जबसे टी.वी. न्यूज चैनलों की बाढ़ आई है तब से नई-नई रिपोर्टों को खोजने की प्रतिस्पद्र्धा भी बढ़ गई है। छोटी सी घटना अगर कहीं हो जाए तो मिन्टों में वहां दर्जनों टी.वी. क्रू पहुंच जाते हैं। हर टीम खबर की तह तक जाना चाहती है। घटना से जुड़े हर वाकये और व्यक्ति को पर्दे पर दिखाना चाहती है। अनूठा करने की होड़ में लोगों के पीछे पड़ जाती है। ऐसे माहौल में अगर दहेज विरोधियों को सबक सिखाने वाली नोएडा की लड़की निशा को रातों रात देश भर में ख्याति मिल गई तो इसमें कोई अस्वाभाविक बात नहीं। इस घटना से दो बड़ी उपलब्धियां हुईं। एक तो यह कि अब निशा जैसी तमाम लड़कियों को यह पता चल गया कि अगर वे दहेज के लोभियों के विरुद्ध आवाज़ उठाती हैं तो मीडिया उनका साथ देगा। दूसरा यह कि नई कहानियों की तलाश में हमेशा प्यासे छटपटाने वाले मीडिया को कहानियों का खजाना मिल गया।
इस देश में महिलाओं पर अत्याचार की घटनाएं रोज देश के हर हिस्से में होती हैं। पर अपने संस्कारों के कारण महिलाएं अक्सर सबकुछ चुपचाप सह लेती हैं। आर्थिक असुरक्षा के कारण भी विरोध नहीं कर पाती। उन्हें डर होता है कि अगर पति ने घर से निकाल दिया तो उन्हें बाप की देहरी पर लौटना पड़ेगा। जबकि मान्यता यह है कि लड़की विवाह के बाद बाप की देहरी से जब जाती है तो उसे यही कहा जाता है कि अब पूरे जीवन तुझे ससुराल की सेवा करनी है। माना यह जाता है कि उसकी अर्थी ही ससुराल से निकलेगी। भारतीय समाज में व्यवस्था बनाए रखने के ऐसे तमाम रस्मो रिवाज हैं। पर उनके मूल में है सहृदयता और पारस्परिक पे्रम। पर जब समय से पहले ही नववधु की अर्थी निकलने लगें तो यह चिन्ता की बात है। यह इस बात का परिचायक है कि अपनी महानता का गुण गाने वाला भारतीय समाज सम्वेदन शून्य ही नहीं पाशविक होता जा रहा है। दहेज के लोभी अगर किसी कन्या को सताएं या उसकी जान लेने पर उतारू हो जाएं तो चुप बैठना मूर्खता होगी। प्रताडि़त होने और अबोध बच्चों को अनाथ छोड़ कर जल कर मर जाने से कहीं अच्छी है विरोध का स्वर मुखर करना। एक तरफ तो हम यह कहते हैं कि सबका पालनहार भगवान है और दूसरी तरफ हम यह चिन्ता करें कि अगर हमारे पति या ससुराल वाले ने घर से निकाल दिया तो हमारा क्या होगा, यह ठीक नहीं। निशा ने विरोध किया तो उसे सारे देश ने पलकों पर बिठा लिया। यह पहली घटना थी इसलिए शायद इतना प्रचार उसे मिला उतना भविष्य में न मिले। क्योंकि एक ही तरह की घटना पर बार बार उतनी ही तीव्र प्रतिक्रिया नहीं हो सकती। पर इसमें शक नहीं कि खबरों की खोज की होड़ में लगे मीडिया को ऐसी घटनाओं में हमेशा रुचि रहती है इसलिए जब भी कोई लड़की अपने अत्याचार की शिकायत निशा की तरह मीडिया से करेगी उसे किसी न किसी टी.वी. चैनल या अखबार से मदद जरूर मिलेगी।
वैसे भी समाज में दूसरे के फटे में पैर देने की आदत होती है। महानगरों की अति आधुनिक बस्तियों को छोड़ दें तो शेष भारत में यानी छोटे शहरों कस्बों और गांवों में किसी के व्यक्तिगत जीवन की घटनाएं या दुर्घटनाएं शेष समाज के लिए कौतुहल का विषय होती है। गावों में जरा ज्यादा शहरों में थोड़ा कम। पहाड़ों में तो छोटी सी घटना मिन्टों में जंगल की आग की तरह पूरे इलाके में फैल जाती है। लोग नमक-मिर्च लगाकर ऐसी घटनाओं का मजा लेते हैं। जब