Monday, January 9, 2017

कहां चली गयी सिविल सोसाइटी



भ्रष्टाचार के विरूद्ध कुछ वर्ष पहले पूरे हिंदुस्तान में तूफान खड़ा करने वाली सिविल सोसाईटी अचानक कहां गायब हो गई। यह एक नई बात यह दिख रही है कि स्वयंसेवी सामाजिक संगठन अचानक निष्क्रिय हो गये हैं। यह अनुमान लगाना मुश्किल है कि ये निष्क्रियता अस्थायी  है या किसी थकान का नतीजा है। दोनों स्थितियां एक साथ भी हो सकती हैं। क्योंकि देश में सामाजिक क्षेत्र में काम कर रही तमाम गैर सरकारी संस्थाएं पिछले दो दशकों से वाकई जबर्दस्त हलचल मचाए हुए थीं। आजकल वह हलचल लगभग ठप है। चाहे भ्रष्टाचार हो, चाहे पर्यावरण हो या दूसरी सामाजिक समस्याएं उन्हें लेकर आंदोलनों, विरोध प्रदर्शनों और विचार विमर्शो के आयोजन अब दुर्लभ हो गए हैं।

महंगाई, बेरोजगारी, बंधुआ मजदूरी, महिलाओं पर अत्याचार, प्रदूषण, भ्रष्टाचार को लेकर जंतर मंतर पर होने वाले प्रतीकात्मक धरनों प्रदर्शनों की संख्या में आश्चर्यजनक कमी आयी है। क्या ये सोच विचार का एक मुददा नहीं होना चाहिए। और अगर सोचना शुरू करेंगे तो देश में राजनीतिक और सामाजिक वातावरण में आए बदलावों को सामने रखकर ही सोचना पड़ेगा। खासतौर पर इसलिए क्योंकि दो-तीन साल में एक बड़ा बदलाव केंद्र में सत्ता परिवर्तन हुआ है। उसके पहले भ्रष्टाचार के खिलाफ एक लंबा जन जागरण अभियान चलाया गया था। ज्यादातर राजनीतिक विश्लेषक मानते ही हैं कि पूर्व सरकार की छवि नाश करने में उस अभियान ने सबसे बड़ी भूमिका निभाई थी। वह सामाजिक आंदोलन या जन आंदोलन सिर्फ विरोध करने के लिए भी नहीं था। उस आंदोलन में बाकायदा एक मांग थी कि भ्रष्टाचार के खिलाफ लोकपाल का कानून बनाया जाए। यानी सामाजिक संस्थाओं ने बाकायदा एक विशेषज्ञ के किरदार में आते हुए लोकपाल को सबसे कारगर हथियार साबित कर दिया था।

बहरहाल सत्ता बदल गई। नए माहौल में वह आंदोलन भी ठंडा पड़ गया। दूसरे छुटपुट आंदोलन जो चला करते थे वे भी बंद से हो गए। और तो और मीडिया का मिजाज भी बदल गया। यानी लोकपाल को लेकर बात आई गई हो गई।

इन तथ्यों के आधार पर क्या हम यह निष्कर्ष नहीं निकाल सकते कि सामातिक संस्थाएं और मीडिया इतना असरदार होता है कि वह जब चाहे जिस समस्या को जितना बड़ा बनाना चाहे उतना बड़ा बना सकता है। और जब चाहे उसी समस्या को उतना ही छोटा भी बना सकता है। इसका मतलब यह निकाला जा सकता है कि बिना लोकपाल का गठन हुए ही भ्रष्टाचार कम या खत्म हो गया है। इसीलिए शायद सामाजिक संगठनों ने अब आंदोलन करना बंद कर दिया है। पर ऐसा नहीं है। फिर इस निष्क्रियता से क्या सिविल सोसाइटी की विश्वसनीयता पर प्रश्नचिह्न नहीं लग जाता है। लेकिन मौजूदा माहौल ही कुछ इस तरह का है कि इन मुद्दों पर बात नहीं हो रही है।

लेकिन इतना तय है कि भ्रष्टाचार और कालेधन पर जितना कारगर आंदोलन तीन-चार साल पहले चला था, उस दौरान हम विरोध के नए और कारगर तरीके जान गए थे। अभी भले न सही लेकिन जब भी माहौल बनेगा वे तरीके काम में लाए जा सकते हैं। यह भी हो सकता है कि भ्रष्टाचार के खिलाफ उन तरीकों को एक बार अपनाए जाने के बाद उनकी धार कुंद पड़ गई हो। लेकिन दूसरे और मुददों के खिलाफ वैसे आंदोलन और हलचल पैदा करना सीखा जा चुका है। अब देखना यह होगा कि सामाजिक संगठन भविष्य में अगर फिर कभी सक्रिय होते हैं तो वे किस मुददे पर उठेंगे।

