Friday, March 5, 2004

भारत में एड्स की समस्या वाकई इतनी गंभीर है


अभी कुछ दिन पहले आंध्र प्रदेश में एक परिवार ने एड्स के खौफ के चलते जान दे दी। डाॅक्टरों ने उसे बताया था कि उसके पूरे परिवार को एड्स हो गया है। इससे परेशान होकर उसे अपने पूरे परिवार को जहर देकर खुद भी आत्महत्या कर ली। यह तो सिर्फ एक मामला है। देश में हर साल सैकड़ों लोग एड्स को लेकर काल के गाल में समा रहे हैं। पिछले कुछ सालों से पूरी दुनिया में एड्स का खौफ बुरी तरह छा गया है। सरकारी और गैर सरकारी आंकड़ों के मुताबिक कुछ एशियाई देशों, जिनमें हमारा भारत भी शामिल है, में एचआईवी पाॅजिटिव रोगियों की तादाद बहुत तेजी से बढ़ती जा रही है। यह बात सही है कि हमारे देश में एचआईवी ग्रस्त मरीजों की संख्या बढ़ी तो है, पर इतनी भी नहीं जितना कि कुछ विदेशी एजेंसिया बता रही हैं। कुछ दिनों पहले अमेरिकी खुफिया एजेंसी सीआईए द्वारा जारी रिपोर्ट में भारत, चीन और रूस जैसे देशों में महामारी जैसी स्थितियां पैदा होने की बात कही गई थी तो अब पाॅपुलेशन फाउंडेशन आॅफ इंडिया (पीएफआई) नामक विदेशी अनुदान से चलने वाली भारतीय संस्था ने एक चार्ट बुक जारी की है। वास्तव में इस चार्ट बुक में सूचनाओं को जिस तरह से उलटफेर करके दिखाया गया है, उससे तो यही लगता है कि भारत में एड्स की समस्या वास्तव में बहुत ही गंभीर रूप लेती जा रही है। जाने-माने लोगों की प्रबंध समिति वाली पीएफआई ने भारत में एचआईवी मामलों की जो स्थिति दशाई है, वह विशेषज्ञ आधिकारिक संस्था नेशनल एड्स कंट्रोल आॅर्गनाइजेशन’ (नाको) द्वारा बताई गई स्थिति से बिल्कुल उलट है। जहां नाको का दावा है कि देश में एड्स रोगियों की संख्या पिछले चार सालों में सापेक्ष रूप से चालीस लाख के नीचे स्थिर है, वहीं चार्ट बुक में पीएफआई का कहना है कि एचआईवी संक्रमण बहुत तेजी से बढ़ रहा है। पीएफआई की चार्ट बुक में चकित करने वाली बात यह है कि उसने यह जानते हुए भी कि नाको पहले ही दुनिया भर में मौजूद विशेषज्ञों की मदद से सभी आंकड़ों का कैलकुलेशन कर चुका है, उसने आंकड़ों के कैलकुलेशन के लिए अमेरिकी एजेंसी पाॅपुलेशन रिफ्रेन्स ब्यूरो को क्यों शामिल किया? इस संस्था ने नाको के आंकड़ों का इस्तेमाल तो किया, लेकिन शरारतपूर्ण ढंग से गलत और बिगड़े रूप में।
पीएफआई के मुताबिक, भारत में वर्ष 2002 में एचआईवी संक्रमित लोगों की संख्या 45 हजार, 80 लाख हो गई, जबकि इससे पहले यह मात्र 39 लाख 70 हजार थी। सिर्फ एक साल में ही एड्स मरीजों की संख्या में 6 लाख 10 हजार की बढ़ोतरी हुई। इसके विपरीत नाको का कहना है कि देश के एचआईवी संक्रमण के मामलों में कमी आ रही है और हो सकता है आने वाले समय में नए संक्रमणों की संख्या नगण्य हो जाए। दरअसल, इस साल नाको ने एचआईवी संक्रमित लोगों का अनुमान निश्चित संख्या के रूप में न जारी करके एक रेंज में पेश किया है, जिसके अनुसार इसका न्यूनतम स्तर 38 लाख 20 हजार और अधिकतर स्तर 45 लाख तक होने की संभावना है। पीएफआई ने इसी का फायदा उठाते अधिकतम संक्रमण के स्तर को तथ्य के रूप में पेश किया और कहा कि 45 लाख लोग एड्स के साथ जी रहे हैं। अनुमान और संभावनाओं को जान-बूझकर तथ्य के रूप में पेश करने के साथ यह पुस्तक नाको द्वारा स्वीकृत किताब अनुमान प्रक्रिया की सीमाओंको भी अनदेखी करती है। साथ ही बिल गेट्स फाउंडेशन तथा पाॅपुलेशन रिफ्रेन्स ब्यूरो की मदद से एक तथाकथित प्रतिष्ठित संस्थान द्वारा प्रस्तुत और प्रचारित यह पुस्तक आंकड़ों (ेझूठं) की सुविधाजनक प्रस्तुति, शरारतपूर्ण व्याख्या और अति आवेशपूर्ण उद्घोषणाओं का नायाब नमूना पेश करती है।
