Friday, August 8, 2003

लोकतंत्र के प्रहरियों को फिर से जगाना होगा


जनवरी 2001 में प्रकाशित हुए जुझारू पत्रकारों की कमर तोड़ दी जाती है पंजाब मेंशीर्षक वाले लेख में मैंने पंजाब के एक पत्रकार की जीवटता का जिक्र किया था। छोटे से अखबार से पत्रकारिता के क्षेत्र में कदम रखने वाले इस नौजवान ने जब पंजाब पुलिस की गुंडागर्दी तथा स्वास्थ्य तथा अन्य विभागों में व्याप्त भ्रष्टाचार के कच्चे चिट्ठे खोले, तो पुलिस के साथ‘-साथ कुछ सफेदपोश भी उसके दुश्मन बन गए। उस पर तथा उसके परिवार पर कई बार जानलेवा हमले हुए। सब कुछ जानकर भी पुलिस मूकदर्शक बनी रही। जब किसी भी तरह यह नौजवान इन लोगों की यातनाओं के आगे न झुका तो एक लड़की के अपहरण और बलात्कार के मामले में उसे और उसके पूरे परिवार को फंसा दिया गया। करीब दो साल मुकदमा लड़ने के बाद अब फास्ट ट्रैक अदालत ने इस नौजवान पत्रकार और उसके परिजनांे को निर्दोष मानते हुए सभी आरोपों से मुक्त कर दिया है। 

यह कहानी सिर्फ एक पत्रकार की नहीं है बल्कि लगभग हर उस कलमकार की स्थिति को बयां करती है, जो समाज से बुराइयों को मिटाने के लिए कमर कस चुका है। परेशानियों का स्वरूप बदल सकता है, मगर यह जान लेना चाहिए कि देशसेवा की राह आसान नहीं है। यह सही है कि सच्चाई कभी न कभी सामने आ ही जाती है, मगर अंग्रेजी में एक कहावत है जस्टिस डिलेड इज जस्टिस डिनाइड। मतलब, यदि न्याय मिलने में देरी होती है तो उसका कोई महत्व नहीं रह जाता। इस पत्रकार का यह मुकदमा सुनने में तो बहुत साधारण सा प्रतीत होता है, मगर यह कई महत्वपूर्ण सवाल हमारे बीच छोड़ जाता है। मसलन, अदालती कार्यवाही के दौरान झूठे मुकदमें मंे फंसे लोगों को होने वाली परेशानियों के लिए जिम्मेदार व्यक्तियों को आखिर सजा क्यों नहीं मिलती? इन लोगों का कीमती समय, जो अदालतों और पुलिस के चक्कर काटने में बरबाद होता है, उसकी भरपाई कौन करेगा? थोड़े से लाभ के लिए लोगों के भविष्य से खिलवाड़ करने वाली पुलिस के खिलाफ कार्रवाई करने वाला कोई है क्या?

पत्रकारों को समाज का दर्पण कहा जाता है। उनकी लेखनी से निकले एक-एक शब्द समाज को अंदर तक हिला देने की ताकत रखते हैं। मगर क्या हमने कभी गौर किया है कि कितनी परेशानियों को झेलते हुए वे सामाजिक बुराइयों को मिटाने का प्रयास करते हुए समाज को एकजुट रखते हैं। आज भारतीय समाज में जिस तेजी से बदलाव आ रहा है, उनके बीच हमारे पुरातन जीवन मूल्य खो से गए हैं। जिस सभ्यता पर हमें गर्व हुआ करता था, आज हम उसकी अनदेखी कर पश्चिमी सभ्यता का अंधानुकरण करने में जुट गए हैं। हम यह भूल गए हैं कि उसी संस्कृति की वजह से भारत को विश्व का सिरमौर माना जाता है। जैसे-जैसे बाजारीकरण हम पर हावी हुआ, हमारी नीयत में भी फर्क आ गया। हम सिर्फ अपने तक सीमित होकर रह गए। पहले जहां लोग कोई काम करने से पहले खुद के साथ-साथ समाज के अन्य लोगों के बारे में भी सोचते थे, अब यह सोच पूरी तरह लुप्त हो गई है। स्वार्थसिद्धि की इसी आदत ने आज समाज को एक ऐसे मोड़ पर लाकर खड़ा कर दिया है, जहां व्यक्ति सिर्फ अपने हित साधने के लिए काम करता है। उसे इससे कोई मतलब नहीं कि उसके ऐसे काम से दूसरे को कितनी तकलीफ होगी या उसका कितना नुकसान होगा। हो सकता है उसका जीवन भी तबाह हो जाए। ऊंचे ऊंचे पदों पर बैठे लोग भी सिर्फ अपने तक सीमित हो गए हैं। समाज के प्रति उसके दायित्व अब दूसरे पायदान पर आ गए हैं। समाज की यह स्थिति अच्छी नहीं कही जा सकती। खासकर ऐसे समय में जब भारत परिवर्तन के ऐसे मोड़ पर खड़ा है, जहां समूचे विश्व की नजर उस पर लगी हुई है। 

देखा जाए तो लोकतंत्र का चैथा स्तंभ कहे जाने वाले पत्रकार भी समाज में आए बदलाव से अछूते नहीं रह गए हैं। समय का पहिया घूमने के साथ साथ पत्रकारिता के उद्देश्य और मायने भी बदल गए हैं। अब पत्रकारिता ने समाज सुधारक का चोला उतारकर व्यवसायिकता का लबादा ओढ़ लिया है। उसकी प्राथमिकताओं की सूची में व्यक्तिगत हित ऊपर आ गए हैं। इसकी वजह भी बहुत साफ है। पहले जो लोग पत्रकारिता करते थे, वे इसे कमाई का साधन नहीं बल्कि देश सेवा का एक जरिया मानते थे। वे जानते थे कि उनकी कलम में वह ताकत है, जो समाज को आंदोलित भी कर सकती है, तो उसमें फूट भी डाल सकती है। कलम की ताकत कम नहीं हुई है बल्कि सही मायने में इसमें इजाफा ही हुआ है, मगर इसकी धार आज कुंद हो गई है। आजादी से पहले जब किसी अखबार में ब्रिटिश सरकार की जनविरोधी नीतियों के खिलाफ कोई समाचार प्रकाशित होता था तो ब्रिटिश सरकार परेशान हो जाती थी। वह तरह-तरह के हथकंडे अपनाकर देशभक्त पत्रकारों पर कहर बरपाया करती थी। अंग्रेजी सरकार के नुमाइंदे यह चाहते थे कि पत्रकार सिर्फ वही लिखें, जो उन्हें पसंद हो। 

