Sunday, March 28, 2010

थाईलैंड: राजतंत्र बनाम लोकतंत्र

चाणाक्य पंडित ने कहा है कि व्यवस्था कोई भी हो अगर उसको चलाने वाले ठीक हैं तो कोई फर्क नहीं पड़ता। फिर चाहे राजतंत्र हो या लोकतंत्र। अगर राजा चरित्रहीन या खुदगर्ज हो तो राजतंत्र जनता के लिए अभिशाप बन जाता है और अगर सांसद अपराधी और भ्रष्ट हों तो लोकतंत्र जनता के लिए नासूर बन जाता है। थाईलैंड जो कभी गुलाम नहीं रहा। पिछले 64 साल से एक ही राजा के आधीन शासित है। 1946 में अपने बड़े भाई की रहस्यमय मृत्यु के दिन ही भूमिबोल का राज्याभिषेक कर दिया गया। तब से आज तक राजा भूमिबोल ने पितातुल्य व्यवहार से शासन किया और जनता के हृदय में स्थान बनाया है। वे आज दुनिया के सबसे ज्यादा समय तक सत्ता में रहने वाले राजा हैं। यूं तो थाईलैंड में 1932 से आज तक 18 बार फौजी हुकूमत कायम हो चुकी है। पर यह राजा भूमिबोल की सूझ-बूझ थी कि हर बार उन्होंने सत्ता का संतुलन पुनः स्थापित कर दिया। अभी 2008 में ही बैंकाक की सड़कों पर लाल कमीज वाले प्रदर्शनकारियों ने फौज से संर्घष किया था। पिछले वर्ष भी ये सड़कों पर उतर आये। एक बार फिर इस मार्च के दूसरे हफ्ते में डेढ़ लाख लाल कमीज वाले प्रदर्शनकारी एक हफ्ते तक धरना प्रदर्शन करते रहे। ये लोग लोकतंत्र की बहाली चाहते हैं। इन्हें भगोड़े प्रधानमंत्री थकसिन का समर्थन है। जिन्हें 2006 में सैना ने अपदस्थ कर कठपुतली प्रधानमंत्री अभिशित वजाजिवा को सत्ता पर बिठा दिया। राजा ने इस परिवर्तन को स्वीकार कर लिया। थाईलैंड के धनाड्य वर्ग के चहेते अभिशित वजाजिवा जनता की आंखों में खटक रहे हैं। आम जनता विशेष कर पूर्वोतर की जनता थकसिन की जनहित नीतियों के कारण उनकी लोकतांत्रिक बहाली चाहती है। हलाकि थकसिन की अकूत दौलत और शाही जीवन आलोचना का विषय रहा है पर उनकी नीतियां आम जनता के हित में रही।

थाईलैंड के बुद्धिजीवी मानते हैं कि आज की दुनिया में राजतंत्र का कोई औचित्य नहीं बचा है। थाईलैंड को भी यूरोप के देशों की तरह राजा का पद मात्र अलंकरण के लिए ही रखना चाहिए। राजा को शासन में दखल नहीं देना चाहिए। पर यह बात वहां खुलकर नहीं कही जा सकती। जनसभाओं, लेखों और अखबारों में तो बिलकुल नहीं। थाईलैंड का कानून राज परिवार के बारे में कुछ भी नकारात्मक चर्चा करने की अनुमति नहीं देता। ऐसा करने वाले को फौरन कारावास भेज दिया जाता है। इसलिए यह राजनैतिक चर्चा दबी जुबान से निजी दायरों में की जाती है। पर बहुमत लोकतंत्र के पक्ष में है। अलबता जनता राजवंश को पूरी तरह खत्म नहीं करना चाहती। विशेष कर मौजूदा राजा को तो कतई नहीं। समस्या युवराज को लेकर है। 57 वर्षीय युवराज वाजीरालोगोकर्ण का जीवन ढर्रा, स्वभाव, चरित्र व आचरण जनता के बीच चिंता का विषय बना रहता है। राजा भूमिबोल गत सात माह से अस्पताल में है। 82 वर्ष की आयु में उनके बहुत ठीक  होने या लंबे समय तक जिंदा रहने की आशा नहीं की जा सकती। थाईलैंड की जनता को यही चिंता सत्ता रही है कि राजा के बाद उनका उत्तराधिकारी देश को दिशा कैसे दे पायेगा। जबकि दूसरी तरफ राजकुमारी सिरिधौर्न की छवि एक ममतामयी समाज सेवी की है। जनता की हार्दिक इच्छा राजकुमारी सिरिधौर्न को सत्ता में देखने की है।

राजनैतिक विश्लेषकों को भय है कि अगर राजकुमार वाजीरालोगोकर्ण को सत्ता मिलती है तो कहीं थाईलैंड में नेपाल जैसी खूनी क्रांति न हो जाए और कहीं राजतंत्र समाप्त ही न हो जाए। स्वयं वाजीरालोगोकर्ण अपने जीवन को लेकर इतने सशंकित रहते हैं कि उनके अंगरक्षकों को आग्नेय अस्त्र रखकर उनके इर्द-गिर्द खड़े होने की छूट नहीं है। बुजुर्गों का कहना है कि राजा अंत समय में अपनी वसीयत में राजकुमारी सिरिधौर्न को सत्ता देंगे और राजकुमार वाजीरालोगोकर्ण को देश निकाला। राजकुमार वाजीरालोगोकर्ण के पास अकूत दौलत है। इसलिए उन्हें यूरोप जैसे देशों में रहकर ऐशोआराम की जिंदगी बिताना मुश्किल न होगा। राजा ऐसा करेंगे या नहीं यह तो वक्त ही बतायेगा किन्तु इतना निश्चित है कि राजा भूमिबोल की मृत्यु के बाद थाईलैंड के राजतंत्र का स्वरूप और छवि ऐसी नहीं रहने वाली है जैसे आज है।

