राष्ट्रपति का चुनाव संपन्न हो गया। यूनाइटेड नेशनल प्रोग्रेसिव एलाइन्स (यूएनपीए) ने इस चुनाव का बहिष्कार किया और साथ ही ममता बनर्जी की तृणमूल कांग्रेस और कर्नाटक में सत्तारूढ श्री देवगौडा के दल ने भी इस चुनाव का बहिष्कार किया। हालांकि इस बहिष्कार से राष्ट्रपति के चुनाव पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा। श्रीमती प्रतिभा पाटील का राष्ट्रपति बनना तय था और वे बन गईं। पर इस बहिष्कार ने कई गंभीर सवाल खडे कर दिए। अब तक सांसद और विधायक संसद और विधानसभाओं का बहिष्कार करते थे। तब भी यह सवाल उठते थे कि क्या यह बहिष्कार नैतिक रूप से उचित है। इस देश के मतदाता इस तरह के बहिष्कार को कभी पसंद नहीं करते। उनके खून-पसीने की कमाई में से वसूले गए कर का करोडों रूपया संसद और विधानसभा के बहिष्कार में बर्बाद हो जाता है। पर यहां तो सवाल राष्ट्रपति के चुनाव का है जो सदनों के सत्र जैसी अक्सर होने वाली घटना नहीं है।
दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र के सर्वोच्च पद पर लोकतांत्रिक तरीके से होने वाले चुनाव का भी अगर जनता के चुने हुए नुमाइंदे बहिष्कार करते हैं तो मतदाताओं को उनसे यह पूछने का हक है कि ऐसा उन्होंने किस अधिकार से किया ? साफ जाहिर है कि जिन करोडों मतदाताओं के प्रतिनिधि इस बहिष्कार को करने वाले सांसद व विधायक हैं, उन करोडों मतदाताओं को लोकतंत्र की इस प्रक्रिया में अपना प्रतिनिधित्व करने का अवसर ही नहीं मिला। इस तरह इन सांसदों और विधायकों ने इन करोडों मतदाताआंे द्वारा प्रदत्त अधिकार का सही उपयोग नहीं किया। ये सांसद व विधायक यह तर्क दे सकते हैं कि उन्हें सर्वोच्च न्यायालय या चुनाव आयोग से ऐसा कोई निर्देश नहीं मिला कि यह मत देना उनके लिए अनिवार्य हो।
दरअसल, जिस समय भारत के चुनाव आयोग में मुख्य चुनाव आयुक्त अन्य सदस्यों के साथ इस विषय पर फैसला देकर निकले तब मैं चुनाव आयोग में ही था और उसके तुरंत बाद मेरी एक लंबी बैठक मुख्य चुनाव आयुक्त के साथ तय थी, जिसमें मैंने उनसे इस निर्णय को लेकर भी कुछ चर्चा की। चुनाव आयोग और सर्वोच्च न्यायालय ने निर्देश भले ही न दिए हांे और सांसदांे व विधायकों को अपने विवेक के अनुसार निर्णय लेने के लिए छोड दिया हो। पर प्रश्न उठता है कि जब हमारे यहां राष्ट्रपति के चुनाव की प्रक्रिया में अप्रत्यक्ष मतदान का प्रावधान है, यानी जनता सीधे राष्ट्रपति का चयन न करके अपने चुने हुए प्रतिनिधियों के माध्यम से चुनाव करती है। तो इन प्रतिनिधियों को यह निर्णय अपने मतदाताओं से पूछ कर लेना चाहिए था। दरअसल, बहिष्कार करने का आधार अगर सैद्धान्तिक मतभेद है और विरोध करने के लिए इतना कड़ा कदम उठाना अनिवार्यता है तो उसके बेहतर तरीके अपनाए जा सकते थे। मसलन जापान में एक बार एक जूता कारखाने के कारीगरों को अपने प्रबंधन से नाराजगी थी तो उन्होंने हड़ताल पर जाने का फैसला किया। इसका मतलब यह नहीं कि वे काम पर न आए हों या उन्होंने जूते का उत्पादन न किया हो। उन्होंने यह तय किया कि वे केवल एक पैर का जूता बनाएंगे और अन्य दिनों से ज्यादा उत्पादन करेंगे। नतीजतन एक पैर के जूतों का ढेर लगता गया जिन्हंे कंपनी बेच नहीं सकती थी। हार कर उसे कर्मचारियों की मांग माननी पड़ी।
