वंृदावन में कहावत है कि यहां नौकरी करके एक महिला 15 सौ रुपया कमाती है, पर भिक्षा मांग कर कम से कम तीन हजार रुपए महीने कमाती है, इसमें अतिश्योक्ति जरा भी नहीं। पिछले दिनों मीडिया में वृंदावन की विधवाओं की दशा पर काफी लेख लिखे गए। वाॅटर फिल्म से उठे विवाद के बाद यह स्वभाविक था कि धर्मक्षेत्रों में आ कर रहने वाली विधवाओं की तरफ मीडिया की निगाह जाती। पर जिस तरह से ये लेख प्रकाशित हुए उससे ऐसा लगा मानो वृंदावन में रहने वाली विधवाओं की गति बंधुआ वेश्याओं से बेहतर नहीं है। जाहिर है कि यह लेख एक पूर्व निर्धारित मानसिकता से लिखे गए हैं। इसलिए इनमें कुछ तथ्यों को जानबूझकर अनदेखा कर दिया गया। मसलन, दिल्ली के एक प्रतिष्ठित अंग्रेजी दैनिक ने लिखा कि वृंदावन में लगभग 6 हजार विधवाएं रहती हैं। जबकि हकीकत यह है कि पश्चिम बंगाल की सरकार ने फरवरी में जो सर्वेक्षण करवा था उसमें इनकी संख्या मात्रा 4 हजार ही आंकी गई है। यह संख्या भी स्थिर नहीं रहती। मौसम, त्यौहारों और तीर्थ यात्रियों के आने से इन महिलाओं की संख्या घटती-बढ़ती रहती है। आजकल यह संख्या 2500 से ज्यादा नहीं है। जब वृंदावन में दान देने वाले तीर्थ यात्रियों की संख्या घट जाती है तो ये महिलाएं भी लौटकर पश्चिमी बंगाल में अपने गांव चली जाती हैं। इनमें भी बीस फीसदी ही कम उम्र की विधवाएं हैं। दस फीसदी परित्यक्ताएं हैं। जबकि बीस फीसदी वृद्ध महिलाएं हैं। जिनकी अपनी बेटे-बहुओं से अनबन होती है इसलिए वे भजनाश्रम में चली आती हैं। शेष 50 फीसदी महिलाएं बाकायदा शादीशुदा, शारीरिक रूप से सक्षम और अपने पति व परिवार के साथ रह रही होती हैं। जो रोजाना भजनाश्रम में कुछ घंटे भजन करने इसलिए आती हैं ताकि उन्हें भजन के बाद कुछ अनाज, दाल, पैसा या दूसरी सामग्री दान में मिलती रहे जो उनके परिवार की अतिरिक्त आमदनी का जरिया होती है।
इसलिए यह कहना सरासर गलत है कि ये सारी महिलाएं लाचार हैं, दयनीय दशा में हैं और पेट की आग बुझाने के लिए अपने तन को बेचने में संकोच नहीं करती या इनकी लाचारी का फायदा उठाकर भजनाश्रमों के प्रबंधक इनका शारीरिक शोषण करते हैं। वंृदावन में देश भर के लाखों संपन्न परिवार सारे साल तीर्थाटन करने आते रहते हैं। ये परिवार अक्सर भजनाश्रम की इन बंगाली महिलाओं को अच्छी नौकरी दे कर मुंबई, कलकत्ता, बंग्लौर जैसे शहरों में ले जाते हैं। उनकी भावना यह होती है कि एक भक्त महिला उनके घर रह कर भजन भक्ति करेगी। साथ ही उनके घर की रसोई या ठाकुर सेवा भी करेगी। पर अक्सर ये महिलाएं ऐसी इज्जतदार नौकरियों को भी छोड़कर वंृदावन भाग आती हैं। इनमें से ज्यादातर तो किसी किस्म की नौकरी करने को तैयार ही नहीं होती हैं। क्योंकि वो जानती है कि अगर नौकरी करेंगी तो उन्हें दिन में कुछ घंटे मेहनत करनी पड़ेगी। जबकि भजनाश्रम में कुछ घंटे भजन करके ही उनके ही नहीं उनके परिवार के लिए भी काफी दान मिल जाता है। एक अजीब बात यह है कि जो लोग केवल भजन भक्ति की भावना से वंृदावन में छोटे-छोटे भजनाश्रम खोलते हैं और उनमें भजन करने आने वाली महिलाओं को पेट भर राशन या भोजन देने की व्यवस्था करते हैं, उनमें