एड्स के इस गोरखधंधे के खिलाफ आवाज उठाने वाली एक संस्था जे.ए.सी कन्नूर का कहना है कि यह कोशिश दुनिया की बड़ी दवा कंपनियों और अमेरिकी आधिपत्य के लिए काम करने वाली ताकतों की व्यापक साजिश का एक हिस्सा लगती है। जब भारत में एड्स का हौवा खड़ा हो जाएगा, तो सरकार को मजबूरी में इन बड़ी कंपनियों की दवाओं का भारी मात्रा में आयात करना होगा और यह  इन कंपनियों के लिए बड़े मुनाफे का सौदा होगा। मुलोली का यह तर्क इसलिए भी समझ में आता है क्योंकि आंकड़ों के मुताबिक 95 प्रतिशत एचआईवी पाॅजिटिव केस दक्षिण अफ्रीका और भारत जैसे गरीब समझे जाने वाले देशों में है, जबकि अमेरिका और यूरोप आदि संपन्न देशों में इसका प्रतिशत मात्र 5 फीसदी है। इससे यह साबित हो जाता है कि एड्स जैसी बीमारी सिर्फ गरीब देशों के लिए है। अमीर देशों का मकसद सिर्फ एड्स का भय दिखाकर अपनी दवाएं बेचना है।
संस्था का कहना तो यह भी है कि एड्स जैसी कोई बीमारी है ही नहीं, यह तो विदेशी दवा कंपनियों द्वारा गरीब देशों के बाजारों पर कब्जा जमाने के लिए फैलाया गया भ्रम मात्र है। सरकार द्वारा एड्स की जांच के लिए जो टेस्ट कराए जाते हैं, उनमें सबसे पहला एलिजा टेस्ट है। संस्था के संयोजक पुरुषोत्तमन मुलोली का दावा है कि एलिजा टेस्ट एचआईवी और खांसी, टीबी, गर्भावस्था समेत 72 दूसरे मामलों में पाॅजिटिव होता है। इसलिए सिर्फ एलिजा टेस्ट के आधार पर कह देना कि किसी व्यक्ति को एड्स है, सही नहीं होगा। दूसरा एड्स की पुष्टि के लिए वेस्टर्न ब्लोट टेस्ट करवाया जाता है। सरकार का कहना है कि इस टेस्ट के जरिए यह पक्का हो जाता है कि व्यक्ति को एड्स है या नहीं, जबकि मुलोली कहते हैं कि उनकी आपत्ति पर सरकार ने उन्हें यह लिखकर दिया है कि वेस्टर्न ब्लोट टेस्ट से भी एड्स की पूरी तरह पुष्टि नहीं होती। अब तीसरी तरह का पीसीआर टेस्ट, जो डीएनए पर आधारित होने के कारण बहुत महंगा है। इसकी खोज अमेरिका की वैज्ञानिक केरी यूलिक्स ने की थी। इसके लिए उन्हें नोबल प्राइज भी दिया गया था। विदेशी और अब अपनी सरकार भी यह प्रचारित कर रही है कि पीसीआर टेस्ट के जरिए एचआईवी वाइरस को अलग करके पहचाना जा सकता है। पर मुलोली के अनुसार, केरी खुद मानती हैं कि सच नहीं है। इस तरह एड्स कोई बीमारी है, यह अपने आप में एक गड़बड़झाला है। अब सवाल उठता है कि यदि एड्स कोई बीमारी ही नहीं है तो इससे लोगों की मौत कैसे होती है। मुलोली के पास इसका भी जवाब है। वे कहते हैं कि दरअसल एड्स को रोकने के लिए जो दवाइयां दी जाती हैं, वह बहुत ही ज्यादा टाॅक्सिक होती हैं और इन्हीं की वजह से शरीर के अंग खराब हो जाते हैं और व्यक्ति की मौत हो जाती है। बहरहाल, यह चिंतन का अगल मुद्दा है। इस पर व्यापक चर्चा की जरूरत है।
यह सही है कि पिछले कुछ सालों में हमारे देश में एड्स का खौफ बढ़ा है। सरकार और बहुत सी समाजसेवी संस्थाओं द्वारा लाखों-करोडों रुपया पानी की तरह बहाने के बाद लोगों में एड्स के प्रति पूरी तरह जागरूकता नहीं आ पाई है। इसमें कोई दो राय नहीं हो सकती, कि आम भारतीय अपनी सेहत के प्रति उतना सचेत नहीं रहता, जितना कि उसे होना चाहिए। प्राचीन सुसंस्कृत सभ्यता वाले हमारे देश में पुरानी मान्यताओं को दरकिनार करना ही एड्स जैसी महामारियों के पैदा होने का कारण है। पर वेस्टर्न कल्चर के रंग में डूबी नई जेनेरेशन को इस पहलू पर भी ध्यान देना चाहिए कि जिन पद्धतियों को वह दकियानूसी बताकर अपनी जिंदगी से बाहर कर रहे हैं, उन्हीं जीवन पद्धतियों को उनकी आदर्श वेस्टर्न कन्ट्रीज अपना रही हैं। वास्तविकता यह है कि इस तड़क-भड़क और भागमभाग वाली जिंदगी से वह लोग ऊब चुके हैं और अब उन्हें शांति चाहिए, जो उनके पास नहीं। इसीलिए वह भारत की प्राचीन संस्कृति की ओर देख रहे हैं। और हम हैं कि उनकी त्यागी गई माॅडर्न लाइफस्टाइल को अपने जीवन में जगह देते जा रहे हैं। हमारे दूरद्रष्टा ऋषि-मुनियों ने पहले ही इस बात का अंदाजा लगा लिया था कि आगे आने वाले समय में व्यक्ति को अपने मन पर काबू रखना कितना मुश्किल होगा, इसीलिए उन्होंने धर्म को आधार बनाकर सही और गलत को पुण्य और पाप में वर्गीकृत कर दिया। हम चाहें कितने भी माॅडर्न क्यों न हो जाएं, पर कहीं न कहीं हमारे अंदर पाप कर्मों से बचने की इच्छा रहती है। इसलिए एड्स जैसी बीमारियों के उपायों को यदि धर्म और आध्यात्म से जोड़कर प्रचारित किया जाए, तो मेरा मानना है कि इसका ज्यादा असर लोगों के दिलोदिमाग पर पड़ेगा।