सामाजिक संगठनों के लिए बेरोजगारी और महंगाई और प्रदूषण जैसे मुददे आज भी कारगर हो सकते थे। लेकिन देश में पिछले दो महीने से नोटबंदी ने कामधंधे और खेती किसानी के अलावा और कोई बात करने की गुंजाइश ही नहीं छोड़ी है। देश में उत्पादन बढ़ाने के काम में सामाजिक संगठन ज्यादा कुछ कर नहीं सकते। कुछ भी करने के लिए अगर कुछ करना हो तो स्वयंसेवी संस्थाएं आर्थिक क्षेत्र में सरकारी नीतियों और कार्यक्रम बनवाने में हस्तक्षेप की भूमिका भर ही निभा सकती हैं। लेकिन यह काम इतनी विशेषज्ञता का काम है कि अपने देश में सामाजिक क्षेत्र की गैर सरकारी संस्थाएं ऐसे विशेषज्ञ कार्य में ज्यादा सक्षम नहीं हो पाई हैं। वैसे भी इस तरह के कामों में सामजस्यपूर्ण व्यवहार की दरकार होती है। जबकि पिछले दो दशकों में हमने अपनी स्वयंसेवी संस्थाओं को सिर्फ विरोध और संघर्ष के व्यवहार में अपना ही विकास करते देखा है।

देश के मौजूदा हालात में जब मीडिया ही अपने लिए सुरक्षित खबरों और चर्चाओं को ढूंढने में लगा हो तो इस मामले में स्वयंसेवी संस्थाओं के सामने तो और भी बड़ा संकट है। ये संस्थाएं अब प्रदूषण जैसी समस्या पर भी अपनी सक्रियता बढ़ाने से परहेज कर रही हैं। दरअसल नदियों की साफ-सफाई का काम शहर-कस्बों में गंदगी कम करने के काम से जुड़ा है। यानी प्रदूषण की बात करेंगे तो देश में चालू स्वच्छता अभियान में मीनमेख निकालने पड़ेंगे और किसी भी मामले में मीनमेख निकालने का ये माकूल वक्त नहीं है।

कुल मिलाकर स्वयंसेवी संस्थाओं को काम करने की गुंजाइश पैदा करना हो तो उन्हें उन क्षेत्रों की पहचान करनी होगी जिनमें मौजूदा सरकार से संघर्ष की स्थिति न बनती हो। आज की स्थिति यह है कि जो भी संघर्ष के किरदार में दिखता है वह सरकार के राष्ट्र निर्माण के काम में विघ्नकारी माना जाने लगा है। एक बार फिर दोहराया जा सकता है कि सामाजिक क्षेत्र में काम करने वाली संस्थाओं के सामने मुददों का संकट खड़ा हो गया है।

Monday, January 2, 2017

मोदी का विकल्प क्या है?




इसमें शक नहीं की मोदी की शख्सियत ने राजनीति और मीडिया के दायरों को बुरी तरह हिला दिया है | दूसरी तरफ देश की आम जनता इस उम्मीद में बैठी है कि मोदी की नीतियाँ उनके दिन बदल देंगीं, यानी उनके अच्छे दिन आने वाले हैं | ये वो जमात है जिसे आजतक हर प्रधान मंत्री ने सपने दिखाए | पंडित  नेहरु ने योजना बद्ध विकास की बात की तो इंदिरा गाँधी ने गरीबी हटाओ का नारा दिया | राजीव गांधी ने इक्कीसवीं सदी में ले जाने का सपना दिखाया  तो विश्वनाथ प्रताप सिंह ने भ्रष्टाचार मिटाने का | मतलब यह कि हर बार आम जनता सपने देखती रह गई और उसकी झोली में इंतज़ार के सिवा कुछ ऐसा न  गिरा जो उसकी जिंदगी बदल देता | अब नरेंद्र भाई मोदी की बारी है | समय बतायेगा कि वे आम जनता को कब तक और कैसी राहत देना चाहते हैं | तब तक इंतज़ार करना होगा|