इस परिप्रेक्ष्य में आजादी के पहले की और आज की स्थिति में बहुत ज्यादा फर्क नहीं आया है। सरकारें बदल गई, सामाजिक व्यवस्था में भी परिवर्तन हो गया मगर आज भी ऊंचे ओहदों पर बैठे लोग वही देखना, सुनना और पढ़ना चाहते हैं जो उन्हें पसंद हो। चाहे वह कितने भी घोटाले कर लें, देश की गरीब जनता की गाढ़ी कमाई का लाखों-करोड़ों रुपया हजम कर जाएं, पर उनके खिलाफ आवाज नहीं उठनी चाहिए। जो पत्रकार ऐसा करने की हिम्मत दिखाते हैं, उनकी राह कांटों से भर दी जाती है। उन पर तरह-तरह से अंकुश लगाने का प्रयास किया जाता है। अपना रौब गालिब कर पुलिस से उन्हें प्रताडि़त करवाया जाता है। समाज की रक्षक कहलाने वाली पुलिस भी भक्षक बन जाती है। उन्हें झूठे मुकदमों में फंसा दिया जाता है। ऐसी परेशानियों के मकड़जाल में उलझेे अधिकतर पत्रकार अपने उद्देश्यों से भटक जाते हैं। जो डटे रहे हैं, वे जाबांज कहलाते हैं। मगर परेशानियों से लोहा लेते हुए समाज के नासूर को उखाड़ फंेकने का जज्बा बहुत ही कम लोग दिखा पाते हैं।
लोकतंत्र की सजग प्रहरी कही जाने वाली पुलिस का यह कर्तव्य है कि वह समाज में होने वाले अपराधों पर कड़ी निगाह रखे और उनकी रोकथाम के लिए समुचित कार्रवाई करे। पर, सवाल यह उठता है कि क्या पुलिस अपने दायित्वों का सही तरीके से निर्वहन करती है? क्या वह देश में लागू नियम कानूनों द्वारा प्रदत्त अधिकारों का सही उपयोग करती है? क्षुद्र स्वार्थों की पूर्ति के लिए कुछ पुलिसवाले अपने अधिकारों का दुरुपयोग करके अनैतिक काम करने से भी बाज नहीं आते। ऐसे पुलिसकर्मियों की वजह से पूरे विभाग पर कालिख पुत जाती है। उनके अच्छे कामों को भी नजरंदाज कर दिया जाता है। यह किसी से छिपा नहीं है कि क्षुद्र स्वार्थों की पूर्ति करने के लिए ऐसे ही धनलोलुप पुलिसकर्मी निर्दोष लोगों को भी ऐसे मामलों में फंसा देते हैं, जिनसे उनका कभी कोई सरोकार ही नहीं रहा। आए-दिन पुलिस के उच्चाधिकारियों और अदालतों के सामने ऐसी अर्जियां आती हैं जिनमें कहा गया होता है कि फलां इलाके की पुलिस, अपराधियों से मिलकर निर्दोष लोगों का उत्पीड़न कर रही है। सब सबूत होते हुए भी वह उन्हें धमका रही है। आखिर ऐसा क्यों होता है ? क्या पुलिसवालों में इतनी भी गैरत बाकी नहीं रह गई है कि वह अच्छे और बुरे में फर्क कर सकें? किसी निर्दोष को फंसाकर वह तीन तरह से समाज को नुकसान पहुंचाते हैं। पहला तो वह, जिसे झूठे मुकदमें में फंसाया जाता है, उसका जीवन बर्बाद करके। दूसरे, उसके परिवारीजनों का चैन छीनकर और तीसरा समाज को गलत संदेश देकर। जो लोग झूठे मुकदमों में फंसते हैं, उनका अधिकांश समय कोर्ट-कचहरी के चक्कर काटने में ही बीत जाता है। मानसिक परेशानी होती है वह अलग। इन परेशानियों के चलते वह यह सोचने पर मजबूर हो जाते हैं कि आखिर क्यों उन्होंने समाज में फैली बुराइयों को दूर करने के लिए कदम उठाया? जो जाबांज होते हैं, वह तो गलत व्यवस्थाओं से लड़ते रहते हैं, मगर अधिकांश टूट जाते हैं। सामने आई परेशानियों से घबराकर अपने कदम वापस खींच लेते हैं।
आज समाज को जरूरत है पंजाब के उस नौजवान पत्रकार जैसे जीवट लोगों की, जो सामने आने वाली समस्याओं न डिगते हुए समाज से बुराइयों को उखाड़ फेंकने के अपने काम में जुटे रहते हैं। पर यह काम अकेले का नहीं है, इसके लिए सभी को एकजुटता के साथ आगे आना होगा। यदि ऐसा हो गया तो एक बार फिर से भारत को विश्व का सिरमौर बनने से कोई नहीं रोक सकता।

Friday, August 1, 2003

किसने कहा सीबीआई आजाद है ?



