Friday, January 16, 2004

पर देहाती भारत कैसे माने ‘फील-गुड’ ?


भाजपा और उसके उत्साही महासचिव प्रमोद महाजन ताल ठोक कर कह रहे हैं कि उनकी सरकार के चलते देश में फील-गुडका माहौल है लोग संतुष्ट हैं और भविष्य में आगे बढ़ने के हौसले बुलंद हैं। टीवी पर राजग सहयोग दलों के नेता अतिउत्साह और आत्मविश्वास से भरे नजर आ रहे हैं। दूसरी तरफ विपक्ष के नेताओं के चेहरे पर चिंता साफ दिख रही है। भाजपा ये दावा कर रही है कि उसने जो पांच साल में कर दिखाया वह पिछले 50 साल में नहीं हुआ। हर राजनैतिक दल को अपनी उपलब्धियों का बढ़-चढ़ कर दावा करने का हक है। सभी करते हैं तो भाजपा क्यों न करें। पर फील गुडबड़े शहरों में तो जरूर आया है लेकिन देहातों की हकीकत क्या है ये भी जानने की जरूरत है। शहरी लोग तो अपनी बात टीवी पर कह देते हैं। पर देहात वालों को या उनके सही नुमाइंदों को टीवी चैनलों पर बुलाकर उनकी सुनी नहीं जाती या दिलखोलकर कहने नहीं दिया जाता तो इसका मतलब ये तो नहीं कि उनकी कोई हैसियत ही नहीं।

प्रवासी दिवस के समापन समारोह में बोलते हुए कई प्रवासी भारतीयों ने यह कहा कि, ‘ये फील-गुडकेवल दिल्ली, मुंबई और बैंग्लोर तक सीमित है। देश की राजधानी दिल्ली की सीमा पर बसे दादरी बाॅर्डर पर जाते ही एक दूसरा ही भारत नजर आता है।इन प्रवासियों ने भी भारत सरकार को चुनौती दी कि जब तक देश के देहातों में फील-गुडकी भावना नहीं पहुंचती तब तक ये बातें केवल स्टंटबाजी से ज्यादा कुछ मायने नहीं रखती। दरअसल, यह सब मीडिया मैनेजमेंट का खेल है। टीवी पर खाए-पिए, सुविधाभोगी, सत्ता के चाटुकारों को बिठा कर अगर देश की परिस्थिति का मूल्यांकन करवाया जाएगा तो सबको फील-गुडही लगेगा। सरकारी पैसे पर पांचसितारा होटलों में गोष्ठियों के नाम पर मुर्गे और दारू उड़ाने वाले और सरकारी खर्चे पर विदेश घूमने वालों को तो देश में हमेशा ही फील-गुडलगता है। चाहे कोई दल सत्ता में हो ऐसे चारण और भाट हमेशा यही करते हैं। अगर वाकई भाजपा का यह दावा सही है कि उसने पांच साल में ऐतिहासिक उपलब्धियां हासिल की है तो इसका मूल्यांकन हिंदुस्तान के देहातों में करना होगा। जहां 70 फीसदी भारत बसता है।

टीवी कैमरा लेकर हिंदुस्तान के किसी भी देहात में चले जाइए खासकर उन प्रांतों में जहां भाजपा की सरकार है या रही है और गांव वालों से पूछिए कि पिछले पांच साल में उनके गांव में कितनी तरक्की हुई है ? क्या नई सड़कें बनी है ? क्या बिजली की आपूर्ति बढ़ी ? क्या गांव के स्कूलों में पढ़ाई का इंतजाम हुआ? क्या प्राथमिक स्वास्थ केन्द्र में डाक्टर या दवा मिलते हैं ? क्या पुलिस गांव के अपराधियों को काबू में कर पाई है ? क्या गांव के सौ-पचास बेरोजगार नौजवानों को नौकरी मिली ? क्या लोगों की आमदनी पिछले पांच वर्षों में बढ़ी ? इनमें से अगर आधे सवालों का जवाब भी हां में हो तो मानना चाहिए कि वास्तव में भाजपा के शासनकाल में तरक्की हुई और तब फील-गुडमानने का पर्याप्त आधार होगा।

