Rajasthan Patrika 31-08-2008 |
हकीकत तो यह है कि घाटी का मुसलमान न तो आजादी चाहता है और न ही पाकिस्तान के साथ विलय। पिछले 50 सालों में जो मुसलमान पाकिस्तान गए वे वहां आज तक मुहाजिर बन कर रह रहे हैं। घाटी के युवाओं को पाकिस्तान के आतंकवादी प्रशिक्षण शिविरों में बड़ी तादाद में ले जाया गया। जहां न सिर्फ उनका मानसिक शोषण हुआ बल्कि उन्हें शारीरिक दुराचार का भी शिकार बनाया गया। घाटी के लोग जानते हैं कि अगर वो पाकिस्तान में मिल गए तो पाकिस्तानी उनकी नस्ल बिगाड़ देंगे। उनकी औरतों की इज्जत बचना मुश्किल हो जाएगा। इसलिए वे पाकिस्तान के साथ कतई जाने को तैयार नहीं हैं। दूसरी तरफ अगर वे आजाद हो जाते हैं तो उनकी अर्थव्यवस्था बुरी तरह चरमरा जाएगी। आज भारत सरकार घाटी के हर आदमी पर 9,754 रूपए प्रति वर्ष खर्च करती हैं जबकि बिहार में प्रति व्यक्ति 876 रूपए खर्च किए जाते हैं। अगर कश्मीर को आजादी दे दी जाए तो इस राहत की भरपाई कौन करेगा?
कश्मीर के मुसलमानों ने पूरे भारत के हर बड़े और छोटे शहर में अरबों रूप्ए की संपत्ति खरीद ली है। उनके लम्बे-चैड़े कारोबार चल रहे हैं। बड़े-बड़े शोरूम और गेस्ट हाउस चल रहे हैं। अगर कश्मीर अलग देश बनता है तो ये सब कश्मीरी भारत के लिए विदेशी नागरिक बन जाएंगे और तब इन्हें सवा सौ करोड के भारत के साथ तिजारत करने की या यहां सम्पत्ति रखने की छूट नहीं रहेगी। ये सदमा कश्मीर का व्यक्ति बर्दाश्त करने को तैयार नहीं।
वैसे भी जम्मू-कश्मीर के तीन प्रमुख हिस्से हैं। लद्दाख, श्रीनगर घाटी और जम्मू। लद्दाख भारत के साथ पूर्ण विलय चाहता है और अपनी हैसियत एक संघ शासित प्रदेश के रूप में चाहता है। जबकि जम्मू इलाका पूरी तरह भारत में विलय चाहता है। उल्लेखनीय है कि इस इलाके में डोडा, पुंछ और राजौरी जैसे इलाके भी हैं जहां ज्यादातर मुसलमान रहते हैं। श्रीनगर घाटी के पहाड़ी बोलने वाले लोग जिनमें उड़ी, गंधार, कुरेज शामिल हैं, वे भी भारत से अच्छे संबंध रखना चाहते हैं और इस आजादी के नारे के खिलाफ हंै। यहां तक कि घाटी का गुर्जर समुदाय भी भारत के साथ ही रहना चाहता है।
अमरनाथ श्राइन बोर्ड को जमीन देने का मामला कोई मामला ही नहीं था। वो तो बहाना बन गया घाटी के नेताओं की सियासत को परवान चढ़ाने का। दरअसल हुर्रियत के नेताओं को भारत से राजनैतिक पैकेज चाहिए। 1975 के इंदिया गांधी-शेख समझौते के बाद कश्मीर में जो 1953 के विशेषाधिकार मिले थे वे समाप्त कर दिए गए। जिसे वहां के राजनेता आज तक पचा नहीं पाए। 1987 के चुनाव में हुई धांधलियां भी इन नेताओं को बर्दाश्त नहीं हुई। भारतीय फौजों का घाटी में दुव्र्यवहार भी आक्रोश का कारण बना। इसलिए जरूरत इस बात की है कि भारत सरकार संवेदनशीलता के साथ घाटी के राजनेताओं को मुख्यधारा में लाए।
जम्मू का आंदोलन भाजपा की देन नहीं है जैसाकि तथाकथित धर्मनिरपेक्षवादी, चरमपंथी और आग्रेजीदा पत्रकार बताने की कोशिश कर रहे हैं। दरअसल भाजपा का तो जम्मू में कोई जनाधार ही नहीं है। इस इलाके में भाजपा का एक भी सांसद नहीं है और 37 विधायकों में से केवल 1 विधायक भाजपा का है जबकि 36 विधायक गैर भाजपाई हैं। जम्मू वालों ने भाजपाई नेताओं को अपनी सभाएं सम्बोधित नहीं करने दिया। यह आंदोलन तो पूरी तरह जनांदोलन है। इस आंदोलन में जम्मू क्षेत्र के मुसलमान, हिन्दु और सिक्ख सब शामिल हैं और ये आंदोलन भी केवल अमर नाथ के मुद्दे पर नहीं चल रहा है। इसके पीछे डोगरों के मन में जो आक्रोश वर्षों से दबा पड़ा था वो ज्वालामुखी बन कर फटा है। जम्मू वालों की शिकायत है कि घाटी के साथ केन्द्र सरकार पक्षपात करती आई है। जम्मू की आबादी 28.5 लाख और उनके विधायक हैं 37 व सांसद दो हैं जबकि श्रीनगर की आबादी 25.5 लाख है पर विधायक हैं 46 और सांसद 3। ये जाहिरन नाइंसाफी है। जम्मू इन सीमाओं का पुनर्निर्धारण चाहता है। दूसरी शिकायत जम्मू वालों को इस बात से है कि केन्द्रीय आर्थिक मदद की 70 फीसदी रकम घाटी में खर्च होती है और लद्दाख व जम्मू के हिस्से आता है मात्र 30 फीसदी। इतना ही नहीं सत्ता का सर्वोच्च शिखर होता है राज्य सचिवालय। जिसमें 90 फीसदी नौकरियों श्रीनगर वालों को मिली हुई हैं। इसके लिए जम्मू नाराज है और अपना हक चाहता है। जम्मू के डोगरे चाहे हिन्दू हों या मुसलमान आर्थिक प्रगति चाहते हैं जो उन्हें भारत के साथ जुड़ कर ही मिल सकती हैं पर अब वो घाटी के साथ पक्षपात को बर्दाश्त करने को तैयार नहीं हैं। घाटी के नेताओं को इसका अंदाजा था और इसी डर से उन्होंने अमरनाथ के मुद्दे को इतनी हवा दी। ‘हमें चाहिए आजादी‘ का नारा भी इसी डर से दिया गया कि कहीं जम्मू के दबाव में भारत सरकार घाटी को मिल रहे फायदों को कम न कर दे। आजादी का नारा एक धमकी भर है, इसमें दम बिलकुल नहीं। इसलिए अगर कोई भी ये कहता है कि कश्मीर आजादी चाहता है तो उसने कश्मीर की जनता के दिलों को टटोला ही नहीं है।