Panjab Kesari 25/7/2011 |
इधर पिछले दिनों इटली की हालत भी बद से बदतर होती जा रही है। आज इटली पर 2.6 ट्रिलियन डाॅलर का कर्ज है। जो कि इसके सकल घरेलू उत्पादन का 120 फीसदी है। यह ग्रीस, आयरलैंड और पुर्तगाल तीनों के कुल घाटे से तिगुनी राशि है। ऐसे में इटली के प्रधानमंत्री के हाथ-पाँव फूलना स्वाभाविक है। एक के बाद एक यूरोपीय देश मंदी के दुष्चक्र में फंसते जा रहे हैं। उनकी सरकारें कर्जे लेकर चल रही हैं। औद्योगिक उत्पादन में वृद्धि नगण्य है। बेरोजगारी और युवाओं में हताशा तेजी से फैल रही है। बैंकिंग सैक्टर खुद घबराया हुआ है। नीचे ढरकते हुए इस माहौल में कोई बड़ा निवेशक पैसे लगाकर जोखिम मोल नहीं लेना चाहता। अमरीका कर सकता था पर वह खुद इतने बड़े कर्जे में डूब चुका है कि अमरीकी राष्ट्रपति बराक ओबामा अपने देश के ऋण की उच्चतम सीमा को सीनेट से बढ़वाना चाहते हैं ताकि कुछ और कर्ज लेकर कुछ समय खींचा जा सके।
ऐसा नहीं है कि यूरोप के और अमरीका के धनाढ्यों के पास पैसा नहीं है। बहुत पैसा है। इतना कि वे अपने देशों की अर्थव्यवस्था को ढर्रे पर ला सकते हैं। पर कोई पैसा इसलिए नहीं कमाता कि उसे धर्मार्थ खाते में डाल दे। ये धनाढ्य लोग जानते हैं कि मौजूदा हालात में यूरोप या अमरीका में पैसा लगाना मतलब भारी जोखिम लेना होगा। मुनाफा तो दूर की बात, मूल तक डूबने की नौबत है। ऐसे में ये अपना पैसा चीन और भारत जैसे देशों में लगाने के लिए जमीन तलाश रहे हैं। इस सारे माहौल से यूरोप का नागरिक बहुत बैचेन है। लगभग दो सदी तक दुनियाभर में उपनिवेश स्थापित कर यूरोप वासियों ने दुनिया के देशों का खूब देाहन किया। अपने पक्ष में व्यापार किया। अपनी धन संपदा को बढ़ाया और ऐशो-आराम की जिन्दगी सुनिश्चित की। यह क्रम चलता रहता तो यूरोप वासियों को इतने बुरे दिन न देखने पड़ते। वैसे तो इन औपनिवेशिक मुल्कों की आजादी के बाद ही झटका लग जाना चाहिए था। पर ऐसा इसलिए नहीं हुआ क्योंकि नये आजाद हुए ये देश तकनीकि के मामले में आत्मनिर्भर नहीं थे। इसलिए ये अपने औपनिवेशिक शासकों के चंगुल में फंसे रहे। जो इन्हें आजादी देने के बाद भी इनका व्यापारिक शोषण करते रहे। पर पिछले दशक में हालात तेजी से बदले हैं। एशियाई देशों में आयी तकनीकि क्रांति, उद्यमशीलता और दुनिया को मुठ्ठी में बन्द करने की ललक ने समीकरण बदल दिए। अब ये एशियाई देश यूरोपीय देशों पर न तो तकनीकि के लिए निर्भर हैं और न ही उनके खरीदारों पर। इन एशियाई देशों में मध्यम वर्गीय ग्राहक की क्रय क्षमता तेजी से बढ़ी है। नतीजतन अब घरेलू बाजार का ही इतना विस्तार होता जा रहा है कि कल तक जो निर्यात का मुख देखते थे, वे देश में ही अपने बाजार का विस्तार कर रहे हैं। इस तरह यूरोप के कारखानों में बनने वाली वस्तुओं की मांग तेजी से गिरी है। इससे वहाँ आर्थिक मंदी, बेरोजगारी और हताशा तेजी से फैलती जा रही है। यूरोप के राजनेता भी इस पतन के लिए कम जिम्मेदार नहीं हैं। फिजूलखर्ची और शानो-शौकत के जीवन ने इन देशों की सरकारों के खर्चे बहुत बढ़ा रखे थे। आज उन्हें खर्चे घटाने में तकलीफ हो रही है।
भारत के लिए यह परिस्थिति सबक होनी चाहिए। आज भारत में मध्यवर्ग और उच्चवर्ग की सम्पन्नता इतनी नहीं कि अस्सी फीसदी आम आदमी की बेजारी कम कर सके। पर उसका खर्चा और रहन-सहन इतनी तेजी से ऊपर उठ गया है कि दुनिया के धनी देशों के धनी लोग भी देखकर हैरान हैं। यही हाल हमारे सरकारी खर्च का भी है। फिजूलखर्ची की इंतहा है। एक-एक मद को गिनाने बैठें तो पता चलेगा कि केन्द्र और राज्य सरकारें किस बेशर्मी से इस देश की गरीब जनता के खून-पसीने की कमाई को बर्बाद करने पर तुली है। आर्थिक प्रगति का जो दावा किया जा रहा है, उसके मूल में है अचानक बढ़ा खनिज निर्यात। कर्नाटक के लोकायुक्त की रिपोर्ट इस बात को प्रमाणित करती है कि कर्नाटक के मुख्यमंत्री की मिलीभगत से रेड्डी बंधु खनिज पदार्थों की लूट का साम्राज्य कब्जा किये बैठे हैं। यही हालत उड़ीसा और देश के दूसरे राज्यों की भी है। इतनी बड़ी तादाद में खनिज का निर्यात करना कोई विकास का प्रमाण नहीं है। इस तरह तो हम चीन जैसे देश के औद्योगिक विकास की वृद्धि में मदद कर रहे हैं। बेहतर होता कि हम अपने खनिज से अपना औद्योगिक उत्पादन करते और उस उत्पादन को दुनिया के बाजार में बेचते। इससे हमारी लागत कम और मुनाफा ज्यादा होता। इस तरह की कमाई थोड़े ही दिन में हमारी सरकार को खतरनाक स्थिति में लाकर खड़ा कर देगी। तब हमारे लिए खर्चे घटाना और जन आकांक्षाओं को पूरा करना इतना ही कठिन होगा जितना आज यूरोप की सरकारों को हो रहा है। अगर हम मजबूती के साथ आगे बढ़ना चाहते हैं तो हमें सचेत रहने की और मितव्ययी होने की जरूरत है।