ये मानना पड़ेगा कि अन्य नेताओं के मुकाबले भाजपाई अभिनय करने में ज्यादा सक्षम हैं। मार्केटिंग की ट्रेनिंग देने वाले संस्थानों में ये सिखाया जाता है कि जब तुम किसी प्रोड्क्ट का सेल्स प्रमोशन करने जाओ तो तुम्हारे कपड़े चुस्त-दुरूस्त और आकर्षक होने चाहिए। चेहरे पर बनावटी ही सही पर ताजगी झलकनी चाहिए। आंखों में चमक होनी चाहिए। बात करते वक्त सामने वालों की निगाह में झांक कर आत्मविश्वास से देखना चाहिए। प्रस्तुति करते समय चेहरे पर मनमोहक मुस्कान होनी चाहिए और बदन से किसी विदेशी इत्र की खुशबू आनी चाहिए। जो सेल्समैन ऐसा करते हैं वो आधी लड़ाई तो कमरे में घुसते ही जीत लेते हैं। भाजपा ने मार्केटिंग के इस फार्मूले को अच्छी तरह समझ लिया है। इसलिए उसने पहले दिन से ही यह जताने की कोशिश की कि अब भाजपा हिन्दू धर्म के पोंगापंथी नियमों में बंध कर चलने वाली पार्टी नहीं बल्कि नई सदी की नई पार्टी है। इसके लिए सबसे पहले तो अपने नेता श्री अटल बिहारी वाजपेयी का ही कायाकल्प किया गया। उन्हें तरह-तरह के नए फैशन के डिजाइनर सूट पहनाए गए। चश्मा भी विदेशी चमक वाला और अमरीकी राष्ट्रपति की नकल पर सात रेसकोर्स में कमरे से बाहर निकल कर बयान देने का स्टाइल भी बिलकुल नया कर दिया गया। कहां अंग वस्त्रम और धोती कुर्ता धारण करने वाले कवि हृदय वाजपेयी जी और कहा उनका ये माॅर्डन रूप। पर देश की जनता के हृदय पर अगर काबिज होना है तो ये हथकंडे तो अपनाने ही पड़ते हैं। इसमें शक नहीं कि वाजपेयी जी इस वक्त अपनी लोकप्रियता के शिखर पर हैं। अकेले वाजपेयी जी ही क्यों जयश्री राम के उदघोषसे सत्ता की ओर बढ़ने वाली भाजपा के ज्यादातर नेता अब सूट-टाई में नजर आते हैं। वे भी जिनकी प्राथमिक शिक्षा संघ की शाखाओं में हुई। ये छवि बनाने का एक उदाहारण है। जिसमें भाजपा सफल नहीं है। दूसरा काम जो भाजपा ने किया वो ये कि एक-एक करके लगभग सभी टीवी चैनलों पर अपने आदमी फिट कर दिए, जो समाचारों और कार्यक्रमों पर इस तरह नियंत्रण रखे हुए हैं जिससे भाजपा की छवि बनाने और विपक्ष की छवि ध्वस्त करने का काम बड़ी सफाई से हो रहा है। इतना ही नहीं बड़ी तादाद में भाजपा ने सभी प्रमुख पत्रकारों को इलेक्ट्रांनिक मीडिया में काम या ठेके दिलवाकर धंधे से लगा दिया है ताकि उसकी असलियत पर बेबाक रिपोर्ट लिखने वाले बचें ही न। जिन बातों के लिए भाजपा और उसके छिपे प्रवक्ता रहे कुछ नामी पत्रकार राजीव गांधी पर आए दिन हमला करते थे वो सब बातें, वो मौजमस्तियां, वो सैर सपाटे, वो उत्सवों के नाटक, भाजपा के शासन काल में राजीव गांधी के जमाने से कहीं ज्यादा बड़ी तादाद में हुए हैं, पर अब कोई विरोध नहीं करता। 

जहां तक आर्थिक मोर्चे पर सफलता और भारी विदेशी मुद्रा संग्रह के दावे किए जा रहा हैं। तो यह नहीं भूलना चाहिए कि इसमें भाजपा की उपलब्धि कम और अमरीका व अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय संस्थानों का खेल ज्यादा है। वित्तीय जानकार बताते हैं कि जिस तरह इन अंतर्राष्ट्रीय संस्थाओं और बैंकों ने भारत में आर्थिक सुदृढ़ता का माहौल दिखाने की कोशिश की है उसमें एक बहुत बड़ा खतरा अंतरनिहित हैं और वह ये कि इस सारे तंत्र का नियंत्रण अब भारत के हाथ से निकल कर उनके हाथ में चला गया है और वो जब चाहे भारत को झटका दे सकते हैं। आर्थिक रूप से ब्लैकमेल कर सकते हैं। पर यह भी सही है कि पिछले तीन वर्षों में भारत के बाजारों में रौनक लौट आई है। जिसका श्रेय वित्तमंत्री जसवंत सिंह और प्रधानमंत्री को देना होगा। कई बार केवल माहौल अच्छा बन जाने से उद्ययमियों में उत्साह आ जाता है और वे जोखिम उठाने को तैयार हो जाते हैं जो एक अच्छी बात है। शायद इसीलिए प्रवासी भारतीयों ने भी भारत सरकार को चेतावनी दी कि भारत के गांवों की अर्थ व्यवस्था को सुदृढ़ किए बिना भारत में फील गुडका कोई मतलब नहीं रह जाता। 

जहां तक पाकिस्तान के मोर्चे पर ऐतिहासिक सफलता का दावा किया जा रहा है वहां भी कोई ठोस उपलब्धि नहीं है। अपनी जान पर मंडराते खतरे को देखकर और अमरीकी दबाव के चलते अगर जनरल परवेज मुशर्रफ आज बदले-बदले से नजर आते हैं तो इसका मतलब ये नहीं कि भारत में आतंकवाद और कश्मीर समस्या का हल ढूंढ लिया। जिनके खून में जेहाद की घुट्टी पिला दी गई हो वो मुशर्रफ के नियंत्रण में आने वाले नहीं हैं। इसीलिए भाजपा इस तथाकथित कामयाबी का ढिंढोरा पीटकर इसे जल्दी भुना लेना चाहती है। कहीं ऐसा न हो कि आतंकवादी और पाकिस्तानी फिर कुछ ऐसा कर बैठे कि लाहौर और आगरा की तरह टाॅय-टाॅय फिस हो जाए। वैसे भाजपा का भी जवाब नहीं। एक चुनाव कारगिल में सैकड़ों नौजवानों को शहीद करके और पाकिस्तान के खिलाफ युद्ध का माहौल बना कर जीत लिया तो दूसरा चुनाव पाकिस्तान से गले मिलने का नाटक करके जीतने की तैयारी है। पर इसमें भाजपा का क्या दोष ? जब विपक्ष बिखरा है, कोई साझी समझ नहीं है। निहित स्वार्थ और अहम ने विपक्ष को दर्जनों दलों में बांट दिया है। जनहित की चिंता किसी को नहीं है। तो फिर भाजपा फील गुडक्यों न माने। अपने विरोधियों की कमजोरी का फायदा उठाकर और अपनी कमजोरी को छिपा कर तथा उपलब्धियों को भुना कर ही तो लोकतंत्र में चुनाव जीते जाते हैं। कांग्रेस भी ऐसी करती आयी थी। दूसरे दल भी यही करते हैं और अब भाजपा ने भी वहीं सब सीख लिया और इसलिए सत्ता पर काबिज है और विपक्ष का यही आलम रहा तो शायद अगले पांच साल भी भाजपा-राजग सत्ता पर काबिज रहेंगे और फील गुडके मूड में रहेंगे। जनता गुड फीलकरे या बैड फीलकरे इसकी चिंता न तो भाजपा को है और नाही विपक्ष को।