अच्छा होता कि राजा भूमिबोल अपने जीवनकाल में लोकतांत्रिक व्यवस्था को विकसित करते। इससे देश में राजनैतिक अस्थिरता का माहौल इस तरह बार-बार न बनता। उन्होंने अपनी मर्जी के श्रेष्ठ लोगों की सलाहकार परिषद् बनाकर और उनसे सलाह लेकर देश तो ठीक चलाया और आर्थिक तरक्की भी खूब की। पर वे देश में सही नेतृत्व विकसित नहीं कर पाये। दरअसल थाईलैंड के राजा का आर्थिक साम्राज्य बहुत विशाल है। थाई अर्थव्यवस्था के लगभग हर क्षेत्र में राज परिवार का मोटा पैसा लगा है। वे प्रशासन कम और तिजारत ज्यादा करते हैं। लोगों को उनकी दौलत का कोई आंकलन नहीं है और न ही उनके खर्चों के हिसाब जनता की जांच के लिए उपलब्ध होते हैं। जबकि यूरोप के देशों में राज परिवारों पर किये जा रहे खर्चे को बाकायदा जनता की जांच के लिए प्रचारित किया जाता है या वेबसाईट पर डाला जाता है।

अगर थाईलैंड के राजपरिवार को लंबे समय तक अपनी स्थिति बनाये रखनी है तो उसे भूटान के राजा से सबक लेकर स्वतः ही लोकतांत्रिक प्रक्रिया को बहाल कर देना चाहिए। थाईलैंड के जागरूक लोगों को डर है कि ऐसा न करने पर थाईलैंड के राजवंश की दशा नेपाल के राजवंश जैसी न हो जाए।

Sunday, March 21, 2010

विकंलागों के साथ यह मजाक क्यों?


1995 में भारत सरकार ने विकलांगों को शिक्षा में समान अवसर देने के मकसद से एक कानून बनाया। जिसके तहत हर विकलांग के लिए शिक्षा प्राप्त करना उसका मूलभूत अधिकार बन गया। सर्व शिक्षा अभियान के तहत स्कूलों को निर्देश जारी किये गये कि वे ऐसे सभी बच्चों के पंजीकरण कर लें। दिल्ली में जनवरी 2010 में एक अभियान चलाकर स्कूलों में विकलांगों के पंजीकरण कराये गये। सरकार की इस पहल का बहुत स्वागत हुआ। पंजीकरण के लिए विद्यालयों में काफी बच्चे आये। स्वयंसेवी संस्थाओं ने भी इस अभियान में बढ़-चढ़ कर भाग लिया और उनकी जानकारी में जितने भी विकलांग बच्चे थे उन सबका पंजीकरण करवा दिया।

अब पहली अप्रैल से इन बच्चों के बकायदा दाखिले किये जायेंगे। पर इस नई उत्पन्न स्थिति के लिए यह स्कूल  तैयार नहीं है। इसलिए हर ओर अफरा तफरी का माहौल है। विकलांगों के लिए हर स्कूल में जगह-जगह लोहे की रेलिंग, रैम्प व विशेष टा¡यलेट होना जरूरी है। काफी स्कूलों ने दावा किया है कि उनके यहां यह व्यवस्था की जा चुकी है। जबकि हकीकत यह है कि इन स्कूलों के  इन विशेष टा¡यलटों में टूटा फर्नीचर या फाइलें भरी हुई हैं। इन्हें गोदाम बना दिया है। रेलिंग या तो है ही नहीं या टूटी पड़ी हैं। रैम्प बनाने वालों ने यह नहीं सोचा कि इन रैम्पों पर विकलांग बच्चे चलेंगे। इतनी बेहूदा रैम्प हैं कि उन पर चलने से दुर्घटना होने की संभावना ज्यादा है। वैसे भी इन रैम्पों पर स्कूल के कर्मचारी और छात्र दिनभर स्कूटर या साइकिल उतारते रहते हैं।

विकलांग छात्रों को शिक्षा देने के लिए शिक्षकों को जिस विशेष प्रशिक्षण की आवश्यकता होती है उसकी कोई व्यवस्था आज तक नहीं की गयी है। बिना इस प्रशिक्षण के यह पारंपरिक शिक्षक इन बच्चों से कैसा व्यवहार करेंगे? उनकी समस्याओं को कैसे समझेंगे? उनकी सीमाओं में रहते हुए उनके सीखने की क्षमता को कैसे बढ़ायेंगे? यह कुछ ऐसे सवाल हैं जिनकी चिंता मानव संसाधन विकास मंत्रालय ने नहीं की है। जाहिर है कि जहां इन शिक्षकों में इस नई स्थिति को लेकर असमंजस और तनाव है वहीं विकलांग बच्चों के माता-पिता भी कम चिंतित नहीं। उन्हें डर है कि संवेदनशीलता के अभाव में उनके बच्चों के साथ शिक्षक और सहपाठी ऐसा आक्रामक या व्यंगात्मक व्यवहार कर सकते है जिससे बच्चों  के मनोविज्ञान पर विपरीत प्रभाव पड़ जाए। शिक्षा पाने की बजाय उसका मन टूट जाए और उसका जीवन और भी जटिल हो जाए।

इन्दिरा गांधी राष्ट्रीय मुक्त विद्यालय को निर्देश दिये गये हैं कि वह 90-90 दिन के विशेष पाठ्यक्रम चलाकर सभी शिक्षकों को विकलांग बच्चों के साथ उचित व्यवहार करने का प्रशिक्षण दें। यह प्रशिक्षण महज खानापूर्ति से ज्यादा कुछ नहीं है। इसके अलावा इस नीति में यह भी प्रावधान है कि होम ऐजुकेशनदी जाए। यानी शिक्षक विकलांग छात्रों के घर जाकर भी उन्हें शिक्षा दें। आज की भाग दौड़ की जिंदगी में ऐसे कितने शिक्षक हैं जो सहानुभूतिपूर्वक विकलांग बच्चों की समस्याओं को समझे और उनके घर जाकर भी शिक्षा देने को तैयार हों?

