Monday, May 23, 2011

जन लोकपाल या लोकतांत्रिक लोकपाल ?

Panjab Kesari 23-05-2011
लोकपाल विधेयक बनाने की साझी समिति अपना काम कर रही है। पर इसके साथ ही सरकारी विधेयक और भूषण पिता-पुत्र द्वारा तैयार विधेयक, दोनों की ही खामियों को दूर करता हुआ एक लोकतांत्रिक लोकपाल विधेयक एक और टीम ने तैयार किया है। जिसमें लोकसभा के महासचिव रहे सुप्रसिद्ध संविधान विशेषज्ञ श्री सुभाष कश्यप, सर्वोच्च न्यायालय के वकील श्री अरूणेश गुप्ता, क्रांतिकारी विचारक भरत गाँधी आदि अन्य लोग शामिल हैं। इन तीनों विधेयकों की तुलना करने से पाठकों को स्पष्ट हो जायेगा कि यदि भ्रष्टाचार को दूर करना है तो भूषण पिता-पुत्र का लोकपाल विधेयक नहीं, बल्कि लोकतांत्रिक विधेयक ही कारगर रहेगा।

लोकतांत्रिक मूल्य
सरकारी लोकपाल का लोकतांत्रिक मूल्य प्रधानमंत्री पद के मूल्य से कम होगा, क्योंकि वह निर्वाचित नहीं होगा। कमोबेश जनलोकपाल का लोकतांत्रिक मूल्य भी सरकारी विधेयक जैसा ही है। जबकि लोकतांत्रिक लोकपाल देश-भर के ब्लाॅक प्रमुखों द्वारा निर्वाचित होगा। अतः लोकतांत्रिक मूल्य में अधिक होगा और प्रधानमंत्री पर निगरानी करने का उसका अधिकार पूरी तरह तर्क संगत होगा।

विचारधारा की लोक परीक्षा
सरकारी लोकपाल विधेयक द्वारा बनाये गये लोकपाल की राजनीतिक-आर्थिक विचारधारा क्या है यह केवल देश के बडे राजनेता ही जान पाएंगे, क्योंकि वही लोग लोकपाल को नियुक्त करेंगे। आम जनता अन्धेरे में रहेगी। जनलोकपाल की नियुक्ति संवैधानिक पदों पर बैठे ह्रुए लोगों के अलावा उद्योगपतियों द्वारा समर्थित कुछ तथाकथित समाजसेवी व विदेशी हुकूमतों से ईनाम पाने वाले उनके कृपापात्र भी करेंगे। इन मुठ्ठीभर लोगों के अलावा लोकपाल की विचारधारा और आचरण से पूरा देश अनजान रहेगा। चूंकि लोकतांत्रिक लोकपाल का चुनाव होगा, अतः उसके प्रतिद्वन्दी जनता के सामने उसकी सारी पोल खोल देंगे। पूरा देश जान पाएगा कि जो व्यक्ति लोकपाल की कुर्सी पर बैठने जा रहा है उसकी राजनीतिक व आर्थिक विचारधारा क्या है और उसका चरित्र व आचरण कैसा रहा है?

निजी सनक और राजनीतिक अनुभवहीनता
सरकारी लोकपाल विधेयक के अनुसार निर्वाचित न होने के कारण लोकपाल सनकी हो सकता है और देश के संवैधानिक पदों पर बैठे लोग उसकी सनक के शिकार हो सकते हैं। इसी तरह जनलोकपाल और सरकारी लोकपाल दोनों के सनकी होने की पूरी सम्भावना है। इससे देश के संवैधानिक पद जनलोकपाल की राजनीतिक अनुभवहीनता का शिकार हो सकते हैं। जबकि लोकतांत्रिक लोकपाल व्यक्तिगत सनक व राजनीतिक अनुभवहीनता से मुक्त होगा। क्योंकि उसे चुनाव लडना पडेगा। चुनाव के दौरान उसका व्यवहार व क्रियाकलाप चर्चाओं का विषय बनेगा।

रिश्वत देने वालों का बचाव
सरकारी लोकपाल विधेयक के अनुसार लोकपाल रिश्वत देने वालों पर किसी तरह का अनुशासन नहीं लगाता। भूषण पिता-पुत्र का जनलोकपाल विधेयक भी कुछ इस प्रकार बनाया गया है जिसे देखकर लगता है कि यह रिश्वत देने वालों के संगठित प्रयास से बनाया गया हो। क्योंकि यह विधेयक रिश्वत देने वालों को या रिश्वत लेने के लिए विवश करने वालों को दण्डित करने का कोई प्रावधान नहीं करता। जबकि लोकतांत्रिक लोकपाल विधेयक रिश्वत देने वालों, रिश्वत लेने वालों और रिश्वत लेने के लिए विवश करने वालों तीनों को दण्डित करने का प्रावधान करता है।

औद्योगिक घरानों के भ्रष्टाचार को बढावा
सरकारी लोकपाल विधेयक औद्योगिक घरानों के द्वारा भ्रष्टाचार किए जाने पर मौन है। क्योंकि सरकार पर औद्योगिक घरानों का शासन चलता है इसलिए ऐसा होना स्वभाविक ही है। जनलोकपाल विधेयक भी सरकारी विधेयक की तरह औद्योगिक घरानों के भ्रष्टाचार पर कोई अंकुश नहीं लगाता। इसके विपरीत लोकपाल की चयन प्रक्रिया द्वारा औद्योगिक घरानों को बढावा भी देता है। औद्योगिक घराने कुछ स्तर पर चन्दा देकर उसी नेता और उसी पार्टी को राजनीतिक अखाडे पर पहुचाते हैं जो भ्रष्ट होते हैं। चूंकि उच्च स्तर पर रिश्वत देने वाले औद्योगिक घराने संवैधानिक पदों पर बैठे लोगों को रिश्वत लेने के लिए मजबूर करते हैं और रिश्वत लेने की बात न मानने पर सरकार गिरा देते हैं। इसलिए लोकतांत्रिक लोकपाल विधेयक में लोकपाल के अधीन एक ऐसे उपलोकपाल का पद बनाया गया है जो केवल औद्योगिक घरानों द्वारा किए जा रहे भ्रष्टाचार को रोकने के लिए और रिश्वत देने वालों को दण्डित करने के लिए ही काम करेगा।

