बीजेपी के नेताओं को ये गलतफहमी है कि उनका वोट बैंक भाजपा की धर्मनिरपेक्ष छवि देखना चाहता है। उन्हें शायद ये भी गलतफहमी है कि हाल ही में हुए विधानसभा चुनावों में उन्हें जो कामयाबी मिली, वो विकास के मुद्दे पर मिली। सच्चाई ये है कि भाजपा की आज भी हिन्दूवादी छवि है और उसका जो भी वोटबैंक है, वो उसकी इसी छवि के कारण है। इसलिए भाजपा को अपनी इस छवि से भागना नहीं चाहिए। इसलिए भी कि राजनीति की तमाम मजबूरियों के कारण भाजपा का हिन्दूवाद प्रदूषित भले ही हो गया हो, पर इसमें संदेह नहीं कि भारत की वैदिक संस्कृति ही भारत जैसी विशाल आबादी वाले देश की तमाम समस्याओं का हल है। आवश्यकता उसे सही परिप्रेक्ष्य में समझकर उसके सार्थक सदुपयोग की है।
पिछले दिनों भारत आए अनेकों प्रवासी भारतीयों ने बताया कि यूरोप और अमरीका में अब गाय के गोबर की खाद में उपजे फल, सब्जी, अनाज की लोकप्रियता बढ़ती जा रही है। पर उनका मूल्य रासायनिक खाद से उपजे फल, सब्जी और अनाज के मूल्य से दस गुना ज्यादा होता है। फिर भी समझदार लोग गोबर की खाद में उपजे पदार्थ ही खाना पसंद कर रहे हैं। यहां तक कि अमेरिका की राजधानी वाॅशिंगटन में दूध भी अब आॅर्गनिक मिलने लगा है। आॅर्गनिक दूध यानी उन गायों का दूध जिन्हें गोबर की खाद से उपजा चारा खिलाया जाता है। रासायनिक खाद और कीटनाशक से उपजा चारा उन्हें नहीं खिलाया जाता। अपनी पिछली यूरोप, अमेरिका यात्रा के दौरान मैं भी कुछ आॅर्गनिक उत्पादनों की दुकानों में गया था। यह देखकर बड़ी खुशी हुई कि वहां गोबर की खाद से उपजे खाद्यान्नों से निर्मित डबलरोटी, बिस्कुट आदि बिक रहे थे, लेकिन जब उनके दाम देखे, तो खरीदने की हिम्मत नहीं पड़ी और उस दुकान में रखे ऐसे विभिन्न उत्पादनों को देखकर ही संतोष कर लिया। पर मन में यह बात जरूर आई कि हमारा कितना दुर्भाग्य है कि जिस कृषि प्रणाली को हम हजारों साल से अपनाते आए थे, उसे पश्चिमीकरण की मार ने पिछले पचास वर्षों में किस बुरी तरह से नष्ट कर दिया है। आज रासायनिक खादों से पैदा अनाज, फल और सब्जियां आकर्षक तो बहुत दिखते हैं, पर स्वाद और तत्व में शून्य हैं। इतना ही नहीं शरीर की प्रतिरोधी क्षमता को ऐसे खाद्यान्नों ने तेजी से घटाया है और अनेक किस्म की खतरनाक बीमारियों को बढ़ाया है। पर हम ऐेसे मूर्ख हैं कि आज भी जागे नहीं हैं। दोहराने की जरूरत नहीं है कि भारतीय वैदिक ज्ञान को किस गंभीरता से अमेरिका, जर्मनी, इंग्लैण्ड और जापान जैसे देशों में पढ़ा और समझा जा रहा है और फिर उस ज्ञान पर आधारित उत्पादनों को रंग-बिरंगे पैकिंग में दस-बीस गुने दाम पर दुनिया के बाजारों में बेचा जा रहा है। यह हमारी बौद्धिक संपदा की खुली लूट का जीता-जागता उदाहरण है। खाद्यान्न ही क्यों, हठ योग और ध्यान के वैज्ञानिक प्रभावों को दुनिया में अब कोई भी चुनौती नहीं देता। चुनौती देना