वैसे भी सरकारी स्कूलों में हर कक्षा में 80-80 बच्चे हैं। कहीं-कहीं तो सवा सौ बच्चे भी एक कक्षा में भर्ती किये गये हैं। सर्व शिक्षा अभियान में 14 वर्ष तक के हर बच्चे को शिक्षा दिये जाने की नीति बनायी गयी है। नतीजतन गांव, गली, मौहोल्ले के हर बच्चे को ढूंढ-ढूंढ कर दाखिल किया जा रहा है। भेड़-बकरी की तरह बच्चे भर दिये गये हैं। न तो जगह है और न ही फर्नीचर। ऐसे में एक शिक्षक जो ऐसी कक्षा में जायेगा वह कितनी देर में तो हाजिरी लेगा? क्या पढ़ायेगा? कैसे जानेगा कि बच्चे समझे या नहीं? कैसे बच्चे परीक्षा में अच्छा कर पायेंगे? नहीं कर पायेंगे तो शिक्षक की खिंचायी नहीं की जायेगी क्या? फिर इस बेचारे शिक्षक से कैसे उम्मीद की जाए की वह विकलांगों की ओर विशेष ध्यान देगा?

इतना ही नहीं स्कूलों में शिक्षकों का भारी आभाव है। भर्तियां हुई ही नहीं हेैं। अनेक स्कूल तो बिना प्राचार्यों के ही चल रहे हैं। जिस स्कूल में प्राचार्य ही नहीं उसके प्रशासन की क्या दशा होगी? इसकी चिंता शायद सर्व शिक्षा अभियान चलाने वालों को नहीं है।

आजादी के बाद से आज तक प्राथमिक शिक्षा को लेकर नीतियां तो बहुत बनीं। बजट भी बहुत आवंटित किये गये। घोषणाएं भी बहुत हुईं। पर धरातल पर कुछ भी नहीं बदला है। हर नया शिक्षा मंत्री नई नीतियां और नये दावों का ढिंढोरा पीटता है। पर बदलता कुछ नहीं। साधन सम्पन्न लोग ही अपने बच्चों को ठीक शिक्षा दिलवा पाते हैं। बाकी के करोड़ों बच्चे तो भगवान भरोसे जीवन काट देते हैं। फिर वे नक्सलवादी, आतंकवादी या अपराधी बनें तो दोष किसका है। विकलांग बच्चे तो यह भी नहीं कर सकते। आवश्यकता है ईमानदार सोच और व्यवहारिक नीतियों की। नारों से समस्याओं के हल नहीं निकला करते।

Sunday, March 14, 2010

मायावती का मायाजाल

15 मार्च को बसपा अपनी रजत जयंती मना रही है। इस मौके पर बसपा सुप्रीमो मायावती ने लखनऊ में एक महारैली बुलाई है। दलित प्रतीकों की स्थापना के अति उत्साह में मायावती ने लखनऊ में अम्बेडकर पार्क, काशीराम मेमोरियल और प्रेरणा स्थली जैसे सैकड़ों करोड़ रूपये के जो भव्य स्मारक बनाये हैं उनको दलित समाज के सम्मुख प्रस्तुत करने का भी यही एक मौका है। क्योंकि इस रैली में पंजाब, हरियाणा, राजस्थान, मध्यप्रदेश और महाराष्ट्र जैसे राज्यों से भारी संख्या में दलित लखनऊ पहुंच रहे हैं। उन सब के लिए यह भव्य स्मारक कौतूहल का विषय रहेंगे। दो वर्ष पहले जब मायवती ने लखनऊ में एक दलित रैली की थी तो विभिन्न प्रांतों से आने वाले इन दलितों का व्यवहार आम जनता के लिए उत्सुकता भरा था। ईश्वर के अस्तित्व को नकारने वाले अम्बेडकरवादियों के लिए कोई देवालय, चर्च या मस्जि़द् तो है नहीं जहां जाकर वे अपने श्रृद्धा सुमन अर्पित कर सकें। इसलिए जब वे इन स्मारकों पर आये तो उन्होंने मायावती की मूर्ति के सामने नारियल फोड़े, उसे तिलक लगाया, हार पहनाया और परिक्रमा भी की। इस बार सर्वोच्च न्यायालय में हुई खिंचाई के बावजूद जिस युद्ध स्तर पर मायावती ने लखनऊ में इन भव्य स्मारकों का निर्माण कराया है उससे वे पूरी दुनिया के मीडिया का व जनता का ध्यान आकर्षित करने में सफल रही हैैं। इस रैली में आने वाले लाखों दलितों का वैसा ही व्यवहार शायद अब फिर देखने को मिलेगा जो शेष समाज के लिए कौतूहल का विषय होगा।

इस रैली की तैयारी इतने व्यापक स्तर पर की जा रही है कि लखनऊ का चप्पा-चप्पा नीली झंडियों से और हाथी के प्रतीकों से रंगीन हो गया है। दलित समाज सुधारकाs, अम्बेडकर, काशीराम व मायावती के विशाल कट-आउटों से लखनऊ का हर चैराहा पटा पड़ा है। अपनी ताकत और एैश्वर्य के प्रदर्शन का कोई भी अवसर मायावती गंवाना नहीं चाहतीं। जाहिर है कि जब लाखों लोग देशभर से इस रैली में आयेंगे तो मायावती के मायाजाल से प्रभावित हुए बिना नहीं जायेंगे।

