पिछले एक दशक से देश भर में अश्लील फिल्मों के प्रदर्शन की बाढ़ सी आ गई हैं। चाहे गांव का वीडियों थिएटर हो या शहरों के सिनेमाघर। बड़ी भारी तादात में ये अश्लील फिल्में दिखाई जा रही हैं। दरअसल अश्लील शब्द इनके लिए हल्का पड़ता है। बाकायदा ब्लू फिल्में ही हैं जो देश भर के थिएटरों में खुलेआम धड़ल्ले से चल रही हैं। इनमें वो सब कुछ दिखाया जाता है जिसको ब्लू फिल्म के दायरे में रखा जाता है यानी संभोग और विकृत सेक्स की सभी मुद्राएं खुलेआम सिनेमाहाॅलों में दिखाई जा रही हैं। इन फिल्मों के पोस्टर भी कम उत्तेजक नहीं होते। उन पर बड़ा-बड़ा लिखा होता है, ‘अंगे्रजी फिल्म का हिन्दी रूपांतरण।’ पोस्टर इतने भड़काऊ होते हैं कि किशोर और किशोरियों को भी सिनेमाहाॅल तक खींच लाते हैं जिससे इन सिनेमाघरों का कारोबार बढि़यां चल रहा हैं। केबल टीवी के आ जाने से जहां साफ सुथरी फिल्मों के दर्शकों की संख्या थिएटर में घटी है वहीं वयस्क फिल्मों के नाम पर चलने वाली इन ब्लू फिल्मों के दर्शकों की तादाद अच्छी-खासी बढ़ गई है। मजे की बात ये है कि जब इन फिल्मों का प्रदर्शन होता है तो पर्दे पर सबसे पहले फिल्म सेंसर बोर्ड का प्रमाण पत्र दिखाया जाता है। पर जब फिल्म में कामुक दृश्यों का खुला प्रदर्शन होता है तो यह प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि आखिर फिल्म सेंसर बोर्ड ऐसी फिल्मों को प्रमाण पत्र कैसे दे देता है ? ऐसी 59 फिल्मों की एक सूची जब मुरादाबाद के एडवोकेट श्री संजय कुमार बंसल ने सेंसर बोर्ड को भेजी और उनसे पूछा कि क्या ये सभी फिल्में आपके द्वारा प्रमाणित की गई हैं तो उन्हें जवाब मिला कि उनमें से मात्र 18 फिल्मों को ही सेंसर बोर्ड ने प्रमाण पत्र जारी किया था। साफ था कि 41 फिल्में बिना प्रमाण पत्र के सिनेमाघरों में दिखाई जा रही हैं। इनमें दिखाया जाने वाला सेंसर का प्रमाण पत्र फर्जी था। श्री बंसल ने इसके बाद स्थानीय पुलिस प्रशासन व तत्कालीन केन्द्रीय सूचना प्रसारण मंत्री श्रीमती सुषमा स्वराज को लिखा और उनसे कड़े कदम उठाने की मांग की। पर नतीजा शून्य ही रहा किसी ने कोई कार्यवाही नहीं की।
अक्सर अखबारों में खबर छपती है कि ‘वीसीडी निर्माता के कारखाने में छापा’, ‘भारी मात्रा में ब्लू फिल्में पकड़ी गईं।’ खबर पढ़कर लगता है कि पुलिस ने वाकई प्रशंसनीय कार्य किया। दरअसल ये धर पकड़ केवल प्रतीकात्मक होती है। अगर पुलिस वास्तव में ब्लू फिल्मों के प्रदर्शन को रोकना चाहती है जिसके लिए वह सक्षम भी है और उसके लिए उसके पास कानूनी अधिकार भी है तो ऐसा कैसे होता है कि उसकी नाक तले शहर के थिएटरों में खुलेआम ब्लू फिल्म चलती रहती है? ऐसा कैसे होता है कि जब कोई जागरूक नागरिक पुलिस से ऐसी फिल्मों के प्रदर्शन को रोकने की गुहार करता है तो पुलिस उसे अनदेखा कर देती है ? ऐसा कैसे हो सकता है कि देश के चप्पे-चप्पे पर नजर रखने वाली भारत सरकार के सूचना प्रसारण मंत्री को इसकी खबर तक न हो कि देश में अश्लीलता का खुला नंगा नाच हो रहा है ? साफ जाहिर है कि अश्लील फिल्मों का प्रदर्शन भारी मुनाफे का सौदा है और इस मुनाफे में जिम्मेदार लोगों की हिस्सेदारियां बटीं हैं। एक लंबी फेहरिस्त है ऐसी फिल्मों की जिनके पोस्टर खुलेआम देश में लग रहे हैं। जिनके शीर्षक भी बड़े उत्तेजक होते हैं। जैसे ‘बेवफा आशिक’, ‘खूनी कातिल’, ‘नशीली आंखें’, ‘प्यार की तलाश’ या ‘जोशीली लैला।’ ऐसे पोस्टरों को देखकर स्थानीय पुलिस फौरन सक्रिय हो सकती है। पर नहीं होती और सेंसरशिप के कानूनों का खुला उल्लंघन होता है।