अयोध्या मामले में उप प्रधानमंत्री श्री लालकृष्ण आडवाणी, मानव संसाधन विकास मंत्री डाॅ. मुरली मनोहर जोशी, सुश्री उमा भारती व अन्य लोगों पर लगा आपराधिक साजिश का आरोप सीबीआई ने वापस ले लिया है। इससे विपक्ष काफी उत्तेजित है। उसका आरोप है कि सीबीआई ने सरकार के दबाव के चलते ऐसा किया है और वह मुक्त होकर कार्य नहीं कर रही। पर इसमें उत्तेजित होने की कोई बात नहीं है। जो भी सीबीआई के काम करने के तरीके को जानता है, उसे पता है कि सीबीआई भ्रष्टाचार के विरुद्ध जांच करने वाली एक निष्पक्ष एजेंसी नहीं है बल्कि यह तो सत्ता पक्ष के हाथ में अपने विरोधियों को डराने धमकाने और सीधा रखने का एक औजार है। यही कारण है कि सीबीआई की स्वायत्तता को लेकर जब जब मांग उठी, तब तब उसे माना नहीं गया। 

यह रोचक तथ्य है कि 10 फरवरी 2000 को जी टीवी पर प्राइम टाइमकार्यक्रम में हवाला कांड की जांच से जुड़े रहे सीबीआई के पूर्व संयुक्त निदेशक व हरियाणा पुलिस के तत्कालीन महानिदेशक श्री बीआर लाल ने जोर देकर यह बात कही कि हवाला कांड में तमाम बड़े राजनेताओं के विरूद्ध सबूत मौजूद थे, पर सीबीआई के निदेशक के आदेश व ऊपर से पड़ रहे दबाव के चलते उन्हें अदालत के सामने पेश नहीं करने दिया गया। यह बात उन्होंने इसी शो में मौजूद सीबीआई के तत्कालीन निदेशक श्री जोगिंदर सिंह की उपस्थिति में कही। आश्चर्य की बात है कि सीबीआई,सरकार व सर्वोच्च न्यायालय ने इतने महत्वपूर्ण रहस्योद्घाटन पर कोई प्रतिक्रिया व्यक्त नहीं की। यहां तक कि देश के मीडिया ने भी इतनी महत्वपूर्ण खबर को कोई तरजीह नहीं दी। अगर ऐसा किया होता तो श्री लाल सारे प्रमाण अदालत के सामने रखकर ये सिद्ध कर देते कि हवाला कांड को किस तरह दबाया गया। 

5 फरवरी 2000 को जब मैंने स्टार न्यूज के बिग फाइट शोमें कंेद्रीय सतर्कता आयुक्तश्री एन. विट्ठल से पूछा कि वे देश से भ्रष्टाचार मिटाने की घोषणाएं तो कर रहे हैं, पर जिस हवाला कांड के कारण उन्हें यह पद मिला है उसकी जांच में हुए भ्रष्टाचार को दूर करने से वे क्यों कतराते हैं ? मजबूरन श्री विट्ठल को घोषणा करनी पड़ी कि वे हवाला कांड की जांच फिर से करवाएंगे। इसके तुरंत बाद देश की राजनीति में तूफान खड़ा हो गया। तीन हफ्ते तक संसद और अखबारों में यह शोर मचता रहा कि श्री विट्ठल को यह जांच करवाने का कोई अधिकार नहीं है। अंततः श्री विट्ठल के पर कतर दिए गए। उल्लेखनीय है कि अगस्त 1997 में जब हवाला कांड को पुनः ठंडे बस्ते में डालकर, भविष्य में सीबीआई को स्वायत्तता देने की बात सर्वोच्च न्यायालय में की जा रही थी, तभी मैंने लिखकर अदालत से अपना विरोध दर्ज किया था। मेरा तर्क था कि जब पूर्ण रूप से स्वायत्त संस्था सर्वोच्च न्यायालय ही आतंकवाद से जुड़े इस गंभीर कांड की जांच नहीं करवा पा रही है तो भविष्य में सरकार द्वारा नियुक्त सीवीसी नुमा कोई अधिकारी यह कैसे करवा पाएगा ? वही बात इस घटना के बाद सामने आई। 

दरअसल सीबीआई के गठन को लेकर कोई अलग कानून नहीं है। इसका कानूनी नाम दिल्ली स्पेशल पुलिस एस्टेब्लिशमेंट (डीएसपीई) है। द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान युद्ध एवं  आपूर्ति विभाग में होने वाले भ्रष्टाचार की जांच करने के लिए भारत की अंग्रेज सरकार ने 1941 में इसकी स्थापना की थी। विश्व युद्ध के खत्म होने के बाद केन्द्र सरकार के विभागों में व्याप्त भ्रष्टाचार की जांच के लिए 1946 में दिल्ली स्पेशल पुलिस एस्टेब्लिशमेंट एक्ट बनाकर डीएसपीई को केन्द्रीय गृह मंत्रालय के अधीन कर दिया गया। इसी के साथ केन्द्र सरकार के सभी विभाग अब इसकी जांच के दायरे में आ गए। केन्द्रशासित प्रदेश और जरूरत पड़ने पर राज्यों को भी डीएसपीई की सेवाएं लेने की अनुमति दी गई। 1 अप्रेल 1963 से इसे सीबीआई कहा जाने लगा। पहले यह गृह मंत्रालय के अधीन था, फिर इसकी महत्ता को समझते हुए श्रीमती इंदिरा गांधी ने इसे अपने अधीन कर लिया। तब से यह प्रधानमंत्री के ही अधीन चला आ रहा है। 