इस संदर्भ में लखनऊ की सत्ता के गलियारों में दबी जुबान से इन स्मारकों के असर और भविष्य पर भी चर्चा चल रही है। मायावती के अधिनायकवादी व्यवहार के कारण उनसे शुब्ध अफसरशाही को विश्वास है कि अगले चुनाव तक मायावती अपना करिश्मा खो देंगीं। क्योंकि दलितों के उद्धार के नाम पर उन्होंने प्रदेश के दलितों के लिए कुछ भी उल्लेखनीय कार्य नहीं किया। सारा का सारा ध्यान लखनऊ में दलित स्मारक बनाने में ही लगा दिया है। पर दूसरी तरफ काफी लोगों का मानना है कि तमाम निंदा, टांगखिंचाई, कानूनी पचड़ों व आलोचनाओं के बावजूद मायावती ने यह विशाल स्मारक बनवाकर अपनी जगह दलित इतिहास में सुरक्षित कर ली है। दलित स्वाभिमान के यह प्रतीक आने वाली दशाब्दियों में भी दलितों को उनके नेतृत्व की याद दिलाते रहsगे। सरकार कोई भी आ जाए, चाहे मुलायम सिंह की क्यों न हो, इन स्मारकों को क्षति नहीं पहुंचा पायेगी। ऐसा कोई भी प्रयास दलित हिंसा और संघर्ष को जन्म देगा। यह बात दूसरी है कि विपरीत परिस्थितियों में इन स्मारकों को दी जा रही सजावट की रोशनी, सशत्र सुरक्षा व विशेष देखभाल जैसी सुविधाओं को आने वाली सरकारें वापस ले लें और यह स्मारक आज की तरह चमचमाते और जगमगाते न रहे। उपेक्षा के कारण इनका स्वरूप बिगड़ जाए पर अस्तित्व समाप्त नहीं होगा और फिर सत्ता में दलितों के आने पर इनका कायाकल्प हो जायेगा। यह कोई अनहोनी बात नहीं है। इतिहास में ऐसे तमाम उदाहरण भरे पड़े हैं।
कुल मिलाकार यह माना जाना चाहिए कि चाहे मायावती की जितनी आलोचना कोई कर ले पर वे अपने इरादे से डिगती नहीं हैं। सारे विरोध के बावजूद उन्होंने अपनी जिद पूरी की है और इसके पीछे उनकी दूरदृष्टि स्पष्ट है। दलित समाज का भला हुआ हो या न हुआ हो मायावती ने अपनी ऐतिहासिक पहचान जरूर स्थापित कर ली है। एक कम उम्र की दलित महिला नेता का इस तरह उठ खड़े होना और अपनी जिद पूरी करना यह सिद्ध करता है कि मायावती ने प्रदेश की राजनीति में गहरी जड़े जमा ली हैं। इस तरह की महारैली तो उस शक्ति प्रदर्शन का एक प्रमाण मात्र है।

तमिलनाडु की नेता जयललिता व आंध्र प्रदेश के एन.टी रामाराव ऐसे फिल्मी नेता थे जिन्होंने विशाल कट-आउटों के माध्यम से जनता पर अपने महान होने का प्रभाव जमाया। इस तरह अपने राजनैतिक इरादों को बुलंदी तक पहुंचाया। मायावती भी इन स्मारकों के माध्यम से दलितों के ऐतिहासिक नेता बनने का सपना संजोए है। लगता है कि उनका यह सपना तो पूरा हो जायेगा पर आने वाले वर्षों में यह देखना होगा कि मायावती इसी आत्मविश्वास से सत्ता के रास्ते पर आगे बढ़ती हैं या राजनीति की शतरंज में मात खा जाती है।

Sunday, March 7, 2010

आंकड़ों से बदलता व्यापार का संसार

एक बार ला¡स एन्जेलिस में उद्योगपतियों के एक सम्मेलन को सम्बोधित करते समय मैने श्रम आधारित तकनीकी के समर्थन और औद्योगिकरण के विरोध में काफी जोर से भाषण दिया। तब वहां मौजूद एक धनाड्य उद्योगपति गणपत पटेल ने मुझे एक पुस्तक भेंट की। जिसमें बताया गया था कि 1920 में अमरीका में जिन क्षेत्रों में रोजगार काफी मात्रा में उपलब्ध था वे क्षेत्र 1960 के दशक में गायब हो गए। पर इससे बेरोजगारी नहीं बढ़ी क्योंकि अनेक नए रोजगार क्षेत्र विकसित हो गए। उदाहरण के तौर पर 1920 के दशक में हाथ की मशीन पर टाइप करने वालों की भारी मांग थी। पर कम्प्यूटर आने के बाद यह मांग समाप्त हो गयी। 1920 में हवाई जहाज के पायलटों की कोई मांग नहीं थी। पर बाद में हजारों पायलटों की मांग पैदा हो गयी। श्री पटेल ने मुझसे जोर देकर कहा कि तकनीकी आने से बेरोजगारी नहीं बढ़ती। ऐसा ही अनुभव आज देश में सूचना क्रान्ति को देखकर हो रहा है। सूचना क्रान्ति ने हर क्षेत्र को बहुत व्यापक रूप में प्रभावित किया है।

कुछ वर्ष पहले तक व्यापारी के बहीखातों में आमदनी-खर्च का जो हिसाब रखा जाता था वो इतना माकूल होता था कि उसमें एक पैसे की भी गलती नहीं होती थी। सदियों से भारत में यही प्रथा चल रही थी। पर कम्प्यूटर का्रंति ने सब बदल कर रख दिया। अब व्यापार के आंकडे़ केवल आमदनी खर्च तक सीमित नहीं है। अब तो व्यापारी यह जानना चाहता है कि उसका कौन सा उत्पादन किस इलाके में ज्यादा बिक रहा है। उसके ग्राहक किस वर्ग के हैं। साल के किस महीने में उसकी बिक्री बढ़ जाती है। कौन सी राजनैतिक या सामाजिक घटनाओं के बाद किस वस्तु की मांग अचानक बढ़ जाती है। जैसे-जैसे यह जानकारी उत्पादक या वितरक कम्पनी के पास आती जाती है वैसे-वैसे उसका नजरिया और नीति बदलने लगती है। जबकि बहीखाते में केवल आमदनी-खर्च या लाभ-घाटे का हिसाब रखा जाता था।

साम्प्रदायिक दंगों का अंदेशा हो तो अचानक शहर में डबल रोटी, दूध, चाय, काॅफी के पैकेट, दाल-चावल, चीनी, मोमबत्ती, टाॅर्च, शस्त्रों की मांग बढ़ जाती है। जाहिर है कि इन वस्तुओं के निर्माताओं को देश की नाड़ी पर इस नजरिये से निगाह रखनी पड़ती है। जिस इलाके में साम्प्रदायिक तनाव बढ़े वहां इन वस्तुओं की आपूर्ति तेजी से बढ़ा दी जाए। इसी तरह बरसात से पहले छाते और बरसाती की मांग, गर्मी से पहले कूलर और एसी की मांग, जाड़े से पहले हीटर और गीजर की मांग बढ़ जाना सामान्य सी बात है। पर एसी दस हजार रू0 वाला बिकेगा या चालीस हजार रु0 वाला यह जानने के लिए उसे ग्राहकों का मनोविज्ञान और उनकी हैसियत जानना जरूरी है। अगर निम्न वर्गीय रिहायशी क्षेत्र में लिप्टन की ग्रीन लेबल चाय के डिब्बे दुकानों पर सजा दिए जाएं तो शायद एक डिब्बा भी न बिके। पर रैड लेबल चाय धड़ल्ले से बिकती है। धनी बस्ती में पांच रु0 वाला ग्लूकोज बिस्कुट का पैकेट खरीदने कोई नहीं आयेगा। पर पांच सौ रू0 किलो की कूकीज़ के पैकेट धड़ल्ले से बिकते हैं। इसलिए इन कम्पनियों को हर पल बाजार और ग्राहक के मूड़ पर निगाह रखनी होती है।