Friday, December 19, 2003

जूदेव और जोगी कांड में खामियां


प्रधानमंत्री ने संसद में ठीक ही कहा कि दिलीप सिंह जूदेव के खिलाफ कोई मामला नहीं बनता। इसलिए सीबीआई केस दर्ज नहीं कर रही है। यह ठीक इसलिए है कि जिस धमाके के साथ जूदेव कांड की वीसीडी जारी हुई थी, उतने ही सन्नाटे में खो गई इस कांड को उजागर करने वालों की पहचान। अंगे्रजी दैनिक इंडियन एक्सप्रेस ने इस खबर को छापा था। चुनावी माहौल में इससे खलबली मचना स्वाभाविक ही था। भाजपा को लगा कि छत्तीसगढ़ हाथ से गया। पर, चुनावी नतीजों ने जूदेव की मूंछ तो बचा ही ली, साथ ही भाजपा को भी आक्रामक बना दिया। ऐसा न भी होता तो भी जूदेव कांड कई सवाल खड़़े करता है। मीडिया और राजनीति से सरोकार रखने वाले सभी लोग जानते हैं कि भारत में छिपे कैमरे से खोजी पत्रकारिता की शुरुआत आज से चैदह वर्ष पहले हमने कालचक्र वीडियो मैग्जीन में की थी। तब इस विधा की जानकारी भारत में लोगों को नहीं थी। प्रसिद्ध मीडिया क्रिटिक श्रीमती अमिता मलिक ने हमारी इस खोजी पत्रकारिता पर इंडियन एक्सप्रेस में लिखा था, ‘‘कालचक्र उन मुद्दों को उठाता है जिन्हें दूरदर्शन बांस भर की दूरी से भी नहीं छुएगा’’। टाइम्स आॅफ इंडिया ने लिखा, ‘‘कालचक्र में छिपे कैमरे का प्रयोग वह विधा है जिसे दूरदर्शन अभी नहीं सीख पाया है।’’ फिर भी हमारी इस खोजी पत्रकारिता पर देश की राजनीति में काफी बबाल मचा था। नेताओं में यह डर बैठ गया कि अब उनके कारनामों पर कालचक्र के कैमरे की नजर पड़ सकती है। 

पर, बारह वर्ष बाद जब तहलका ने यही विधा अपनाई तो उसे वाहवाही मिली। क्योंकि तब तक इलेक्ट्रानिक मीडिया और सैटेलाइट चैनल देश पर छा चुके थे और लोग छिपे कैमरे की संभावना से वाकिफ हो चुके थे। बहरहाल, यहां यह बात महत्वपूर्ण है कि कालचक्र ने जब-जब इस तरह की खोजी टीवी पत्रकारिता की, तो उसे पत्रकारिता की मर्यादा के भीतर रहकर किया। कुछ ऐसे कदम उठाए, जिससे हमारी विश्वसनीयता पर उंगली न उठ सके। मसलन, छिपे कैमरे का इस्तेमाल करने से पहले हमने स्थानीय पुलिस को सूचना दी कि हम कहां और क्या रिपोर्ट करने जा रहे हैं ताकि कल अगर घटनास्थल पर रिकाॅर्डिंग के समय कोई बबाल खड़ा हो जाए तो हम पर किसी को धमकाने या ब्लैकमेल करने का आरोप न लगे। इसलिए हमने पुलिस वालों को साथ लेकर ऐसी रिकाॅर्डिंग की। इतना ही नहीं, मीडिया जगत की सहमति भी हमारे इस अनूठे काम में हो, इसके लिए हमने दो-तीन राष्ट्रीय अखबारों के संवाददाताओं को भी ऐसी खोज के समय साथ रखा। यही कारण था कि जब हमारी रिपोर्ट पर देश भर में बबेला मचा, तो हम अपनी बात मजबूती से रख सके। हमें किसी तरह के कानूनी विवाद में नहीं फंसना पड़ा। सीबीआई जैसी संस्था को यह जानने की जहमत नहीं उठानी पड़ी कि यह रिकाॅर्डिंग किसने की? किस मकसद से की? कहां की? कब की? किसकी मौजूदगी में की? और किस उद्देश्य से की? इन सब सवालों के जवाब हमारी वीडियो कैसिट में पहले ही मौजूद रहते थे। पर जूदेव कांड में ऐसा कुछ सामने नहीं आया। इस कांड को खोजने वाला कौन था? क्या कोई पत्रकार था या किसी राजनेता का एजेंट? अगर पत्रकार था तो उसे अपनी पहचान बताने में संकोच क्यों? अगर पत्रकार नहीं था तो सवाल उठता है कि इस वीसीडी की विश्वसनीयता ही क्या है? इसकी कानूनी वैधता क्या है? किसने इस काम को करवाया? वो सामने क्यों नहीं आता? ऐसे तमाम सवालों के जवाब जूदेव कांड को उठाने वाले लोग नहीं दे पा रहे हैं। कारण साफ है कि वे परदे के पीछे छिपे हैं। फिर ये खोजी पत्रकारिता का नमूना कैसे हुआ? और जब ये पत्रकार के द्वारा की गई रिपोर्ट ही नहीं है तो इसे ऐन चुनाव के पहले उछालकर किसको क्या हासिल हुआ