यूं सीबीआई ने कई बड़े कांड पकड़े हैं। पर बड़े पदों पर बैठे राजनेताओं, खासकर आला अफसरों को सजा दिलवा पाने में इसकी सफलता नगण्य रही है। अक्सर ऐसा होता है कि जब राज्य की पुलिस भ्रष्टाचार करे और जांच में कोताही बरते तो सीबीआई को तलब किया जाता है। पर अगर सीबीआई ही भ्रष्टाचार करे या तथ्यों को दबाए और अपराधियों को संरक्षण दे तो कहां जाया जाए? ऐसी ही समस्या तब सामने आई जब 1993 में मुझे पता चला कि सीबीआई जैन हवाला केस को 1991 से दबाए बैठी है। मैं देशद्रोह के इस मामले में जांच की मांग लेकर सर्वोच्च अदालत में गया। अदालत ने जांच करवाई और भारत की राजनीति में हड़कंप मच गया। पर फिर सीबीआई को भविष्य में स्वायत्ता दिए जाने के आदेश जारी करके केस को फिर ठंडे बस्ते में डाल दिया गया। 

दिसंबर 1997 में जैन हवाला केस के संदर्भ में एक महत्वपूर्ण फैसले के तहत सर्वोच्च न्यायालय ने सरकार को सीबीआई को स्वायत्ता दिए जाने के निर्देश दिए। इस व्यवस्था के तहत उसे केन्द्रीय सतर्कता आयुक्त के अधीन काम करना था। केन्द्रीय सतर्कता आयुक्त का चुनाव एक पारदर्शी प्रक्रिया से होना था और कानून बनाकर उसके अधिकार काफी व्यापक किए जाने थे। पर सीबीसी नाम का यह बिल वर्षों संसद में फुटबाॅल की तरह उछलता रहा। अंत में जो कानून बना वो सर्वोच्च न्यायालय के निर्देश की धज्जियां उड़ाने वाला था। न तो सीबीआई को स्वायत्ता ही मिली और न ही सीवीसी को सीबीआई से खुलकर काम कराने के अधिकार। अब तो सीबीआई पहले से भी और पंगु हो गई है।

ऐसे माहौल में अगर उसने अयोध्या मामले में श्री आडवाणी, डाॅ. जोशी, सुश्री उमा भारती व अन्य लोगों के खिलाफ आरोप वापस ले लिए हैं तो इसमें उत्तेजित होने की कोई बात ही नहीं। संसद के जो सदस्य भी इस कार्रवाई के खिलाफ हैं, उन्हें चाहिए कि वे इस मामले पर शोर मचाने के साथ ही इस बात का माहौल बनाएं कि 18 दिसंबर 1997 के सर्वोच्च न्यायालय के आदेश के तहत सीबीआई और सीवीसी को पूर्ण स्वायत्ता दी जाए। ऐसा होने पर सीबीआई के सरकार के दबाव में आने की संभावना लगभग समाप्त हो जाएगी। पर कोई ऐसा नहीं करेगा। कोई दल नहीं चाहता कि सीबीआई जैसा सशक्त हथियार हाथ से जाने दिया जाए। जो आज सत्ता पक्ष कर रहा है वही कल वे दल करेंगे जो आज विपक्ष में बैठे हैं। इसलिए शोर चाहे जितना मचे, होना जाना कुछ नहीं है। ठीक वैसे ही जैसे पिछले पचास सालों में कितने ही घोटालों पर कितना बवंडर मचा, पर अंत में रहे वही ढाक के तीन पात। हां, यह जरूर होगा कि कुछ दिनों तक अखबारों के पन्ने विपक्ष और पक्ष के आरोप प्रत्यारोंपों से भरे रहेंगे। टीवी के न्यूज चैनलों पर त्योंरियां चढ़ा चढ़ाकर गरमागरम बहसें होंगी। विपक्ष सरकार को हर तरह से सरकार को कटघरे में खड़ा करने की कोशिश करेगा, और इस सबका मकसद होगा केवल राजनैतिक लाभ कमाना। क्योंकि कोई भी दल नहीं चाहता कि सीबीआई इतनी सशक्त हो जाए कि वह निरंकुश होकर किसी भी बड़े आदमी के खिलाफ किसी भी सीमा तक जाकर जांच कर सके। 

वैसे भी अयोध्या मामले पर जनता की राय बंटी हुई है। हिन्दु भावना से प्रभावित लोग मानते हैं कि बाबरी मस्जिद को गिरवाकर भाजपा के नेताओं कोई अनैतिक कृत्य नहीं किया। उन्होंने तो ‘‘हिन्दुओं के सोए हुए स्वाभिमान’’ को जगाया। पर कानून की नजर में इन नेताओं का अपराध वास्तव में अपराध है क्योंकि उन पर सत्ता के विरुद्ध लोगों को भड़काने का आरोप बनता है। उन्होंने ऐसा कि इसके तमाम प्रमाण देश में मौजूद हैं। वैसे भी अपने पद की गोपनीयता और संविधान की शपथ खाकर केन्द्र में मंत्री बनने वाले व्यक्तियों से यह अपेक्षा नहीं की जा सकती कि वे खुद ही कानून को तोड़ने वाले होंगे। पर यह केवल बौद्धिक चर्चा का विषय है। बड़ोदा डायनामाइट में आरोपित श्री जार्ज फर्नांडीज हों या दूसरे कांडों में फंसे दूसरे नेता जब जीतकर आते हैं और सत्ता पक्ष में होते हैं तो वे आमतौर पर उनके विरुद्ध आरोप पत्र दबा दिए जाते हैं। जब वे विपक्ष में आते हैं तो सत्ता पक्षा उन्हें नियंत्रण में रखने के लिए उनके खिलाफ आरोपों को उछालता रहता है। ठीक वैसे ही जैसे बोफोर्स कांड को उछलते हुए आज सोलह वर्ष हो गए और नतीजा कुछ भी नहीं निकला। हर चुनाव के पहले कांग्रेस के विरोधी दल इस मामले को उछाल देते हैं ताकि श्रीमती सोनिया गांधी की छवि को धूमिल किया जा सके। पर ईमानदारी से जांच वे भी नहीं करवाना चाहते। इसका साफ प्रमाण है कि इस घोटाले में फंसे बड़े अफसरों के खिलाफ जांच की अनुमति को प्रधानमंत्री कार्यालय बरसों दबाए बैठा रहा। 

