Friday, October 4, 2002

बसपा की रैली और अडवाणी जी


बसपा की रैली में भाजपा के वरिष्ठ नेता और उप प्रधानमंत्री श्री लाल कृष्ण आडवाणी का जाना एक महत्वपूर्ण घटना मानी जा रही है। भाजपा के आलोचक जहां इसे राजनैतिक दाव-पेंच मान कर इसकी आलोचना कर रहे हैं वहीं उत्तर प्रदेश के हिंदू समाज में आडवाणी जी के इस कदम को एक सकारात्मक कदम माना जा रहा है। अयोध्या मामले में जिस कानूनी अड़चन के चलते आडवाणी जी, डा. मुरली मनोहर जोशी और सुश्री उमा भारती पर मुकदमा नहीं चल सका उस अड़चन को दूर करने का अधिकार उ.प्र. की मौजूदा मुख्यमंत्री सुश्री मायावती के पास है। अगर वे अनुमति दे देती तो इन नेताओं के लिए बड़ा संकट खड़ा हो जाता। पर उ.प्र. में मायावती की सरकार भाजपा की बैसाखी पर टिकी है इसलिए इस तरह का अनुमति देने का मतलब होता कि अपने पांव पर ही कुल्हाड़ी मारना।

पिछले अनुभवों से अब सुश्री मायावती ज्यादा व्यवहारिक और गंभीर हो गई हैं। भाजपा के साथ जुड़े रहने के अतिरिक्त अब उनके पास कोई विकल्प भी नहीं है। इसलिए इन राजनेताओं पर मुकदमा चलाने की अनुमति उन्होंने नहीं दी और यह कह कर पल्ला झाड़ लिया कि सीबीआई चाहे तो मुकदमा चला सकती है। इसलिए भाजपा के आलोचक आरोप लगा रहे हैं कि आडवाणी जी का बसपा की रैली में जाना सार्वजनिक रूप से सुश्री मायावती के प्रति कृतज्ञता ज्ञापन करना था। इस आरोप में कुछ सच्चाई हो सकती है। पर यह कोई ऐसा अनैतिक और बड़ा अपराध नहीं है जिसके लिए आडवाणी जी को कटघरे में खड़ा किया जाए। एक दूसरे की संकट में मदद करना राजनीति में आज आम बात होती जा रही है। ऐसे तमाम उदाहारण है जब हाल ही के वर्षों में पारस्परिक विरोधी विचारधाराओं वाली राजनैतिक दलों ने भी संकट की घड़ी में अपने प्रतिद्धंदी का साथ दिया। अगर ऐसा न होता तो पिछले 55 वर्षों में सैकड़ों राजनेता विभिन्न अपराधों में सजा भुगत रहे होते। अयोध्या मामले में आडवाणी जी पर साजिश करने का आरोप लगाया जाता है। उनके आलोचक ये कहते नहीं थकते कि उन्होंने देश में साम्प्रदायिक तनाव पैदा कर नाहक अयोध्या मसले को खड़ा किया। इसलिए उन्हें बहुत बड़ा अपराधी मानते है। जबकि दूसरी तरफ देश का बहुसंख्यक हिंदू समाज ऐसा नहीं मानता। उसे लगता है कि अगर आडवाणी जी ने रामरथ यात्रा न की होती तो शायद हिंदू समाज इस तरह राष्ट्र के स्तर पर एक जुट न हो पाता और धर्मनिरपेक्षता के नाम पर मुस्लिम साम्प्रदायिकता का शिकार होता रहता। इसलिए आडवाणी जी की एक राष्ट्रीय नेता के रूप में हिंदू समाज में अच्छी छवि है। सच्चाई तो यह है कि हिंदू धर्म के मानने वाले जो लोग उनकी आलोचना करते हैं वे ऐसा इसलिए नहीं कि उन्होंने हिंदुत्व के मुद्दों को उठा कर कोई गलत काम किया है बल्कि इसलिए कि सत्ता में आने के बाद आडवाणी जी हिंदू समाज के लिए वह सब नहीं कर रहे जिसकी उनसे अपेक्षा थी।