इससे यह कम्पनियां कई अहम फैसले ले पाती हैं। मसलन उत्पादन कब, कैसा और कितना किया जाए। वितरण कहां, कब और कितना किया जाए।  विज्ञापन का स्वरूप कैसा हो। उसमें किस वर्ग का प्रतिनिधित्व किया जाए और क्या कहा जाए जो ग्राहक का ध्यान आकर्षित कर सके। इसी सूचना संकलन का यह असर था कि 10 वर्ष पहले सभी बहुराष्ट्रीय कम्पनियों ने अपने विज्ञापन अंग्रेजी की बजाय क्षेत्रीय भाषाओं में देने शुरू कर दिए। वरना हमारे बचपन में तो लक्स साबुन का विज्ञापन हिंदी के अखबार में भी अंग्रेजी भाषा में आता था। जब सूचना का इतना महत्व बढ़ गया है तो जाहिर है कि इस सूचना को एकत्र करने वाले, प्रोसेस करने वाले और उसका विश्लेषण करने वाले सभी की मांग बजार में बेहद बढ़ गयी है। यहां तक कि केवल इसी किस्म की सेवायें देने वाली कम्पनियों की बाढ़ आ गयी है। जैसे पहले शेयर मार्केट को चलाने वाले बड़े-बड़े दलाल और बड़ी कम्पनियां होती थीं। पर आज इंटरनेट की मदद से देश के हर कस्बे और शहर में शेयर मार्केट में खेलने वाली हजारों कम्पनियां खड़ी हो गयीं है।

अर्थव्यवस्था ही नहीं कानून की स्थिति को बनाये रखने के लिए भी इस सूचना का्रंति ने भारी मदद की है। आज अपराधियों या आतंकवादियों के बारे में सूचना का भंडार पुलिस विभाग के पास उपलब्ध है और आवश्यकता पड़ने पर मिनटों में देश में इधर से उधर भेज दिया जाता है। इसी तरह शिक्षा के क्षेत्र में भी इस सूचना का्रंति ने शिक्षकों और विद्यार्थियों के लिए ज्ञान के सैकड़ों दरवाजे खोल दिये हैं। आज देश के आम शहरों में इंटरनेट की मदद से बच्चों के पास दुनिया भर की जानकारी पहुंच रही है।

जब 1985 में युवा प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने कम्प्यूटराईजेशन की बाद की थी तो विपक्षी दलों और उनसे जुड़े पत्रकारों ने श्री गांधी का खूब मखौल बनाया था। उन पर कार्टून बनाये गये थे। जिनमें दिखाया गया कि भूखे लोगों को राजीव गांधी कम्प्यूटर सिखा रहे हैं। उस वक्त हमला करने वाले आज सबसे ज्यादा कम्प्यूटर का प्रयोग कर रहे हैं। यह अनुभव यही बताता है कि हम राजनीति में हों या मीडिया में तथ्यों का विवेकपूर्ण मूल्यांकन करें तो देश का लाभ होगा। विरोध के लिए विरोध करना सनसनीखेज तो हो सकता है पर इससे जनहित नहीं होता। क्या यह बात हमारे सांसद सोचेंगे?

Sunday, February 28, 2010

खान हूं तो जो करूं

रेल बजट, आम बजट, महंगाई पर संसद में हंगामा, पाकिस्तान के विदेश सचिव की अर्से बाद दिल्ली यात्रा और प्रधानमंत्री की 28 वर्ष बाद सउदी अरब यात्रा की तैयारी- एैसे सभी मुद्दों पर मीडिया में बहुत कुछ लिखा और कुछ कहा जा रहा है। इसलिए कुछ नया बताने को नहीं है। पर इस सब के बीच बा¡लीवुड की एक बहुचर्चित फिल्म रिलीज हुई। बड़े दिन से हल्ला था इस फिल्म का। माई नेम इज़ खानफिल्म रिलीज होने से पहले विवादों में घिर गई। शिव सैनिकों ने महाराष्ट्र में इसके पोस्टर फाड़ डाले। शाहरूख खान और बालठाकरे के बीच वाक्युद्ध भी चला। इस तरह बड़े हंगामे के साथ फिल्म रिलीज हुई और आजकल देशभर में दिखायी जा रही है। इस हंगामें के प्रचार के चक्कर में हम भी आ गए। पर ढाई घंटे थियेटर में काटने भारी पड़ गये। इस फिल्म का मूल है एक छोटी सी घटना। जो पिछले वर्ष अमरीका में घटी।

न्यूया¡र्क के हवाई अड्डे पर सुरक्षा जांच के लिए रोके गए भारतीय फिल्मी सितारे शाहरूख खान को अपनी ये बेइज्जतीबर्दाश्त नहीं हुई, तो उन्होंने यह फिल्म बनवा डाली। जिसमें बार-बार यह बात दोहराई गयी है कि, ‘माई नेम इज़ खान एण्ड आई एम ना¡ट ए टैरेरिस्टमैं खान हूं पर आतंकवादी नहीं। 9/11 के बाद से अमरीका में रह रहे मुसलमानों को स्थानीय आबादी की घृणा का शिकार होना पड़ा है। इसलिए तब से अब तक इस मुद्दे पर दर्जनों फिल्में भारत और अमरीका में भारतीय मूल के निर्माता बना चुका हैं। जिनमें इस्लाम के मानने वालों की मानवीय संवेदनाओं को दिखाने की कोशिश की गयी है। अपने आप में यह कोशिश सही भी है और जरूरी भी। पर इसका मतलब यह नहीं कि चाहे जो दर्शकों को परोस दिया जाए।

