एन्थोनी गोल्डस्मिथ का यह कथन महत्वपूर्ण है कि, ”तीसरे विश्वयुद्ध की यह खासियत होगी कि इसका उल्लेख किसी इतिहास की पुस्तक में नहीं होगा।“ यह सच्चाई है कि अगर तीसरा विश्वयुद्ध होता है तो पूरी दुनिया में आणविक हथियारों की मार से ऐसी तबाही मचेगी कि इतिहास लिखने के लिए कोई जिन्दा ही नहीं बचेगा। आज पूरी दुनिया की निगाह व्हाइट हाउस पर टिकी है। वहां क्या विचार चल रहा है ? क्या अमरीका वाकई लम्बी लड़ाई लड़ने जा रहा है ? अगर हां, तो यह लड़ाई कब शुरू होगी और कब तक चलेगी ? इस लड़ाई की रणभूमि क्या होगी ? भारत पर इसका क्या असर पड़ेगा ? पाकिस्तान इस लड़ाई मे कहां खड़ा होगा ? इससे पहले कि हम मौजूदा हालात पर चिन्तन करें, बेहतर होगा कि युद्ध के बारे में हम कुछ दार्शनिकों की सुप्रसिद्ध उक्तियों को याद कर लें। हैरोडोट्स ने कहा था कि, ”शांति काल में पुत्र पिता को दफनाते हैं जबकि युद्ध काल में पिता पुत्रों को दफनाते हैं।“ इसी तरह विक्टर ह्यूगो का कहना है कि यह कैसा विरोधाभास है, ”एक युद्ध की सफलता का आकलन इस बात से किया जाता है कि उसने कितना विध्वंस किया।“ कुछ दिन पहले तक लग रहा था कि अमरीका, अफगानिस्तान और उसके समर्थक देशों पर भारी हमला शुरू करने वाला है, पर अब कुछ दूसरी तरह के संकेत मिल रहे हैं।
वल्र्ड टेªड सेन्टर, पेन्टागन आदि पर घातक हमला करके आतंकवादियों ने अमरीकी स्वाभिमान को झकझोर दिया। उनकी आर्थिक और सैन्य शक्ति के गढ़ को ध्वस्त करके आतंकवादियों ने यह बता दिया है कि दुनिया की एकमात्र सुपर पावर अमरीका की सुरक्षा अभेद नहीं है। इस अपमान का बदला लेने को अमरीका का नेतृत्व ही नहीं बल्कि आम जनमानस भी पूरी तरह से उत्तेजित है। उधर अफगानिस्तान के सदियों से लड़ने वाले कबिलाई लोग अमरीका की धमकी से बेखौफ हैं। पिछले बीस वर्ष में अफगानिस्तान की भारी तबाही हुई। अब उनके पास गंवाने को कुछ भी महत्वपूर्ण नहीं है। अफगानिस्तान की पहाडि़यां और वहां के पठानों का लड़ाकू जज्बा किसी भी आक्रमणकारी को भारी पड़ता रहा है। अंगे्रजों ने भी जब यह देख लिया कि अफगानिस्तान को जीतना संभव नहीं है तो उन्होंने अफगानियों के बीच कबिलाई झगड़े करवा कर उन्हें कमजोर किया। अपुष्ट खबरे मिल रही हैं कि अमरीका के कुछ रणनीतिकारों का मानना है कि अमरीका को चाहिए बजाय अफगानिस्तान पर सीधा हमला करने के उसके लालची, घमंडी और लड़ाकू अमीरों को मोटी रिश्वत देकर अफगानियों के बीच आपसी लड़ाई करवायें। इससे अमरीका को कई लाभ होंगे। एक तो बिना जानमाल बर्बाद किए ही अफगानिस्तान की तबाही सुनिश्चित हो सकेगी। दूसरा अमरीका आतंकवादियों खासकर कट्टरपंथियों का कोप भाजन नहीं बनेगा। तीसरा उसके अपने इलाके में आतंकवादी हमलों की सम्भावनाएं काफी कम हो जायेंगी। इस तरह उसका मकसद भी पूरा हो जायेगा और बिना ज्यादे घाटे के वह अपने दुश्मन को औकात बता सकेगा। पर क्या ऐसा होगा ? इस