Friday, February 27, 2004

उमा भारती का विरोध क्यों


मध्य प्रदेश की मुख्यमंत्री सुश्री उमा भारती ने हिन्दुओं की धर्म नगरियों में अंडा, मांस और शराब की बिक्री प्रतिबंधित करके सराहनीय काम किया है। आश्चर्य है कि उनके इस सही कदम का कुछ राजनैतिक दल विरोध कर रहे हैं। विरोध अगर किसी ठोस कारण से किया जाए, तो कोई हर्ज नहीं। पर विरोध के लिए विरोध करना राजनीति को हास्यास्पद बना देता है। आखिर लोकतंत्र में हर व्यक्ति की भावनाओं की कद्र की जानी चाहिए। दुर्भाग्य से इस देश में वोटों की राजनीति के कारण अल्पसंख्यकों की तो हर जा-बेजा मांग सिर माथे स्वीकार कर ली जाती है। लेकिन बहुसंख्यक हिन्दू समाज की आस्थाओं पर कुठाराघात होता रहता है।

धर्म नगरियां या आस्था के केंद्र चाहे जिस धर्म के हों, मानव समाज को सद्प्रेरणा और मानसिक शांति देते हैं। भौतिक जगत की समस्याओं से पीडि़त लोग धर्म या आध्यात्म की शरण में जाते हैं। कोई उज्जैन में महाकालेश्वर के दर्शन करके अविभूत हो जाता है तो कोई मक्का-मदीना में हज करके। कोई ननकाना साहिब में माथा टेकता है तो वेटिकन सिटी में प्रार्थना करने जाता है। हजारों साल से हर धर्म की मान्यताओं के अनुसार आस्था के केन्द्रों का संरक्षण और संवर्धन वहां के शासक करते आए हैं। पर हिन्दुओं का यह दुर्भाग्य है कि एक हजार वर्ष तक तो मुसलमानों ने उनकी आस्था के केन्द्रों को दबाकर रखा। विनाश किया और हिन्दुओं को धर्म बदलने पर मजबूर किया। बाद में 200 वर्ष विदेशी हुकूमत रही, जिसने वैदिक मान्यताओं का मजाक उड़ाया। यह बात दूसरी है कि आज वही पश्चिमी समाज वैदिक मान्यताओं को विज्ञान की कसौटी पर खरा देखकर भौचक्का है। आजादी मिली तो उम्मीद थी कि अब हिन्दू अपनी धर्म, संस्कृति और आस्था को खुलकर पल्लवित होते देख सकेंगे। पर आजाद भारत में थोप दी गई थोथी धर्मनिरपेक्षता। धर्मनिरपेक्षता के नाम पर अल्पसंख्यकवाद को ही बढ़ावा मिला। जिसकी प्रतिक्रिया स्वरूप संघ, विहिप और भाजपा को हिन्दुओं का समर्थन मिलता चला गया। अगर यह तीनों संगठन पूरी निष्ठा और ईमानदारी से हिन्दुओं के हक में खड़े रहते, तो इन्हें और भी व्यापक सफलता मिलती। पर इनकी ढुलमुल नीतियों ने हिन्दुओं का इनसे मोहभंग कर दिया। अब हिन्दुओं के सामने समस्या यह है कि अगर वो भाजपा के विरुद्ध जाते हैं तो फिर मजबूरन उन्हें छद्म धर्मनिरपेक्षता के खेमे में जाना पड़ेगा। और अगर भाजपा के साथ रहते हैं तो उन्हें कोई ठोस राहत मिलने की उम्मीद नहीं है। इधर कुआं उधर खाई। फिर भी हिन्दुओं का एक बहुत बड़ा वर्ग है जो यह महसूस करता है कि अपनी लाख कमजोरियांे के बावजूद संघ परिवार से जुड़े संगठन कम से कम हिन्दुओं की भावनाओं के प्रति संवेदनशील तो हैं। और यही वो वर्ग है जो भाजपा को टिकाए हुए है।
जब भाजपा के नेता राम जन्मभूमि या गोहत्या या समान नागरिक संहिता जैसे मुद्दों पर ढुलमुल बयानबाजी करते हैं तो बहुसंख्यक हिन्दू समाज क्रोधित भी होता है और दुखी भी। पर जब इनमें से कोई नेता हिम्मत से कुछ ऐसे ठोस कदम उठाता है, जिससे हिन्दुओं की सदियों से दबी भावनाओं को सहारा मिलता है तो वे उसे सिर-माथे पर बिठा लेते हैं। आडवाणी जी ने जब सोमनाथ से राम रथयात्रा शुरू की थी तो उन्हें इसी कारण हिन्दुओं का भारी समर्थन और प्यार मिला। डाॅ. मुरली मनोहर जोशी ने जब पाठ्यक्रमों से छद्म धर्मनिरपेक्षता और माक्र्सवाद से प्रभावित कुछ ऐसे विचारों को अलग किया, जो किसी भी दृष्टि से सत्य के निकट नहीं थे या अर्धसत्य का प्रतिपादन करते थे, तो छद्म धर्मनिरपेक्षतावादियों ने उन पर भगवाकरण का आरोप लगाकर खूब शोर मचाया। पर वे डटे रहे और उनके कृत्यों का परिणाम आने वाले वर्षों में सामने आएगा, जब विद्यार्थियों में अपनी परंपराओं और अपनी मातृभूमि के प्रति हिकारत नहीं, स्नेह और सम्मान का भाव पैदा होगा। इसी क्रम में सुश्री उमा भारती का यह कदम प्रशंसनीय है। भारत ही नहीं विदेशों में बसे हिन्दुओं ने भी उनके इस कदम की प्रशंसा