वीडियो कैमरे से सच्चाई की खोज करना एक जोखिम भरा काम है। हमने ऐसे जोखिम बार-बार उठाए हैं। बड़े से बड़े लोगों के विरुद्ध खोज करने की हिम्मत की है। पर, हमारे कामकी विश्वसनीयता पर सवाल नहीं उठा। कारण साफ है, जब आप देश के प्रतिष्ठित और ताकतवर लोगों के खिलाफ संगीन आरोप लगाते हैं तो आपको सामान्य से ज्यादा सावधानी बरतनी होती है। ऐसी खबरें जल्दबाजी में या उत्साह के अतिरेक में प्रकाशित या प्रसारित नहीं की जा सकती। क्योंकि उनका दूरगामी प्रभाव पड़ता है।  किसी की साख को बट्टा लगाना  आसान है, पर बिगड़ी बात को संभालना बहुत मुश्किल। 

ऐसा नहीं है कि सभी राजनेता दूध के धुले हैं और उनके विरुद्ध कुछ कहा ही नहीं जा सकता। पर, गलत आरोप लगाने पर आरोप लगाने वाला भारी मुश्किल में पड़ सकता है। ये भी सही है कि आज राजनेताओं की जो छवि जनता के बीच बन चुकी है, उसे इस तरह की खोजी रिपोर्ट पुष्ट ही करती हैं। इसलिए जनता इन रिपोर्टों पर फौरन विश्वास कर लेती है। टीवी माध्यम की इस ताकत और इसके व्यापक प्रभाव को ध्यान में रखकर तो और भी ज्यादा जरूरी हो जाता है कि सब सावधानियां पहले ही बरती जाएं। मसलन, जिस रिपोर्ट की खोज की जा रही है, उसे कैमरे पर उतारना जितना जरूरी है, उतना ही जरूरी है उससे संबंधित अन्य प्रमाणों को जुटाना। इसके साथ ही परिस्थितिजन्य साक्ष्य भी हमें जुटाने होते हैं।

मसलन, जैन हवाला कांड में हमने एक पूर्व केंद्रीय मंत्री पर आरोप लगाया कि उन्होंने जैन बंधुओं से मोटी रकम ली। इसके प्रमाण स्वरूप हमने उन ठेकों का हवाला दिया, जिन्हें इस मंत्री ने जैन बंधुओं को अपने कार्यकाल में दिया था। इसी तरह अन्य परिस्थितिजन्य साक्ष्य भी जुटा लेने के बाद ही कैमरे के लैन्स से निकली रिपोर्ट को बंदूक की गोली बनाकर दागा जा सकता है। क्योंकि तब आरोपित व्यक्ति यह कहकर नहीं बच पाएगा कि यह वीडियो टेप फर्जी हैं। परिस्थितिजन्य व अन्य साक्ष्य इसकी पुष्टि कर देंगे कि उसने कब, किसकी मौजूदगी में, किससे, किस काम के लिए, कितने रुपये की रिश्वत ली। जब यह सिद्ध ही हो जाएगा तो फिर जांच की और जरूरत ही कहां बचेगी। फिर तो पैसा लेने और देने वालों पर भारतीय कानून के तहत केस दर्ज किया जाएगा। जूदेव कांड में अभी तक ऐसा कुछ नहीं हुआ। इस वीसीडी का प्राकट्य अंधकार में से हुआ है और इसीलिए यह कांड लोकतंत्र के अंधेरे को दूर करने में नाकाम रहा है। 

दूसरी तरफ जोगी कांड में खोजकर्ताओं ने अनेक परिस्थितिजन्य साक्ष्य पहले ही जुटा लिए। इसलिए श्री अजित जोगी रंगे हाथों पकड़े गए। सीबीआई ने उन पर मुकदमा कायम किया और अब उन्हें अपने बचाव के लिए लड़ना होगा। यहां एक बात महत्वपूर्ण है और वो यह कि श्री अजीत जोगी के विरुद्ध इस खोज को करने वाले भी कोई पत्रकार नहीं थे, बल्कि भाजपा से जुड़े कुछ लोग थे जिन्होंने श्री अजीत जोगी को अपने जाल में फंसाया और जोगी कुर्सी खोने की बेचैनी और उसे दोबारा हासिल करने के लालच में फिसल गए और अपनी मिट्टी पलीद करवा बैठे। वरना ऐसा नहीं है कि लोकतंत्र में चुने हुए प्रतिनिधियों को खरीदने-बेचने का यह काम पहली बार हुआ हो। प्रांतों की सरकारों से लेकर केंद की सरकारें तक ऐसे तमाम प्रयास करती हैं, जिनमें ऐसी खरीद का खुला बाजार लगता है। ज्यादा बोली लगाने वाला सौदा मार लेता है। ऐसा न होता तो दलबदल कानून को दोबारा बदलने की जरूरत नहीं पड़ती। पर यह खोज पत्रकारों द्वारा की जानी चाहिए। भाजपा ने यह खुफिया अभियान चलाकर नैतिकता का सवाल खड़ा कर दिया है। आज भाजपा ने ये किया है, कल उसके विरोधी करेंगे। 

उधर, पत्रकारों को भी अपनी मर्यादा और सीमाओं का ध्यान रखना होगा। काॅलगर्ल का इस्तेमाल करके और नकली कहानी बनाकर तहलका ने जिसे रक्षा घोटाला कहा, उसमें भी ऐसे तमाम सवाल उठे थे। इतना ही नहीं, इस रिपोर्ट में जिस पर आरोप लगाया गया उससे सफाई तक नहीं मांगी गई। टीवी पत्रकारिता अब देश से जाने वाली नहीं है। जब आ ही गई है तो इसे परिपक्व और जिम्मेदार होना पड़ेगा। बिना समुचित प्रमाणों के सनसनी फैलाना पत्रकारिता के दायरे में नहीं आता। राजनेता कितने भी भ्रष्ट क्यों न हो चुके हों, उन्हें पकड़ने का एक सलीका तो होना ही चाहिए। वरना ऐसी पत्रकारिता की विश्वसनीयता पर तमाम सवाल खड़े जा जाएंगे, जो आज हो रहे हैं। पत्रकारिता के लिए यह स्वस्थ प्रवृत्ति नहीं है।