एक दूसरी जमात है जिनके पिछले 69 सालों में अच्छे दिन चल रहे थे, उन्हें मोदी से जरूर निराशा हुई है | ये वो जमात है जिन्होने सरकार को टैक्स देना कभी जरूरी नहीं समझा, जबकि ये लोग साल भर में हर शहर में हज़ारों करोड़ रूपये का व्यापार कर रहे थे | एक समुदाय विशेष तो ऐसा है कि जिसके इलाके में अगर कोई आयकर या बिक्रीकर अधिकारी गलती से भी घुस जाय तो उसकी जमकर धुनाई होती थी | कई सरकारों ने इस जमात को हमेशा अपने दामाद की तरह समझा | उनकी जा और बेजा हर बात को बर्दाश्त किया, चंद वोटों की खातिर |

अच्छे दिनों को जीती आई इसी जमात में देश के राजनेता और नौकरशाही भी आते हैं,  जिन्होंने आम जनता को लूट कर आज तक बहुत अच्छे दिन देखे हैं | पर ये जमात अभी मोदी जी के काबू में नही आयी है | नोटबंदी की इन पर कोई मार नहीं पड़ी | जबकि आम जनता हर तकलीफ सह लेगी अगर उसे लगे कि इस जमात के भी नकेल पड़ी है |

इसके बावजूद अगर लोग देश में सुविधाओं के अभाव का तो रोना रोते रहें और देश के सुधार के लिए कर भी न देना चाहें तो कैसे सुधरेंगे देश के हालात ? इसलिए मोदी सरकार का कर के मामले में कड़े और प्रभावी कदम उठाना निहायत ही जरूरी है | दबी ज़बान से तो अब व्यापारी वर्ग भी यह मानने लगा है कि अगर उचित दर पर कर देकर उसका बकाया धन ‘सफेद’ हो जाय तो उसकी स्थिति आज से बेहतर हो जाएगी |

पर इस बात पर भी देश में आम राय है कि पूरा भारतीय समाज अभी डिजिटल होने के लिए तैयार नहीं है | हालंकि जैसा हमने पिछले कॉलम में लिखा था कि अगर मोदी मुस्तफा कमाल पाशा की तरह कमर कस लें तो शायद वे कामयाब हो सकते हैं |

पर इसके साथ ही नौकरशाही के प्रति प्रधान मंत्री मोदी के अगाध प्रेम को लेकर भी समझदार लोगों में भारी चिंता है | जिस नौकरशाही ने पिछले 69 वर्षों में अपना रवैय्या नहीं बदला, तो वह रातों रात कैसे बदलेगी ? अगर वेतनभोगी नौकरशाही इतनी ही ईमानदार और कर्तव्यनिष्ठ होती तो भारत आज तक जाने किस उंचाई तक पहुंच गया होता ? इसलिए मोदी जी के शुभचिंतकों की सलाह है कि वे किसी भी वर्ग के प्रति इतने आश्वस्त न हों | बल्कि वैकल्पिक विचार और नीति निर्धारण व क्रियान्वन के लिए नौकरशाही के दायरे के बाहर निकलें और अपने-अपने क्षेत्र में स्वयंसिद्ध लोगों को नीति और योजना बनाने के काम में जोड़ें, जिससे बदलाव आये और संतुलन बना रहे | इसके साथ ही मोदी जी के मित्रों की एक सलाह और भी है कि मोदी जी धमकाने की भाषा कंजूसी से प्रयोग करें और देश को आश्वस्त करें कि उनका उद्देश्य कारोबारों को नष्ट करना या धीमा करना नहीं है, बल्कि ऐसे हालात पैदा करना है जिसमे छोटे से छोटा उद्द्यामी और व्यापारी सम्मान के साथ जी सके । पर इस दिशा में अभी कुछ भी ठोस नहीं हुआ है |

मगध साम्राज्य का मौर्य राजा अशोक, भेष बदल कर, बिना सुरक्षा के देश के किसी भी हिस्से में पहुँच जाता था और अपने शासन के बारे में जनता की बेबाक राय जानने की कोशिश करता था| जिससे उसकी नीतियाँ जनता के हित में हों | मोदी जी को भी अपने शुभचिंतकों के मन से यह भय निकलना पड़ेगा कि अगर वे अप्रिय सत्य भी बोलते हैं तो मोदी जी उनका सम्मान करेंगे |

