जम्मू कश्मीर विधान सभा के चुनावों के नतीजे केवल अबदुल्ला खानदान को ही झकझोरने वाले नहीं हैं बल्कि भाजपा के लिए भी खतरे की घंटी है। यह सही है कि चुनाव आयोग के कड़े अनुशासन और केंद्र व राज्य सरकार के सक्रिय सहयोग ने कश्मीर की असंभव स्थिति में बहुत प्रभावशाली तरीके से निष्पक्ष चुनाव करवा कर पूरी दुनिया में अपनी सदिच्छा के झंडे गाड दिए हैं। नेशनल कांफ्रेंस और भाजपा के इतने खराब प्रदर्शन को देखकर पाकिस्तान अब इन चुनावों को मात्र ढकोसला कह कर नजरंदाज नहीं कर सकता। नेशनल कांफ्रेंस की हार की मुख्य वजह उसके मुख्यमंत्री फारूख अब्दुल्ला का जमीन से कटा विलासितापूर्ण जीवन और उनके बेटे का बड़बोलापन है। इसके अलावा सरकार में व्याप्त भ्रष्टाचार के कारण भी जम्मू कश्मीर की जनता ने नेशनल कांफ्रेंस को नकार दिया हैं।
सबसे बड़ी चिंता की बात तो भाजपा के लिए हैं। भाजपा आतंकवाद को अपना सबसे बड़ा मुद्दा बनाए हुए हैं और लगातार यह प्रचारित करने का प्रयास कर रही है कि उसके लिए सबसे बड़ा मुद्दा आतंकवाद का खात्मा है। पर धरातल पर जो दिखाई दे रहा है वह इसके बिलकुल विपरीत है। आतंकवाद को रोकने के मामले में भाजपा की सरकार लगातार विफल हो रही है। इसका सबसे बड़ा उदाहारण है कि पिछले काफी वर्षों से भाजपा का गढ़ बन चुके जम्मू क्षेत्र के मतदाताओं ने भी भाजपा को पूरी तरह नकार दिया। जम्मू कश्मीर के हिंदू भाजपा से भारी नाराज हंै। इसके संकेत तो चुनाव प्रचार के दौरान ही मिलने लगे थे जब भाजपा के कार्यकर्ताओं के लिए अपने नेताओं की चुनावी सभाओं में भीड़ जुटाना भारी पड़ रहा था। जबकि कांग्रेस के नेताओं को सुनने भारी तादाद में भीड़ उमड़ कर आ रही थी। जम्मू कश्मीर के हिंदुओं को भाजपा से कई कारणों से नाराजगी थी। केंद्र और राज्य में अपनी साझी सरकार होने के बावजूद न तो उसने कश्मीर घाटी से दिल्ली आए हिंदू शरणार्थियों की सुध ली और ना ही जम्मू में रह रहे शरणार्थियों की। भाजपा के केंद्र में शासनकाल के दौरान आतंकवाद कई गुना बढ़ गया।
आतंकवादियों के हौसले यहां तक बढ़ गए कि उन्होंने देश की सर्वोच्च विधायी संस्था संसद भवन और करोड़ों हिंदुओं की आस्था के केंद्र अहमदाबाद के श्री स्वामी नारायण मंदिर (अक्षरधाम) तक को भी नहीं बक्शा, वहां भी खून की होली खेली। आतंकवाद का ऐसा घिनौना चेहरा इससे पहले कभी नहीं देखा गया था। यूं तो गुजरात में अभी भी नरेंद्र मोदी के पक्ष में हवा बह रही है। लेकिन जम्मू कश्मीर की खबर गुजरात तक पहुंच चुकी हैं और वहां अगर यह चिंतन होने लगे कि जब जम्मू कश्मीर के हिंदुवादी मतदाताओं तक ने भाजपा और उसके सहयोगी दलों के प्रति विश्वास खो दिया है और उन्हें अपनी सुरक्षा में अक्षम मानकर नकार दिया है तो क्यों न गुजरात के भविष्य के बारे में भी आत्मचिंतन किया जाए। यदि ऐसा हुआ तो गुजरात में भी अप्रत्याशित नतीजे आ सकते हैं। लगता है भाजपा की मुश्किलें अब बढ़ती ही जा रही हैं। पिछले 4 वर्षों में जबसे वह केंद्र की सत्ता पर काबिज हुई है तब से लगभग हर विधान सभाई चुनाव बुरी तरह हारती जा रही है। इतना ही नहीं जो दल उसके साथ चुनाव लड़ता है उसकी भी दुर्गति हो जाती है। इन परिस्थितियों में राजग के महत्वपूर्ण घटक दल टीडीपी के नेता श्री चन्द्र बाबू नायडू का भी चिंतित होना स्वाभाविक है।