माई नेम इ़ज खानएक ऐसी फिल्म है जिसमें तथ्य दो मिनट का है कहानी को नाहक ही ढाई घंटे घसीटा गया है। फिल्म का कथानक दमदार नहीं है। रेंगती हुई कहानी बढ़ती है। बार-बार वही डायला¡ग दोहराये जाते हैं। बोझिल दृश्यों की भरमार है। शाहरूख खान को अमन का मसीहा बनाकर पेश किया गया है। फिल्म के दौरान दर्शक थियेटर से उठने को बेताब रहते हैं और कुछ तो उठकर चले भी जाते हैं। पिछले दो-तीन वर्षों से शाहरूख खान की फिल्मों में उनकी शख्सियत को कई गुना बढ़ा कर पेश किया जा रहा है। जहां एक तरफ कामयाबी और दौलत ने शाहरूख खान को भारत के सफलतम फिल्मी सितारों की श्रेणी में खड़ा कर दिया है वहीं लगता है कि अब उन्हें शिखर से नीचे उतरने का डर सताने लगा है। इसलिए उनकी पत्नी गौरी खान के बैनर तले एक के बाद एक फिल्म शाहरूख खान को टिकाये रखने के मकसद से बनाई जा रही है। माई नेम इ़ज खानभी कुछ ऐसी ही फिल्म है। 

पश्चिमी देशों में एक रिवाज है कि जब कोई फिल्मी सितारा, गायक कलाकार या उद्योगपत्ति बहुत ज्यादा सफल हो जाता है और उसके पास दौलत का अंबार लग जाता है तो वह जन सेवा के कामों की ओर बढ़ जाता हैं। शिक्षा, स्वास्थ्य या राहत के कार्यों में अपना धन और अपनी शक्ति लगता देता है। इससे उसे यश भी मिलता है और संतोष भी। आज शाहरूख खान के पास बेशुमार दौलत है। वे चाहे तो अपनी रूचि के क्षेत्र में अपनी ऊर्जा लगाकर जनहित के कार्य कर सकते हैं। इसका मतलब यह नहीं कि वे फिल्मी दुनिया से सन्यास ले लें। बल्कि हर तरह की फिल्म करने की बजाय चुनिन्दा फिल्मों में काम करें और अपने अभिनय के झंडे गाढ़ते रहे। इस मामले में शाहरूख खान को आमिर खान से सबक लेना चाहिए। जिन्होंने कछुए की चाल चलकर खरगोशों को पछाड़ा है। साल डेढ साल में एक फिल्म लाते हैं। यश भी कमाते हैं, धन भी कमाते हैं और समाज को कुछ ठोस संदेश भी दे जाते हैं। लगान, तारे जमीन पर, रंग दे बंसती व थ्री इडियट जैसी फिल्मों ने पूरी दुनिया के दर्शकों को प्रभावित किया है।

फिल्म सबसे सशक्त माध्यम है जिससे समाज में बड़ा परिवर्तन किया जा सकता है। राजनीति में आने वाले फिल्मी सितारों ने अपनी लोकप्रियता को भुनाया तो खूब पर समाज का कुछ भला नहीं कर पाए। चाहे गोविन्दा हो या धर्मेन्द्र, अमिताभ बच्चन हो या एन.टी.रामाराव। शाहरूख खान अपनी लोकप्रियता की उस बुलंदी पर है जहां से वे युवाओं का सैलाब सही दिशा में मोड़ सकते हैं। बशर्तें कि उन्हें खुद इस बात का अहसास हो कि दिशा क्या है। खुद ना हो तो उन्हें बताने वाले सही सलाह दें। फिर उन्हें अच्छी फिल्म का कथानक भी मिलेगा और अपने किरदार के लिए मौका भी। उनकी फिल्म उन्हें यश भी दिलायेगी और कुछ परिवर्तन भी ला पायेगी। उम्मीद है कि शाहरूख खान इन बातों पर गंभीरता से मनन करेंगे और अपनी कामयाबी के सूरज के डूबने से पहले एक बार फिर नए भूमिका में जनता के दिल के सितारे बनेंगे। माइ नेम इज़ खानबनाकर नहीं बल्कि काम से नाम पैदा करके।

Sunday, February 7, 2010

रहते थे कभी जिनके दिल में हम जान से भी प्यारों की तरह

राजनीति के सदाबहार चर्चित चेहरे अमर सिंह के सितारे गर्दिश में हैं। सपा के नेता मुलायम सिंह यादव ने अपने इस निकटतम सहयोगी को दल से निष्कासित कर दिया है। पिछले कुछ हफ्तों का घटनाक्रम इस परिणिति की ओर इशारा कर रहा था। दोनों के बीच तकरार के कारणों को लेकर कई तरह की बातें कहीं जा रही हैं। अखिलेश यादव और रामगोपाल यादव की अमर सिंह से नाराजगी छिपी हुई नहीं है। इसलिए यही माना जा रहा है कि इस विवाद की जड़ में यही मनमुटाव है। पर औद्योगिक जगत में कुछ और ही चर्चा है।

सभी जानते हैं कि देश के एक सबसे बड़े घराने के दो भाइयों के बीच गत कुछ वर्षों से महाभारत छिड़ा है। इनमें से एक भाई के साथ अमर सिंह डटकर खड़े रहे हैं। कहा जा रहा है कि उत्तर प्रदेश में सत्ता से बाहर होने के बाद दूसरे भाई को लगता था कि अमर सिंह ठंडे पड़ जायेंगे। पर अमर सिंह ने हमेशा सही मौके पर सही निर्णय लेकर अपने विरोधियों को ठेंगा दिखाया है। केन्द्र में जब राजग सरकार आई तो अमर सिंह ने अटल बिहारी वाजपेयी से ऐसी जुगलबंदी की कि भाजपा के नेता तक उनसे परेशान थे। भाजपा की सरकार में  अमर सिंह के काम भाजपाइयों से पहले होते थे।