जिन समस्याओं से देश आज गुजर रहा है | जिस तरह का अंतर्राष्ट्रीय परिदृश्य है उसमे भारत को एक मजबूत नेत्तृत्व की जरूरत है | मोदी जी उस कमी को पूरा करते हैं | इसलिए लोगों को उनसे उम्मीदें हैं | केंद्र और प्रान्त के स्तर पर दलों के भीतर जैसी उठा-पटक आज हो रही है | उसमें क्या किसी दल के पास मोदी से बेहतर विकल्प उपलब्ध है ? भाई-भतीजावाद और सरकारी साधनों की लूट से ग्रस्त ये दल मोदी का कैसे मुकाबला कर सकते हैं ? जिसकी ‘जोरू न जाता-राम जी से नाता’| मोदी जी को अपने बेटे-बेटी के लिए न तो आर्थिक साम्राज्य की विरासत छोडनी है और न ही राजनैतिक विरासत | जो कुछ करना है वह अपने जीवन काल में ही करना है। बेशक इंसान से गलतियाँ हो सकती हैं, पर तभी तो वो इंसान है, वरना भगवान न बन जाता| आज जरूरत इस बात की है कि मोदी जी दो सीढ़ी नीचे उतर कर सही लोगों के साथ देश हित में सम्वाद कायम करें और उस आधार पर नीतियां बनाएं| उधर उनके आलोचकों को भी समझना चाहिए जो उर्जा वे मोदी का मजाक उड़ने में या उनकी कमियां निकालने में लगाते हैं, उसे अगर ठोस सुझाव देने में लगाएं और वो  सुझाव सुने जाएँ, ऐसा माहोल बनाये तो देश का ज्यादा भला होगा |

Monday, December 19, 2016

बाबा रामदेव से इतनी ईष्र्या क्यों?



जब से बाबा रामदेव के पातंजलि आयुर्वेद का कारोबार दिन दूना और रात चैगुना बढ़ना शुरू हुआ है तब से उनसे ईष्र्या करने वालों की और उनकी आलोचना करने वालों की तादात भी काफी बढ़ गयी है। इनमें कुछ दलों के राजनेता भी शामिल है। इनका आरोप है कि बाबा प्रधानमंत्री मोदी की मदद से अपना आर्थिक साम्राज्य बढ़ा रहे हैं। उनके उत्पादन गुणवत्ता में खरे नही हैं। उन्होंने विज्ञापन बांटकर मीडिया का मुंह बंद कर दिया है। वे राज्यों में भारी मात्रा में जमीन हड़प रहे हैं। 

नेताओं के अलावा संत समाज के कुछ लोग भी बाबा रामदेव की आर्थिक प्रगति देखकर दुखी हैं। इनका आरोप है कि कोई योगी व्यापारी कैसे हो सकता है? कोई व्यापारी योगी कैसे हो सकता है? इसमें विरोधाभास है। बाबा केसरिया बाना पहनकर उसका अपमान कर रहे हैं। केसरिया बाना तो वह सन्यासी पहनता है जिसकी सारी भौतिक इचछाऐं अग्नि की ज्वालाओं में भस्म हो चुकी हों। जबकि बाबा रामदेव तो हर इच्छा पाले हुए है। उनमें लाभ, लोभ व प्रतिष्ठा तीनों पाने की लालसा कूट-कूट कर भरी है।     

ऐसे आरोप लगाने वाले नेताओं से मैं पूछना चाहता हूं कि सत्तर और अस्सी के दशक में श्रीमती इंदिरा गांधी के योग गुरू स्वामी धीरेन्द्र ब्रह्मचारी ने जब दिल्ली में, गुड़गाव के पास, जम्मू में और कश्मीर के उधमपुर के पास पटनीटॉप में सैकड़ों करोड़ का साम्राज्य अवैध कमाई से खड़ा किया था, हवाई जहाजों के बेड़े खरीद लिए थे, रक्षादृष्टि से वर्जित क्षेत्र में सड़कें, होटल, हवई अड्डे बना लिये थे, तब ये नेता कहां थे? क्या ये कोई अपना कोई बयान दिखा सकते हैं जो उन्होंने उस वक्त मीडिया को दिया हो? जबकि रामदेव बाबा का साम्राज्य तो वैध उत्पादन और चिकित्सा सेवाओं को बेचकर कमाये गये मुनाफे से खड़ा किया गया है। धीरेन्द्र ब्रह्मचारी का साम्राज्य तो अंतरराष्ट्रीय रक्षा सौदों में दलाली से बना था। ये बात उस समय की राजनैतिक गतिविधियों पर नजर रखने वाले बताते थे।