की है। हिन्दु धर्म में बहुत विविधता है, सगुण उपासना से लेकर निरीश्वरवाद तक को यहां स्थान मिला है। इसलिए ऐसा नहीं है कि मांसाहार या शराब पान हिन्दू करते ही न हों। काली पूजा, तांत्रिक अनुष्ठान और जनजातीय देवी देवताओं की पूजा में प्रायः मांस और शराब का प्रयोग होता है। पर बहुसंख्यक हिन्दू समाज शाकाहारी है और मदिरा पान को बुरा समझता है। सच्चाई तो यह है कि भगवान कृष्ण के गीता में दिए गए उपदेश के अनुसार, प्रकृति के तीन गुण, सतोगुण, तमोगुण और रजोगुण हर व्यक्ति में और हर काल में सदैव विद्यमान रहते हैं। इनका पारस्परिक अनुपात बदलता रहता है। जिस तरह सतोगुणी लोगों के लिए सात्विक भोजन, सूर्योदय से पहले स्नान ध्यान और शुद्ध आचार-विचार और त्रिकाल संध्या का प्रावधान है, उसी तरह रजोगुणी लोगों के लिए यज्ञ और अनुष्ठानों का प्रावधान होता है पर जो तमोगुणी है और न तो इतने ज्ञानी हैं कि शास्त्रों को समझ सकें न ही अपने आचरण पर नियंत्रण रख सकते हैं, ऐसे लोगों को  मांस मदिरा दूर रखना संभव नहीं होता, इसलिए उनके लिए तमोगुणी पूजाओं का विधान कर दिया गया कि अगर वे मदिरा भी पिएं और मांस भी खांए तो देवी को चढ़ाकर, जिससे उनके मन के किसी कोने में कहीं तो आध्यात्म की किरण जागे। और इस जन्म में न सही अगले जन्म में वे सतोगुणी विचार के बन सकें। इसलिए यह तर्क देना कि मांस, शराब पर रोक लगाना गलत है, सही नहीं होगा। अब तो वैज्ञानिक रूप से भी सिद्ध हो चुका है कि मांसाहार से शाकाहार ज्यादा स्वास्थ्यकारी है। शराब भी व्यक्ति के स्नायुतंत्र पर बुरा प्रभाव डालती है और उसका मानसिक संतुलन बिगाड़ देती है। शराब के कारखानों से निकलने वाला जहरीला पानी सैकड़ों मील की प्रकृति और पर्यावरण को जहरीला बनादेता है। शराब से तमाम घर बर्बाद हो जाते हैं, इसलिए पूरे देश में न सही, विभिन्न धर्माें के आस्था केंद्रों में तो कम से कम शराब, मांस, अंडे, मछली आदि के क्रय-विक्रय पर रोक लगनी ही चाहिए। ताकि जब कोई अपनी आस्था के सुमन लेकर इन स्थानों पर जाए तो उसकी भावनाएं आहत न हों।
सुश्री उमा भारती में एक खूबी है। वे भक्त भी हैं, उन पर सद्गुरुओं की कृपा भी है और वे जुझारू भी हैं। इन तीन गुणों से सुसज्जित उमा भारती को जब मुख्यमंत्री पद का कार्यभार मिला है तो उम्मीद की जानी चाहिए कि वे कुछ न कुछ ऐसा जरूर करेंगी, जिससे बहुसंख्यक हिन्दू समाज की सदियों से दबी भावनाओं पर मरहम लग सके। इसका अर्थ ये नहीं है कि उमा भारती गैर हिन्दू समाज की भावनाआों को आहत करेंगी। कोई भी राजा या प्रशासक अपनी प्रजा के किसी भी हिस्से को प्रताडि़त करके सफल नहीं हो सकता । उसे तो पूरी प्रजा का ध्यान रखता होता है। दुख की बात है कि इस देश में जो सत्ता में रहते हैं, वो केवल अल्पसंख्यकों को ही पूछते हैं और जब वे सत्ता के बाहर हो जाते हैं तो भी शोर मचाकर बहुसंख्यक हिन्दू समाज के हितों के विरुद्ध ही बोलते हैं। इसके पीछे कोई सद्भावना नहीं, कोई समाज के कल्याण की इच्छा भी नहीं, केवल इतना सा उद्देश्य होता है कि उनका वोट बैंक सुरक्षित रहे। पर उमा भारती जेसी जुझारू युवा महिला को ऐसे विरोध से जूझना आता है। और उम्मीद की जानी चाहिए कि चाहे कितने भी दबाव क्यों न आएं, वे अपनी आस्था और मान्यताओं से डिगेंगी नहीं। और कुछ ऐसा ठोस जरूर करेंगी जिससे मध्य प्रदेश की जनता का दिल जीत सकें। अगर उमा भारती मध्य प्रदेश के बहुसंख्यक हिन्दू समाज को उसकी धार्मिक मान्यताओं के अनुरूप थोड़ी सी भी राहत दे पाती हैं, तो उन्हें देश और विदेश में बैठे सभी हिन्दू धर्मावलंबियों का प्यार मिलेगा। यहां आर्थिक मुद्दों की बात नहीं की जा रही। उस मोर्चे पर सफलता और असफलता की कसौटी पर तो मौजूदा दौर में बहुत कम मुख्यमंत्री खरे उतर पा रहे हैं। वे चाहें किसी भी राजनैतिक दल के हों। जहां तक धार्मिक मोर्चे का सवाल है, उमा भारती को कुछ अनूठा करके दिखाना ही होगा। वही उनकी पहचान है और उसी उपलब्धि से उनकी यह पहचान बनी रह पाएगी।