दरअसल जनता भाजपा की प्रशासनिक क्षमता से संतुष्ट नहीं है। भाजपा की नीतियों में भी स्पष्टता नहीं है। चाहे विनिवेश का मामला हो या विदेशी निवेश का। चाहे एनराॅन का मामला हो या फिर अयोध्या का। चाहे मायावती के साथ सरकार चलाने की बात हो या आतंकवाद से लड़ने की रणनीति, हर बार भाजपा परस्पर विरोधी विचारधाराओं की अंतरकलह से जूझती पार्टी नजर आती है। उसके ही सहोदर विश्व हिन्दू परिषद और राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ आए दिन प्रधानमंत्री पर हमला करते रहते हैं। इस सबसे देश में लगातार यह संदेश जा रहा है कि भाजपा की सरकार में दूरदृष्टि, सुस्पष्ट नीतियों और एकजुट नेतृत्व का भारी अभाव है। भौगोलिक, सांस्कृतिक और आर्थिक विषमताओं वाले इस विशाल देश भारत की जनता केंद्र में एक मजबूत सरकार देखना चाहती है। जिसके साए में वह महफूज भी रहे और आर्थिक तरक्की भी करे। पिछले सभी विधानसभाई चुनावों से यह स्पष्ट हो रहा है कि जनता का भाजपा के प्रति मोहभंग हो चुका है। अब ना तो उसे वह हिंदू धर्म के लिए कुछ ठोस करने वाली पार्टी नजर आती है और न ही भ्रष्टाचार विहीन कुशल नेतृत्व वाली पार्टी।
जबकि दूसरी तरफ भाजपा के तमाम प्रचार और हमलों के बावजूद श्रीमती सोनिया गांधी के नेतृत्व में इंका लगातार एक के बाद एक किले फतह करती जा रही है। जिससे यह साफ होता है कि श्रीमती सोनिया गांधी के विदेशी मूल को लेकर भाजपा जो मुद्दा बनाना चाहती है उसे मतदाता स्वीकार नहीं कर रहा है। वह कांग्रेस को एक अनुभवी, सुगठित और प्रशासनिक क्षमता से युक्त दल मानता है इसीलिए पुनः कांग्रेस की तरफ लौट रहा है। इंका से कट चुके अल्पसंख्यकों को तो कांग्रेस से बेहतर विकल्प दीख ही नहीं रहा इसलिए वे तो अब कांग्रेस की तरफ लौट ही रहे हैं पर भाजपा का पारंपरिक हिंदू वोट बैंक भी इंका की तरफ आकर्षित होता जा रहा है। उधर इंका का नेतृत्व भी इस बात का सजग प्रयास कर रहा है कि बहुसंख्यक हिंदुओं की इस भ्रांति को दूर किया जाए कि इंका केवल अल्पसंख्यकों को ही प्राश्रय देती हैं और उसे बहुसंख्यकों की कोई परवाह नहीं। उत्तर प्रदेश के प्रभारी श्री मोतीलाल वोरा का श्रीमती सोनिया
गांधी को वृंदावन ले जाकर श्रीबांके बिहारी के चरणों में माथा टिकवाना, गुजरात में श्री शंकर सिह वाघेला का इंका झंडे के साथ ही केसरिया पताका लेकर अपना चुनाव प्रचार करना, गुजरात के प्रभारी श्री कमलनाथ का छोटे मुरारी बापू के नेतृत्व में संत समाज को एकत्र कर गुजरात के चुनाव प्रचार में झोकना और इंका के वरिष्ठ नेता श्री अर्जुन सिंह का रामनवमी को अपने निवास पर संत श्री अवधेशानन्द गिरि महाराज को बुलाकर सार्वजनिक