ये महिलाएं जाना पसंद नहीं करती। ये तो बालाजी आश्रम और भगवान भजनाश्रम सरीखे उन भजनाश्रमों में सैकड़ों की संख्या में रोजना पहुंचती हैं, जहां आए दिन तमाम बड़े सेठ इन्हें साड़ी, बर्तन,कंबल, नकद आदि बांटते रहते हैं। यूं सड़क चलते भिक्षा के लिए लगी कतारों और भिक्षा मांगने वाली महिलाओं के बीच की धक्का-मुक्की को देखकर कोई भी अनजान व्यक्ति उनकी दयनीय दशा पर द्रवित हो जाएगा। पर असलियत यह है कि वंृदावन की इन बंगाली महिलाओं के बीच एक शब्द बड़ा लोकप्रिय है, ‘बांटा-बांटी।’ आग की तरह इनके बीच ये खबर फैल जाती है कि आज फलां आश्रम में या फलां धर्मशाला में ‘बांटा-बांटी’ होगी। यह सुनते ही सैकड़ों की तादाद में महिलाएं उसी तरफ दान बटोरने दौड़ पड़ती हैं। ज्यादातर महिलाएं साल भर में इतना सामान और धन इकट्ठा कर लेती हैं कि साल में एक बार उसे लेकर पश्चिमी बंगाल स्थित अपने गांव जाती हैं और अपने घर वालों को देकर आती हैं। इतना ही नहीं उनकी खुशहाली देखकर दूसरी महिलाएं व परिवार उनके साथ चले आते हैं।
ऐसा नहीं है कि भजनाश्रम में रहने वाली महिलाओं के साथ यौनाचार होता ही न हो। पर यह समस्या इतनी व्यापक और भयावह नहीं है जितना बढ़ा-चढ़ा कर मीडिया में पेश की गई है। जैसाकि आंकड़ों से स्पष्ट ही है कि भजनाश्रमों में आने वाली आधी महिलाएं तो विवाहित हैं और अपने परिवार के साथ वंृदावन में रहती हैं। शेष आधी में से लगभग आधी वृद्धा हैं। इस तरह तीन चैथाई महिलाओं के तो शारीरिक शोषण की समस्या नगण्य है। जो चैथाई युवा विधवाएं हैं भी तो उनके साथ मुक्त यौनाचार की संभावनाएं ऐसी नहीं है, जैसी पेश की गई हैं। जो कुछ होता भी है वह पारस्परिक सहमति से ही होता है, जोर-जबरदस्ती से नहीं। वंृदावन के सामाजिक कार्यों में जमकर रूचि लेने वाले युवा श्री विपिन व्यास का कहना है कि अगर महिलाओं के साथ इस तरह का यौनाचार होता तो वंृदावन का समाज उसे चुप रह कर बर्दाश्त करने वाला नहीं था, बवेला खड़ा हो जाता। वे सवाल पूछते हैं कि महानगरों के कुलीन समाज में जेसिका लाल जैसी पार्टियां या घटनाएं क्या महिलाओं के शोषण की श्रेणी में आती हैं या आधुनिक समाज की तथाकथित मुक्त जीवन-शैली की श्रेणी में ? श्री व्यास जैसे वंृदावन के अनेक युवा पिछले दिनो वंृदावन पर हुए मीडिया के हमले को लेकर काफी नाराज हैं। वे सवाल करते हैं कि इस तरह की रिपोर्ट प्रकाशित करने वालों ने कुछ महत्वपूर्ण सवालों की उपेक्षा क्यों की ? क्या यह तथ्य पड़ताल का विषय नहीं है कि वंृदावन में आश्रय लेने वाली ज्यादातर महिलाएं और गरीब परिवार पश्चिमी बंगाल से ही क्यों आते हैं ? साफ जाहिर है कि दो दशकों के कम्युनिस्ट शासन के बावजूद पश्चिमी बंगाल की सरकार वहां के आम लोगों की गरीबी दूर नहीं कर पाई। दूसरा कारण यह है कि पश्चिमी बंगाल में विधवाओं के प्रति जो अत्याचार सदियों से होता आया है उसे भी वामपंथी सरकार रोक पाने में नाकाम रही है। तभी तो वे वहां से जान बचा कर वंृदावन भागी आती हैं। वैसे इस सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण कारण तो यह है कि 15वीं सदी में बंगाल के नादिया जिले में श्री