तो दूर अमेरिका की हर गली में योग सिखाने वालों की दुकानें खुली हुई हैं। ऐसे तमाम उदाहरण हैं जिनसे यह सिद्ध होता है कि पश्चिमी संस्कृति से प्रभावित हमारे वैज्ञानिकों और नीति निर्धारकों ने आजादी के बाद भी भारत की इस बौद्धिक विरासत को इसका अपेक्षित स्थान नहीं लेने दिया और पूरे देश पर आधुनिकता और वैज्ञानिकता के नाम पर ऐसा विकास माॅडल थोप दिया, जिससे आम आदमी अपनी जड़ों से कटता चला गया और बाजारी शक्तियों के शिकंजे में कसता चला गया।
ऐसे माहौल में जब भाजपा ने हिन्दूवाद का झंडा उठाया तो उन सब लोगों को उम्मीद जगी जिन्हें अपनी बौद्धिक विरासत पर विश्वास था और जो उसे पुनः पल्लवित होते देखना चाहते थे। यूं तो महात्मा गांधी की विचारधारा पर इस बौद्धिक विरासत का पूरा का पूरा असर था, पर उनकी रणनीति सौहार्द और समन्वय की थी। इसलिए जनसंघ और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने कई दशकों तक उन पर निशाना साधा और उन्हें अल्पसंख्यकों के तुष्टीकरण के लिए जिम्मेदार ठहराया। जबकि खुद संघ, विहिप और भाजपा ने आक्रामक हिन्दूवाद का तेवर ही अपनाए रखे। उसके इस तेवर से जहां हिन्दू नवजागरण हुआ, वहीं साम्प्रदायिक वैमनस्य भी बढ़ा। इससे भाजपा को अपना वोट बैंक एकजुट करने में मदद मिली। जहां विपक्षी दलों ने धर्मनिरपेक्षता का झंडा उठाकर भाजपा को कटघरे में खड़ा करने की कोशिश की वहीं भाजपा भी रामजन्मभूमि, समान नागरिक संहिता और कश्मीर को विशेष दर्जा न दिए जाने जैसी अपनी मांगों पर अड़ी रही। भाजपा की उत्तरोत्तर प्रगति के पीछे बहुसंख्यक हिन्दू समाज का आक्रोश है। यह आक्रोश इसीलिए बढ़ा कि धर्मनिरपेक्षतावादी मुस्लिम तुष्टीकरण की अपनी नीति छोड़ने को तैयार नहीं थे। गुजरात में भी भाजपा की विजय आक्रामक हिन्दूवाद के कारण ही हुई। लेकिन राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ की विजय ने उसे भ्रमित कर दिया। भाजपा को लगता है कि इन राज्यों में उसकी विजय उसकी आर्थिक नीतियों के कारण हुई है। जबकि सच्चाई यह है कि छत्तीसगढ़ में राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी के चुनाव लड़ने के कारण जोगी की हार हुई। मध्य प्रदेश में सरकार विरोधी जनमानस ने भाजपा को गद्दी पर बिठाया और राजस्थान में नौकरशाही ने गहलौत को हराने में प्रमुख भूमिका निभाई। इसलिए ये विजय भाजपा की नीतियों की विजय नहीं, बल्कि मतदाता की मजबूरी का परिणाम है। भाजपा का मूल चरित्र हिन्दूवादी है और रहेगा। इसमें शर्माने की कोई बात नहीं। सत्ता के लालच में अपने स्वरूप को बदल-बदलकर पेश करने से भाजपा नेतृत्व की गरिमा कम होती है। अपने सिद्धांतों में आस्था रखना और उन पर टिके रहने वाला ही लौह पुरुष कहलाता है। ये सही है कि भाजपा और संघ ने हिन्दूवाद के नाम पर तमाम तरह की नई बातें थोप दी हैं, जिनका कोई वैदिक आधार