नैतिकता से भरपूर षिक्षा की जरूरत


पिछले महीने दिल्ली में षिक्षा पर दक्षिण एषियाई देषों का एक सेमिनार हुआ। इस तीन दिवसीय सेमिनार में विषेशकर लड़के और लड़कियों के षिक्षा अनुपात में अंतर पर जोर दिया गया। सात देषों से आए बुद्धिजीवियों ने लड़कियों की कम साक्षरता पर चिंता जताई। इसी सम्मेलन में दिल्ली की मुख्यमंत्री श्रीमती षीला दीक्षित ने एक महत्वपूर्ण सवाल की ओर लोगों का ध्यान आकृश्ट कराया। उनका सवाल था कि क्या कारण है कि षिक्षित होने के बावजूद भी लोग जघन्य अपराध  करते हैं। क्या वजह है कि उच्च षिक्षा हासिल करने के बावजूद भी लोगों में नैतिकता नहीं आ पाती? देखा जाए तो सवाल बड़े गंभीर हैं। साथ ही सरकार तथा दर्जनों स्वयंसेवी और समाजसेवी संस्थाओं द्वारा साक्षरता के लिए चलाए जा रहे कार्यक्रमों पर भी सवालिया निषान लगा देते हैं। साल भर में हजारों करोड़ रुपये खर्च करके सरकारी और गैर सरकारी संस्थाएं सैकड़ों-हजारों बच्चों को पढ़ना-लिखना सिखाती हैं और उनमें समाज में स्वाभिमान के साथ जीने का माद्दा पैदा करती हैं। इनकी कोषिषों के बलबूते ही ऐसे अनेक लड़के और लड़कियां ककृखकृगकृघकृ सीख चुके हैं, जिन्हें, और जिनके मां-बाप को कभी उम्मीद नहीं थी कि उनके लाड़ले कभी पेन्सिल भी पकड़ पाएंगे। भारत में साक्षरता की दर बढ़ी है, इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता, लेकिन हमें यह भी देखना होगा कि देष में अपराध भी उसी रफ्तार से बढ़ रहे हैं। 

आंकड़ांे के मुताबिक वर्श 2001 में भारत की साक्षरता दर 65 प्रतिषत थी। इस मामले में भारत कई पड़ोसी देषों से बहुत आगे है। यूनेस्को की सांख्यकीय इयरबुक 1999 के मुताबिक, भारत में जहां 44.2 फीसदी लोग ही निरक्षर हैं, वहीं पाकिस्तान में यह संख्या 56.7 प्रतिषत, नेपाल में 58.6 प्रतिषत, बांग्लादेष में 59.2 प्रतिषत तथा अफगानिस्तान में निरक्षरता का प्रतिषत 63.7 है। इस लिहाज से देखा जाए तो भारत में अनपढ़ों की संख्या हमारे पड़ोसी मुल्कों से काफी कम है। उधर, भारत की सरकार भी सबको षिक्षा देने के लिए कोई कसर बाकी नहीं छोड़ रही है। नई-नई योजनाएं और कानून बनाकर हरेक के लिए षिक्षा को जरूरी बनाया जा रहा हैं। सरकार का प्रयास है कि बच्चे तो बच्चे, बडे-बूढे़ भी पढ़ना-लिखना सीखें। इसके लिए प्रौढ़ षिक्षा कार्यक्रम भी चलाया जा रहा है। जहां बिना किसी भेदभाव के किसी भी आयु वर्ग के लोग आकर साक्षर लोगों की जमात में षामिल हो सकते हैं। वैसे सरकार इस बात से चिंतित भी है कि अनेक तरह से प्रोत्साहित करने के बावजूद भी लोग लड़कियों को षिक्षा दिलाने में अभी भी संकोच करते हैं। यूनेस्को के आंकड़ों के अनुसार, वर्श 2001 में भारत में जहां 76 फीसदी पुरुश षिक्षित थे, वहीं महिलाओं का प्रतिषत मात्र 54 ही था। वैसे देखा जाए तो पिछले वर्शों में इसमें इजाफा ही हुआ है। 