ऐसा नहीं है कि सीबीआई को यह सब करने दिया जाए और देशवासी खामोशी से देश की शीर्ष जांच एजेंसी के पतन और दुरुपयोग का तमाशा देखते रहें। अगर हम चाहते हैं कि सीबीआई वास्तव में जांच करे और अपराधियों को सजा दिलवाए तो हमें सीबीआई की स्वायत्ता के लिए जनमत तैयार करना चाहिए ताकि भविष्य में सीबीआई आजादी से और निरंकुश रहकर भ्रष्टाचार के खिलाफ बड़ी बड़ी जांच कर सके। आज देश के सामने जो सुरसा की तरह फैलते भ्रष्टाचार की समस्या है उसका निदान यही होगा कि सीबीआई को उसका काम करने दिया जाए। आज तो भ्रष्टाचार के खिलाफ जांच करने वाली एजेंसी नहीं बल्कि बड़े घोटालों का कब्रगाह है। हर कुछ महीने बाद एक नए घोटाले की कब्र सीबीआई में बन जाती है। अयोध्या मामले की कब्र को बनते देखकर चीखने चिल्लाने से क्या फायदा ?

Friday, July 25, 2003

एक घोषणा से नहीं चलेगा काम


अभी हाल ही में सरकार ने फसल ऋणों की ब्याज दर में भारी कटौती करके किसानों को राहत देने की कोशिश की है। इसके तहत अपनी फसलों को लहलहाते देखने के लिए जो किसान अब तक 14 से 18 प्रतिशत की ब्याज दर पर कर्जा ले रहे थे, अब उन्हें पचास हजार रुपए तक के फसली ऋण के लिए नौ फीसदी ब्याज ही चुकानी होगी। एक तरह से देखा जाए तो सरकार का यह कदम प्राकृतिक आपदाओं के मकड़जाल में फंसकर तड़पते किसानों के माथे की सलवटों को कुछ हद तक दूर कर देगा, पर क्या सिर्फ इसी निर्णय के बलबूते किसानों की सारी समस्याओं का अंत हो जाएगा ? ऐसा नहीं होगा। भारत की अर्थव्यवस्था में महत्वपूर्ण योगदान देने वाले किसान तब भी वैसे ही बदहाल रहेंगे, जैसे वे आज हैं। बड़े किसानों की बात छोड़ दें तो लघु और सीमांत किसानों की हालत पिछले कुछ सालों में बिगड़ी ही है। अन्न उत्पादन में सबसे महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाले निचले स्तर के किसान तथा खेतिहर मजदूरों की आर्थिक स्थिति में गिरावट का दौर थम नहीं पा रहा है। बल्कि देखा जाए तो पिछले कुछ सालों से, जबसे सरकार ने कृषि उत्पादनों के आयात पर से मात्रात्मक प्रतिबंध हटाए हैं, तब से छोटे किसानों की कमर ही टूट गई है। 

ऐसा नहीं है कि छोटे किसानों की यह हालत उत्पादन में कमी के कारण आई है। अन्न उत्पादन तो हर साल रिकार्ड स्तर को पार कर जाता है। फिर किसानों की हालत क्यांे नहीं सुधर पा रही? यदि गहनता से विचार किया जाए तो पता चलेगा कि किसानों में भी दो वर्ग हैं। एक वे जो बड़ी जमीनों के मालिक हैं और घर बैठकर खेतिहर मजदूरों से अन्न उत्पादन कराते हैं। दूसरे वह हैं जो दिन-रात कड़ी मेहनत करके खेतों में अपना पसीना बहाते हैं। इनके पास या तो खुद की जमीन नहीं होती या फिर होती भी है तो वह इतनी कम कि वह उनकी गुजर बसर के लिए साधन नहीं जुटा पाती। बड़े किसान तो साधन सम्पन्न होने के कारण खेती में प्रयुक्त होने वाले खाद, बीज, उपकरण आदि चीजों की व्यवस्था कर लेते हैं। साथ ही वे बाजार की मांग के हिसाब से बोयी जाने वाली फसल में भी बदलाव कर लेते हैं। आजकल पारंपरिक अन्न की पैदावार के बजाए फल-फूल की खेती को बढ़ावा दिया जा रहा है। सरकार भी किसानों को तरह तरह के प्रशिक्षण तथा जानकारी देकर उन्हें इसके लिए प्रोत्साहित कर रही है। बीज उपलब्ध कराने से लेकर फसल उगाने के तरीकों तक की जानकारी किसानों को दी जा रही है। इनसे होने वाले फायदे गिनाए जा रहे हैं। इन फसलों में मुनाफा ज्यादा होने के कारण किसानों का रुझान भी अब इस ओर बढ़ने लगा है। कई क्षेत्रों में गांव के गांव फल-फूल की खेती करने लगे हैं। इससे वहां के किसानों का जीवन स्तर में भी सुधार आया है। परंतु लघु एवं सीमांत किसान जिनके पास पांच एकड़ से ज्यादा जमीन नहीं होती, के लिए नई तकनीकों का प्रयोग करना इतना आसान नहीं होता। यह लोग तो खेती के आवश्यक खर्चों को भी वहन नहीं कर पाते। जैसे तैसे कर्जा लेकर खाद, बीज खरीदकर फसल उगाते हैं। भगवान से हर समय प्रार्थना करते रहते हैं कि कोई प्राकृतिक आपदा न आए। यदि फसल ठीक हो भी जाए तो भी इनके लिए लागत निकालना आसान नहीं होता। यह लोग ब्याज की रकम और मूल चुका भी नहीं पाते कि दूसरी फसल उगाने का समय आ जाता है। इस तरह यह कर्ज दर कर्ज के संजाल में फसंते जाते हैं। तब इनके सामने दो ही रास्ते बचते हैं या तो अपनी जमीन बेचकर कर्जा चुकाएं या फिर भूख और बेहाली से त्रस्त होकर जान गंवाएं। इसी वर्ग में खेतिहर मजदूर भी आते हैं जो रात दिन दूसरों के खेतों में फसल पैदा करते हैं। अपना पसीना बहाकर पैदा किया गया अन्न भी इनकी पहंुच से दूर होता है। उत्पादक, खेत मालिक और मंडी तीन स्तरों के बाद अनाज बाजार में बिकने आता है, उसे भी यह खेतिहर मजदूर खरीद पाने में सक्षम नहीं होते। अब ऐसी स्थिति में इन छोटे किसानों और खेतिहर मजदूरों का जीवन स्तर कैसे ऊपर उठ पाएगा, यह एक गंभीर चिंतन का विषय है।