अंतर्राष्ट्रीय भ्रष्टाचार पर रोक
सरकारी लोकपाल विधेयक अंतर्राष्ट्रीय भ्रष्टाचार के मामले पर चुप है। जबकि इसी रास्ते देश का अधिकांश काला धन विदेश जाता है और इस पर सक्षम अंतर्राष्ट्रीय कानूनों द्वारा रोक न लगाई गई तो विदेश का धन देश में वापस नही लाया जा सकता। यदि यह काम किसी तरह हो भी गया तो यह सारा धन वापस विदेश फिर से चला जाएगा। देश के बडे भ्रष्टाचारी, चाहे वे नेता हों, चाहे अधिकारी हों या व्यापारी हों, सभी भ्रष्टाचार से प्राप्त रकम की सुरक्षा के लिए दूसरे देश के भ्रष्ट लोगों से गठजोड कर लेते हैं। भूषण पिता-पुत्र जनलोकपाल विधेयक के अनुसार भ्रष्टाचार से प्राप्त उनकी रकम और उस रकम से बनी सम्पत्ति को देश के अन्दर बरामद नहीं किया जा सकता। जबकि लोकतांत्रिक लोकपाल के अधीन एक ऐसा लोकपाल जो अंतर्राष्ट्रीय भ्रष्टाचार को रोकने के कानूनी उपाय भी करेगा।

लोकपाल के लिए अनोखे चरित्र वाले व्यक्ति की तलाश का तरीका
संवैधानिक संस्थाओं पर सामान्य चरित्र के लोग पहुँचने लगें, इसीलिए लोकपाल की जरूरत पडी। परन्तु सरकारी विधेयक में कोई ऐसा तरीका नही बतलाया जा सका, जिससे कि अलग ढंग के चरित्र वाले व्यक्ति को तलाश कर लोकपाल बनाया जा सके। जनलोकपाल विधेयक बनाने वाले शब्दों में तो दावा करते हैं कि उन्होंने अलग ढंग के चरित्र के आदमी को तलाशने का तरीका ढूंढ लिया है। लेकिन उनका दावा विधेयक के प्रावधानों में दिखाई नहीं देता। लोकपाल को तलाशने वाले मुठ्ठी भर लोग जिस तरह के भ्रष्टाचार में खुद लिप्त होंगे उस तरह के भ्रष्टाचार को खत्म करने में रुचि रखने वाले किसी व्यक्ति को लोकपाल बनाना क्यों पसन्द करेंगे? अगर भ्रष्टाचार में विश्वास करने वाला व्यक्ति ही लोकपाल बनेगा तो वह भ्रष्टाचार को कैसे रोकेगा?

लोकतांत्रिक लोकपाल को व्यक्तिगत सम्पत्ति रखने पर विधेयक में रोक है। इस प्रावधान के कारण लोकपाल के पद पर केवल वही व्यक्ति बैठ सकेगा जो देश के सभी लोगों को अपने परिवार का सदस्य मानता हो। परिवार का अभिभावक भ्रष्टाचार क्यों करेगा? संवैधानिक पदों पर आज जो लोग बैठे हैं, वे ऊँचे-ऊँचे वेतन-भत्ते लेते हैं। भोगविलास करते हैं। उन्हें इस बात की बिल्कुल परवाह नहीं कि दूसरे लोग किस तरह की जिंदगी जी रहे हैं। इसीलिए लोकतांत्रिक लोकपाल विधेयक में ऐसे व्यक्ति को तलाशने का प्रावधान किया गया है जो सम्पत्ति व संतति मोह से मुक्त हो और ईमानदार होने के साथ-साथ योग्य भी हो।

Sunday, May 22, 2011

ममता की विजय और आगे की चुनौती

Rajasthan Patrika 22-05-2011
आज पश्चिम बंगाल में हुए चुनाव परिणाम से साफ जाहिर है कि पश्चिम बंगाल की जनता ने वामपंथी विचारधारा को पूरी तरह नकार दिया है। यह पहली बार है कि ममता बनर्जी ने अपने बूते पर वो कर दिखाया जो पिछले तीन दशक में काॅंगे्रस पार्टी भी नहीं कर पायी। पश्चिम बंगाल में पिछले 34 सालों के वामपंथी शासन में राज्य के सर्वांगीण विकास पर कोई ध्यान नहीं दिया गया और इसका सबसे ताजा उदाहरण यह है कि अन्य राज्यों की तुलना में औद्योगिक विकास के आंकड़ों को देखें तो पश्चिम बंगाल सत्रहवें नम्बर पर आता है। वही हाल शिक्षा का है और यह कहा जाये कि वामपंथी सरकारों ने जिस तरह से चाहा, राज्य किया। दरअसल वामपंथियों ने जिस साम्यवादी विचारधारा का आवरण ओढ़ा, उसे अपने आचरण में नहीं उतारा। अगर उतारा होता तो बंगाल में नक्सलवाद का जन्म नहीं हुआ होता। केद्र की सरकारों को हमेशा गरीबी के मुद्दे पर घेरने वाली सी.पी.एम. इसका क्या जबाव देगी कि उसकी दो दशकों की हुकूमत के दौरान पश्चिमी बंगाल के गरीबों की हालत बद से बदतर हुयी है? आज अपने इसी दोहरे आचरण का खामियाजा उसे भुगतना पड़ रहा है।