नहीं है और इसीलिए इन संगठनों में प्रदूषण फैल गया है। अगर ये संगठन वैदिक संस्कृति पर आधारित शुद्ध सनातन धर्म को ईमानदारी से अपनाएं तो इनकी सफलता को कोई रोक नहीं पाएगा। क्योंकि तब ये जो बोलेंगे और करेंगे, वो भारत की आत्मा की आवाज होगी। उस आवाज में आध्यात्मिक बल होगा और सहस्त्राब्दियों के अनुभव का गांभीर्य। ये सही है कि राजनीति में नैतिकता का कोई स्थान नहीं होता। यह भी सही है कि आज के समय में सत्ता हथियाने के लिए हर तरह के हथकंडे अपनाने पड़ते हैं पर जितना ये सही है उतना ये भी सही है कि दुनिया का कोई भी तूफान भारतीय संस्कृति की जड़ों को नहीं उखाड़ पाया। वैदिक शक्ति उस आणविक शक्ति की तरह है जो कुछ शताब्दियों के लिए अगर आंखों से ओझल भी हो जाती है तो फिर एक परमाणु विस्फोट की तरह भूमंडल पर छा जाती है। पिछली सदी विज्ञान और तकनीकी के विकास और उनकी उपलब्धियों से उत्साहित समाज की सदी थी। पर ये सदी उस थोथी वैज्ञानिकता के दुष्परिणामों से निकलने की छटपटाहट में शाश्वत सत्य को खोजने की सदी होगी। शाश्वत सत्य यदि कही है तो वह भारत के वैदिक ज्ञान में है। इसे मूर्ख लोग हर तरह से नीचा दिखाने या दबाने का प्रयास करते हैं। पर बहुत दिनों तक ऐसा नहीं कर पाते। अपनी इस धरोहर की ताकत में विश्वास न रखकर चुनावी नारे अपनाने से और आधारहीन गठजोड़ करने से भाजपा बहुत दूर तक नहीं जा पाएगी। उसे कुछ समय के लिए सत्ता सुख की प्राप्ति भले ही हो जाए, पर वह अपनी पहचान खो देगी। पहचान ही नहीं खो देगी, करोड़ों समर्पित लोगों की भावनाओं को भी ठेस पहंुचाएगी। भाजपा के शासनकाल में तमाम दावों के बावजूद ऐसी कोई आर्थिक उपलब्धि नहीं हुई, जिसने भारत में आधारभूत ढांचे को मजबूत किया हो या अर्थव्यवस्था को स्थायी ताकत दी हो। ‘फील गुड फैक्टर’ के नाम पर जो कुछ दिखाई दे रहा है, वह केवल सतह पर है। जबकि भाजपा के शासनकाल में बहुसंख्यक हिन्दू समाज की भावनाएं बार-बार आहत हुई हैं। अब उन्हें भाजपा की नीयत पर संदेह होने लगा है। फिर भी वे भाजपा को वोट इसलिए देते हैं कि उनके मन में ये डर बैठा है कि अल्पसंख्यक तुष्टीकरण नीति के समर्थक विपक्षी दल यदि सत्ता में आ गए, तो फिर से बौद्धिक विरासत को ससम्मान आगे बढ़ाने का काम रुक जाएगा। इसलिए वे मजबूर हैं। पर उनकी इस मजबूरी का भाजपा नेतृत्व को दुरुपयोग नहीं करना चाहिए। बल्कि उन्हें ये विश्वास दिलाना चाहिए कि भाजपा अपने मुद्दों पर अटल है और उसके हिन्दूवाद में जो प्रदूषण आ गया है, उसे वह दूर करने को तैयार है। यदि भाजपा नेतृत्व ऐसा नैतिक साहस कर पाए तो उसका जनाधार घटेगा नहीं, बढ़ेगा ही। पर इसके लिए उसे अपनी मौजूदा समझ को बदलना होगा। वरना सत्ता उसे मिल भी जाए, पर जनता का प्यार नहीं मिल पाएगा और यह उसकी ऐतिहासिक भूल होगी।
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