Friday, January 30, 2004

अपना एजेण्डा क्यों छोड़ रही है बीजेपी


बीजेपी के नेताओं को ये गलतफहमी है कि उनका वोट बैंक भाजपा की धर्मनिरपेक्ष छवि देखना चाहता है। उन्हें शायद ये भी गलतफहमी है कि हाल ही में हुए विधानसभा चुनावों में उन्हें जो कामयाबी मिली, वो विकास के मुद्दे पर मिली। सच्चाई ये है कि भाजपा की आज भी हिन्दूवादी छवि है और उसका जो भी वोटबैंक है, वो उसकी इसी छवि के कारण है। इसलिए भाजपा को अपनी इस छवि से भागना नहीं चाहिए। इसलिए भी कि राजनीति की तमाम मजबूरियों के कारण भाजपा का हिन्दूवाद प्रदूषित भले ही हो गया हो, पर इसमें संदेह नहीं कि भारत की वैदिक संस्कृति ही भारत जैसी विशाल आबादी वाले देश की तमाम समस्याओं का हल है। आवश्यकता उसे सही परिप्रेक्ष्य में समझकर उसके सार्थक सदुपयोग की है। 

पिछले दिनों भारत आए अनेकों प्रवासी भारतीयों ने बताया कि यूरोप और अमरीका में अब गाय के गोबर की खाद में उपजे फल, सब्जी, अनाज की लोकप्रियता बढ़ती जा रही है। पर उनका मूल्य रासायनिक खाद से उपजे फल, सब्जी और अनाज के मूल्य से दस गुना ज्यादा होता है। फिर भी समझदार लोग गोबर की खाद में उपजे पदार्थ ही खाना पसंद कर रहे हैं। यहां तक कि अमेरिका की राजधानी वाॅशिंगटन में दूध भी अब आॅर्गनिक मिलने लगा है। आॅर्गनिक दूध यानी उन गायों का दूध जिन्हें गोबर की खाद से उपजा चारा खिलाया जाता है। रासायनिक खाद और कीटनाशक से उपजा चारा उन्हें नहीं खिलाया जाता। अपनी पिछली यूरोप, अमेरिका यात्रा के दौरान मैं भी कुछ आॅर्गनिक उत्पादनों की दुकानों में गया था। यह देखकर बड़ी खुशी हुई कि वहां गोबर की खाद से उपजे खाद्यान्नों से निर्मित डबलरोटी, बिस्कुट आदि बिक रहे थे, लेकिन जब उनके दाम देखे, तो खरीदने की हिम्मत नहीं पड़ी और उस दुकान में रखे ऐसे विभिन्न उत्पादनों को देखकर ही संतोष कर लिया। पर मन में यह बात जरूर आई कि हमारा कितना दुर्भाग्य है कि जिस कृषि प्रणाली को हम हजारों साल से अपनाते आए थे, उसे पश्चिमीकरण की मार ने पिछले पचास वर्षों में किस बुरी तरह से नष्ट कर दिया है। आज रासायनिक खादों से पैदा अनाज, फल और सब्जियां आकर्षक तो बहुत दिखते हैं, पर स्वाद और तत्व में शून्य हैं। इतना ही नहीं शरीर की प्रतिरोधी क्षमता को ऐसे खाद्यान्नों ने तेजी से घटाया है और अनेक किस्म की खतरनाक बीमारियों को बढ़ाया है। पर हम ऐेसे मूर्ख हैं कि आज भी जागे नहीं हैं। दोहराने की जरूरत नहीं है कि भारतीय वैदिक ज्ञान को किस गंभीरता से अमेरिका, जर्मनी, इंग्लैण्ड और जापान जैसे देशों में पढ़ा और समझा जा रहा है और फिर उस ज्ञान पर आधारित उत्पादनों को रंग-बिरंगे पैकिंग में दस-बीस गुने दाम पर दुनिया के बाजारों में बेचा जा रहा है। यह हमारी बौद्धिक संपदा की खुली लूट का जीता-जागता उदाहरण है। खाद्यान्न ही क्यों, हठ योग और ध्यान के वैज्ञानिक प्रभावों को दुनिया में अब कोई भी चुनौती नहीं देता। चुनौती देना तो दूर अमेरिका की हर गली में योग सिखाने वालों की दुकानें खुली हुई हैं। ऐसे तमाम उदाहरण हैं जिनसे यह सिद्ध होता है कि पश्चिमी संस्कृति से प्रभावित हमारे वैज्ञानिकों और नीति निर्धारकों ने आजादी के बाद भी भारत की इस बौद्धिक विरासत को इसका अपेक्षित स्थान नहीं लेने दिया और पूरे देश पर आधुनिकता और वैज्ञानिकता के नाम पर ऐसा विकास माॅडल थोप दिया, जिससे आम आदमी अपनी जड़ों से कटता चला गया और बाजारी शक्तियों के शिकंजे में कसता चला गया। 