पश्चिमी बंगाल जिस हालत में ममता बनर्जी को मिला है, वह एक कांटों भरा ताज है। गरीबी और आर्थिक पिछड़ापन तो है ही, बांग्लादेश से जुड़ा एक लम्बी अन्तर्राष्टृीय सीमा अपने आप में एक बड़ी समस्या है। घुसपैठियों का लगातार आना, सीमा पर अवैध अन्तर्राष्टृीय व्यापार और आतंकवाद का खतरा, कुछ ऐसी चुनौतियां हैं जिन्हंे ममता को झेलना होगा। पश्चिमी बंगाल की आबादी भी कुछ कम नहीं। जितने लोग, उतनी अपेक्षाऐं। सबकी अपेक्षा फौरन पूरी करना सरल न होगा। अपेक्षा पूरी न होने की दशा में निराशा भी जल्दी घर कर जाती है। इसलिए जरूरी है कि ममता इस चुनौती को गम्भीरता से लें और गुजरात और बिहार के मुख्यमंत्रियों के अनुभवों से सबक लेते हुए अपनी पहली प्राथमिकता पश्चिमी बंगाल के विकास को बनायें। यह तो जग-जाहिर है कि यह विजय विधायकों की व्यक्तिगत विजय नहीं है, पूरा श्रेय अकेले ममता बनर्जी को जाता है। इसलिए मंत्रिमण्डल के गठन में वे अपनी आवश्यकता के अनुसार निर्णय ले सकती हैं। उन्हें यह देखना होगा कि जाति, धर्म, क्षेत्र को मंत्रिमण्डल में तरजीह देने की बजाय, वे उन व्यक्तियों को मंत्रिमण्डल में लें जिनमें राज्य का विकास तेजी से करवा पाने की झमता हो। लोकप्रिय नेता होने का मतलब जरूरी नहीं कि आप कुशल प्रशासक भी हों। पर ममता जैसा साफ छवि का नेता यह जानता है कि किस काम के लिए कौन व्यक्ति योग्य है? उन्हें काम सौंपकर ममता जनता के बीच ज्यादा समय बिता सकती हैं और राष्टृीय और क्षेत्रीय राजनीति में अपनी भूमिका निभा सकती हैं। यह कुछ ऐसा होगा जैसा अमरीकी राष्टृपति का प्रशासकि माॅडल, जिसमें हर काम के लिए उस क्षेत्र के अनुभवी और योग्य व्यक्तियों को जिम्मा दिया जाता है।

ममता की जीत के कारणों पर अब तक बहुत कुछ कहा गया है। मुझे भी लगता है कि ममता ज्योति वसु के कार्यकाल से ही जिस तरह से पश्चिम बंगाल सरकार में प्रशासन के साथ-साथ पार्टी का सरकार के हर विभाग पर दबदबा रहा और आम आदमी जिस तरह से सरकार की फासीवादी नीतियों का गवाह रहा, उससे ममता बनर्जी की त्रृणमूल काॅंगे्रस की मुहिम को अनायास ही एक जनसंवेदना मिली। लोग ममता बनर्जी को भावी मुख्यमंत्री के तौर पर देखने लगे थे और उन्हें उम्मीद थी कि ममता बनर्जी ही यह लाल किला ढहाने में कामयाब होंगी। दरअसल ममता बनर्जी ने सिंगूर आन्दोलन से लेकर जो अपने जनअभियान की शुरूआत की, उसकी परिणति इस चुनाव में आकर हुई। कुछ लोग यह भी कह सकते हैं कि जिस ममता बनर्जी ने सिंगूर में टाटा के नैनो प्लांट का विरोध किया था, उसी नैनो पर चढ़कर वो सिंगूर पर अपना चुनाव प्रचार करने गयीं थीं। लेकिन कई राजनैतिक पर्यवेक्षक यह मानते हैं कि ये सिंगूर आन्दोलन ही था जिसने ममता बनर्जी को यह अहसास दिलाया कि राज्य में उनकी लोकप्रियता क्या है और यहीं से उनके राजनैतिक अभियान को और बल मिला।

ममता की विजय का दूसरा कारण था, वामपंथी सरकार की चरमराती प्रशासन व्यवस्था, आम आदमी पर हो रहे पुलिस और वामपंथी पार्टीतन्त्र का अत्याचार, बढ़ती मंहगाई और बेरोजगारी और खासकरके युवा शिक्षित बेरोजगारों में हताशा का भाव। आज की तारीख में पश्चिम बंगाल में लिखे-पढ़े बेरोजगारों की संख्या 76 लाख से उपर है और उनके लिए नौकरी मुहैया कराना और उनकी उर्जा को सही तरीके से इस्तेमाल करना, उनके लिए एक बड़ी चुनौती साबित होगी।

ममता बनर्जी का अपना व्यक्तित्व और आम लोगों में पड़ोस के घर में रहने वाली एक दीदी की छवि, उनकी पार्टी की ऐसी ऐतिहासिक जीत का एक महत्वपूर्ण कारण है। उनकी व्यक्तिगत ईमानदारी और एक आम आदमी का जीवनचर्या उन्हें राज्य के मतदाताओं से जोड़ने में काफी कारगर साबित हुआ और लोगों की आकांक्षाओं की कसौटी में वो खरी उतरीं।