कभी किसी की बेटी अपने पे्रमी के साथ भाग जाए या पति-पत्नी में मार-पिटाई हो या पत्नी रूठ कर मायके चली जाए या कोई अनैतिक कर्म में लिप्त पाया जाए तो ये घटनाएं हफ्तों चर्चा में रहती हैं। इसलिए मीडिया वाले जानते हैं कि इस तरह की खबरों के दर्शक और पाठक बड़ी तादाद में होते हैं। इन्हें ह्यूमन इन्टेªस्ट स्टोरी’ज कहा जाता है। इसका मतलब ये नहीं कि किसी की कमजोरी को उछाल कर मजा लिया जाए। यहां इसका उल्लेख करने का आशय यही है कि यदि कोई महिला अपने ऊपर हो रहे अत्याचारों की शिकायत खुलकर करना चाहती है और उसे मीडिया पर आने में कोई संकोच नहीं है तो उसे अपनी स्थिति से निपटने में मीडिया की खासी मदद मिल सकती है। ऐसा कदम उठाने से पहले उस महिला को खूब सोच विचार लेना चाहिए। अपने शुभचिन्तकों, मित्रों और परिवार की राय सलाह भी ले लनी चाहिए। जहां तक सम्भव हो बड़ी सावधानी से अपने ऊपर हो रहे अत्याचार के प्रमाण जमा करते जाना चाहिए ताकि समय पर काम आ सकें। ये प्रमाण अपने पास न रखकर किसी मित्र के पास रखे जाएं तो बेहतर होगा। कहीं अत्याचारी ससुराल वालों को ये पता चल गया कि उनके विरुद्ध ऐसे प्रमाण इकट्ठा किए जा रहे हैं तो वे धोखे से उसकी जान भी ले सकते हैं। ऐसा कदम उठाने से पहले उस महिला को यह भी सोच लेना चाहिए कि मीडिया की ये चमक-दमक दो चार दिन ही रहती है। फिर बाकी लड़ाई उसे खुद ही लड़नी पड़ती है।
दूसरी तरफ मीडिया की खासकर टी.वी. मीडिया की भूमिका भी काफी महत्वपूर्ण है। निशा की कहानी को जिस तरह मीडिया ने उछाला और उसे जिस तरह जन समर्थन मिला उससे यह सिद्ध हो गया कि ऐसी कहानियों के दर्शक भारी मात्रा में हैं। इसलिए टी.वी. मीडिया को अब कुछ और कदम उठाने चाहिए। मसलन अपने चैनल पर वे एक फोन नम्बर प्रसारित कर सकते हैं जिस पर मुसीबत ज़दा महिलाओं को सम्पर्क करने की छूट हो। हो सकता है कि मीडिया वालों को ये काम बवाल का लगे। ऐसे प्रश्न उठाये जा सकते हैं कि हमारा काम खबर देना है महिला उत्थान करना नहीं। ये भी कहा जा सकता है कि इस तरह की सेवाएं प्रदान करने से न्यूज चैनल पर खर्चे का अतिरिक्त भार पड़ जायेगा। इसलिए जरूरी नहीं कि सब शहरों में ये फोन सुविधा दी जाए या चैबीस घन्टे दी जाए। कुछ खास शहरों में हफ्ते में दो घन्टे की अगर ये टेलीफोन सेवा दी जाए तो यातना भोग रही लड़की टी.वी. पर फोन नम्बर देखकर अपनी सुविधा अनुसार सूचना टी.वी. चैनल तक भिजवा सकती हैं। इस तरह इतनी सारी रोचक खबरें टी.वी. चैनल तक आने लगेंगी कि उन्हें कवर करना भारी पड़ जायेगा। फिर आज की तरह नहीं होगा जबकि सभी न्यूज चैनल एक समय में लगभग एक सी खबर दिखाते हैं। और उन्हीं को बार बार दोहराकर खबरों को उबाऊ बना देते हैं।
देश में जब पहली बार 1989 में मैंने हिन्दी में स्वतन्त्र टी.वी. समाचारों का निर्माण शुरू किया और उन्हें कालचक्र वीडियो कैसेट के नाम से देश की वीडियो लाइबे्ररियों में भेजा तो पूरे देश में हंगामा मच गया। कारण यह था कि दूरदर्शन सामाजिक मुद्दों पर केवल चर्चाएं करवाता था जो काफी उबाऊ होती थीं। हमने यह नया प्रयोग किया कि हम टी.