विषय पर मिलीजुली राय है। जिनके परिवार के सदस्य 11 सितम्बर को अकाल काल के गाल में समा गये, वे जाहिरन अपराधियों को सज़ाये मौत दिलवाना चाहते हैं। पर इसमें शक नहीं कि यदि यह लड़ाई छिड़ी तो अमरीका का जनजीवन भी भारी खतरे में फंस जायेगा। जहां मैकेनिक भी दूसरे शहर कार मरम्मत करने हवाई जहाज से जाता हो, जहां हवाई यात्रा आम बात हो वहां हवाई यात्रा ही अगर खतरे में पड़ जाये तो सारा जनजीवन ही रुक जायेगा। मौजूदा हालात में दुनिया का हर हवाई जहाज एक उड़ता हुआ बम है जिसे कोई भी सिरफिरा आतंकवादी किसी भी भवन पर ले जाकर विस्फोट कर सकता है। कितनी भी सुरक्षा क्यों न हो अमरीका की परिवहन व्यवस्था और गगन चुम्बी अट्टालिकाओं का अस्तित्व ऐसे युद्धकाल में भारी खतरे के बीच रहेगा। लोग ऊंची इमारतों में जाने से डरेंगे। न जाने कब क्या हादसा हो जाए। जब हमले की कार्यवाई शुरू भी नहीं हुई तभी मैनहेट्टन शहर में अफरा-तफरी मची है। हर दिन किसी न किसी बड़ी इमारत में बम रखे होने की अफवाह से वहां भगदड़ मच जाती है। युद्धकाल में तो ऐसी घटनाएं आए दिन होंगी। फिर कैसे जनजीवन सामान्य तरीके से चल पायेगा ?
दूसरी तरफ अगर अमरीका कुछ नहीं करता तो न सिर्फ उसकी जनता उत्तेजित होगी बल्कि आतंकवादियों के हौसले भी बेइन्तहा बढ़ जायेंगे। इसीलिए दुनिया का लगभग हर सभ्य समाज अमरीका की सैनिक कार्यवाई का समर्थन कर रहा है। साथ ही दुनिया में आतंकवाद को बढ़ाने में अमरीका की भूमिका को ही याद किया जा रहा है। सब जानते हैं कि ओसामा विन लादेन अमरीका के इशारों पर काम करता था। आज वही उनका जानी दुश्मन बना हुआ है। मुसलमान देशों के लोग आरोप लगाते हैं कि रूस के पतन के बाद अमरीका ने पूरी दुनिया में अपने डंडे का जोर चला रखा है। इन मुसलमानों का कहना है कि अमरीका को उसके किए की सजा मिली है। इसलिए उनके यहां जश्न का माहौल है। फिलहाल तो यही लगता है कि अमरीका आतंकवादियों के ठिकानों पर हमला करने में झिझकेगा नहीं। हां, यह बात दूसरी है कि ये हमले प्रतीकात्मक ही हों। इस बात का दोनों पक्षों को डर है कि इस युद्ध में आणविक हथियारों का प्रयोग हो सकता है। कहीं ये हथियार सिरफिरे आतंकवादियों के हाथ लग गये तो वे पूरी दुनिया में तबाही मचा देंगे। समझदार मुसलमान 11 सितम्बर की कार्यवाई को उचित नहीं मानते। वे इसे इस्लाम के सिद्धांन्तों के विरूद्ध भी मानते हैं। साथ ही वे याद दिलाते हैं कि आज अपने निर्दोष अमरीकी नागरिकों की हत्या पर आंसू बहाने वाले अमरीका ने अमरीका के मूल निवासी रैड इंडियन्स को किस बेदर्दी से मार डाला था। हजारों रैड इंडियन्स की अमानवीय हत्या करके उनकी जमीन और उनके संसाधनों पर कब्जा जमा लिया था। ये लोग यह आरोप भी लगाते हैं कि पिछले कुछ वर्षों में जिस तरह अमरीका हर क्षेत्रीय संघर्ष में बिन बुलाए दखल देता है और दादागिरी करता है उससे दुनिया के छोटे देशों के लोग उससे चिढ़ने लगे हैं। दूसरी तरफ सारी दुनिया में आतंकवाद के पीछे मुसलमान नौजवानों की बढ़ती संख्या को देखकर गैर-इस्लामी देश व कुछ इस्लामी देश भी चिंतित हैं और इसे रोकना चाहते है। वे आतंकवाद को निर्मूल करने के लिए कड़े से कड़ा कदम उठाने की सलाह दे रहे हैं। इसलिए पूरी दुनिया में आक्रोश, भय, उत्सुक्ता और तनाव का वातावरण है।
