आरएसएस के नए सरसंघ चालक श्री केएस सुदर्शन जी का ताजा बयान आरएसएस के भविष्य की ओर संकेत करता है। इस बयान को पढ़कर लगता है कि अपने गंभीर और चिंतनशील व्यक्तित्व के अनुरूप सुदर्शन जी संघ को जुझारू तेवर की तरफ मोड़ने की तैयारी कर रहे हैं। संघ के सर्वोच्च पद की कमान संभालते ही उन्होंने वाजपेयी सरकार के आर्थिक सलाकारों पर करारा प्रहार किया है। उन्हें तुरंत हटाए जाने की मांग की है और भरत झुनझुनवाला जैसे स्वदेशी अर्थव्यवस्था के समर्थक अर्थशास्त्रिायों की सलाह पर ध्यान देने की बात कही है। इसके साथ ही उन्होंने संविधान को पूरी तरह बदलने की आवश्यकता पर भी जोर दिया है। उन्होंने लघु और कुटीर उद्योगों और समाज के शोषित व पीडि़त वर्ग के साथ हो रही ना इंसाफी से भी निपटने की जरूरत पर बल दिया है। सुदर्शन जी जैसा व्यक्तित्व जिसने अपना पूरा जीवन त्यागमय सादगी से राष्ट्र को समर्पित कर दिया हो, जिसने राष्ट्र के हित को सर्वोपरि रखते हुए परिवार के बंधन में न बंधने की कसम खाई हो, जिसने पद, प्रशस्ति और पारितोषित की अपेक्षा के बिना केवल राष्ट्रनिर्माण की भावना से सारा जीवन काम किया हो, उसका उद्बोधन राजनैतिक बयानबाजी कतई नहीं हो सकता। उनके एक-एक शब्द में इस राष्ट्र के प्रति चिंता और पीड़ा झलकती है। इसलिए उनके इस बयान का काफी महत्व है। इससे पता चलता है कि संघ का नया नेतृत्व देश की वर्तमान व्यवस्था से संतुष्ट नहीं है। हालात से समझौता करना उसकी मजबूरी है। क्योंकि उन्हें पता है कि अल्पसंख्यक सरकार और राज्य सभा में बहुमत का अभाव भाजपा सरकार को वह सब कुछ नहीं करने देगा जिसकी उससे अपेक्षा थी। यह मजबूरी भी सुदर्शन जी के बयान में साफ दिखाई देती है। यानी संघ का नया नेतृत्व केवल भावनाओं के प्रवाह में बह कर अव्यवहारिक अपेक्षाओं को नहीं पाल रहा है। बल्कि संजीदगी से मौजूदा स्थिति का मूल्यांकन करते हुए, जो अधिकतम संभव है, उसकी अपेक्षा रखता है। संघ के नेतृत्व के नजरिए में यह परिवर्तन गत दो वर्ष में, केंद्र में अपनी समर्थित सरकार को चलाए जाने के दौरान आए अनुभवों के आधार पर आया है।
कैसी विडंबना है कि राष्ट्र और समाज के जिन मुद्दों को लेकर संघ का नेतृत्व चिंतित हैं उन्हीं मुद्दों को लेकर महात्मा गांधी के अनुयायी भी उतने ही चिंतित हैं। उन्हीं मुद्दों को लेकर देश के धुर-वामपंथी या नक्सलवादी भी चिंतित हैं। उन्हीं मुद्दों को लेकर वे लोग भी चिंतित हैं जो समाज के पीडि़त और शोषित वर्ग के हक की लड़ाई लड़ रहे हैं। फर्क इतना सा है कि जहां संघ की अंतरधारा सत्तारूढ़ भाजपा से जुड़ी है वहीं स्वदेशी के हामी बाकी के इन समूहों के कंधों पर ऐसा कोई भार नहीं है। शायद इसीलिए वे ज्यादा जुझारू और उन्मुक्त हैं। पर यहां जो बात आम आदमी की समझ में नहीं आती वह यह है कि इन विभिन्न वैचारिक धाराओं के बावजूद जब इन सभी के दिमाग में भारत की आर्थिक संरचना का स्वरूप लगभग एकसा है, जब इन सभी का लक्ष्य भारत को आत्मनिर्भर और सुदृढ़ राष्ट्र बनाना है, जब ये सभी बढ़ते उपभोक्तावाद से चिंतित हैं, जब ये सभी भू-मंडलीयकरण और बहुराष्ट्रीय