यूपीए की सरकार आई तो अमर सिंह ने हरकिशन सिंह सुरजीत से ऐसे तार जोड़े  कि उनकी हैसियत बरकरार रही। मनमोहन सिंह सरकार जब परमाणु मुद्दे पर विश्वास मत में गिरने लगी तो अमर सिंह ने अपना बैर भुलाकर उसका हाथ थाम लिया। मनमोहन सिंह की सरकार की वैतरणी तो पर हुई ही पर अमर सिंह की भी खूब चल निकली। समाजवादी पार्टी पर अमर सिंह की पकड़ कैसे इतनी मजबूत हुई कि दल के पुराने धाकड़ नेता हाशिए पर बिठा दिए गए या दल छोड़कर चले गए, इसे लेकर तमाम बातें सत्ता के गलियारों में कही जाती हैं। पर सपा के नेताओं को तब यह सब स्वीकार्य था। आज सपा अमर सिंह पर पूंजीपतियों का हित साधने और दल में समाजवादी मूल्यों से किनारा करने का आरोप लगा रही है। सपा वाले यह कैसे भूल गए कि उत्तर प्रदेश में मुलायम सिंह की पिछली सरकार बनते ही एक उत्तर प्रदेश विकास परिषद बनाई गई थी जिसके अध्यक्ष अमर सिंह और सदस्य वे सारे उद्योगपति थे जिनके अमर सिंह से प्रगाढ़ संबंध थे। तब सपाइयों ने इसका विरोध क्यों नहीं किया ? अचानक ऐसा क्या हो गया कि अमर सिंह दाल में कंकड़ी की तरह दिखने लगे।

दरअसल बात कुछ और है। राजनीतिक मोहरे फिट करने में उस्ताद अमर सिंह लगता है अब की बार गच्चा खा गए। अंदर की खबर रखने वाले विश्वसनीय सा्रेत बताते हैं कि उस बड़े औद्योगिक घराने के बड़े भाई ने मुलायम सिंह यादव व अखिलेश यादव से मुलाकात कर पूछा कि उनका छोटा भाई सपा को नियमित रूप से कितना पैसा देता है? साथ ही यह पेशकश भी की कि वे चाहे तो उनके दल को इससे ज्यादा मदद मिल सकती है बशर्ते कि वे अपने दल से अमर सिंह को बाहर कर दे। लगता हैं कि बड़े भाई की यह युक्ति काम कर गई और नतीजा सबके सामने है। अब तो फिल्मी गाना गाने के शौकीन अमर सिंह अपने बाथरूम में गुनगुना रहे होंगे, ‘रहते थे कभी जिनके दिल में हम जान से भी प्यारों की तरह, बैठे हैं उन्हीं के कूंचे में हम आज गुनहगारों की तरह। पर हम्पटी-डम्पटी अमर सिंह इतनी आसानी से गिरने वाली दीवार नहीं है। वे कहीं न कहीं अपनी जुगाड़ फिट कर ही लेंगे। सोनिया गांधी भले ही उन्हें पास न फटकने दे पर मायावती से लेकर दर्जनों क्षेत्रीय दल में जाने का उनका विकल्प खुला है। क्योंकि हर दल को पैसे जुटाने वाले की जरूरत होती है और अमर सिंह इस कला में महारथी हैं। पर उनकी मुश्किल यह है कि  सत्तारूढ़ दल अभी कमजोर नहीं हुआ है और जल्दी उसके सत्ता से हटने के आसार नहीं है। इसलिए इस व्यवस्था में अमर सिंह अपना प्रभाव जमा पाएंगे इसके आसार कम ही नजर आते हैं। बिना केन्द्र की सत्ता में पकड़ हुए औद्योगिक जगत की पकड़ भी ढीली पड़ जाती है।

जहां तक अपना दल खड़ा करने की बात है तो उसमें अमर सिंह की कामयाबी संदेहास्पद है। क्योंकि किसी भी राजनैतिक दल को जमीन से खड़ा करने के लिए देश के गली-देहातों मे चप्पलें घिसनी पड़ती हैं। धूल-धूप झेलनी पड़ती है। जनता की खरी-खोटी सुननी पड़ती है। पांच सितारा जिंदगी जीने के आदी अमर सिंह ऐसा कर पायेंगे इसमें शक है और इसलिए उनका यह प्रयास शायद परवान न चढ़े। दूसरी तरफ अमर सिंह से द्वेष रखने वाले मानते हैं कि यह अमर सिंह के पतन की शुरूआत है। सिंगापुर में किडनी का आप्रेशन कराकर लौटे अमर सिंह का स्वास्थ्य अब ऐसा नहीं कि वे किसी नये दल को खड़ा कर सके। अब देखना यह होगा कि इन विपरीत परिस्थितियों में ठाकुर अमर सिंह खुद को कैसे फिर से खड़ा करते हैं?

Sunday, January 31, 2010

खुदी को कर बुलंद इतना

कम्प्यूटर साइंस की दुनिया में बिल गेटस के अलावा एक हिंदुस्तानी नाम आज पूरी दुनिया में चर्चा का विषय बना हुआ है। नागा नरेश करातूरा नाम के 21 वर्षीय इस नौजवान ने आईआईटी मद्रास से कम्प्यूटर साइंस में बीटैक की डिग्री हासिल करके गूगल बैंगलौर में एक बढि़या नौकरी हासिल की है। तो इसमें नया क्या ? नया है मुश्किलों से जूझने का नरेश का जज्बा। बे-पढ़े लिखे मजदूर मां बाप का यह लड़का 4 साल की उम्र में एक दुर्घटना में अपनी दोनों टांगे गवा बैठा। इस कदर कि जयपुर फुट भी बांधना मुश्किल था। क्योंकि नितंबों के नीचे टांगें बची ही नही थी। पर इसके हौसले और हर स्तर पर मिले बेहद प्यार और सहयोग ने इसे यहां तक पहुंचा दिया। सबसे प्रभावशाली बात यह है कि नागा नरेश खुद को बहुत सौभाग्यशाली मानता है और भगवान का धन्यवाद करता है कि उसने हर मोड़ पर उसका साथ दिया। उसे किसी से कोई शिकायत नहीं है। हरदम खुश रहने वाला नागा मानता है कि दुनिया में अच्छे लोगों की कमी नहीं है। नागा नरेश का नाम गूगल पर ढूंढने पर उसके बारे में बहुत रोचक जानकारी मिलती है। पर इस लेख का उद्देश्य एक नौजवान के अनोखे जीवन की दास्तान सुनाना नहीं बल्कि उसकी जिंदगी से सबक सीखना है।