सांसद और विधायक सदनों में अपने विरोध के नए तरीके इजाद कर सकते हंै क्योंकि वे कोई ट्रेड यूनियन वाले तो हैं नहीं जो उन्हें हड़ताल पर जाना पड़ता हो। वे तो इस देश के कानून के निर्माता हैं। जब कानून के निर्माता ही कानून तोडेंगे तो जनता से अनुशासित रहने की अपेक्षा कैसे की जा सकती है। एक बात यह भी है कि यूपीए की उम्मीदवार श्रीमती प्रतिभा पाटील का विरोध इन सांसदों और विधायकों ने इसलिए नहीं किया कि वे योग्य उम्मीदवार नहीं हैं बल्कि इसलिए किया कि उनकी निगाह अगले चुनावों पर है जिसमें वे स्वयं को कांगे्रस पार्टी या यूपीए के साथ खड़ा देखना नहीं चाहते। उधर श्री भैरो सिंह शेखावत, जोकि एक निर्दलीय उम्मीदवार थे, उनका बहिष्कार इसलिए नहीं किया कि वे उनकी योग्यता से संतुष्ट नहीं थे बल्कि इसलिए किया कि यूएनपीए अपने अल्पसंख्यक मतदाताओं को यह संदेश देना चाहता था कि वे संघ या भाजपा समर्थित उम्मीदवार के पक्ष में नहीं हैं। कुल मिलाकर बात इतनी सी है कि राष्ट्रपति के चुनाव में यूएनपीए ने मात्र अपने वोटों पर दृष्टि रख कर फैसला लिया, उनका राष्ट्रपति के चुनाव की प्रक्रिया या उम्मीदवारों से कोई लेना-देना नहीं था। यह एक गलत परंपरा की शुरूआत हुई है।
बहुदलीय सरकारांे के इस दौर में जब हर छोटा-बड़ा दल मोल-तोल की राजनीति कर रहा है तो भविष्य में इस बात की पूरी संभावना हो सकती है कि राष्ट्रपति का चुनाव करवाना ही एक जटिल समस्या बन जाए, जब दर्जनों दल ऐसे बहिष्कार का फैसला कर बैठें। आम मतदाता को तो अच्छी, साफ, जिम्मेदार व टिकाऊ सरकार की अपेक्षा होती हैं। अनेकों घोटालों में अनेक दलांे के वरिष्ठ नेताओं के लिप्त होने के बाद आम जनता यह समझ गई है कि भ्रष्टाचार को मुद्दा बनाकर लड़ने वाला कोई भी दल भ्रष्टाचार से निपटना नहीं चाहता। सब एक दूसरे को बचाने की कोशिश करते हैं। चाहे कोई किसी दल का क्यों न हो। इसलिए मतदाता अब विचारधारों के आडंबर से प्रभावित नहीं हो रहा है। सुश्री मायावती की अप्रत्याशित जीत ने यह सिद्ध कर दिया कि बेहतर प्रशासन की उम्मीद में ब्राहम्ण, वैश्य और ठाकुर सुश्री मायावती के पीछे लामबंद हो चुके हंै और उन्हें अब यह याद भी नहीं कि सुश्री मायावती इन सवर्णो के प्रति कैसे उत्तेजक भाषण दिया करती थीं।
अपना मूल मुद्दा वही है कि इस ऐसे माहौल में राष्ट्रपति का चुनाव सतही राजनीति का शिकार न बन जाए। यदि हम ये मान बैठे हैं कि भारत में राष्ट्रपति का पद मात्र एक औपचारिता है तो फिर इस पद को समाप्त करने की बहस चलनी चाहिए और यदि हम ये मानते हैं कि मौजूदा संविधान के अनुसार लोकतंत्र की रक्षा के लिए राष्ट्रपति का पद अपने मौजूदा स्वरूप में बना रहना चाहिए। तो हमें इस बहिष्कार पर गंभीरता से विचार करना होगा। ऐसा बहिष्कार देश के मतदाताओं को स्वीकार्य नहीं है। ऐसे संवैधानिक पदो ंके चुनाव में मत डालने की बाध्यतास सभी सांसदों व विधायकों पर लागू होनी चाहिए या फिर देश में एक बहस छिडे जैसी पहले छिडती रही है और संविधान मंे संशोधन किया जाए और राष्ट्रपति पद का चुनाव सीधे जनता ही करे, ऐसा कानून बना दिया जाए। खर्चा और आफत बचाने के लिए इस चुनाव को लोक सभा के आम चुनाव के साथ भी करवाया जा सकता है। तब कम से कम भारत के हर नागरिक को अपना राष्ट्रपति चुनने का हक तो मिलेगा। जो हक यूएनपीए व अन्य कुछ दलों ने बिना उनकी मर्जी के उनसे छीन लिया। इसलिए राष्ट्रपति चुनाव के बहिष्कार के यूएनपीए के फैसले पर देश में गंभीर चिंतन की जरूरत है ताकि बहिष्कार की संस्कृति से पिण्ड छुडा कर हमारा लोकतंत्र सकारात्मक सोच से आगे बढ़ सके।