इस वक्त ममता बनर्जी के सामने चार प्रमुख चुनौतियां हैं। जिनके बारे में उनको बहुत ही संजीदगी से सोचकर समुचित कदम उठाने की आवश्यकता है। राज्य में बिगड़ती कानून व्यवस्था को बहाल करने के अलावा औघोगिक और आर्थिक विकास उनकी सबसे बड़ी चुनौती होगी। साथ ही राज्य में नक्सलवाद से निपटना भी जरूरी होगा। पश्चिम बंगाल को विकास की राह पर ले जाने के लिए कई दूरगामी परियोजनाओं तथा केन्द्र सरकार से समुचित मात्रा में आर्थिक सहायता प्राप्त करना भी कम आसान नहीं होगा।

36 साल के वामपंथी प्रशासन में चैमुखी बदलाव की जरूरत तो है, मगर ममता बनर्जी को उसके लिए जी-तोड़ मेहनत ही नहीं करनी पड़ेगी, बल्कि एक ऐसे मंत्रिमण्डल का भी चुनाव करना होगा जिसमें हरेक मंत्री को जनता की भावनाओं, आकांक्षाओं और राज्य की बहुक्षेत्रीय आवश्यकताओं की कसौटी पर भी खरा उतरना होगा।

पश्चिम बंगाल की राज्य सीमा चारों तरफ से अलग-अलग समस्याओं से घिरी हुई हैं। एक तरफ नक्सलवाद है तो दूसरी तरफ बांग्लादेशी शरणार्थियों को भी मुख्य धारा में लाने का काम। देखना यह है कि ममता बनर्जी इतनी बड़ी चुनौती और जनमानस की आकांक्षाओं को कितनी मुस्तैदी और ईमानदारी से निभा पाती है। क्योंकि रेलमंत्री के तौर पर उनका कार्यकाल और कार्यशैली उतना ओजस्वी और प्रशंसनीय नहीं रहा है। पश्चिमी बंगाल की मुख्यमंत्री के तौर पर अगर वो राज्य की चुनौतियों से जूझने के लिए एक सही और सार्थक शुरूआत भी कर लेती हैं तो शायद पश्चिम बंगाल के राजनैतिक इतिहास में यह निश्चय ही एक महत्वपूर्ण मोड़ गिना जायेगा।

Saturday, May 21, 2011

रेल बजट अलग क्यों ?


ममता दीदी का रेल बजट आ गया। सरल, सीधा और लोकप्रिय। दीदी को वाह वाही मिली। कुछ लेख इस पर इस हफ्ते छपेंगे। फिर सब समान्य हो जायेगा। पर हम कुछ बुनियादी सवाल उठा रहे हैं। जिनके जवाब और समाधान ममता बनर्जी को देने चाहिए।

रेल बजट अलग क्यों बनता है? पूरी दुनिया में किसी भी देश में रेल बजट अलग से प्रस्तुत नहीं किया जाता। भारत के संविधान में भी इसका कोई प्रावधान नहीं है। केवल एक परंपरा है जो अंग्रेज हुक्मरानों ने डाली थी। जिससे हम ढ़ो रहे है। बिना सोचे बिना समझे। अलग बजट का मतलब पूरी कैबिनेट का इसमें योगदान न होना। इसका मतलब यह कि रेल बजट भारत सरकार का न होकर केवल रेल मंत्री नाम के एक व्यक्ति का होता है। फिर वह चाहे जाॅर्ज फर्नाडीज हांे, लालू यादव हों या ममता बनर्जी हांे। रेल बजट एक व्यक्ति की सोच, अहमकपन या राजनैतिक महत्वाकांशा को दर्शाता है। लोकतंत्र में इसकी कोई गंुजाइश नहीं होनी चाहिए। रेल मंत्रालय क्या कोई निजी उद्योग है? जो इसे सरकार के मूल बजट से अलग बजट बनाने की छूट मिली हुई है? क्या रेल मंत्रालय भारत की संप्रभुता से अलग कोई स्वतंत्र राजनैतिक इकाई है? ऐसा कुछ नहीं है। फिर इस परंपरा को तोड़ा क्यों नहीं जाता? इस बजट की प्रस्तुति पर क्यों अनावश्यक खर्च किया जाता है? तर्क हो सकता है रेल मंत्रालय बहुत विशाल है। इसका अर्थ तो यह हुआ कि रक्षा, शिक्षा, प्रेट्रोलियम, ग्रामीण विकास व कृषि जैसे मंत्रालय भी अपने आकार के कारण अपने बजट अलग-अलग प्रस्तुत कर सकते हैं। अलग रेल बजट प्रस्तुत करने की इस गलत परंपरा को ममता बनर्जी तोड़ सकती है।

ममता बनर्जी अन्य राजनेताओं से भिन्न है। वे कैबिनेट मंत्री होकर भी मंत्री के बंगले में नहीं रहती। सरकारी गाडी पर भी नहीं चलती। उनसे मिलने जाओ तो रेल मंत्रालय के पांच सितारा केटरिंग स्टाॅफ से लज़ीज चाय नाश्ता नहीं मंगवाती। बल्कि कैंटीन की चाय पिलवाती हंै और अपने पर्स में से पैंसे देती है। बहुत साधारण जीवन जीती हंै। बिलकुल एक आम आदमी का। ममता दीदी को चाहिए कि कुछ आर्थिक विशेषज्ञों को बिठाकर इस परंपरा का निष्पक्ष मूल्यांकन करवायें और इसे तोड़ने की पहल करें।