दूसरी ओर उदारीकरण के नाम पर जो फैसले कुछ साल पहले लिए गए थे, अब उसके दुष्परिणाम  भारतीय उत्पादकों के सामने आ रहे हैं। आयात नीति में छूट देने के कारण जहां विदेशों से फलों की आवक के कारण हिमाचल प्रदेश और  कश्मीर के किसान परेशान हो गए हैं, वहीं गेहूं, चावल के खुले आयात से पंजाब एवं उत्तर भारतीय किसानों की पेशानी पर बल पड़ गए हैं। कपास के आयात से आन्ध्र प्रदेश, गुजरात एवं महाराष्ट्र के किसानों पर भी बुरा असर पड़ रहा है। यही हाल तिलहन की खेती करने वालों का है क्योंकि सस्ता होने के कारण विदेशी पाम आॅयल और सोयाबीन आॅयल को भारत मंगवाया जा रहा है। डब्लूटीओ का वरदहस्त प्राप्त बहुराष्ट्रीय कंपनियां महंगी खाद और बीज तथा कीटनाशकों को भारत में खपा रही हैं और यहां के भोले-भाले किसानों को भरमा रही हैं कि इनका प्रयोग करने से पैदावार में कई गुना बढ़ोत्तरी हो जाएगी। यह सही है कि इन्हें खेतों में डालने से उत्पादन बढ़ जाता है मगर वास्तविकता में इनसे लाभ कम, नुकसान ज्यादा होता है। बहुराष्ट्रीय कंपनियों के ये बीज सिर्फ एक बार ही बोए जा सकते हैं। इनसे दुबारा फसल नहीं हो सकती। इसी तरह रासायनिक खाद धीरे धीरे भूमि की उर्वरा शक्ति को खत्म कर देती है। कुछ ही सालों में जमीन बंजर हो जाती है। उस पर कोई भी फसल नहीं उग पाती। यह कंपनियां अपने नुकसानदेह उत्पादों को तो भारत मंे भेज रही हैं और खुद यहां के पारंपरिक तौर-तरीकों को आत्मसात कर सुकून का अनुभव कर रही हैं। भारतीय तरीके वास्तव में कारगर हैं परंतु पश्चिम की बयार ने भारतीयों के मन मस्तिष्क को कुंद कर दिया है। वह आधुनिक चकाचैंध के पीछे भागकर अपनी सदियों पुरानी विरासत को भूलते जा रहे हैं। 

नई जरूरतों के हिसाब से व्यवस्थाओं में तब्दीली करने के कानून तो बना दिए जाते है मगर जंग खाई नौकरशाही जनहित में नए नियमों को लागू नहीं होने देती। स्वार्थसिद्धि की आदत उन्हें रोक देती है। हर साल अन्न की पैदावार रिकार्ड स्तर को पार कर जाती है। अन्न गोदामों में सड़ता रहता है। खाद्यान्न की अधिकता के कारण उसे रखने की जगह तक नहीं मिलती। सैकड़ों टन अनाज मौसम की मार से यूं ही बेकार हो जाता है। मगर फिर भी विदेशों से अनाज मंगवाया जाता है। जो पैसा अन्न के आयात में खर्च किया जाता है यदि उसे देश में पैदा होने वाली फसलों के रखरखाव पर खर्च किया जाए तो भारत में अनाज की कोई कमी नहीं रहेगी। सरकार को केवल कागजी घोड़े दौड़ाने की जगह अब वास्तविकता के धरातल पर उतरकर कुछ ठोस करना ही होगा। हर साल सरकार गेहूं खरीद के न्यूनतम मूल्य निर्धारित करती है। अनाज खरीदने के लिए खरीद केन्द्र बनाए जाते हैं। किसानों की सुविधाओं के लिए इन खरीद केन्द्रों पर सभी आवश्यक साधन भी मुहैया कराए जाते हैं, मगर फिर भी किसान इनके बजाए कम कीमत पर बाजारों में अपना अन्न बेचते हैं। कारण, नौकरशाही का वरदहस्त प्राप्त दलालों का इन जगहों पर कब्जा रहता है। सरकार के तमाम दावों को यह नौकरशाही पलीता लगा देती है। हर साल झगड़े होते हैं, फसाद होते हैं लेकिन कुछ समय बाद गाड़ी उसी पुराने ढर्रे पर आ जाती है। स्थिति जस की तस रहती है। नियम बनाने के साथ साथ सरकार को नौकरशाही के अवैधानिक कार्यों पर लगाम लगाने के भी उपायों पर विचार करना होगा तभी किसानों तक उनका लाभ पहंुच पाएगा।

फसली ऋण की ब्याज दरों में कटौती करके सरकार ने किसानों को वर्ष 2002-03 की ऋण राशि में ही करीब ढाई हजार करोड़ रुपए की राहत देने की कोशिश की है। साथ ही किसानों को सस्ती ब्याज दर और आसान शर्तों पर ट्रैक्टर तथा अन्य कृषि उपकरण दिलाने के बारे में सरकार प्रयासरत है। निश्चय ही सरकार का यह कदम बड़े किसानों के लिए स्वागतयोग्य है। पर छोटे किसानों की दशा कैसे सुधरे, इस प्रश्न का हल खोजा जाना चाहिए। एक तरफ उदारीकरण के कारण बंद होते कारखाने, दूसरी तरफ कृषि का व्यवसायीकरण, गरीब आखिर जाए तो कहां जाए?