चैतन्य महाप्रभु ने कुष्ण भक्ति की जो लौ जलाई थी उसकी लहर आज तक बंगाल से हर उम्र के कृष्ण भक्तों को खींचकर वंृदावन लाती रही है। ये महिलाएं वंृदावन में सादगी और साधना का जीवन जी कर अपना आध्यात्मिक जीवन सवारने के उद्देश्य से आती हैं। वंृदावन के एक मशहूर भजनाश्रम की व्यवस्था से जुड़े श्री कपिलदेव का मानना है कि भजनाश्रमों पर इस तरह का हमला बोलकर कुछ आत्मघोषित समाज सुधारक और सरकारी अधिकारी विधवा आश्रमों के नाम पर सरकारी अनुदान प्राप्त करने की योजना बना रहे हैं ताकि उसे हजम किया जा सके। वे प्रश्न पूछते हैं कि अगर सरकार को इन महिलाओं की इतनी ही चिंता है तो क्या वजह है कि भारत सरकार द्वारा वंृदावन में संचालित ‘मीरा उद्धार योजना’ के अंतरगत चल रहे शरणालय में भीषण जाड़ों में भी इन महिलाओं को बिस्तर तक उपलब्ध नहीं कराए गए। इसी तरह ‘अमार बाडी’ संस्था जो कि भारत सरकार से अनुदान लेती है और श्रीमती मोहिनी गिरी के निर्देशन में चलती है, इन महिलाओं को आकर्षित करने में नाकामयाब क्यों रही हैं?
दरअसल वंृदावन में रहने वाली इन महिलाओं की समस्या का रूप कुछ दूसरा ही है। सब जानते है कि तीर्थ स्थानों पर पंडों का अपना साम्राज्य चलता है। पंडागिरी की सदियों पुरानी यजमानी व्यवस्था के क्रमशः टूटते जाने के कारण अब पंडा समाज में भी काफी विकृति आती जा रही है। जहां पहले पंडा यानी तीर्थ पुरोहित अपने यजमान का मेजबान, गाॅइड व गुरू सब कुछ होता था वहीं आज पंडे और तीर्थ यात्राी का संबंध व्यापारिक होता जा रहा है। पंडे समाज के ही कुछ लोग भजनाश्रमों के नाम पर तीर्थयात्रियों को मूर्ख बना कर रोजना मोटा पैसा वसूल लेते हैं और उसे हजम कर जाते हैं। चूंकि तीर्थ स्थान पर आ कर दान करना एक पुरानी प्रथा है इसलिए हर गरीब या अमीर आदमी अपनी हैसियत अनुसार कुछ न कुछ दान अवश्य करता है। आवश्यकता इस बात की है कि इस दान के संग्रह और विनियोग की व्यवस्था को पारदर्शी और सुदृढ़ बनाया जाए। इसके साथ ही इन महिलाओं को धन और वस्तुओं का दान देकर उन्हें परजीवी न बनाया जाए। बल्कि इन्हें भजन के साथ धाम की सेवा व्यवस्था में रोजगार देकर लगाया जाए। क्योंकि ये धाम छोड़कर भी नहीं जाना चाहती और इतने तीर्थयात्रियों के आने से धाम की व्यवस्था सुचारू रह भी नहीं पाती। अगर कोई प्रतिष्ठित संस्था या समूह इस काम का बीड़ा उठाए और उसे वंृदावन के समाज, स्थानीय प्रशासन व सरकार का सहयोग मिले तो वृद्धा महिला आश्रम जैसे स्थानों पर सुविधाएं बढ़ा कर वास्तव में दुखी महिलाओं की अच्छी देखभाल की जा सकती है। जबकि कम उम्र महिलाओं के रोजगार की व्यवस्था की जा सकती है।
दक्षिणी दिल्ली के साउथ एक्सटेंशन इलाके में एक ईसाई मिशनरी संगठन अनेक वर्षों से बड़ी कुशलता से इस तरह का एक कार्यक्रम चला रहा है। यह संगठन जरूरतमंद ईसाई युवतियों को देश के विभिन्न हिस्सों से दिल्ली बुलाता है, उन्हें घर के सभी काम-काम करने का प्रशिक्षण देता है और फिर उन्हें सभ्रांत और संपन्न परिवारों में नौकरी दिलवा देता है। एक अच्छी बात ये है कि यह संगठन नौकरी दिलवाने के बाद इन युवतियों को भूल नहीं जाता बल्कि उनके