जहां तक बजट की बात है उसमें कुछ टिप्पणी करने जैसा विशेष नहीं है। एक लोकप्रिय बजट है। बिना जनता को तकलीफ दिये सुहावने नारों से भरा है। पर कुछ महत्वपूर्ण बातों की तरफ यह बजट ध्यान नहीं देता। साइडिंग आज देश के औद्यौगिक जगत की बहुत बड़ी जरूरत है। साइडिंग का मतलब होता है कि जब मालगाडी सीधे कारखानों के भीतर जाकर माल उतारतीं हैं। इससे ढुलाई की आफत और खर्चा बचता है। सड़कों पर यातायात में व्यवधान नहीं होता। औद्यौगिक कार्यक्षमता बढ़ती है। दुर्भाग्य से हमारे देश में साइडिंग व्यवस्था में सौ वर्षाें में भी कोई तरक्की नहीं हुई। जबकि औद्यौगिक तरक्की के कारण हमरी साइडिंग की मांग सैकड़ों गुना बढ़ चुकी है। हर रेलमंत्री नारे बाजी से भरा बजट प्रस्तुत करके चला जाता है। पर साइडिंग जैसे महत्वपूर्ण सवाल पर किसी नीति या कार्यक्रम की घोषणा नहीं करता। जबकि देश के औद्यौगिक विकास के लिए यह बहुत महत्वपूर्ण है।

ममता बनर्जी ने देश के 50 रेलवे स्टशनों को अंतर्राष्ट्रीय स्तर का बनाने की घोषणा की है। अंतर्राष्ट्रीय स्तर क्या होता है यह आप जानते ही होंगे। 1984 में जब मैं पहली बार लंदन से पैरिस रेल से गया तो वहां का स्टेशन देखकर मुझे लगा कि मैं किसी रेलवे स्टेशन में नहीं पांच सितारा होटल में आ गया हूं। तो क्या ऐसा स्तर देने की सोच रही हैं ममता बनर्जी? पर सच्चाई कुछ और कहती है। बाकी देश को छोडि़ये नई दिल्ली स्टेशन पर लगे गंदगी के ढेर, रेलवे की भूमि पर चारों ओर हजारों की तादाद में अवैध निर्माण और बदबू और सड़ायधं से भरे प्लेटफाॅर्म हैं जहां 24 घंटे आदमी कंधे से कंधा छू कर चलता है। उसे अंतर्राष्ट्रीय स्तर का कैसे बनाया जा सकता है? जब तक कि उस पर से अवैध निर्माण व गंदगी के साम्राज्य को हटाया न जाय। आज तक किसी भी रेलमंत्री ने इस पहल की हिम्मत नहीं की। क्योंकि अवैध निर्माण के मालिक ताकतवर लोग हैं। क्या ममता बनर्जी यह पहल करेगी? यही बात बाकी स्टेशनों पर भी लागू होती है।

बजट में ममता दीदी ने रोजगार संबंधित घोषणायें भी की हैं। हर राजनेता के लिए यह लालच रोक पाना सरल नहीं होता कि वो अपने कार्यकर्ताओं को मंत्रालय में नौकरी न दे। नतीजतन आज रेलमंत्रालय में 14 लाख कर्मचारियों की भारी फौज जमा है। आप जरा सा कुरेदिये तो पता चलेगा कि हर कर्मचारी किसी न किसी रेलमंत्री का भर्ती किया हुआ है। हकीकत यह है कि रेलमंत्रालय का काम 12 लाख कर्मचारियों से भी अच्छी तरह चल सकता है। यह 2 लाख अतिरिक्त कर्मचारी रेल की अर्थव्यवस्था पर अनावश्यक आर्थिक बोझ डाल रहे हैं और कार्यक्षमता को घटा रहे हैं। ममता बनर्जी को नई भर्तियों की जगह अयोग्य और अकुशल कर्मचारियों को निकालने की कार्यवाही शुरू करनी चाहिए। नई भर्तियां करने का तो प्रश्न ही पैदा नहीं होता। पर क्या वह ऐसा करेंगी? 

अपने पिछले कार्यकाल में जब ममता बनर्जी रेलमंत्री थीं तो एक रात दिल्ली में कोहरे के कारण अचानक उनका हवाई जहाज आधी रात में जयपुर उतर गया। वे चाहतीं तो रेलवे के जयपुर स्थित महाप्रबंधक अजीत किशोर को हवाई अड्डे बुलवाती और उनका सैलून किसी ट्रेन में लगवाकर दिल्ली आतीं। पर उन्होंने ऐसा नहीं किया। वह जयपुर के एक दैनिक अखबार के संवाददाता के स्कूटर पर पीछे बैठकर जयपुर रेलवे स्टेशन आ गयीं और स्टेशन मास्टर से बोलीं कि, ‘मैं रेलमंत्री हूं मुझे किसी दिल्ली की गाडी में बिठा दोउसे विश्वास नहीं हुआ कि ये रेलमंत्री हैं। उसने श्री किशोर को रात 2 बजे फोन करके जगाया। श्री किशोर हड़बड़ाये स्टेशन आये और अपने सैलून में ममता बनर्जी को दिल्ली भेजने का निवेदन किया पर वे नहीं मानी। बल्कि एक साधारण यात्री की तरह रेलगाडी में बैठकर दिल्ली चली गयीं। ऐसी क्रांतिकारी रेलमंत्री से रेलमंत्रालय में क्रांतिकारी कदमों की अपेक्षा की जानी चाहिए। अभी तो वे नई-नई बनीं हैं पर अगले बजट तक तो एक साल है। देखें ममता दीदी क्या करिश्मा दिखातीं हंै?