ऐसे माहौल में जब भाजपा ने हिन्दूवाद का झंडा उठाया तो उन सब लोगों को उम्मीद जगी जिन्हें अपनी बौद्धिक विरासत पर विश्वास था और जो उसे पुनः पल्लवित होते देखना चाहते थे। यूं तो महात्मा गांधी की विचारधारा पर इस बौद्धिक विरासत का पूरा का पूरा असर था, पर उनकी रणनीति सौहार्द और समन्वय की थी। इसलिए जनसंघ और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने कई दशकों तक उन पर निशाना साधा और उन्हें अल्पसंख्यकों के तुष्टीकरण के लिए जिम्मेदार ठहराया। जबकि खुद संघ, विहिप और भाजपा ने आक्रामक हिन्दूवाद का तेवर ही अपनाए रखे। उसके इस तेवर से जहां हिन्दू नवजागरण हुआ, वहीं साम्प्रदायिक वैमनस्य भी बढ़ा। इससे भाजपा को अपना वोट बैंक एकजुट करने में मदद मिली। जहां विपक्षी दलों ने धर्मनिरपेक्षता का झंडा उठाकर भाजपा को कटघरे में खड़ा करने की कोशिश की वहीं भाजपा भी रामजन्मभूमि, समान नागरिक संहिता और कश्मीर को विशेष दर्जा न दिए जाने जैसी अपनी मांगों पर अड़ी रही। भाजपा की उत्तरोत्तर प्रगति के पीछे बहुसंख्यक हिन्दू समाज का आक्रोश है। यह आक्रोश इसीलिए बढ़ा कि धर्मनिरपेक्षतावादी मुस्लिम तुष्टीकरण की अपनी नीति छोड़ने को तैयार नहीं थे। गुजरात में भी भाजपा की विजय आक्रामक हिन्दूवाद के कारण ही हुई। लेकिन राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ की विजय ने उसे भ्रमित कर दिया। भाजपा को लगता है कि इन राज्यों में उसकी विजय उसकी आर्थिक नीतियों के कारण हुई है। जबकि सच्चाई यह है कि छत्तीसगढ़ में राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी के चुनाव लड़ने के कारण जोगी की हार हुई। मध्य प्रदेश में सरकार विरोधी जनमानस ने भाजपा को गद्दी पर बिठाया और राजस्थान में नौकरशाही ने गहलौत को हराने में प्रमुख भूमिका निभाई। इसलिए ये विजय भाजपा की नीतियों की विजय नहीं, बल्कि मतदाता की मजबूरी का परिणाम है। भाजपा का मूल चरित्र हिन्दूवादी है और रहेगा। इसमें शर्माने की कोई बात नहीं। सत्ता के लालच में अपने स्वरूप को बदल-बदलकर पेश करने से भाजपा नेतृत्व की गरिमा कम होती है। अपने सिद्धांतों में आस्था रखना और उन पर टिके रहने वाला ही लौह पुरुष कहलाता है। ये सही है कि भाजपा और संघ ने हिन्दूवाद के नाम पर तमाम तरह की नई बातें थोप दी हैं, जिनका कोई वैदिक आधार नहीं है और इसीलिए इन संगठनों में प्रदूषण फैल गया है। अगर ये संगठन वैदिक संस्कृति पर आधारित शुद्ध सनातन धर्म को ईमानदारी से अपनाएं तो इनकी सफलता को कोई रोक नहीं पाएगा। क्योंकि तब ये जो बोलेंगे और करेंगे, वो भारत की आत्मा की आवाज होगी। उस आवाज में आध्यात्मिक बल होगा और सहस्त्राब्दियों के अनुभव का गांभीर्य। ये सही है कि राजनीति में नैतिकता का कोई स्थान नहीं होता। यह भी सही है कि आज के समय में सत्ता हथियाने के लिए हर तरह के हथकंडे अपनाने पड़ते हैं पर जितना ये सही है उतना ये भी सही है कि दुनिया का कोई भी तूफान भारतीय संस्कृति की जड़ों को नहीं उखाड़ पाया। वैदिक शक्ति उस आणविक शक्ति की तरह है जो कुछ शताब्दियों के लिए अगर आंखों से ओझल भी हो जाती है तो फिर एक परमाणु विस्फोट की तरह भूमंडल पर छा जाती है। पिछली सदी विज्ञान और तकनीकी के विकास और उनकी उपलब्धियों से उत्साहित समाज की सदी थी। पर ये सदी उस थोथी वैज्ञानिकता के दुष्परिणामों से निकलने की छटपटाहट में शाश्वत सत्य को खोजने की सदी होगी। शाश्वत सत्य यदि कही है तो वह भारत के वैदिक ज्ञान में है। इसे मूर्ख लोग हर तरह से नीचा दिखाने या दबाने का प्रयास करते हैं। पर बहुत दिनों तक ऐसा नहीं कर पाते। अपनी इस धरोहर की ताकत में विश्वास न रखकर चुनावी नारे अपनाने से और आधारहीन गठजोड़ करने से भाजपा बहुत दूर तक नहीं जा पाएगी। उसे कुछ समय के लिए सत्ता सुख की प्राप्ति भले ही हो जाए, पर वह अपनी पहचान खो देगी। पहचान ही नहीं खो देगी, करोड़ों समर्पित लोगों की भावनाओं को भी ठेस पहंुचाएगी। भाजपा के शासनकाल में तमाम दावों के बावजूद ऐसी कोई आर्थिक उपलब्धि नहीं हुई, जिसने भारत में आधारभूत ढांचे को मजबूत किया हो या अर्थव्यवस्था को स्थायी ताकत दी हो। फील गुड फैक्टरके नाम पर जो कुछ दिखाई दे रहा है, वह केवल सतह पर है। जबकि भाजपा के शासनकाल में बहुसंख्यक हिन्दू समाज की भावनाएं बार-बार आहत हुई हैं। अब उन्हें भाजपा की नीयत पर संदेह होने लगा है। फिर भी वे भाजपा को वोट इसलिए देते हैं कि उनके मन में ये डर बैठा है कि अल्पसंख्यक तुष्टीकरण नीति के समर्थक विपक्षी दल यदि सत्ता में आ गए, तो फिर से बौद्धिक विरासत को ससम्मान आगे बढ़ाने का काम रुक जाएगा। इसलिए वे मजबूर हैं। पर उनकी इस मजबूरी का भाजपा नेतृत्व को दुरुपयोग नहीं करना चाहिए। बल्कि उन्हें ये विश्वास दिलाना चाहिए कि भाजपा अपने मुद्दों पर अटल है और उसके हिन्दूवाद में जो प्रदूषण आ गया है, उसे वह दूर करने को तैयार है। यदि भाजपा नेतृत्व ऐसा नैतिक साहस कर पाए तो उसका जनाधार घटेगा नहीं, बढ़ेगा ही। पर इसके लिए उसे अपनी मौजूदा समझ को बदलना होगा। वरना सत्ता उसे मिल भी जाए, पर जनता का प्यार नहीं मिल पाएगा और यह उसकी ऐतिहासिक भूल होगी।

