लोकतंत्र के नाम पर देश में चल रही विकृत राजनीति का चित्रण करनेवाली कई फिल्में पिछले 15-20 वर्षों में मुम्बई के सिनेमा जगत नें देश को दी हैं। इन फिल्मों में राजनेताओं की स्वार्थपरकता व कुनबापरस्ती सामने आई है। अपने फायदे के लिए जनता को जाति और धर्म के नाम पर भड़काने जैसी जनविरोधी साजिशों का भी अक्सर सटीक चित्रण किया जाता रहा है। पर इस समस्या से निपटा कैसे जाय ? इस पर कोई ठोस समाधान ये फिल्में नहीं दे पाईं। दे भी कैसे सकती हैं ? राजनीति में नैतिक पतन की जैसी समस्याओं से हमारा लोकतंत्र इस दौर में जूझ रहा है उनका समाधान अगर इतना सरल होता तो अब तक उसे अपनाने की कोशिश की जाती। देश इतना बड़ा है और समस्याएं भी उतनी ही व्यापक । फिल्मकार अपनी समझ और विचारधारा के अनुरूप समाधान पेश कर देते हैं। किसी फिल्म में दिखा देते हैं कि इस राजनैतिक व्यवस्था के गुण्डों से लड़ने वाले पत्रकार को हर स्तर पर शिकस्त खानी पड़ी क्योंकि लोकतंत्र के सभी खम्भे बदमाशों के हक में आपस में समझौते किए बैठे हैं। किसी फिल्म में दिखा देते हैं कि राजनैतिक व्यवस्था से जूझने वाला क्रान्तिकारी नौजवान आखिरकार इतना बेचैन हो गया कि उसने व्यवस्था पोषक बड़े राजनेताओं और उन्हें संरक्षण देने वाले न्यायाधीशों को गोली से उड़ा दिया । कभी दिखा देते हैं कि व्यवस्था से टक्कर लेने वाले को इतनी मुसीबतें झेलनी पड़ीं कि आखिरकार उसकी हिम्मत जवाब दे गई। कभी दिखा देते हैं कि आदर्शों के लिए भ्रष्ट राजनैतिक व्यवस्था से लड़ने वाला तो नहीं टूटा पर परिवेश की मार ने उसके बच्चों को बागी बना दिया। क्योंकि वे पिता के त्यागमय जीवन की सीमाओं में जीते हुए ऊब गये। उनका मन आम लोगों की तरह मौजमस्ती करने को बेचैन हो उठा। राष्ट्र की चिन्ता में समर्पित उनके पिता के पास इतना समय ही नहीं था कि वह अपने बच्चों के दिल में उठ रहे तूफान की गंूज सुन पाता। इस गूंज को सुना व्यवस्थापोषक भ्रष्ट नेताओं और ठेकेदारों ने जिन्होंने उस तपस्वी के बच्चों को बड़ी आसानी से मौजमस्ती के वो सब सामान उपलब्ध करा दिए जिनकी उन्हें हसरत थी। एक बार ऐसे बदमाशों के चंगुल मे फंसने के बाद वह बच्चे निकल नहीं सके, बिगड़ते ही गये। जब तक उनके पिता को पता चला बहुत देर हो चुकी थी। अब हाथ मलने और अपने बिगड़े हुए बेटे को थप्पड़ मार कर घर से बाहर निकालने के अलावा उनके पास कोई चारा न बचा। एक तो वख्त की मार, ऊपर से सभी सपनों का टूट जाना उनके दिल में गहरी चोट कर गया। हिम्मत टूट गई। मन हार गया। शरीर ऊर्जाविहीन हो गया। जवानी तो पहले ही देश सेवा में समर्पित कर दी थी अब बुढ़ापे के लिए कुछ न बचा। न साधन न सन्तान।
