Friday, May 2, 2003

विहिप का धर्मसंकट


अयोध्या में जमा हुए विश्व हिन्दू परिषद् (विहिप) के नेताओं ने अब सांसदों का द्वार खटखटाने का निर्णय किया है। वे हर दल के सांसदों के घर जाकर उन्हें अयोध्या में राममंदिर बनाए जाने की आवश्यकता समझाएंगे। विहिप के संतों का यह भी दावा है कि राममंदिर निर्माण का भाजपा की राजनीति से कोई लेना-देना नहीं है। 

ये तो वही ढाक के तीन पात। सोचने वाली बात ये है कि अपने को धर्मनिरपेक्ष बताने वाले दल विहिप के एजेंडा पर कैसे सहमत हो सकते हैं? भाजपा भगाओ की लाठी रैली करने वाले लालू यादव हों या माक्र्सवादी नेता सोमनाथ चटर्जी। मुलायम सिंह यादव हों या सोनिया गांधी। यहां तक कि राजग के सहयोगी दलों के नेता चन्द्रबाबू नायडु, जार्ज फर्नाडीज, ओम प्रकाश चैटाला, उमर अबदुल्लाह जैसे नेता भी विहिप से सहमत नहीं होंगे। क्योंकि इन सब क्षेत्रीय दलों की अपनी राजनैतिक मजबूरियां हैं। इनके वोट बैंक में मुसलमानों के वोटों का महत्व रहता है। अगर विहिप यह सोचती है कि वह इन सभी दलों को समझा-बुझा कर यह मनवा लेगी कि राममंदिर निर्माण का भाजपा की राजनीति से कोई लेना-देना नहीं है तो यह उसकी भारी भूल है। ऐसा हो सकता था यदि यह आंदोलन शुरू से केवल हिंदूधर्माचार्यों के नेतृत्व में स्वतंत्र रूप से चला होता। जिसमें केवल हिंदू हित की बात को सर्वोपरि रख कर निरंतर जनजागरण किया जाता। व्यापक हिंदू समाज को इस मुद्दे के साथ भावनात्मक रूप से जोड़ा जाता। तब यह विहिप का आंदोलन न होकर हिंदू समाज का आंदोलन बन जाता। ऐसे में किसी भी दल के नेताओं के लिए बहुसंख्यक हिंदू समाज की भावनाओं की उपेक्षा करना आसान नहीं होता। पर सच्चाई तो यह है कि आंदोलन शुरू तो हुआ था इसी तरह के गैर राजनैतिक प्रयास से पर इसकी महत्ता को समझ भाजपा ने इसे तुरंत हड़प लिया और तब से यह लगातार भाजपा का मुद्दा रहा है। 

भारत छोड़ दुनिया में जो भी लोग भारत में रूचि रखते हैं वे सब जानते है कि राममंदिर निर्माण आंदोलन भाजपा का चुनावी एजेंडा है। जितना मीडिया कवरेज और राजनैतिक उथल-पुथल पिछले 14 वर्षों में इस मुद्दे को लेकर हुई है उतनी किसी दूसरे मुद्दे को लेकर नहीं। फिर विहिप कैसे सोचती है कि वह सब दलों के सांसदों के दिमाग से 14 साल का इतिहास भुला देगी ? हालांकि विहिप के नेताओं को यह अच्छा नहीं लगेगा पर सत्य यह है कि उनका आचरण भी संदेह से परे नहीं रहा। राममंदिर निर्माण के मामले पर विहिप ने तब-तब ही शोर मचाया है जब-जब प्रांतीय या केन्द्रीय चुनाव पास आए। इस तरह यह संदेश गया कि विहिप राममंदिर मुद्दे को भाजपा के चुनाव जीतने का सामान बनाए रखना चाहती है।

यह बात दूसरी है कि राममंदिर निर्माण के मामले भाजपा नेताओं के दोहरे वक्तव्यों और कृतित्व ने अब विहिप को भी काफी निराश कर दिया है। विहिप के खेमों में बड़ी घुटन महसूस की जा रही है। विहिप के नेताओं को लगता है कि भाजपा उन्हें केवल चुनाव में डुगडुगी पीटने के लिए प्रयोग करती है और फिर ठंडे बस्ते में डाल देती है। विहिप में ही दो खेमे बने हैं। एक खेमा गरम दल वालों का है जो भाजपा से संबंध विच्छेद कर हिन्दू हित के मामलों पर एक नए राजनैतिक विकल्प की संभावना तलाश रहा है। क्योंकि इस खेमे को लगता है कि भाजपा अपने मूल चरित्र से बहुत दूर चली गई है और अब उसकी प्राथमिकताएं येन-केन-प्रकारेण सत्ता में बने रहने की है। इसके लिए वह किसी भी हद तक हिंदू हित का बलिदान करने को तैयार है। इसीलिए भाजपा का हिंदू वोट बैंक भी तेजी से सिकुड़ रहा है। विहिप के इस गरम दल को उम्मीद है कि अगर आक्रामक तेवर वाला शुद्ध हिंदूवादी राजनैतिक विकल्प कोई हो तो उसे व्यापक जन समर्थन मिलेगा। 