सत्संग का आयोजन करना कुछ ऐसे प्रमाण हैं जो यह दिखाते हैं कि इंका अब धर्मनिरपेक्षता के संकुचित आवरण से बाहर निकल कर सही मायने में भारत की आत्मा को स्वीकारने लगी है। इंका नेता अलबत्ता यह कहने से नहीं चूकते कि धर्म में उनकी आस्था किसी की तुलना में कम नहीं है। पर वे धर्म को व्यक्तिगत साधना का विषय मानते आए थे। उन्होंने धर्म को राजनीति का हथियार बनाने की कोशिश नहीं की। उनका कहना है कि भाजपा की धर्म की राजनीति ने उन्हें मजबूर किया कि अपनी निजी भावनाओं का सार्वजनिक प्रदर्शन करें। वे मानते हैं कि उनकी अतीत की नीतियों से यह भ्रम अवश्य उत्पन्न हुआ कि वे अल्पसंख्यकों, खासकर मुसलमानों, के हितों के प्रति ज्यादा सजग हैं पर बदली परिस्थितियों में अब वे इस बात को स्पष्ट कर देना चाहते हैं कि उनकी सभी धर्मों के प्रति समान दृष्टि हैं और वे हर धर्म के संरक्षण और संवर्धन में निष्पक्षता से सहयोग देने में तत्पर हैं। इन परिथितियों में भाजपा के लिए मुश्किल बढ़ती जा रही है। जहां अपनी आक्रामक राजनीति से हिंदू धर्म की ध्वजा धारण करने वाले भाजपा के वरिष्ठ नेता व उप प्रधानमंत्री श्री लालकृष्ण आडवाणी हिंदुवादियों की ओर से बढ़ रहे दबाव को झेल रहे हैं वहीं वे मौजूदा हालात में लीक से हटकर कुछ भी कर पाने में स्वयं को अक्षम पा रहे हैं। नतीजतन भाजपा की यह गति हो रही है कि, ‘दुविधा में दोऊ गए, माया मिली न राम।’
अब भाजपा की अगली परीक्षा गुजरात में होगी। आमतौर पर यही माना जा रहा है कि वहां नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में भाजपा बड़े इत्मिनान से बहुमत प्राप्त कर लेगी। पर जरूरी नहीं कि यह जमीनी सच हो। गुजरात का मतदाता प्रकृति की इतनी विपदाएं झेल चुका है कि उसका कलेजा पत्थर का हो गया है। वह भावनाएं जो भी व्यक्त करे, पर अपना भविष्य बुद्धि का प्रयोग करके ही पांच साल के लिए किसी दल को सौंपेगा। इसलिए जहां इंका अपना आक्रांमक चुनाव प्रचार जारी रखेगी वहीं भाजपा को भी लगातार हालात पर नजर रखनी पड़ेगी। वैसे भी देखने में यही आया है कि प्रायः सत्तारूढ़ दल के प्रति स्थानीय जनता का आक्रोश इतना अधिक होता है कि वह उसे हटा कर नए दल को मौका देना चाहती है। फ्रांस के मशहूर समाजशास्त्री पैरेटो का सिद्धांत है कि समाज में कुलीन वर्ग के लोगों का लगातार पारस्परिक स्थान परिवर्तन होता रहता है। जो आज सत्ता में हैं वह कल बाहर होंगे और जो आज सत्ता से बाहर हैं वह कल सत्ता में होंगे। वैसे पश्चिम बंगाल व मध्य प्रदेश इसके अपवाद रहें हैं इसलिए भाजपा को उम्मीद है कि हिंदुवादी एजेंडे के चलते उसे गुजरात में स्पष्ट बहुमत मिल जाएगा। बहुत कुछ इस पर भी निर्भर करता है कि भारत के मुख्य चुनाव आयुक्त गुजरात के चुनाव कब और किन परिस्थितियों में कराते हैं। फिलहाल भाजपा के लिए यह आत्ममंथन की घड़ी है और इंका के लिए अपनी तलवार की धार और पैनी करने की । नतीजा क्या होगा ये या तो भगवान जानते हैं या फिर गुजरात की जनता।