इस तरह अनेक प्रकार की परिस्थितियाँ पैदा करके व्यवस्था से लड़नेवालों की जिन्दगी का चित्रण इन फिल्मों में किया जाता है। बहुत दिन पुरानी बात है एक बार श्री रघुवीर सहाय जी, नामवरसिंह जी और मैं एक सार्वजनिक व्याख्यान के बाद पश्चिमी उत्तरप्रदेश से दिल्ली लौट रहे थे। उन दिनों एक फिल्म आई थी जिसमें व्यवस्था विरोध करने वाले पत्रकार के परिवार को शारीरिक यातना पहुंचाने का भयावह दृश्य था। चर्चा चली कि आखिर यह फिल्म क्या संदेश दे रही है ? क्या यह कि व्यवस्था से जूझने वाले किसी भी मुसीबत से घबड़ाते नहीं हैं ? या ये कि व्यवस्था से लड़ने वाले को ऐसी खौफनाक परिस्थितियों के लिए तैयार रहना चाहिए ? या ये कि जो कोई भी व्यवस्था से लड़ने की जुर्रत करेगा उसका यही अंजाम होगा ? सहमति इस बात पर हुई कि यह तीसरा अघोषित लक्ष्य ही ऐसी फिल्मों की बुनियाद में होता है। यानी मकसद यह दिखाना होता है कि व्यवस्था जैसी है, चलने दो, न रोको, न टोको बस आंख फेर कर निकल जाओ।
सोचने वाली बात यह है कि फिल्म निर्माण में धन कौन लगाता है ? जाहिर सी बात है कि फिल्मों में बेइन्तहा काला धन लगता है। यह पैसा अन्डरवर्ड यानी तस्करों और देशद्रोहियों की तिजोरियों से निकलता है। उन लोगों की तिजोरियों से जो इस व्यवस्था को चलाने वाले नेता और अफसरों को पाल कर ही तो अकूत दौलत इकट्ठा करते हैं। यह दौलत इस देश की करोड़ों बदहाल जनता के सुख चैनछीन कर जमा की जाती है। मतलब यह हुआ कि इस दौलत को हासिल करने का रास्ता राजनैतिक और प्रशासनिक व्यवस्था को भ्रष्ट और निकम्मी बनाकर ही हासिल किया जाता है। तो जो लोग व्यवस्था को बिगाड़ कर अपना फायदा कर रहे हैं वो ऐसी फिल्में क्योंकर फाइनेंस करने लगे जो फिल्में उनके ही अस्तित्व को चुनौती देने वाली हों ? जिन्हें देखकर देश के शोषित नौजवानों का खून खौल उठे। वो ऐसे समाज विरोधी तत्वों को सबक सिखाने सड़कों पर उतर आयें। नहीं, उनका यह मकसद कतई नहीं होता। उनका मकसद वही होता है जो स्वर्गीय रघुवीर सहाय जी कह रहे थे - ‘बिगड़ी व्यवस्था का विरोध करने वालों के मन में आतंक पैदा करना।’ इसके अपवाद भी होते हैं। अनेक फिल्मकार ऐसे भी हुए हैं जो सही धन न मिल पाने की तमाम सीमाओं के बावजूद कम साधनों में ही ऐसी प्रभावशाली फिल्म बनाते हैं जिससे समाज को लाभ ही होता है। दुर्दशा का चित्रण भी होता है और उससे लड़ने की इच्छा भी पैदा होती है। ऐसी फिल्में उन लोगों की हौसला आफजाई करती हैं जो सब बाधाओं को झेलते हुए बड़ी हिम्मत और दिलेरी से व्यवस्था के घडि़यालों से जूझ रहे होते हैं। इस सन्दर्भ में पिछले वर्ष बनी फिल्म गाॅडमदर एक अच्छी मिसाल है।
आमतौर पर इस किस्म की फिल्में गम्भीर या कलात्मक कहकर एक तरफ खड़ी कर दी जाती हैं। ये फिल्में बाॅक्स आॅफिस पर हिट नहीं हो पातीं। इन्हें देखने वाला वर्ग उन संभ्रात लोगों का होता है जिनकी संवेदनशीलता प्रायः उनके ड्राइंगरूमों के बाहर नहीं जाती। ये वो लोग हैं जो व्यवस्था के दोषों से भलीभांति परिचित होते हैं। पर सब कुछ देखकर भी मौन रहना ही पसन्द करते हैं। बहुत हुआ तो सेमिनारों या टी.