षिक्षा पर पैसा खर्च करने में भी सरकार पीछे नहीं है। भारत ने षिक्षा पर वर्श 2001-02 के दौरान सकल घरेलु उत्पाद का 4.02 फीसदी धन खर्च किया। यह बहुत बड़ी राषि है, परंतु इसके बावजूद करीब 44 फीसदी लोग अभी भी पढ़ना-लिखना नहीं जानते। इसके लिए बहुत से कारण जिम्मेवार हैं। साक्षरता के मामले में सबसे आगे केरल है। वहां के करीब 91 प्रतिषत लोग पढ़ना-लिखना जानते हैं जबकि सबसे कम बिहार में 48 फीसदी लोग ही साक्षर हैं। इसके अलावा झारखण्ड, जम्मू-कष्मीर, अरुणाचल प्रदेष तथा उत्तर प्रदेष में भी साक्षर लोगों की संख्या देष के कुल साक्षरता प्रतिषत से काफी नीचे है। पिछले कुछ सालों में देष में स्कूलों की संख्या में भी भारी बढ़ोत्तरी हुई है। वर्श 2001-02 में जहां 6,64,041 प्राइमरी स्कूल थे, वहीं उच्च प्राथमिक स्कूलों की संख्या 2,19,626  थी। हाईस्कूल-इंटर कालेज 1,33,492 थे जबकि स्नातक और परास्नातक स्तर के काॅलेज की संख्या 8,737 पार कर गई। इंजीनियरिंग, तकनीकी, चिकित्सा आदि व्यावसायिक षिक्षा देने वाले काॅलेजों की संख्या भी 2,,409 थी। इसके अलावा देष में 272 यूनीवर्सिटी तथा राश्ट्रीय महत्व के संस्थान थे। स्कूल-काॅलेजों की इतनी बड़ी फौज और सरकार द्वारा हजारों-करोड़ रुपये खर्च करने के बाद भी सवाल आखिर वही है। इन स्कूल-काॅलेजों में दी जाने वाली षिक्षा को हासिल करके भी लोगों में नैतिकता क्यों नहीं आ पाती? क्यों वह अच्छे-बुरे में भेद नहीं कर पाते? क्यों देष में अपराधों की संख्या लगातार बढ़ती जा रही है। इसका मतलब है कि हमारी षिक्षा प्रणाली में कहीं न कहीं कमी है। हमें जो करना चाहिए, वह हम नहीं कर पा रहे हैं। नैतिकता और मानवता कोई घुट्टी तो है नहीं, जो लोगों को पिला दी जाए। 

व्यक्ति के आंतरिक मूल्यों को दो श्रेणियों में बांटा जा सकता है। पहला सांसारिक और दूसरा मानवीय। सांसारिक मूल्यों के अंतर्गत सांस्कष्तिक, राजनीतिक, आर्थिक, व्यवसायिक और सामाजिक मूल्य आते हैं। इनमें सांस्कष्तिक मूल्य सामान्यता अनुभव, स्वभाव और प्रथाओं से संबंधित होते हैं। राजनीतिक मूल्य इंसान को संकीर्ण मानसिकता से उबरकर उदार बनाते हैं। आर्थिक मूल्य इस बात की प्रेरणा देते हैं ‘‘हमेषा अच्छा खरीदो-हमेषा सस्ता खरीदो।’’ व्यापारिक मूल्य व्यक्ति के व्यापारिक संबंधों को परिभाशित करते हैं। सामाजिक मूल्यों के जरिए व्यक्ति समाज से जुड़ाव महसूस करता है। इसी तरह स्वतंत्रता, जिम्मेदारी, समानता, आत्मनियंत्रण और सहयोग की भावना मानवीय मूल्यों के तहत आती हैं। ईमानदारी, एकता, अहिंसा, सच्चाई तथा न्याय नैतिक मूल्यों में षुमार होते हैं। प्यार, षांति, षुद्धता, मानवता, सच्चाई, करुणा, आदर,, क्षमाषीलता, मैत्री, एकजुटता तथा खुषी के भाव आध्यात्मिक मूल्यों की षाखाएं हैं। यदि इन सभी मूल्यों को व्यक्ति आत्मसात कर ले, तो वह कोई गलत काम नहीं कर सकता। अब जरूरत है ऐसी षिक्षा तथा ऐसी प्रणाली को विकसित करने की, जो व्यक्तियों में इन गुणों का विकास कर सके। 

आजकल की षिक्षा केवल प्रतियोगितात्मक वातावरण को बढ़ावा दे रही है। जैसा कि आम तौर पर माना जाता है कि उच्च षिक्षा पाने से व्यक्ति भला-बुरा सोचने में सक्षम हो जाता है। साथ ही उसमें सहृदयता का  प्रादुर्भाव हो जाता है। पर, यह पूरी तरह सच नहीं है। यदि ऐसा होता तो एक पढ़ा-लिखा व्यक्ति अपराध नहीं करता। पर यह कटु सत्य है कि देष ही नहीं दुनिया भर में होने वाले अपराधों को अंजाम देने वाले अनपढ़ नहीं, बल्कि पढ़े-लिखे व्यक्ति होते हैं। इनमें से बहुत से तो ऐसे होते हैं जिनके हाथों में देष और देषवासियों की बागडोर होती है, जैसे कि राजनेता। कुछ नेता राजनीति रूपी तालाब को गंदा कर रहे हैं, और इसका खामियाजा भुगतना पड़ रहा है षरीफ प्रतिनिधियों को। हालत यहां तक बदतर हो गई है कि नेताओं को भ्रश्टाचार और घोटालों का पर्याय माना जाने लगा है। देष में आज तक सैकड़ों घोटाले हुए हैं। अगर देखा जाए तो उनमें से अधिकांष में किसी न किसी नेता का हाथ होता है। बहुत से डाॅक्टर, इंजीनियर भी ऐसे हैं जो थोड़े से दहेज के लिए अपनी पत्नी को सूली पर चढ़ाने से नहीं चूकते। यहां तक कि अपराधों को रोकने की जिम्मेदारी जिनके ऊपर होती है, वह भी कानून के ढीले पेंचों को अपनी स्वार्थपूर्ति का साधन बना लेते हैं। विज्ञान में मनुश्य के बढ़ते कदमों का भी नैतिकता का कोई सरोकार नहीं है। यदि ऐसा होता तो जिस गति से मानव विज्ञान में तरक्की कर रहा है, उसी गति से उसमें नैतिकता भी बढ़ती। संचार और सूचनाओं के वैष्विक फैलाव का भी असर उलटा ही पड़ा है। कोई व्यक्ति गलत काम तभी करता है, जब उसके अंदर नैतिकता खत्म हो जाती है। मानवीय मूल्यों का पतन हो जाता है। उसकी आत्मा मर जाती है। आजकल लोगों में जिस तेजी से नैतिकला का लोप होता जा रहा है, वह बहुत ही चिंता की बात है। 