Friday, July 18, 2003

पानी रे पानी तेरा रंग कैसा


लो मानसून भी आ गया और धड़ल्ले से आया। पहले ही दिन देश की राजधानी दिल्ली में नगर निगम की सारी व्यवस्थाएं ध्वस्त हो गईं। बाकी शहरों की बात ही क्या करें, जहां की नगर पालिकाएं न तो दिल्ली नगर निगम के मुकाबले आर्थिक रूप से मजबूत हैं और न ही अन्य संसाधनों में। इन शहरों में तो एक ही बारिश ने नारकीय स्थिति पैदा कर दी। प्लास्टिक और दूसरे कचरे के ढेर पानी में तैरकर इन छोटे शहरों की सूरत को और भी बिगाड़ रहे हैं। एक दिन की बारिश मंे दिल्ली मे ंबाढ़ आ गई। पर पिछले दो बरस से प्यासी तड़पती धरती मां ने ऐसी प्यास बुझाई कि कुछ ही घंटों में सारा पानी पी गई। बारिश का क्रम जारी है और जारी रहना चाहिए क्योंकि देश की अर्थव्यवस्था के लिए बारिश का डटकर होना ही फायदेमंद है। पर सवाल है कि यह जो बेइंतहा पानी हमें अब मिल रहा है क्या इसे संचित करने की कोई व्यवस्था हमने की? जरा दो हफ्ते पहले का उत्तर भारत याद कीजिए। धरती सूखी पड़ी थी। कुंडों और सरोवरों में पानी नहीं था। राजस्थान और गुजरात के कुछ इलाकों में तो किसानों को पानी की तलाश में अपने गांव तक खाली कर देने पड़े और दो हफ्ते बाद हर ओर पानी ही पानी है।

हम बरसों से जल संकट की बात करते आए हैं और यह मानते हैं कि दुनिया में पानी का संकट बहुत तेजी से बढ़ता जा रहा है। कहा तो यह जाता है कि आने वाले वर्षों में लोगों, प्रांतों और राष्ट्रों के बीच झगड़े और युद्ध पानी की कमी को लेकर ही होंगे। पिछले 50 साल के सरकारी दस्तावेजों को देखें। जल संसाधन मंत्रालय की फाइलांे को अगर न देख सकें तो किसी भी पुस्तकालय में जाकर पिछले पचास सालों में बरसात के दिनों में दिए गए भारत सरकार और प्रांत सरकारों के बयानों को पढ़ें, जिनमें जल प्रबंधन करने के लिए तमाम बड़ी योजनाओं की घोषणाएं मिल जाएंगी। इन घोषणाओं में दावे किए गए थे कि देश को अतिवृष्टि और अनावृष्टि के संकट से उबारा जाएगा। वर्षा के पानी को जमा करके सूखे के समय में प्रयोग में लाया जाएगा। इसके लिए अरबों रुपये की तमाम योजनाएं बनीं और कागजों पर ही पूरी हो गईं। साठ से नब्बे फीसदी धन भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ गया। नतीजा यह कि एक बारिश देश की राजधानी तक का हुलिया बिगाड़ देती है जबकि उसी राजधानी दिल्ली में एक महीने पहले पानी का संकट इतना बढ़ गया था कि मुख्यमंत्री श्रीमती शीला दीक्षित को आदेश जारी करने पड़े कि लोग अपने बगीचों में पानी न डालें। ऐसा करने वाले पर दंडात्मक कार्रवाई की जाएगी। ये है हमारी प्रशासनिक व्यवस्था का विरोधाभास। देश की जनता को बार बार बड़े-बड़े सपने दिखाकर नई योजनाओं के नाम पर मूर्ख बनाया जाता है। योजना के घोषित उद्देश्य गलत नहीं होते, पर उनके पीछे छिपी धनलोलुपता हर योजना का भट्टा बैठा देती है। 

अब ताजातरीन योजना को ही लें। पूरे देश को बताया जा रहा है कि नदियों को जोड़ने से देश का जलसंकट दूर हो जाएगा। दिखने में यह बात बहुत तार्किक लगती है। 40 से 50 सालों में पूरी होने वाली इस महती योजना के लिए लगभग पांच लाख साठ हजार करोड़ रुपये की फौरी तौर पर जरूरत पड़ने का अनुमान लगाया गया है। पिछले 16 सालों से सरकार इस महायोजना की रूपरेखा तैयार करने के लिए अध्ययन करवा रही है। जिन नदियों में बारिश का पानी कहर बनकर उमड़ता है, उन सभी को आपस में जोड़कर बाढ़ के पानी को सूखाग्रस्त इलाकों तक पहंुचाना ही इस योजना का उद्देश्य है। सरकारी अनुमान के मुताबिक इस परियोजना के पूरी होने के बाद लगभग 150 मिलियन हैक्टेअर जमीन को सींचा जा सकेगा। 35 हजार मेगावाट बिजली उत्पादित की जा सकेगी तथा सूखे से प्रभावित जगहों पर पानी पहंुचाया जा सकेगा। पर, वास्तव में ऐसा हो सकेगा, इसमें उम्मीद कम, संशय ज्यादा है। भ्रष्टाचार और स्वार्थपूर्ति के साथ साथ राज्यों के व्यक्तिगत हित भी इस परियोजना के पूरी होने में आड़े आएंगे जिनका निपटारा करना असंभव नहीं तो कठिन जरूर है। हालांकि इससे पहले भी इतनी बड़ी तो नहीं, परन्तु अच्छी-खासी योजनाएं बन चुकी हैं जिनमें देश का काफी पैसा लगा। उन पर काम भी हुआ। पर नतीजा ये कि अरबों रुपये खर्च करने के बाद भी हम बरसात का केवल दस फीसदी जल रोक पाते हैं, नब्बे फीसदी जल नदियों के रास्ते बहकर समुद्र में मिल जाता है और खारी हो जाता है।

