोई टीवी चैनल उनका साक्षात्कार प्रसारित नही करता या उन्हें बौद्धिक चर्चाओं में नहीं बुलाता। विचारों के मुक्त आदान प्रदान के लिए बने विश्वविद्यालय भी ऐसे वक्ताओं को बुलाने में संकोच करते हैं। ’आत्मघोषित बुद्धिजीवी माफिया’ की रणनीति के तहत ऐसे लोगों को दबा कर रखा जाता है। दूसरी तरफ जिन्हें बुद्धिजीवी बता कर प्रचारित किया जाता है वे केवल किराये के भांड हैं। यही हमारे लोकतंत्र की सबसे बड़ी त्रासदी है, जिससे हमें निकलना ही होगा।

No comments:

Post a Comment