इसलिए सिर्फ षिक्षित करना ही पर्याप्त नहीं है। जरूरत इस बात की है कि लोगों को ऐसी षिक्षा दी जाए, जो उनकी तरक्की में तो सहायक हो ही, साथ ही उन्हें नैतिकता का पाठ भी पढ़ाए। उन्हें समाज में षांति से रहना सिखाए।

Friday, December 12, 2003

महासंग्राम की तैयारी


विधानसभा चुनाव में जो होना था, सो हो चुका। अब तो सबका ध्यान लोकसभा चुनाव की तरफ है। जहां भाजपा अपनी सफलता से उत्साहित है। वहीं उसके चुनाव प्रबंधक श्री प्रमोद महाजन, श्री अरुण जेटली व श्री सुधांशु मित्तल सरीखे लोग अभी से तलवार की धार पैनी करने में जुट गए हैं। श्री जेटली का श्री अजित जोगी पर ताजा वार इसका एक नमूना है। अब भाजपा और भी आक्रामक होकर चलेगी। सब मानते हैं कि श्रीमती सोनिया गांधी ही उनका मुख्य निशाना होंगी। उनका विदेशी मूल, उनकी हिंदी भाषा पर सीमित पकड़ और राजनैतिक अनुभव की कमी जैसे विषय भाजपा ने अभी से उठाने शुरू कर दिए हैं। भाजपा इस मुद्दे को उछालने में कोई कसर नहीं छोड़ेगी, यह तय है।

इलेक्ट्राॅनिक मीडिया में भाजपा ने अच्छी पैंठ बना ली है। एक - दो टीवी चैनल को छोड़कर लगभग सभी चैनलों पर भाजपा की खासी पकड़ है। हिटलर और स्टाॅलिन सिखा गए हैं कि प्रोपेगेण्डा करने के क्या-क्या तरीके होते हैं। यह जरूरी नहीं कि इन चैनलों पर भाजपा का सीधा प्रचार हो, बल्कि उन मुद्दों को उठाकर, जिनसे भाजपा की छवि बनती हो या उन मुद्दों को उठाकर जिनसे इंका की छवि गिरती हो, कोई भी टीवी चैनल बड़ी आसानी से प्रोपेगेण्डा कर सकता है। उदाहरण के तौर पर एक चैनल यह कह सकता है कि भ्रष्टाचार के कांडों में फंसी जयललिता ने कहाऔर दूसरा चैनल यह कह सकता है कि तमिलनाडु की राजनीति में सबसे ताकतवर नेता जयललिता ने कहा।दोनों बातें सच हैं, लेकिन कहने के अंदाज से संदेश अलग-अलग जाते हैं और यही तरीका आज इलेक्ट्राॅनिक मीडिया में अपनाया जाता है। वाजपेयी जी को भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ने वाला मसीहा भी बताया जा सकता है और उनके बारे में यह प्रश्न भी खड़ा किया जा सकता है कि इतने लंबे समय तक विपक्ष में रहने के बावजूद वह कभी किसी भ्रष्ट नेता को पकड़वा क्यूं नहीं पाए या बोफोर्स अथवा चारा घोटाला जैसे मामलों पर बरसों शोर मचाने वाले वाजपेयी जैन हवाला कांड उजागर होने पर खामोश क्यों हो गए? यह तो एक उदाहरण है। ऐसे तमाम उदाहरण दिए जा सकते हैं जिनसे यह सिद्ध किया जा सकता है कि टीवी रिपोर्ट्स के चयन, उनके प्रस्तुतिकरण में चालाकी से खेल खेलकर किस तरह जनता को गुमराह किया जा सकता है। ये बात दूसरी है कि इन टीवी चैनलों का असर शहरी जनता पर ही ज्यादा पड़ता है। देहात की जनता बुनियादी सवालों से जूझती है। 

जहां वाजपेयी सरकार की सबसे बड़ी उपलब्धि यह रही कि तमाम झंझावात झेलकर भी वह एकजुट बनी रही, वहीं यह बात भी महत्वपूर्ण है कि राजग सरकार के कार्यकाल में भारत के देहातों में बेरोजगारी बेइंतहा बढ़ी है। सत्ता में पांच साल पूरे कर चुकी सरकार देहातों में रोजगार पैदा करने में पूरी तरह नाकाम रही है। इससे ग्रामीण युवाओं में भारी निराशा है। इसी तरह भ्रष्टाचार के सवाल पर बार-बार अपने पाक-साफ होने की दुहाई देने वाली राजग सरकार कई बार घोटालों में फंसती रही। इसके कार्यकाल में शिखर से लेकर देहात के स्तर तक कहीं भी भ्रष्टाचार में रत्ती भर भी कमी नहीं आई। हिंदू धर्म की रक्षक होने का दावा करके राजनीति में अपना कद बढ़ाने वाली भाजपा ने राम जन्मभूमि, समान नागरिक संहिता और धारा 370 को समाप्त करने के शाश्वत एजेंडे को बार-बार पीछे धकेला है और कई बार तो उससे अपनी दूरी स्वीकारने में संकोच भी नहीं किया है। इसलिए लोग यह सवाल जरूर पूछेंगे कि आखिर भाजपा की विचारधारा है क्या? आज जिस विकास के मुद्दे को लेकर भाजपा उछल रही है, वह विकास का मुद्दा क्या हमेशा ही उसका मुद्दा बना रहेगा? या अपनी नैया डूबती देख वो फिर रामनाम का सहारा लेगी? एक वर्ष पहले गुजरात के स्वाभिमान को जगाने की बात कहने वाले नरेन्द्र मोदी जिस कामयाबी से जीतकर आए, उससे भाजपा ने अपने उन आलोचकों का मुंह बंद कर दिया जो उसके धार्मिक मुद्दों का मखौल बनाते थे। पर प्रश्न है कि क्या श्री मोदी एक वर्ष में गुजरात की जनता को फिर से आर्थिक विकास की पटरी पर ला पाए हैं? अगर नहीं तो फिर क्या केवल भावनाओं की रोटी खिलाकर देहातों की गरीबी और बेरोजगारी को दूर किया जाएगा? ऐसे तमाम सवालों के जवाब देने के लिए भाजपा को तैयार रहना होगा।