आज देश में लाखों नौजवान हट्टे-कट्टे, पढ़-लिखे और साधन सम्पन्न होते हुए भी समाज, दुनिया और भगवान को अपने साथ हो रही बेइंसाफी के लिए कोसते हैं। जिंदगी के महत्वपूर्ण वर्ष नौकरी की तलाश में गुजार देते हैं। नशे और अपराध की तरफ आसानी से फिसल जाते हैं। समाज के लिए भार बन कर जीते हैं। पर नागा नरेश जैसे नौजवानों का जीवन उदाहरण है कि जिंदगी को जिंदादिली से जीने के जज्बे का। राहुल गांधी जब देश के नौजवानों के बीच जाते हैं तो उन्हें देश के काम में जुड़ने के लिए न्योता देते हैं। जिसका उन्हें अच्छा प्रत्युत्तर मिल रहा है। तमिलनाडु के चैन्नई जैसे शहर में नौजवान राहुल के मुरीद हो गए। जरूरी नहीं कि राहुल गांधी ऐसे सब नौजवानों को राष्ट्र निर्माण में जोड़ पाएं। यह भी जरूरी नहीं कि वे इन नौजवानों को पूरी तरह से दिशा दे पाए। पर इतना जरूर है कि अपने इस छोटे से प्रयास से राहुल गांधी बहुत तेजी से युवा वर्ग के बीच लोकप्रिय हो रहे हैं। इससे क्या संदेश मिलता है? यह नहीं कि अब हर दल को इस तरह अपने युवराजों को आगे खड़ा कर वोट बटोरने का नया तमाशा खड़ा करना होगा। बल्कि ये कि देश का नौजवान अपनी ऊर्जा को सकारात्मक रूप से देश के निर्माण के काम में लगाने को तैयार है। उसे सही दिशा निर्देश की जरूरत है।

अगर आन्ध्र प्रदेश में गोदावरी के तट पर एक छोटे से गांव टीपार्रू में गरीब घर में पैदा हुआ विकलांग बच्चा इसी समाज में इतनी ऊंचाई तक पहुंच सकता है तो बाकी नौजवान क्यों नहीं? साफ जाहिर है कि उनमें कुछ कर गुजरने का या तो जज्बा नहीं है या रास्ते का ज्ञान नहh है। आज देश का मीडिया अपना बाजार बढाने के लिए ही सही नौजवानों को पढ़ने और रोजगार पाने के नए नुस्खे बताने लगा है। ऐसा पहले नहीं होता था। जाहिर है कि इन नुस्खों से नौजवानों को काफी सार्थक जानकारी मिल रही है और वे आगे भी बढ़ रहे हैं। पर प्रश्न है कि क्या डिग्री हासिल करना और नौकरी पाना ही नौजवानों का लक्ष्य होना चाहिए। कहा जाता है कि भारत कृषि प्रधान देश है। यहां की 70 फीसदी आबादी गांवों में बसती है। पर जो सूचनाएं मीडिया की मार्फत इन नौजवानों को दी जा रही है क्या उनमें अपने गांव और खेती को सुधारने के नुस्खे भी इन्हें बताए जा रहे हैं। शायद नहीं। क्योंकि गांव की बात करना फैशनेबल नहीं माना जाता। इसलिए अब गांव की बात कोई नहीं करता। मीडिया भी नहीं क्योंकि उसको चलाने वाले और पढ़ने, देखने वाले शहरों में रहते है। वे गांव के उत्पादनों का उपभोग तो डटकर करते हैं पर बदले में गांव को कुछ देना नहीं चाहते। सब कुछ शहरों तक सीमित रखना चाहते हैं। इससे दो नुकसान हो रहे हैं। एक तो गांवों का सही विकास नहीं हो रहा और दूसरा गांव में गरीबी बढ़ रही है। एक उदाहरण काफी होगा कि 1967 में कृषि उत्पादनों का जो दाम था वो 2007 तक 40 साल में, मात्र 10 गुना बढ़ा। जबकि इन्हीं 40 वर्षों में शहरों में होने वाले उत्पादनों की कीमत 30 फीसदी बढ़ गयी। साफ जाहिर है कि इन 40 वर्षों में गांव वालों को डटकर लूटा गया। जिससे शहर बढ़े और गांव बर्बाद हुए। अब ये इतनी बड़ी चुनौती है कि अगर गांव का नौजवान इसे स्वीकार कर ले और तय करे कि उसे अपने गांव को आत्मनिर्भर बनाना है तो कोई वजह नहीं कि वह नागा नरेश से पीछे रह जाए। ऐसा संकल्प करने वाले नौजवान किसी की नौकरी के मोहताज नहीं रहेगs। वे तो उपलब्ध संसाधनों से ही अपना संसार बना लेंगे। ऐसी सोच और ऐसे मार्ग दर्शन की देश के नौजवानों को भारी जरूरत है। अगर साधन सम्पन्न लोग विशेषज्ञों को बुलाकर गांव के नौजवानों को गांव में ही रहकर सुखी और सम्पन्न जीवन जीने की कला सिखा सके तो वे समाज का बहुत भला करेंगे।

नागा नरेश जैसी घटनाएं कभी-कभी प्रकाश में आती रहती हैं और इनसे नौजवानों को प्रेरणा भी मिलती है। पर वह अल्पकालिक होती है। भारत जैसे देश को जहां नौजवानों की संख्या 40 करोड़ तक जा पहुंची है, देश के नौजवानों के लिए सरकार को एक नई दृष्टि से सोचना होगा। अपनी नीतियों और योजनाओं में ऐसे बुनियादी बदलाव करने होंगे जिससे देश का युवा नौकरी की आस छोड़ उत्पादन, सृजन या निर्माण में जुट जाए। आईआईटी में तो गिने चुने ही जाते हैं। पर बाकी करोड़ों नौजवानों को रास्ता नहीं सूझता। इसलिए उन्हें सही नेतृत्व या यूं कहें कि सही मार्ग दर्शन की तलाश रहती है। सही लोगों का मार्ग दर्शन मिल जाए तो ये नौजवान दुनिया के किसी भी कोने में जाकर झंडे गाढ़ सकते हैं।