Tuesday, May 17, 2011

सबक नहीं सीखे वामपंथी

Amar Ujala 17-03-2011
पश्चिम बंगाल और केरल के विधानसभा चुनाव के आज के परिणाम ने यह साबित कर दिया है कि वामपंथी पार्टियों ने अपनी पुरानी गलतियों से शायद अब तक कुछ नहीं सीखा। माक्र्सवाद और माक्र्सवादी विचारधारा भले ही दुनिया के नक्शे में आज छोटा और असंगत हो गया हो, लेकिन भारत के वामपंथी नेताओं की सोच और कार्यशैली कमोवेश आज भी उसी पुराने ढर्रे पर चलती दिखायी दे रही है। इन नेताओं ने न तो पश्चिम बंगाल में मतदाताओं के रूझान और उनकी संवदेनाओं को संजीदगी से जानने व परखने की कोशिश की और न ही केरल में अन्दरूनी कलह और नेताओं के वर्चस्व की लड़ाई पर काबू पाने में कोई दरियादिली दिखायी।

पश्चिम बंगाल में पिछले 34 सालों में माक्र्सवादी कम्यूनिस्ट पार्टी की सरकार और उसके क्रियाकलापों ने यह साबित कर दिया कि माक्र्सवादी विचारधारा आज भी अपने पार्टी कैडर के आगे जाने की हिम्मत नहीं करती। बल्कि आज भी वो अपनी पार्टी की उन पुरानी नीतियों की गुलाम है जो आज के दौर में तर्कसंगत नहीं रह गया है। पश्चिम बंगाल के शीर्षस्थ नेताओं की यह दलील कि साम्यवाद और सर्वहारा का वर्चस्व ही उनके लिए मूलमंत्र है, एक कोरी कल्पना ही बनकर रह गयी। तेजी से बदलते राष्टृीय परिपेक्ष्य तथा समाज की अनगिनत नई चुनौतियों के मद्देनजर पश्चिम बंगाल की सरकार ने उनके निराकरण और सर्वांगीण विकास की तरफ से जैसे आॅंख मूंद ली हों। ऐसे में ममता बनर्जी का उदय उस राजनैतिक खाई को पाटने में बड़ा ही कारगर साबित हुआ और आज पश्चिम बंगाल में तृणमूल कांग्रेस की ऐतिहासिक जीत इस बात की गवाह है कि जनता सिर्फ खोखले वायदे पर अब बहुत दिनों तक भरोसा नहीं करती।

पश्चिम बंगाल के चुनाव परिणाम से साफ जाहिर है कि जनता ने वामपंथी विचारधारा को पूरी तरह नकार दिया है। ममता बनर्जी का अपना व्यक्तित्व और आम लोगों में पड़ोस के घर में रहने वाली एक दीदी की छवि, उनकी पार्टी की ऐसी ऐतिहासिक जीत का एक महत्वपूर्ण कारण है। उनकी व्यक्तिगत ईमानदारी और एक आम आदमी का जीवनचर्या उन्हें राज्य के मतदाताओं से जोड़ने में काफी कारगर साबित हुआ।

 यह पहली बार है कि ममता बनर्जी ने अपने बूते पर वो कर दिखाया जो पिछले तीन दशक में काॅंगे्रस पार्टी भी नहीं कर पायी। पश्चिम बंगाल में पिछले 34 सालों के वामपंथी शासन में राज्य के सर्वांगीण विकास पर कोई ध्यान नहीं दिया गया और इसका सबसे ताजा उदाहरण यह है कि अन्य राज्यों की तुलना में औद्योगिक विकास के आंकड़ों को देखें तो पश्चिम बंगाल सत्रहवें नम्बर पर आता है। वही हाल शिक्षा का है और यह कहा जाये कि वामपंथी सरकारों ने जिस तरह से चाहा, राज्य किया। दरअसल वामपंथियों ने जिस साम्यवादी विचारधारा का आवरण ओढ़ा, उसे अपने आचरण में नहीं उतारा। अगर उतारा होता तो बंगाल में नक्सलवाद का जन्म नहीं हुआ होता। केद्र की सरकारों को हमेशा गरीबी के मुद्दे पर घेरने वाली सी.पी.एम. इसका क्या जबाव देगी कि उसकी दो दशकों की हुकूमत के दौरान पश्चिमी बंगाल के गरीबों की हालत बद से बदतर हुयी है? आज अपने इसी दोहरे आचरण का खामियाजा उसे भुगतना पड़ रहा है।