पर भाजपाइयों को इन सवालों से ज्यादा चिंता नहीं है। वे लोकसभा के चुनावों को जीता हुआ मानकर चल रहे हैं। उनका मानना है कि श्रीमती सोनिया गांधी को उनके दल के ही बहुत से नेता प्रधानमंत्री के रूप में नहीं देखना चाहते। पार्टी के कड़े अनुशासन के चलते वे ऐसा कह पाने में संकोच भले ही कर रहे हों, पर उनकी नीयत साफ नहीं है। और यही कारण है कि जिस तत्परता और आक्रामक शैली से श्री प्रमोद महाजन और श्री अरुण जेटली सरीखे लोग भाजपा को जिताने के लिए तत्पर हैं, वैसा एक भी नेता इंका के खेमे में दिखाई नहीं देता। भाजपाई मानते हैं कि इंका के अस्तबल में बूढ़े, थके हुए और आरामतलब घोड़े बंधे हैं। जिनकी फितरत में सत्ता का सुख भोगना तो है, पर मैदान ए जंग में लड़ना नहीं। नई पीढ़ी के नाम पर जब ये बूढ़े घोड़े अपने बेटों को आगे करते हैं तो उससे इंका के कैडर में कोई नए रक्त का संचार नहीं होता, बल्कि इसके विपरीत बचे खुचे कार्यकर्ताओं में निराशा ही फैलती है क्योंकि उन्हें अपना भविष्य अंधकार में दिखता है। इसीलिए वे सुश्री मायावती, श्रीमुलायम सिंह जैसे क्षेत्रीय नेताओं के खेमों की तरफ दौड़ रहे हैं। भाजपाई यह भी मानते हैं कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की तरह इंका के पास कोई भी जमीनी संगठन नहीं है और उसके नेताओं में न तो यह क्षमता बची है और न ही उत्साह कि वे अपने दल का जमीनी संगठन पुनस्र्थापित करें। ऐसे में भाजपा को अपना प्रतिद्वंद्वी काफी कमजोर विकेट पर खड़ा दिखाई देता है। 

राजग के सहयोगी दल विधानसभा चुनावों में भाजपा की आशातीत सफलता के बाद अब उसका साथ नहीं छोड़ेंगे, इसमें कोई संदेह नहीं। राजग के सभी घटक लोकसभा का चुनाव एकजुट होकर ही लड़ेंगे, ऐसा न मानने का कोई कारण नहीं है। उधर, इंका अन्य दलों के साथ साझी चुनावी रणनीति बनाने के बारे में अभी पूरी तरह स्पष्ट नहीं है। इस अनिश्चितता के कारण ही उसे छत्तीसगढ़ में मुंह की खानी पड़ी और भविष्य में भी यह अनिश्चितता उसके लिए नुकसानदेह सिद्ध हो सकती है। इसके साथ ही इंका में सबसे बड़ी कमी इस वक्त अनुभवी नेताओं की है। राजनीति की कुटिल चालें और चुनाव जीतने की रणनीति बनाने वाले लोग इंका में या तो बचे नहीं हैं या उनकी सुनी नहीं जाती। इसलिए इंका को आत्मविश्लेषण करने की जरूरत है। क्रिकेट के खेल की तरह चुनाव आखिरी मिनट तक अनिश्चितता की स्थिति में रहता है। अभी काफी लंबा समय बाकी है। दोनों ही दलों के कुछ गुण भी हैं और दोष भी। जहां भाजपा अपने आत्मविश्वास, संगठन, कुशल रणनीति के बल पर जीतने का सपना देख रही है, वहीं इंका को भाजपा के सत्ता में होने का फायदा मिल सकता है और वह सरकार की जमीनी हकीकत को उछालकर आम जनता से जुड़ सकती है बशर्ते उसमें ऐसा करने की इच्छा हो। इच्छा ही नहीं, सफलता के लिए जूझने का माद्दा और आक्रामक तेवर भी होने चाहिए। अभी इतना समय है कि कांग्रेस पूरे देश में उन लोगों को ढूंढकर इकट्ठा करे जिनकी विश्वसनीयता है। जो जमीन से जुड़े हैं। जिनमें नेतृत्व करने की क्षमता है। जिन्होंने समाज के लिए कुछ किया है और जो भाजपा की विचारधारा से इत्तफाक नहीं रखते। ऐसे लोगों की काफी संख्या हर शहर में है। इनमें युवा भी बड़ी तादाद में हैं। ऐसे युवाओं को संगठन में लेकर इंका अपना संगठन भी मजबूत कर सकती है और जनाधार भी। पर इस प्रयास में सबसे ज्यादा मुश्किल इंका को बाहर से नहीं बल्कि भीतर से आएगी। उसके अपने ही लोग इस नई व्यवस्था को चलने नहीं देंगे। क्योंकि इससे उनको अपने अस्तित्व पर खतरा नजर आएगा। पर यह किए बिना इंका की नैया पार लगना मुश्किल है।

आने वाले महीने इस महासंग्राम की तैयारी में देश की जनता को बहुत से राजनैतिक करतब दिखाएंगे। ऐसे में टीवी चैनलों के लिए मसाले की कमी नहीं रहेगी। ऐसे में इस देश के मतदाताओं को बहुत संजीदगी से अपने हित और अहित का ध्यान करते हुए फैसला लेना होगा।