चलचित्र अधिनियम 1952 के दंड प्रावधानों को लागू करना राज्य सरकार का कार्य है क्योंकि फिल्मों का प्रदर्शन करने का विषय राज्य से संबंधित है। लोगों के मन को आंदोलित करने वाले मुख्य उल्लंघन कई हैं। ‘व’ यानी व्यस्यक प्रमाण पत्र वाली फिल्म का प्रदर्शन नाबालिगों के लिए करना या ‘एस’ प्रमाण पत्र वाली फिल्मों का प्रदर्शन स्वीकृत वर्ग की बजाय अन्य वर्ग के लिए करना या प्रमाण पत्र के मिलने के बाद फिल्म के काटे हुए अंशों को पुनः फिल्म में जोड़कर दिखाना। इस तरह के तमाम कानूनी उल्लंघन इन फिल्मों के निर्माताओं व वितरकों द्वारा रोज़ाना किए जा रहे हैं। ‘देश कल्याण समिति’ नाम के एक जागरूक संगठन ने पिछले महीने 62 फिल्म निर्माताओं और वितरकों के नाम-पतों की सूची भारत के राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री को भेजी है। जिन्होंने इस तरह की अश्लील फिल्म का निर्माण या वितरण किया है। उम्मीद की जानी चाहिए कि प्रधानमंत्री इस मामले में कोई ठोस पहल करेंगे। जहां तक सेंसर बोर्ड का प्रश्न है उसका कहना है कि अगर किसी जागरूक नागरिक को ऐसी जानकारी मिलती है कि ब्लू फिल्म किसी सिनेमा हाॅल में दिखाई जा रही है तो उसे तुरंत पुलिस को सूचित करना चाहिए और छापा डलवाकर उस फिल्म की रील जब्त कर लेनी चाहिए। फिर उसे सील बंद डिब्बे में सेंसर बोर्ड के पास भेज दिया जानी चाहिए। ताकि ये जांच की जा सके कि फिल्म में काटा गया हिस्सा जोड़ा गया है या नहीं। पर सेंसर बोर्ड को ये कौन समझाए कि सिनेमाहाॅलों से नियमित भत्ता लेकर पुलिस अपनी आंखें बद कर लेती है। छापा डालना तो दूर वो ऐसे सिनेमाघरों की तरफ रूख भी नहीं करेगी। एक बात और जिन फिल्मों को प्रमाण पत्र दिया ही नहीं गया उनको सेंसर बोर्ड कैसे परखेगा? इसलिए जनता असहाय है और सिनेमा मालिकों और स्थानीय पुलिस व प्रशासन दोनो की चांदी कट रही है। मजे की बात ये है कि भारत की प्राचीन संस्कृति, हिन्दू धर्म और नैतिकता की दुहाई देने वाली भाजपा की प्रांतीय और केन्द्रीय सरकारों के बावजूद भी उत्तर प्रदेश तक में ऐसा होता आ रहा था। वहां श्री बंसल की गुहार की परवाह नहीं की गई। वैसे कोई भी राज्य इससे अछूता नहीं है और यह सभी जागरूक माता-पिता के लिए चिंता की बात होनी चाहिए।
1989 में जब हमने देश में पहली बार हिन्दी में स्वतंत्र टीवी पत्रकारिता की शुरूआत की तो हमारी वीडियों मैगजीन ‘कालचक्र’ को संेसर बोर्ड ने बार-बार रोका और हमसे महत्वपूर्ण राजनैतिक रिपोर्टों के वे अंश काटने को कहा जो न सिर्फ तथ्यात्मक थे बल्कि देश के राजनैतिक पतन का स्पष्ट प्रमाण देते थे। उस वक्त हमने दो काम किए एक तो समाचारों को सेंसर करने की उसकी नीति को अदालत में चुनौती दी और दूसरा एक रिपोर्ट उसी के कारनामों पर बनाई जिसमें ऐसी फिल्मों के अंश दिखाए जो सेंसर बोर्ड की परिभाषा में प्रदर्शन के योग्य नहीं थे। फिर भी उन्हें पास किया गया। सेटलाइट चैनलों के आ जाने के बाद वीडियों या टीवी समाचारों को सेंसर करना तो कोई मुद्दा ही नहीं रहा पर अश्लील फिल्मों या ब्लू फिल्मों के प्रदर्शन पर नियंत्रण कर पाने की सेंसर बोर्ड की नाकामी उसके अस्तित्व और उसकी सार्थकता पर प्रश्नचिंह लगा देती है। आश्चर्य की बात है कि जो सरकार, पुलिस और प्रशासन जनहित में सवाल खड़े करने वालों को बेरहमी से कुचल देता है वहीं पुलिस और प्रशासन ब्लू फिल्म दिखाने वालों की कमर क्यों नहीं तोड़ पाता? कहीं ऐसा तो नहीं कि सत्ताधीशों की मन्शा यही हो कि जनता और खासकर किशोर, ऐसे भौंडे मनोरंजन के मोहजाल में फंसे रहे और अपना हक न मांगे। जिस तरह चीन के लोगों को अफीम के नशें की लत डालकर विदेशियों ने चीन का आर्थिक दोहन किया उसी प्रकार भारत के आम लोगों को ऐसी फिल्मों की लत डालकर गुमराह किया जा रहा है। जो भी हो यह चिंता का विषय है और जागरूक माता-पिता इसे अनदेखा करके चुप नहीं बैठ सकते।
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