रही बात बाबा रामदेव के उत्पादनों की गुणवत्ता की तो ये ऐसा मामला है जैसे ‘मियां बीवी राजी तो क्या करेगा काजी’। जब ग्राहक संतुष्ट है तो दूसरों के पेट में दर्द क्यों होता है? मै भी पूरें देश में अक्सर व्याख्यान देने जाता रहता हूं और होटलों के बजाय आयोजकों के घरों पर ठहरना पसंद करता हूं। क्योंकि उनके घर का वातावरण मुझे होटल से ज्यादा सात्विक लगता है। इन घरों के बाथरूम में जब मैं स्नान को जाता हूं, तो यह देखकर आश्चर्य होता है कि जहां पहले विदेशी शैम्पू, साबुन, टूथपेस्ट आदि लाईन से सजे रहते थे, वहां आज ज्यादातर उत्पादन पातंजलि के ही दिखाई देते है। पूछने पर घर के सदस्य बताते हैं कि वे बाबा रामदेव के उत्पादनों से कितने संतुष्ट है। क्या ये बात हमारे लिए गर्व करने की नहीं है कि एक व्यक्ति ने अपने पुरूषार्थ के बल पर विदेशी कंपनियों के सामने इतना बड़ा देशी साम्राज्य खड़ा कर दिया? जिससे देश में रोजगार भी बढ़ रहा है और देश का पैसा देश में ही लग रहा है। सबसे बड़ी बात तो ये कि बाबा के उत्पादन बहुराष्ट्रीय कंपनियों के उत्पादन के मुकाबले कहीं ज्यादा किफायती दाम पर मिलते हैं। वे भी तब जबकि बाबा हर टीवी चैनल पर हर वक्त विज्ञापन देते हैं।

यहां भी बाबा ने विज्ञापन ऐजेंसियों को मात दे दी। उन्हें किसी मॉडल की जरूरत नहीं पड़ती। वे खुद ही माँडल बन जाते हैं। इससे सबसे ज्यादा सम्मान तो महिलाओं का बढ़ा है क्योंकी अब तक् होता यह आया था कि साबुन और शैम्पू का ही नहीं बल्कि मोटरसाइकिल और मर्दानी बनियान तक का विज्ञापन किसी अर्धनग्न महिला को दिखाकर ही बनाया जाता था। इस बात के लिए तो भारत की आधी आबादी यानी मातृशक्ति को मिलकर बाबा का सम्मान करना चाहिए।

रही बात संत बिरादरी में कुछ लोगों के उदरशूल की। तो क्या जरी के कपड़े पहनकर, आभूषणों से सुसज्जित होकर, मंचों पर विवाह पंडाल जैसी सजावट करवाकर, भागवत की नौटंकी करने वाले धर्म का व्यापार नहीं कर रहे? क्या वे शुकदेव जी जैसे वक्ता हैं? या हम सब परीक्षित महाराज जैसे विरक्त श्रोता हैं? धर्म का व्यापार तो सभी धर्म वाले करते हैं। जो नहीं करते वे हिमालय की कंदराओं में भजन करते हैं। उन्हें होर्डिंग और टीवी पर अपने विज्ञापन नहीं चलाने पड़ते। कोई कथा बेचता है, तो कोई दुखःनिवारण का आर्शावाद  बेच रहा है। बाबा तो कम से कम स्वस्थ रहने का ज्ञान और स्वस्थ रहने के उत्पादन बेच रहे हैं। इसमें कहीं कोई छलावा नहीं। अगर किसी उत्पादन में कोई कमी पाई जाती है तो उसके लिए कानून बने है।

कुल मिलाकर बाबा ने अभूतपूर्व क्षमता का प्रदर्शन किया है। किसी ने उन्हें उंगली पकड़कर खड़ा नहीं किया। वे अपनी मेहनत से खड़े हुए है। उनके साथ आचार्य बालकृष्ण जैसे तपस्वियों का तप जुड़ा है और उन करोड़ों लोगों का आर्शीवाद जिन्हें बाबा से शारीरिक या मानसिक लाभ मिला है। इनमे हर राजनैतिक विचारधारा के लोग शामिल हैं। ऐसे बाबा रामदेव को तो भारत का रत्न माना जाना चाहिए।