मालिक से संबंध, उनके काम की दशा और उनकी बाकी जरूरतों के लिए हमेशा सजग और तत्पर रहता है। चूंकि एक इज्जतदार संगठन इन ईसाई महिलाओं के आचरण की जमानत लेने को तैयार बैैठा है इसलिए रोजगार देने वाले परिवारों को कोई शंका या संकोच नहीं रहता। ऐसे लोगों की एक लंबी प्रतीक्षा सूची इसं संस्था के कार्यालय में हमेशा बनी ही रहती है। यानी रोजगारा देने वाले ज्यादा, रोजगार लेने वाले कम। इसी तरह वंृदावन में भी कोई योजना चला कर इन महिलाओं को प्रशिक्षित व संगठित किया जा सकता है और यदि वे चाहें तो उन्हें साधन संपन्न कृष्ण भक्त परिवारों के यहां रोजगार दिलवाया जा सकता है। देश में अनेक कृष्ण भक्त संपन्न परिवार ऐसे हैं जो चाहते हैं कि उनके घर की बुजुर्ग विधवा महिला की देखभाल के लिए ऐसी ही कोई जरूरतमंद व भक्त प्रवृत्ति की महिला हो। इसलिए यदि यह योजना वंृदावन में ढंग से चलाई जाए तो न तो धन की कमी रहेगी और ना ही रोजगार की।
किसी भी व्यवस्था पर सीधे चोट कर देना सबसे सरल काम है। पर उस व्यवस्था को समझ कर उसमें सुधार करना या उससे बेहतर विकल्प देना बहुत कठिन होता है। जो लोग भी आज हिंदू समाज के पीछे डंडा लेकर पड़े हैं उन्हें अपनी बयानबाजी से पहले तथ्यों की निष्पक्ष पड़ताल करनी चाहिए। बुराई को बुरा कहना बुरा नहीं। पर अच्छाई को बुराई बना कर पेश कराना बहुत घातक होता है। वंृदावन के भजनाश्रमों ने दशकों से बेसहारा महिलाआंे को आश्रय दिया है और आज भी दे रहे हैं। यह सब बिना किसी सरकारी अनुदान के केवल निजी प्रयासों से हो रहा है। उन पर इस तरह एक तरफा तीखा हमला करना ना तो इन महिलाओं के हक में है और ना ही इस व्यवस्था के। इससे तो गेंहू के साथ घुन भे पिस जाएगा। जो लोग सदभावना से अपना निजी धन लगा कर ये व्यवस्थाएं चला रहे हैं उनके भी दिल पर ठेस लगेगी। हो सकता है कि वे इस दुष्प्रचार से दुखी होकर इस तरह की सेवा से ही हाथ खंींच लें। अगर प्रशासनिक अधिकारी, प्रोफेशनल समाजसेवी और चंद मीडिया वाले यह सोचते हैं कि सरकार इन महिलाओं के कल्याण के लिए कोई योजना सफलतापूर्वक चला पाएगी तो यह उनका भ्रम है। गरीबों को सहायता देने के नाम पर सरकार ने अंत्योदय, आंगनबाड़ी, प्रौढ़ शिक्षा और समेकित ग्रामीण विकास जैसी दर्जनों योजनाएं पिछले पचास वर्षों में देश भर में चलाईं। इन पर अरबो रुपया खर्च हुआ पर नतीजा शून्य के अतिरिक्त कुछ भी नहीं रहा। सारी उपलब्धियां कागजों पर ही दिखाई दीं, धरातल पर नहीं। फिर कैसे माना जाए कि भजनाश्रम की महिलाओं के लिए सरकार कुछ अनूठा कर पाएगी? इसलिए उनकी समस्या का निदान मौजूदा स्थिति में ही ढूंढना होगा। वंृदावन की पूरी अर्थव्यवस्था तीर्थयात्रियों और दान पर टिकी है। अपनी संस्कृति को थाईलैंड, इंडोनेशिया और मलेशिया जैसे छोटे-छोटे देश पर्यटक पैकेज के रूप में बेच कर अरबों डाॅलर कमाते हैं और सराहे जाते हैं, उसी तरह वंृदावन जैसे धार्मिक क्षेत्रा भी तीर्थयात्रियों को आनंद की अनुभूति देकर बदले में कुछ दान प्राप्त करते हैं। इस तरह का सुनियोजित दुष्प्रचार वंृदावन की अर्थव्यवस्था पर विपरीत प्रभाव ही डालेगा। जिससे किसी का भी भला नहीं होगा।