जहां धर्मनिरपेक्षतावादी आडवाणी जी को सामाजिक एकरसता के लिए सबसे बड़ा खतरा मानते हैं वहीं बहुसंख्यक हिंदू समाज को लगता है कि इस्लामिक आतंकवाद और साम्प्रदायिकता से लड़ने के लिए आडवाणी जी को बहुत ही आक्रामक रूख अपनाना चाहिए। राजग की साझी सरकार होने के कारण ऐसा करना आडवाणी जी के लिए संभव नहीं है। इसलिए हिंदू समाज में कभी-कभी हताशा के स्वर भी मुखर हो जाते हैं। आज पूरी दुनिया में इस बात पर आम सहमति है कि आतंकवाद की जड़ में है मुसलमानों की जेहादी मानसिकता। भारत का इतिहास ऐसे उदाहरणों से भरा पड़ा है जब हिंदू समाज, उसके साहित्य और सांस्कृतिक धरोहरों को मुसलमानों के बर्बर और विध्वंसक हमलों का शिकार होना पड़ा। फिर भी धर्मनिरपेक्षता की दुहाई देने वालों में हिंदू सबसे आगे रहते हैं। ये हिंदू मानसिकता का ही परिणाम है। गुजरात में अक्षरधाम जैसी घटना अगर किसी मस्जिद में हो गई होती तो हजारों हिंदू धर्मनिरपेक्षतावादी मोमबत्ती का जुलूस लेकर सड़कों पर निकल पड़े होते। पर अक्षरधाम के वीभत्स हत्याकांड पर इनके स्वर मुखर नहीं हुए। दूसरी तरफ मुसलमान आतंकवादी सारी दुनिया में आए दिन तबाही मचा रहे हैं पर मुस्लिम समाज उनकी आलोचना में ऐसी तत्परता नहीं दिखाता जैसी हिंदू अपने समाज के विरूद्ध दिखाते हैं।

इस्लाम के मानने वालों की जहनियत ही ऐसी है कि वे तर्क करने या प्रश्न करने की जुर्रत नहीं करते। उन्हें फतवा जारी होने का डर हमेशा बना होता है। सलमान रश्दी जैसा कोई विरला अगर ऐसा कर भी दे तो उसे ताउम्र जान छिपाते भागना पड़ता ह। ऐसी कट्टरपंथी मानसिकता से त्रस्त होकर ही भारत का शांतिप्रिय हिंदू समाज अब उठ खड़ा हुआ है और संगठित हो रहा है। यह सही है कि भाजपा उनकी मंशा के अनुरूप शासन नहीं दे पाई है। भाजपा के नेता न तो व्यवहार कुशल हैं और नाही प्रशासनिक अनुभव से कांग्रेसियों से श्रेष्ठ हैं। इतना ही नहीं उनका अहंकारी स्वभाव उन्हें मीडिया से भी दूर करता जा रहा है। जबकि सुपर पावर अमरिका के राष्ट्रपति रहे रीचर्ड निक्सन तक ने  दुनिया के राष्ट्राध्यक्षों को यह सलाह दी थी कि वे किसी भी महत्वपूर्ण पत्रकार की उपेक्षा न करें, वरना उन्हें अपने पद से हाथ धोना पड़ सकता है। पर भाजपा के नेता व मंत्री केवल अपनी प्रशंसा ही सुनना चाहते हैं- आलोचना नहीं। जबकि पूरी दुनिया में मीडियाकर्मियों की वृत्ति होती है कि वे सत्ताधीशों को उपदेश देना चाहते हैं। सत्ताधीश उन उपदेशों को माने या न माने पर उनसे यह अपेक्षा की जाती है कि वे मीडियाकर्मियों के प्रति विनम्रता का भाव रखेंगे। ऐसी तमाम कमजोरियों के बावजूद अगर भाजपा टिकी हुई है तो इसका कारण यह है कि हिंदू समाज को अभी भी यह लगता है कि भाजपा में लाख बुराई सही पर एक अच्छाई जरूर है कि वह हिंदू समाज के साथ डट कर खड़ी है। आडवाणी जी का बसपा की रैली में जाना भी हिंदू समाज में एक सकारात्मक कदम माना जा रहा है। इन लोगों को आश्चर्य है कि, ‘तिलक, तराजू और तलवार, इनको मारो जूते चार’, का नारा देने वाली मायावती ने तिलक और तराजू का प्रतिनिधित्व करने वाली भाजपा के सबसे ताकतवर व वरिष्ठ नेता श्री लाल कृष्ण आडवाणी जी को ही अपनी रैली में भाषण देने क्यों आमंत्रित किया ? हिंदू समाज को लगता है कि इससे एक नई पहल होगी और सर्वणों से कट गया दलित समाज का एक बड़ा अंग पुनः नजदीक आएगा। इन लोगों को लगाता है कि आडवाणी जी की इस यात्रा के बाद मायावती व भाजपा के संबंध और प्रगाढ़ होंगे और भविष्य में होने वाले चुनावों में यह गठबंधन नए रंग दिखाएगा और इस तरह पुनः हिंदू समाज का धु्रविकरण होगा। राजनैतिक रूप से यह प्रक्रिया बड़े दूरगामी नतीजे ला सकती है। अगर ऐसा होता है तो विपक्षी दलों में काफी खलबली मच जाएगी। इस बात की काफी संभावना है कि भाजपा और बसपा के गठबंध को किसी भी तरह से तोड़ने का प्रयास किया जाए। इस मायने में आडवाणी जी का बसपा की लखलऊ रैली में जाना एक महत्वपूर्ण कदम था। अब दीवारों में लिखी इबारत साफ पढ़ी जा सकती है।