जल प्रबंधन का तो ये हाल है। अब यमुना को प्रदूषण मुक्त करने वाली योजना को ही लीजिए। यमुना एक गंदे नाले में तब्दील हो चुकी है। कुछ स्वयंसेवी संस्थाओं की पहल पर इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने इस ओर ध्यान दिया और सरकार को उसके दायित्व का अहसास कराया। हाईकोर्ट के निर्देश पर सरकार ने यमुना को साफ करने की भारी भरकम योजना बनाई। अरबों रुपये की धनराशि अवमुक्त की गई। जोर-शोर से काम चला। यमुना में गिरने वाले गंदे नालों को टेप कर दिया गया। शहर की गंदगी यमुना में न जाए, इसके लिए सीवेज टैंक और सीवेज ट्रीटमेंट प्लांट बनाए गए। लोगों को जागरुक करने पर भी लाखों रुपये फूंक दिए गए। पर, लोगों में न जागरूकता आनी थी और न ही आई। आज भी यमुना में गंदगी की वही स्थिति है जो परियोजना शुरू होने से पहले थी। केन्द्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड (सीपीसीबी) द्वारा यमुना नदी के किनारे बसे शहरों में बनाए गए सीवेज ट्रीटमेंट प्लांट सफेद हाथी की तरह खड़े होकर लोगों को मुंह चिढ़ा रहे हैं। प्रोजेक्ट बनाने वाले नीति निर्धारकों ने आपस में तय किया था कि इन सीवेज ट्रीटमेंट प्लांटों को बनाकर स्थानीय नगर पालिकाओं के सुपुर्द कर दिया जाएगा। बन जाने के बाद जब सीपीसीबी ने इन्हें नगर पालिकाओं से लेने के लिए कहा तो उन्होंने हाथ खड़े कर दिए। अपनी सीमित संसाधनों से जैसे तैसे काम चला रहीं बदहाल नगर पालिकाएं इन सीवेज ट्रीटमेंट प्लांटों का खर्च कैसे उठाएंगी, यह किसी ने नहीं सोचा था। अब स्थिति यह है कि रखरखाव के अभाव में यह ट्रीटमेंट प्लांट अपनी गंदगी ही साफ नहीं कर पा रहे हैं, शहर की गंदगी को यमुना में जाने से रोकने की बात तो छोड़ दीजिए। गंगा मुक्ति अभियान की कहानी भी इससे फर्क नहीं है।

झारखंड, बिहार और पश्चिम बंगाल में बहने वाली भारत की एक प्रमुख नदी दामोदर की स्थिति तो और भी ज्यादा भयावह है। छोटा नागपुर पठार के खरमरपेट पहाडि़यों से निकली 563 किमी लम्बी दामोदर नदी का पानी पीने की तो छोडि़ए, अन्य उपयोग के लायक भी नहीं है। नदी के आसपास के इलाके में करीब 183 कोयले की, 28 लौह अयस्क की, 33 चूने की, 5 काॅपर की तथा 84 माइका की खदानें हैं। इसके अलावा देश के जानी-मानी जल विद्युत परियोजनाएं भी इसी क्षेत्र में हैं। बड़ी-बड़ी इन खदानों तथा विद्युत परियोजनाओं में दामोदर नदी का पानी ही इस्तेमाल किया जाता है। अपना काम निकलने के बाद गंदे पानी को नदी में ही छोड़ दिया जाता है। हालत यह है कि कुछ स्थानों पर नदी पूरी तरह कोयले से भरी पड़ी है। नदी में हाथ डालो तो पानी नहीं कोयला निकलता है। नदी संरक्षण के लिए बनाई गई दामोदर वैली कारपोरेशन भी उपाय करते-करते थक गई है, परन्तु नतीजा कुछ नहीं निकल पा रहा है। नदी में प्रदूषण कम होने के बजाए बढ़ता जा रहा है। दामोदर तथा इसकी सहायक नदियों साफी और कोनार के किनारे अकेले झारखंड राज्य में ही करीब दस लाख लोग रहते है। पानी का कोई और सहारा न होने के कारण यह दामोदर नदी के प्रदूषित पानी पर ही निर्भर हैं। मजबूरी में लोग अयस्कों से भरा यह पानी पीते हैं और डायरिया, गेस्ट्रोएंटराइटिस, हैपेटाइटिस तथा गंभीर त्वचा रोगों के चंगुल में फंसे रहते हैं।

भारत मंे प्रति व्यक्ति पानी की उपलब्धता 1,869 क्यूबिक मीटर है। सन् 1951 में जहां यह 5,177 थी वहीं सन् 2050 में इसके 1,140 क्यूबिक मीटर रह जाने की आशंका जताई जा रही है। यह साबित करता है कि हमारे देश में पानी की स्थिति ज्यादा अच्छी नहीं है। यदि समय रहते पृथ्वी पर अमृत समान मौजूद पानी को बचाने की सकारात्मक और प्रभावी पहल नहीं की गई, तो हम सभी गंदा जहरीला जल पीने पर मजबूर होंगे। इसलिए जरूरत है कि पानी के मामले में हम सब जागें और सरकार पर दबाव डालें ताकि पानी के प्रबंध को लेकर योजनाएं बनाने वाले गैर जिम्मेदाराना तरीके से काम करना बंद कर दें। देश में जल की कमी नहीं है पर भ्रष्टाचार के चलते उसका प्रबंध नाकारा है। नदियों को जोड़ने की योजना की सफलता उसे लागू करने वालों की ईमानदारी पर निर्भर करेगी।