Saturday, January 24, 2004

केवल भाजपा के विरोध से ही नहीं बनेगी बात


आजकल चुनाव पूर्व गठबंधन का दौर है। श्रीमती सोनिया गांधी से लेकर श्री लालू यादव तक और श्री शरद पवार से लेकर सुश्री मायावती तक धर्मनिरपेक्ष ताकतों को एकजुट होने की अपील कर रहे हैं। श्रीमती गांधी ने पत्रकारों से बात करते हुए कई बार ये कहा है कि हम हर उस दल से बात करेंगे जो भाजपा का विरोध करता हो। अन्य कई नेता भी ऐसी ही भाषा बोल रहे हैं जिसका सार ये है कि भाजपा को हराने के लिए सब एकजुट हो जाएं। ये बड़ी गलत सोच है। इसके खतरनाक अर्थ निकाले जा सकते हैं। पहला तो ये कि भाजपा एक शक्तिशाली दल है, जिससे जूझने की ताकत अब किसी एक दल में नहीं बची। इसलिए छोटे-छोटे दल मिलकर उससे साझा मुकाबला करने की तैयारी कर रहे हैं। इसका दूसरा अर्थ ये निकलता है कि भाजपा हिन्दुओं की धर्म रक्षक पार्टी है और जो दल अल्पसंख्यकों आदि के हितैषी हैं, उन्हें एकजुट हो जाना चाहिए। तीसरा अर्थ ये भी निकलता है कि जनता को क्या मिलेगा, ये प्रश्न इन दलों के लिए महत्वपूर्ण नहीं है, केवल भाजपा को हराना ही एकमात्र ध्येय है। जिस देश की जनता तुलसीदास जी की इस चैपाई से प्रेरणा लेती रही हो कि कोई नृप हो हमें का हानिवो यह सोच सकती है कि भाजपा के हराने या दर्जनों दलों के गठबंधन को जिताने में उसे क्या लाभ? इसलिए ये सोच गलत है। 

पहली बात तो यह भ्रम दूर हो जाना चाहिए कि भाजपा हिंदुओं की रक्षक पार्टी है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से प्रशिक्षण पाकर भी भाजपा में गए नेताओ ंने जितना धर्म विरुद्ध आचरण किया है, उतना तो कभी इंकाई नेताओं ने भी नहीं किया। इसके तमाम उदाहरण हैं, जिनके विस्तार में जाने की आवश्यकता नहीं। जिस तरह कोई भी दल किसी भी विचारधारा को पकड़कर उसका राजनैतिक दोहन करता है और उस विचारधारा के मूल सिद्धांतों की अर्थी निकालने में संकोच नहीं करता, उसी तरह भाजपा भी हिंदू धर्म का दोहन करने वाला एक दल है, जबकि इसके कारनामे ऐसे रहे हैं जिन्होंने हिन्दू समाज का अहित ज्यादा किया है और हित कम। याद दिलाने की जरूरत नहीं है कि हैदराबाद में अल कबीर के कसाईखाने के खिलाफ चल रहे जनांदोलन को विहिप ने किस तरह धोखा दिया। राम जन्मभूमि के नाम पर हर बार चुनावी रोटी सेंकने वाली भाजपा ने बरसों उत्तर प्रदेश पर राज किया, पर इनके राज में मथुरा, वृन्दावन, अयोध्या या ऐसे दूसरे धर्म क्षेत्रों का जैसा विनाश हुआ, वैसा पिछले कई सौ वर्षों में नहीं हुआ। अभी चुनाव तक बहुत मौके आएंगे, जब इन विषयों पर विस्तार से चर्चा की जा सकती है। मौजूदा संदर्भ में इतना ही काफी है कि बार-बार भाजपा को धर्मान्ध या हिन्दूवादी पार्टी बताकर विपक्षी दल भाजपा का बहुत बड़ा फायदा करते हैं। हिन्दुओं के लिए बिना कुछ ठोस किए ही भाजपा उन्हें बरगलाने में सफल हो जाती है और उनकी सहानुभूति बटोर लेती है। जैसा गुजरात में हुआ। अगर भाजपा में वास्तव में राम जन्मभूमि या हिन्दू धर्म से जुड़े सवालों के प्रति ईमानदारी थी, तो पिछले लोकसभा चुनाव या हाल ही संपन्न हुए विधानसभा चुनावों में उसने इन मुद्दों को क्यों नहीं उठाया। जिस तरह दूसरे दल हर चुनाव के लिए कोई नया मुद्दा तलाशते हैं, वैसे ही भाजपा भी चुनाव के माहौल के अनुरूप मुद्दे बदलती रहती है। आज तक हिन्दुओं के नाम पर वोट मांगने वाली भाजपा अब अचानक विकास के नाम पर वोट मांगने लगी है। फील गुडका एक झूठा मायाजाल खड़ा करके लोगों को गुमराह करने की नाकाम कोशिश की जा रही है। ऐसे में विपक्षी दलों  का बार-बार यह कहना कि वे धर्मनिरपेक्ष ताकतों को एकजुट करना चाहते हैं, बड़ा हास्यास्पद और निरर्थक सा लगता है। 