विहिप के दूसरे खेमे के वयोवृद्ध नेता श्री अशोक सिंहल जैसे लोगों का मानना है कि सत्ता में रहने की अपनी सीमाएं होती हैं। इन सीमाओं के भीतर भाजपा हिंदूधर्म के लिए जो कुछ कर सकती है, कर रही है। इससे ज्यादा करने से सत्ता खतरे में पड़ सकती है। इसलिए वे गरमपंथी विचार से असहमत हैं। साथ ही विहिप के एक बहुत बड़े हिस्से का मानना है कि चाहे गरमपंथियों की बात में कितना ही वजन हो, चाहे भाजपा नेतृृत्व ने देश के हिंदुओं को कितना ही नाराज क्यों न किया हो, पर संघ परिवार आज भी भाजपा के पीछे खड़ा है और बिना संघ परिवार के सहयोग के विहिप कोई राजनैतिक विकल्प खड़ा नहीं कर सकती। 

इन हालातों में विहिप के सामने एक तीसरा विकल्प हो सकता था और वो था शिव सेना के साथ सहयोग करना। अपने वक्तव्यों से बाला साहब ठाकरे हमेशा ही उग्र हिंदूवाद का समर्थन करते आए हैं। इसलिए यह बहुत स्वाभाविक संबंध हो सकता है। पर शिव सेना के व्यक्ति केन्द्रित ढांचे को विहिप पचा नहीं पाएगी। साथ ही शिव सैनिकों की हुड़दंगी कार्यवाहियां भी विहिप के गले नहीं उतरती। योग, ध्यान, आयुर्वेद और भारतनाट्यम जैसी महान वैदिक सांस्कृतिक विरासत की तुलना में भोंडी पाश्चात्य संस्कृति के प्रतीक माइकल जैक्सन के शो करवा कर शिव सेना ने अपने दिमागी दिवालियापन का परिचय दिया है। इसलिए शिव सेना के सुप्रीमो पर निर्भर नहीं रहा जा सकता कि वे कब क्या कर बैठें। हालांकि उधव ठाकरे के सामने आने से कुछ उम्मीद बंधी है। क्योंकि वे अपेक्षाकृत ज्यादा संयत व्यक्तित्व के धनी हैं। पर इसके लिए पहल उधव ठाकरे को ही करनी होगी। 

इन हालातों में विहिप की स्थिति सांप-छछुन्दर की हो रही है। उसे न तो भाजपा को निगलते बन रहा है और न उगलते। ऐसे में राममंदिर निर्माण के आंदोलन का भविष्य क्या होगा, कहा नहीं जा सकता। ये बड़े दुर्भाग्य की बात है कि हिंदू नवजागरण का जो आंदोलन इतने उत्साह से देशभर में उठा था वो कुर्सी की राजनीति में उलझ कर कांतिविहीन हो गया है। समय-समय पर आए परस्पर विरोधी बयानों के कारण नेतृत्व की विश्वसनीयता पर जनता को संदेह हो गया है। समय की मांग है कि विहिप अपनी प्राथमिकताओं का पुर्ननिर्धारण करे। अगर उसे लगता है कि भाजपा ने वाकई उसके साथ छल किया है तो वह खुलकर भाजपा का दोहरा चरित्र जनता के सामने रखे। अगर उसे लगता है कि भाजपा जो कर सकती थी किया पर इससे आगे उसके बस की बात नहीं है और उन्हें बाकी दलों का सहयोग लेना ही पड़ेगा तो विहिप को यह पता होना चाहिए कि बाकी दल तब तक उसका साथ नहीं देंगे जब तक विहिप इस मुद्दे पर व्यापक जनादोलन न खड़ा करे। उस स्थिति में उसे भाजपा से उतनी दूरी बना कर रखनी होगी जितनी दूरी से यह संदेश मिले कि उसका यह आंदोलन भाजपा की चुनावी रणनीति का हिस्सा नहीं है। 

यह कोई असंभव कार्य नहीं है। जैसे-जैसे पश्चिमी बाजारू संस्कृति का हमला देश पर बढ़ रहा है वैसे-वैसे हमारे समाज में असुरक्षा, मानसिक तनाव और घुटन भी बढ़ रही है। इसीलिए देश में चारो तरफ हिंदूधार्मिक कार्यक्रमों की बाढ़ सी आ गई है। भागवत सप्ताह हो या भजन संध्या। गीता पर प्रवचन हो या रामकथा, कोई अछूता नहीं है। साफ जाहिर है कि हिंदू समाज अपनी मान्यताओं को पल्लवित होते देखना चाहता है। उसके लिए वह तन, मन, धन से सहयोग करने को तैयार है। बशर्ते  उनकी भावनाओं से खिलवाड़ न किया जाए और उस पर राजनैतिक रोटियां न सेकी जाए। हम पहले भी कहते आए हैं कि हिंदू तीर्थ स्थलों की व्यवस्था, तीर्थ यात्रियों के लिए सुविधाओं में वृद्धि, मंदिरों में अराजकता और कुव्यवस्था का निराकरण और चढ़ावे के करोड़ों रूपए का धर्मस्थानों के विकास के लिए सदुपयोग, कुछ ऐसे कार्य हैं जिनमें विहिप को तन, मन, धन से जुट जाना चाहिए पर ऐसा हो नहीं रहा। इसके अनेक उदाहारण दिए जा सकते है। वैसे तो विहिप के नेता खुद ही अनुभवी हैं और ज्ञानी भी। समय के अनुसार अपनी रणनीति बदलना उनके और हिंदू धर्म के हित में रहेगा। आगे हरि इच्छा।

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