जरूरत इस बात की है भाजपा से जुड़े संस्कारवान और विचारवान लोग दलित समाज में व्याप्त भ्रांतियों को दूर करें। उन्हें धर्म की सही व्याख्या बताएं। उन्हें बताएं कि कोई जन्म से क्षूद्र नहीं होता। भागवतम् के अनुसार तो हर व्यक्ति का जन्म ही क्षूद्र के रूप में होता है। क्रमशः ज्ञान और संस्कार बढ़ते जाने पर उसके वर्ण की भी उन्नति होती जाती है। भगवान् गीता में कहते मैं कि मैंने चारो वर्णों की सृष्टि की है और उन्हें गुण और कर्म के अनुसार बांटा है- जन्म के नहीं। भक्ति काल के अनेक संतों और भगवत् भक्तों ने अपने भजनों के माध्यम से समाज की विषमताओं को कम करने का प्रयास किया था। उनकी शिक्षाएं आज भी सार्थक हैं। बंगाल में जन्में श्री चैतन्य महाप्रभु ने तो यवनों और हरिजनों तक को दीक्षा देकर उन्हें ब्राहम्ण के पद तक पहुंचा दिया था। आज भी देश और विदेशों में फैले गौडि़य सम्प्रदाय के मंदिरों में भगवान के विग्रहों की सेवा करने वाले पुजारी आवश्यक नहीं कि ब्राहम्ण ही हों। वे हरिजन या यवन परिवार में जन्में भी हो सकते हैं। समाज में समरूपता लाने के लिए महान् संतों और जागरुक लोगों की ऐसी दिव्य वाणी को जन-जन के बीच प्रसारित करने की आवश्यकता है। भाजपा और बसपा मिल कर यह काम बहुत अच्छी तरह कर सकती हैं। इससे समाज का दीर्घकालिक लाभ होगा।

बाबा साहब भीमराव अम्बेडकर के प्रति सुश्री मायावती का स्नेह सर्वविदित हैं। पर जरूरत इस बात की है कि दलित समाज अंधकार से बाहर निकले और यह देखे कि डा. अम्बेडकर से कई सौ वर्ष पहले से ही भारत के अनेक संतों और समाज सुधारकों ने इस समस्या के निदान के तमाम ठोस और सफल प्रयास किए थे। इसलिए द्वेष से ज्यादा प्रेेम की भाषा बोलने से दोनों ही समाजों को लाभ मिलेगा। इसलिए सोची-समझी रणनीति के तहत एक व्यापक अभियान चलाने की जरूरत है, ताकि समाज में एकरसता आए और हिंदू समाज अपने धर्म और संस्कृति को अपने बूते पर सुरक्षित रखने की सामथ्र्य विकसित करे। इस तरह आडवाणी जी की लखनऊ यात्रा ने नई संभावनाओं के द्वार खोल दिए हैं। इस नई उपजी स्थिति से सकारात्मक कदम भी उठाए जा सकते हैं और इसे मात्र राजनैतिक स्टंट मान कर खारिज भी किया जा सकता है। यह तो देखने वाले की भावना और भविष्य में आने वाले परिणामों से ही पता चल पाएगा कि बसपा की रैली में जाकर आडवाणी जी ने गलत किया या सही ?

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