हास्यास्पद इसलिए कि इस देश की बहुसंख्यक जनता धर्मनिरपेक्ष ही है। इसके लिए उसे किसी दल या किसी वाद के ठप्पे की जरूरत नहीं। अगर विपक्षी दलों का चरित्र वाकई धर्मनिरपेक्ष है तो उन्हें इसका ढिंढोरा पीटने की जरूरत नहीं। लोग खुद ब खुद ये फैसला कर लेंगे। निरर्थक इसलिए कि धर्मान्धता या धर्मनिरपेक्षता फिलहाल कोई मुद्दा नहीं है। मुद्दा तो वही है जो आज से दो दशक पहले भी था, पिछले चुनाव में भी था और जब तक देश की आर्थिक तरक्की नहीं हो जाती, तब तक रहेगा। वह मुद्दा है आम आदमी की बदहाली का। गांव ही नहीं, शहर की भी आधी आबादी बहुत विषम परिस्थितियों में जी रही है। महंगाई और साधनों के अविवेकपूर्ण वितरण ने इस देश की बहुसंख्यक आबादी को बहुत नाराज कर रखा है। अपना गुस्सा वे सत्तारूढ़ दलों के खिलाफ वोट देकर उतारती रहती है। उसका दुर्भाग्य ये है कि जो दल सत्ता में आता है, वो भी कुछ नहीं कर पाता। इस लोकसभा चुनाव में फील गुडका दावा करने वाली भाजपा की सही परीक्षा तो तब होगी, जब देश की आम जनता उसके शासन के तरीके पर अपनी स्वीकृति की मुहर फिर से लगा दे। अगर विपक्षी दल चाहते हैं कि ऐसा न हो और मानते भी हैं कि जनता केंद्र शासन के विरुद्ध मतदान करेगी तो उन्हें धर्मनिरपेक्षता की दुहाई देने के बजाए जनता के बुनियादी सवालों को उठाना चाहिए। सिर्फ उठाना ही नहीं चाहिए बल्कि उनके समाधान के ठोस विकल्प जनता के सामने रखने चाहिए।

आज देहातों और कसबों में सबसे बड़ी समस्या बेरोजगारी की है। इस चुनाव में सबसे ज्यादा वोट युवा वर्ग के होंगे। ये युवा वर्ग चाहे शिक्षित हों या अर्द्धशिक्षित या अशिक्षित, हर स्थिति में बेरोजगारी की भारी मार झेल रहा है। किसी आशा की किरण दिखाई न देने की हालत में ये अपराध करने को प्रेरित हो रहा है। ये भयावह स्थिति है। विपक्षी दलों को चाहिए कि जोड-तोड़ में समय लगाने के अलावा साथ बैठकर गंभीर चिंतन करें कि देहातों की बेरोजगारी दूर करने के ठोस और त्वरित उपाय क्या हो सकते हैं। ऐसे विशेषज्ञों की सलाह लें जिनके पास इस समस्या के संभावित समाधान उपलब्ध हैं। फिर अपना मन टटोलें कि क्या वाकई इन समाधानों को लागू कर पाएंगे? क्या उनमें अंतरराष्ट्रीय आर्थिक दबावों के विरुद्ध खड़े होने की शक्ति है? क्या वे ईमानदारी से ग्रामीण बेरोजगारी को दूर करना चाहते हैं? अगर उनकी अंतरात्मा से सकारात्मक उत्तर आएं तो उन्हें अपनी चुनाव सभाओं और प्रचार माध्यमों में इस बात को जोर-शोर से उठाना चाहिए। युवा वर्ग को जहां रास्ता दिखाई देगा वो स्वतः ही उधर आकर्षित हो जाएगा। सपने दिखाने में माहिर भाजपा तो ऐसे शगूफे छोड़ने में जुटी ही है। चुनाव के पहले ऐसी तमाम लाॅलिपाॅप बांटी जाएंगी, जो मतदाता को दिग्भ्रिमित कर दें। बेरोजगारों को भी रोजगार दिलाने के तमाम वायदे किए जाएंगे। विपक्षी दलों की जिम्मेदारी है कि वो ऐसे लुभावने मायाजाल की असलियत को देशवासियों के सामने रखें। इसी तरह आम जनता से जुड़े दूसरे सवालों पर भी ध्यान देने की जरूरत है। केवल वायदों से नहीं बल्कि शारीरिक भंगिमाओं, वाणी और मन की तरंगों से यह संदेश मिलना चाहिए कि विपक्ष बेहतर और जनउपयोगी सरकार देने में सक्षम है। अगर ऐसा संदेश विपक्ष दे पाता है तो उसे भाजपा के फील गुडसे घबराने की कोई जरूरत नहीं होगी। लोग असलियत जानकर ही मतदान करेंगे। पर अगर विपक्ष केवल आम जनता के दुख दर्द का घडि़याली रोना रोकर उसके वोट बटोरना चाहता है और येन केन प्रकारेण सत्ता हथियाना चाहता है तो जनता का फैसला बहुत अप्रत्याशित हो सकता है। हो सकता है जनता ये तय करे कि बेहतर विकल्प के अभाव में मौजूदा सरकार ही क्या बुरी है। या ये तय करे कि किसी भी एक दल को इतना मजबूत मत होने दो कि वो देश पर हावी हो जाए। छोटे-छोटे दलों की छोटी-छोटी सफलताओं से एक ऐसी खिचड़ी सरकार बने जिसमें हर दल हर समय असुरक्षित महसूस करता रहे। ऐसी सरकार भी क्या कोई सरकार होती है? पर इसकी संभावना भी पूरी है। इसलिए समय गठबंधन की जोड़-तोड़ में ऊर्जा लगाने से ज्यादा अपनी सोच, वाणी और आयुधों को पैना करने का है। जिसका रण कौशल बेहतर होगा, वही चुनावी वैतरणी पार करेगा।