वी. की बहसों में अपनी ‘विशेषज्ञ राय’ देकर अपने कर्तव्य की इतिश्री कर लेते हैं। समाज का वह वर्ग जो व्यवस्था के इन दोषों के कारण सबसे ज्यादा प्रभावित होता है उसे ऐसी फिल्में देखने की पे्ररणा देने वाला कोई नहीं होता। जबकि यह वही वर्ग है जो ऐसी फिल्में देखकर कुछ फायदा उठा सकता है। इसलिए ऐसे इन्तजाम किए जाएं कि देश के आमलोगों तक ऐसी फिल्में पहुंच सकें। सरकार तो क्यों करने लगी ? पर जो लोग साधन सम्पन्न है और समाज सेवा करना चाहते हैं मसलन धनी घरों की महिलायें उन्हें अपने-अपने इलाको में आम लोगों तक सही सूचना पहुंचाने के साधनों का इन्तजाम करना चाहिए। जिले के लाखों गरीबों में से अगर दस गरीब बच्चों के लिए स्कूल की यूनिफार्म बांट दी या पचास बच्चों को पाठ्यपुस्तकों के पैकेट तालियों की गड़गड़ाहट के बीच अगर बांट भी दिए तो उसका पूरे समाज को उतना लाभ नहीं होगा जितना उसे जागृत बना कर हो सकता है। इस मामले में टेलीविजन महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकता है। क्योंकि आज इसकी पहुंच देश के कोने कोने तक हो चुकी है। दुर्भाग्य से टेलीविजन भी बड़ी व्यावसायिक कम्पनियों के उत्पादनों को बेचने के काम में ज्यादा लगा है बमुकाबले लोगों को सूचना और शिक्षा देने के। फिर भी कभी कभार यह कुछ अच्छा कर बैठता है। गत वृहस्पतिवार की रात स्टार टी.वी. चैनल ने गाॅडमदर फिल्म दिखाकर कुछ ऐसा भला कर दिया। हमेशा की तरह शबानाआजमी इस फिल्म की प्रमुख भूमिका को बेहद असरदार तरीके से निभाने में सफल रही हैं। फिल्म की खास बात इसका यथार्थ के निकट होना और बहुत धारदार तरीके से सन्देश दर्शकों से मन तक उतार देना इस फिल्म के निर्देशक का कमाल है। सबसे अच्छी बात जो इस फिल्म में है वह यह है कि यह फिल्म एक तरफ तो उन परिस्थितियों का चित्रण करती है जिनसे यह स्पष्ट होता है कि राजनेता किस तरह अच्छी भावना के बावजूद भ्रष्ट और स्वार्थी बनने पर मजबूर कर दिया जाता है । दूसरी तरफ यह फिल्म उस कहावत को चरितार्थ करती है कि ‘डाकू भी नहीं चाहता कि उसका बेटा डाकू बने’। यानी हर नेता के सीने में भी किसी इंसान का दिल धड़कता है। वह जानता है कि जो कुछ वहां अपनी आत्मतुष्टि के लिए कर रहा है वह सही नहीं है। अपराधबोध उसे चैन से जीने नहीं देता और वासनाएं उसे मरने नहीं देतीं। इस तरह वह अपने ही अन्तद्र्वन्द्वों के बीच जीवन को घसीटता हुआ चलता जाता है। इस फिल्म में यह तथ्य बहुत सशक्त ढंग से उजागर हुआ है। इसमें व्यवस्था का विरोध करने वाले नहीं बल्कि उसका पोषण करने वाली एक स्वार्थी और हिंसक बन चुकी राजनेत्री का अंत उसके प्रयाश्चित से होता है। जिसपर उसे जनता की हार्दिक सहानुभूति मिलती है। यह फिल्म आज के इस दौर में एक आशा जगाती है कि सच्चाई पर लड़ने वालों हिम्मत मत हारना। आखिर एक दिन तो देशद्रोह में आकंठ डूबे हुए लोगों के मन में अपने किए का पश्चाताप जरूर होगा। तुम उस वक्त तक लड़ते रहो तो सुबह जरूर देखोगे। ऐसी फिल्में हर गाँव में दिखाई जानी चाहिए।