पश्चिमी बंगाल जिस हालत में ममता बनर्जी को मिला है, वह एक कांटों भरा ताज है। गरीबी और आर्थिक पिछड़ापन तो है ही, बांग्लादेश से जुड़ा एक लम्बी अन्तर्राष्टृीय सीमा अपने आप में एक बड़ी समस्या है। घुसपैठियों का लगातार आना, सीमा पर अवैध अन्तर्राष्टृीय व्यापार और आतंकवाद का खतरा, कुछ ऐसी चुनौतियां हैं जिन्हंे ममता को झेलना होगा। पश्चिमी बंगाल की आबादी भी कुछ कम नहीं। जितने लोग, उतनी अपेक्षाऐं। सबकी अपेक्षा फौरन पूरी करना सरल न होगा। अपेक्षा पूरी न होने की दशा में निराशा भी जल्दी घर कर जाती है। इसलिए जरूरी है कि ममता इस चुनौती को गम्भीरता से लें और गुजरात और बिहार के मुख्यमंत्रियों के अनुभवों से सबक लेते हुए अपनी पहली प्राथमिकता पश्चिमी बंगाल के विकास को बनायें। यह तो जग-जाहिर है कि यह विजय विधायकों की व्यक्तिगत विजय नहीं है, पूरा श्रेय अकेले ममता बनर्जी को जाता है। इसलिए मंत्रिमण्डल के गठन में वे अपनी आवश्यकता के अनुसार निर्णय ले सकती हैं। उन्हें यह देखना होगा कि जाति, धर्म, क्षेत्र को मंत्रिमण्डल में तरजीह देने की बजाय, वे उन व्यक्तियों को मंत्रिमण्डल में लें जिनमें राज्य का विकास तेजी से करवा पाने की झमता हो। लोकप्रिय नेता होने का मतलब जरूरी नहीं कि आप कुशल प्रशासक भी हों। पर ममता जैसा साफ छवि का नेता यह जानता है कि किस काम के लिए कौन व्यक्ति योग्य है? उन्हें काम सौंपकर ममता जनता के बीच ज्यादा समय बिता सकती हैं और राष्टृीय और क्षेत्रीय राजनीति में अपनी भूमिका निभा सकती हैं। यह कुछ ऐसा होगा जैसा अमरीकी राष्टृपति का प्रशासकि माॅडल, जिसमें हर काम के लिए उस क्षेत्र के अनुभवी और योग्य व्यक्तियों को जिम्मा दिया जाता है।

कुछ लोग यह भी कह सकते हैं कि जिस ममता बनर्जी ने सिंगूर में टाटा के नैनो प्लांट का विरोध किया था, उसी नैनो पर चढ़कर वो सिंगूर पर अपना चुनाव प्रचार करने गयीं थीं। लेकिन कई राजनैतिक पर्यवेक्षक यह मानते हैं कि ये सिंगूर आन्दोलन ही था जिसने ममता बनर्जी को यह अहसास दिलाया कि राज्य में उनकी लोकप्रियता क्या है और यहीं से उनके राजनैतिक अभियान को और बल मिला।

Monday, May 9, 2011

बाबा रामदेव का शंखनाद

Punjab Kesari 9 May11
पिछले दो वर्षों से भ्रष्टाचार के विरूद्ध मोर्चा खोले हुए बाबा रामदेव ने अब सीधे संघर्ष का शंखनाद कर दिया है। आगामी 4 जून को, बाबा ने दिल्ली के रामलीला मैदान में एक विशाल रैली को संबोधित करने के बाद, भूख हड़ताल पर बैठने की घोषणा कर दी है। उनकी माँग है कि सरकार एक हजार व पाँच सौ के नोटों का चलन बन्द करे। जिससे काला धन बाहर निकल सके। इसके अलावा भी उनकी कई दूसरी माँगें हैं।

बाबा की धमकी से घबराये राजनेता यह कहकर बाबा का मजाक उड़ा रहे हैं कि अन्ना हज़ारे की भूख हड़ताल की सफलता से बौखलाये हुए बाबा रामदेव अन्ना की नकल कर रहे हैं। पर यह भूल जा रहे हैं कि लोकपाल विधेयक के समर्थकों को खुले दिल से सहायता और जनशक्ति देकर बाबा रामदेव ने ही उनके आन्दोलन में प्राण फूंक दिये। बाबा के अनुयायियों की संख्या आज देश में सबसे ज्यादा है। एक आंकलन के अनुसार 1 करोड़ लोग सीधे-सीधे बाबा से जुड़े हैं। अगर इसके पाँच फीसदी लोग भी बाबा रामदेव के साथ भूख हड़ताल पर बैठ गये तो उनकी अनदेखी करना सरकार के लिए आसान नहीं होगा। बाबा बड़ी भीड़ जुटाने में सक्षम हैं। उन्हें किसी के प्रायोजन की आवश्यकता नहीं। अगर बाबा के शिष्य पूरे देश से आकर रामलीला मैदान में डंट गये तो उनका आन्दोलन काफी जोर पकड़ लेगा।

जो लोग बाबा की मुहिम को अविवेकपूर्ण बताकर सवाल खड़े कर रहे हैं, उन्हें देश की असलियत की तरफ ध्यान देना चाहिए। आज देश में गरीबों की संख्या तेजी से बढ़ रही है। विकास का लाभ चन्द लोगों के हाथों में सिमटता जा रहा है। योजना आयोग के अनुसार 2004-05 में भारत में गरीबों की संख्या 27 फीसदी थी। जो योजना आयोग के ही अनुसार अब बढ़कर 32 फीसदी हो गयी है। इतना ही नहीं, विकास की दर 8 या 9 प्रतिशत बताई जा रही है, उसके बावजूद गरीबों की संख्या इतनी बढ़ गयी है। राष्ट्रीय सलाहकार परिषद, जिसकी अध्यक्षा श्रीमती सोनिया गाँधी हैं, ने कहा है कि यदि देश में खाद्य सुरक्षा कानून बनाना है तो भारत की 70 फीसदी आबादी को 2 या 3 रूपये प्रति किलो अनाज देना पड़ेगा। मतलब यह हुआ कि देश की 70 फीसदी आबादी अत्यंत गरीब है। फिर हम दुनिया के मंचों पर, मूँछों पर ताव देकर, यह क्यों कहते हैं कि भारत तेजी से आर्थिक प्रगति कर रहा है? भारत के कुछ लोग बेहद धनी होते जा रहे हैं, पर साफ ज़ाहिर है कि इस आर्थिक प्रगति का लाभ आम आदमी को नहीं मिल रहा। इसका मूल कारण है भ्रष्टाचार। जो धन जनता के हित की योजनाओं पर खर्च होना चाहिए, वह भ्रष्टाचारियों की जेब में जा रहा है और इस लूट में कई बड़े औद्योगिक घराने भी शामिल हैं। फिर भी भ्रष्टाचार के इस विकराल स्वरूप के बारे में कोई भी राजनैतिक दल गम्भीर नहीं है। बयान सब देते हैं। पर अपना आचरण बदलने को कोई तैयार नहीं। नतीज़तन आम जनता मंहगाई की मार झेल रही है।