वी. कैमरा लेकर बाहर निकले और लोगों के बीच जाकर घटनाओं को कैमरे में सजीव कैद किया। हमारी हर रिपोर्ट तथ्यात्मक होने के साथ ही काफी तीखी और धारदार होती थी। यही वजह है कि कालचक्र वीडियो के प्रचार प्रसार के लिए धेले पैसे का वजट न होने के बावजूद कालचक्र वीडियो मैगजीन पूरे देश में एक जाना हुआ नाम हो गई थी। महिलाओं के हक को लेकर जैसी सम्वेदनाील रिपोर्ट हमनें 1989 से 1992 के बीच दिखाईं वैसी रिपोर्ट आज भी टी.वी. चैनलों पर दिखाई नहीं दे रही हैं। जबकि आज हर चैनल के पास साधनों की कोई कमी नहीं है। हमारे पास आज के न्यूज चैनलों के मुकाबले एक फीसदी साधन नहीं थे। फिर भी हमारी रिपोर्ट पर देश में काफी बवाल मच गया। अखबारों और पत्रिकाओं के पन्ने भर जाते थे हमारी रिपोर्ट पर खबरे देने में। इसलिए मैं अनुभव और विश्वास से कह सकता हूं कि महिलाओं के हक में अगर टी.वी. मीडिया बहादुरी से और रचनात्मक मनोवृत्ति से सक्रिय हो जाए तो दोनों का लाभ होगा। न्यूज चैनल का भी, क्योंकि उसके पास खबरों का अकाल नहीं रहेगा और दर्शकों की संख्या बढ़ेगी। समाज का भी जिसकी सताई हुई महिलाओं को भारी नैतिक समर्थन और हिम्मत मिलेगी। इस तरह जो जनचेतना फैलेगी वह दूर तक समाज के हित में जायेगी। पर साथ ही कुछ सावधानियां बरतने की भी जरूरत है।
उत्साह के अतिरेक में कई बार टी.वी. रिपोर्टर बहुत बचकाना व्यवहार कर बैठते हैं। मसलन जिसके घर में मौत हुई है या और कोई दुखद हादसा हुआ है उसकी मनोदशा का विचार किए बिना सवालों की झड़ी लगा देना और जवाब देने के लिए पीछे पड़ जाना बहुत असम्वेदनशील लगता है। ऐसे टी.वी. रिपोर्टरों के ऊपर उस परिवारजनों को ही नहीं दर्शकों को भी खीझ आती है। अच्छी टी.वी. रिपोर्ट तैयार करने के लिए कुछ होमवर्क करना होता है। अगर रिपोर्टर में परिपक्वता है तो वह बड़ी शालीनता से सब कर सकता है। खबर दिखाने के उत्साह में ऐसा कुछ नहीं करना चाहिए जिससे उस परिवार को क्षति पहुंचे। हां, अपराधियों के साथ कोई लिहाज करने की जरूरत नहीं। पर इसका फैसला कुछ मिनटों में घटनास्थल पर जाकर नहीं किया जा सकता कि कौन अपराधी है और कौन नहीं। इसलिए शक की गुंजाइश भी रखनी चाहिए। दूसरी सावधानी इस बात की भी बरतनी होगी कि लोकप्रियता हासिल करने की चाहत में कहीं कोई महिला गलत आरोप तो नहीं लगा रही है। इसलिए उसके आरोपों को लेकर उसके निकट के सामाजिक दायरे में पूछताछ करके तथ्यों की जानकारी हासिल की जाए तो इस सम्भावना से बचा जा सकता है। वैसे समय और अनुभव धीरे-धीरे सब सिखा देता है।
जिस देश में संसद महिलाओं को उनका राजनैतिक हक देने में संकोच कर रही है और महिला आरक्ष्ण बिल बार बार टाला जा रहा हो और देश की बड़ी बड़ी नामी-गिरामी योद्धा महिलाएं भी अपना हक लेने में नाकामयाब हो रही हैं वहां निशा जैसी महिलाएं टी.वी. चैनलों की मदद से समाज में क्रांति ला सकती हैं। पूरे समाज में महिलाओं के विरुद्ध काम करने वाली मानसिकता को झकझोर सकती हैं। महिला पर अत्याचार करने वालों के दिल में खौफ पैदा कर सकती हैं। यह टी.वी. न्यूज चैनलों की बड़ी उपलब्धि है। पर यह उपलब्धि उनके कन्धों पर बहुत बड़ी जिम्मेदारी भी डाल रही है। उम्मीद है भविष्य में इसमें और भी निखार आयेगा। हमें सभी टी.वी. सम्वाददाताओं को शुभकामना ओर आशिर्वाद देना चाहिए कि वे केवल खबर के ढिंढोरची न बन कर समाज के सुधार में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाले निमित्त बन सकें।