कंपनियों के मकड़ जाल से भारत को बाहर निकालने के पक्षधर हैं, तो क्या वजह है कि ये सारे जुझारू संगठन किसी आम सहमति के मसौदे पर एकजुट होकर व्यापक जन आंदोलन नहीं छेड़ते ? शायद इसलिए कि इनमें पारस्परिक अविश्वास है। इनमें से हर समूह दूसरें को शक की निगाह से देखता है और उसे निहित स्वार्थों के हितों का मुखौटा मानकर चलता है। सब एक दूसरे पर छिपे राजनैतिक एजेंडा होने का आरोप भी लगाते हैं। केवल एक मुद्दा ऐसा है जिस पर ईमानदार लोगों के बीच भी स्वभाविक मतभेद है और वह है आध्यात्मिकता का सवाल। जहां गांधीवादी और संघी लोग राजनीति का आधार अपने अपने तरीके का अध्यात्म बनाना चाहते हैं, वहीं वामपंथियों को अध्यात्म से साम्प्रदायिकता की बू आती है। चूंकि यह बहस शाश्वत है इसलिए इसका तुरत-फुरत समाधान नहीं निकल सकता है। इसलिए यह जरूरी है कि इस सवाल को फिलहाल एक तरफ रख दिया जाए। केवल आर्थिक और सामाजिक प्रश्नों को लेकर पारस्पिरिक संवाद स्थापित किया जाए और साझी रणनीति बनाए कर एक न्यूनतम साझे कार्यक्रम पर राष्ट्र को आंदोलित किया जाए। चूंकि सुदर्शन जी के पास इस वक्त इस किस्म का सबसे बड़ा संगठन है इसलिए उन पर ही यह नैतिक जिम्मेदारी आन पड़ती है। वे ही इसकी पहल करें तो बात कुछ बन सकती है। चूंकि उनके संगठन को परोक्ष रूप से वर्तमान सरकार का समर्थन प्राप्त है इसलिए सबसे ज्यादा शंका और आरोपों को सामना भी उन्हें ही करना होगा। बावजूद इसके अगर वे दूसरे वैचारिक समूहों को यह विश्वास दिला सकें कि आर्थिक और सामाजिक मामलों पर बुनियादी सवालों को लेकर उनकी समझ और दृष्टि में कोई खोट नहीं है, तो शायद वे इन दूसरे वैचारिक समूहों को किसी साझे मंच पर लाने में कामयाब हो सकेंगे। सुदर्शन जी को चाहिए कि वे समाज और राष्ट्र के प्रति समर्पित ऐसे सभी वैचारिक समूहों को इस बात से आश्वस्त करें कि आर्थिक और सामाजिक प्रश्नों पर उनका संगठन अपना दूरगामी एजेंडा नहीं थोपेगा। वे यह भी बताएं कि उनका मकसद किसी भी ऐसे संगठन या समूह का शोषण करके अपना राजनैतिक आधार मजबूत करना नहीं है। उन्हें मौजूदा परिस्थिति कीे भयावहता की दुहाई देकर इन समूहों और संगठनों को बताना चाहिए कि छोटे मुद्दों पर पारस्परिक संघर्ष में ऊर्जा बर्बाद करने से कहीं बेहतर होगा कि अपनी ताकत उन शक्तियों के विरूद्ध मोड़ी जाए जो भारत का दोहन करके इसकी हालत अफ्रीकी या लातनी अमेरीकी देशों के तरह कर देने पर तुली हैं। यदि सुदर्शन जी ऐसा कर पाए तो इसके दूरगामी परिणाम होंगे। इससे एक ऐसा दबाव समूह विकसित होगा जो मौजूदा और भावी सरकारों की नीतियों पर अंकुश का काम करेगा। जहां एक तरफ यह जिम्मेदारी सुदर्शन जी की है कि वे विभिन्न वैचारिक समूहों को एक साझे मंच पर ला कर इस लड़ाई को आगे बढ़ाएं वहीं बाकी के समूहों से भी यह अपेक्षा की जाती है कि वे हालात की नजाकत को देखते हुए ‘मैं ठीक बाकी गलत’ की मानसिकता से बाहर निकलें और अपने संगठनों का आत्म-मूल्यांकन करें। यह देखें कि पिछले वर्षों में उनकी तमाम कोशिशों के बावजूद उनकी उपलब्धियां क्या उल्लेखनीय रही हैं ? क्या वे अपने