प्रश्न उठता है कि क्या अमरीका यीशू मसीह के बताये करुणा के सिद्धान्त का पालन करके इन कार्यवाहियों के दोषी लोगों या उन्हें संरक्षण देने वालो देशों को माफ करने को तैयार है ? अमरीका का जनमत सर्वेक्षण इसके विरुद्ध है। सवाल यह भी उठता है कि आतंकवाद से यह लड़ाई कितने दिन चलेगी ? आतंकवाद कोई एक देश की सरकार तो है नहीं, जिससे लड़कर निपट लिया जाये। आतंकवाद तो किसी एक नेता या एक संगठन से बंधा हुआ नहीं है। इसके सदस्य धर्म में अपनी दृढ़ आस्था से प्रेरित हैं। वे मजहब के नाम पर बड़ी से बड़ी कुर्बानी देने को तैयार हैं। ऐसे आत्मघाती, जुझारू नौजवानों की फौज से जूझने का मतलब होगा एक लम्बे युद्ध की तैयारी। जिनका कोई एक देश या ठिकाना तो है नहीं जहां हमले करके उन्हें परास्त कर दिया जाए। सारी दुनिया में फैले सिरफिरे आतंकवादी कभी भी कहीं भी हमला बोलने में सक्षम हैं चाहे इससे उन्हें कुछ भी हासिल न हो। इसलिए कुछ लोगों का यह भी कहना है कि अमरीका उत्तेजना में अपरिपक्व कार्यवाई न करे। पर इसका अर्थ यह नहीं कि आतंकवादियों के आगे घुटने टेक दिए जाऐं। जरूरत तो आतंकवाद को निर्मूल करने की है। पर हर कार्यवाई काफी सोच-समझ कर करनी चाहिए। भारत के लोगों को इस बात की शिकायत है कि जब दाउद इब्राहिम के लोगों ने 1993 में मुम्बई में बमों की श्रृंखला खड़ी कर दी थी और भारी तबाही मचाई थी तब अमरीका ने आतंकवाद के विरुद्ध निर्णायक युद्ध का ऐलान क्यों नहीं किया ? कश्मीर में पाकिस्तान समर्थित आतंकवाद अब तक हजारों बेगुनाहों को मौत के घाट उतार दिया तब अमरीका क्यों चुप रहा ? तमाम प्रमाण हैं यह सिद्ध करने के लिए कि इस आतंकवाद को पाकिस्तान से सीधा समर्थन मिलता रहा है। दरअसल तो पाकिस्तान को वर्षों पहले आतंकवादी देश करार दे दिया जाना चाहिए था। फिर भी अमरीका पाकिस्तान से क्यों मदद मांग रहा है। भारतीयों के मन में यह आशंका भी है कि कहीं अमरीका भारत का इस्तेमाल करके अपना काम निकलवाकर चला न जाये। पीछे से भारत इस बात पर हाथ मलता रह जाये कि वे इस प्रक्रिया में कुछ भी हासिल न कर पाए - न तो कश्मीर में शांति और न पाकिस्तान को सबक। इतने सारे पेंच हैं कि गुत्थी आसानी से सुलझने वाली नहीं। इन हालातों में लगता तो नहीं कि तीसरे विश्वयुद्ध के आसार बनेंगे, बाकि वक्त ही बतायेगा। पर इसमें शक नहीं कि कट्टरपंथी आतंकवाद को अगर आज कुचला न गया तो भविष्य में ये लोग किसी को चैन से जीने न देंगे।
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