संघर्षों और अभियानों को अपेक्षित सफलता दिला पाने में कामयाब हुए हैं ? क्या उनको मिली सफलता राष्ट्र के सामने खड़ें संकट की तुलना में कुछ अहमियत रखती है ? अगर इन प्रश्नों के उत्तर नकारात्मक हैं तो उनके लिए भी यह चिंता का विषय होना चाहिए। इस तरह ‘नौ दिन चले अढ़ाई कोस’ की गति से वे कैसे अपनी मंजिल पा सकेंगे? कब तक वे यूं ही छोटे-छोटे स्थानीय संघर्षों में उलझ कर बड़े लक्ष्यों को कुर्बान कर देंगे ? क्या वे दानवीय शक्तियों की क्षमता से नावाकिफ हैं ? क्या वे मानते हैं कि जो दुनिया में अन्यत्रा नहीं हो सका, वे उसे कर दिखाएंगे ? क्या उन्हें अभी भी यह भ्रम है कि उनके पूर्वजों द्वारा प्रतिपादित क्रांति इस देश में हो पाएगी ? अगर नहीं तो फिर इस मिथ्या स्वाभिमान और मिथ्या आत्मविश्वास से उन्हें निराशा ही हाथ लगेगी। इसलिए राष्ट्रहित में ऐसे साझे मंच पर खडे़ होना उनके लिए भी घाटे का सौदा नहीं होगा।
यहां यह उल्लेख करना अप्रासांगिक नहीं होगा कि संघ नेतृत्व बार-बार यह दोहराता रहा है कि उनका लक्ष्य केंद्र व राज्य में सरकारें चलाना नहीं बल्कि राष्ट्र का निर्माण करना है। जिसकी प्राप्ति के लिए वे कोई भी कुर्बानी देने के लिए तैयार हैं। फिर चाहे वो उनके द्वारा समर्थित किसी सरकार की हो या उस सरकार में महत्वपूर्ण पदों पर बैठे किसी व्यक्ति की हो। अगर यह उद्घोषणा आरएसएस के उच्च नैतिक आदर्शों के अनुरूप की गई है तो संघ पर शक करने की कोई वजह नहीं रह जाती। पर शक तब तक किया जाएगा जब तक इस उद्घोषणा का धरातल पर क्रियान्वयन देश देख नहीं लेता। कुछ मुद्दों पर अगर संघ कड़ा रूख अपना कर सरकार को घुटने टेकने पर मजबूर कर दे तो उसकी विश्वसनीयता कई गुना बढ़ जाएगी। यहां यह सावधानी भी बरतनी होगी कि यह मुद्दे संघ के छिपे एजेंडे से न होकर उस एजेंडे से हो जिस पर साझी सहमति है। देश के जंगल, जल और जमीन से जुडे़ ऐसे तमाम सवाल हैं जिन पर संघ को अनेक वैचारिक समूहों का समर्थन मिलेगा। यह बात सुदर्शन जी अच्छी तरह जानते हैं। इसलिए उनसे अपेक्षा की जाती है कि अपनी नई भूमिका में वे कुछ ऐसे ही बुनियादी सवालों को उठाकर संघ और जन आंदोलनों को नई दिशा देने में कामयाब होंगे। अगर वे ऐसा नहीं कर सके तो वे इस मुल्क में अपनी ऐतिहासिक भूमिका निभाने से वंचित रह जाएंगे। तब उनकी दशा भी उन वयोवृद्ध समाजसुधारकों और राजनेताओं जैसी होगी जो पूरे जीवन भर अपने उच्च नैतिक मूल्यों के कारण समाज में सम्मान तो पाते रहे हैं पर समाज के लिए कुछ कर नहीं पाए। ऐसे तमाम लोग बड़ी आसानी से यह कह कर चुप बैठे हैं कि, ‘इस मुल्क में अब कुछ नहीं हो सकता।’ ऐसा कहने वालों में साम्यवादियों से लेकर कांग्रेसी और भाजपाई नेता तक भी शामिल हैं। माना जाना चाहिए कि सुदर्शन जी ऐसे अच्छे किंतु नाकारा लोगों की जमात में खड़ा होना पसंद नहीं करेंगे। वे अपने लंबे सामाजिक जीवन के अनुभव के आधार पर संघ को जुझारू तेवर भी देंगे और नई दिशा भी ताकि संघ भाजपा का पिछलग्गू संगठन न रह कर राष्ट्रनिर्माण का अगुआ बनें।
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