ऐसे में जो नेतृत्व का शून्य पैदा हो गया था, उसे भरने के लिए अन्ना हजारे व बाबा रामदेव जैसे लोग मैदान में उतर रहे हैं। भ्रष्टाचार के विरूद्ध इनका अभियान बिल्कुल उचित है और इनका हठ भी सही है। क्योंकि बिना डरे राजनैतिक दल कुछ भी बदलने नहीं जा रहे। ये आपस में छींटाकशी करते रहेंगे और उसका राजनैतिक फायदा लेते रहेंगे। भ्रष्टाचार को निपटाने की कोई कोशिश नहीं करेंगे। इसलिए किसी न किसी को तो यह जिम्मेदारी लेनी ही थी। अब बाबा रामदेव ने ली है तो उन्हें इस लड़ाई को अंजाम तक ले जाना होगा। इसमें अनेक बाधाऐं भी आयेंगी। कुछ तो राजनैतिक दलों की ओर से और कुछ निहित स्वार्थों की ओर से। पर बाबा जैसे हठी हैं, वे मैदान नहीं छोड़ेंगे और उनके अनुयायी भी कमर कसकर बैठे हैं।

इस लड़ाई में देश के हर जागरूक नागरिक को हिस्सा लेना चाहिए। जरूरी नहीं कि सब एक मंच पर से ही लड़ें। भारत-पाकिस्तान का युद्ध होता है तो कश्मीर, पंजाब, राजस्थान और गुजरात के मोर्चे पर अलग-अलग लड़ा जाता है। भ्रष्टाचार से युद्ध भी भारत-पाक युद्ध से कम नहीं है। इसलिए जिसे जहाँ, जैसा मंच मिले, जुट जाना चाहिए। सफलता और असफलता तो भगवान के हाथ में है। रही बात बाबा रामदेव के अभियान की, तो उनके निकट रहने वालों का कहना है कि अपनी समस्त शुभेच्छा के बावजूद बाबा इस लड़ाई की स्पष्ट रणनीति नहीं बना पाये हैं। वे बिना गहरा चिंतन किये कुछ भी बयान देकर विवाद खड़ा कर देते हैं। उनके पास दूसरी पंक्ति के नेतृत्व का भारी अभाव है। वे हर निर्णय खुद लेते हैं, यहाँ तक कि टी.वी. पर क्या प्रसारित हो। इस तरह पूरा आन्दोलन व्यक्ति केन्द्रित बन गया है। बाबा में अभी महात्मा गाँधी जैसी समझ, गम्भीरता, दूरदृष्टि व वैकल्पिक योजना की तैयारी जैसे गुण दिखायी नहीं दे रहे हैं। ऐसे में आन्दोलन के किसी भी मोड़ पर भटक जाने की सम्भावना है।

राजनैतिक विश्लेषक, मीडिया, सिविल सोसाइटी, विभिन्न आन्दोलनों से जुड़े लोग और आम शहरी अब उत्सुकता से बाबा के आन्दोलन का इंतजार करेंगे। हृदय से सभी चाहते हैं कि ऐसे सभी प्रयास सफल हों और आम आदमी को भ्रष्टाचार से राहत मिले। पर लड़ाई इतनी आसान नहीं, जिसे बिना कुशल रणनीति के लड़ा और जीता जा सके। इसलिए आवश्यकता इस बात की है कि बाबा जैसे लोग अपने हृदय को विशाल करें और उन सब लोगों को जोड़ें जो इस लड़ाई में ठोस योगदान कर सकें और इसे सफलता की मंजिल तक ले जा सकें।

Monday, May 2, 2011

लोकपाल विधेयक पर सिविल सोसाइटी में सहमति नहीं


 Amar Ujala 02-05-2011
पिछले हफ्ते अरविन्द केजरीवाल, स्वामी अग्निवेश व किरण बेदी ने देश के कुछ खास लोगों को दिल्ली बुलाकर प्रस्तावित लोकपाल विधेयक पर खुली चर्चा की। इस चर्चा से यह स्पष्ट हुआ कि विधेयक के मौजूदा प्रारूप को लेकर सिविल सोसाइटी में भारी मतभेद हैं।

प्रस्तावित विधेयक में नेताओं और अफसरों के विरूद्ध तो कड़े प्रावधान हैं, लेकिन समिति यह भूल रही है कि भ्रष्टाचार की ताली एक हाथ से नहीं बजती। भ्रष्टाचार बढ़ाने में सबसे बड़ा हाथ, बड़े औद्योगिक घरानों का देखा गया है। जो चुनाव में 500 करोड़ रूपया देकर अगले 5 सालों में 5 हजार करोड़ रूपये का मुनाफा कमाते हैं। जब तक यह व्यवस्था नहीं बदलेगी, तब तक राजनैतिक भ्रष्टाचार खत्म नहीं हो सकता। ऐसे उद्योगपतियों को पकड़ने के लिए लोकपाल विधेयक में कोई प्रावधान फिलहाल नहीं हैं।

इस बैठक में मैंने याद दिलाया कि लोकपाल तो जब बनेगा, जाँच करेगा और सजा दिलवायेगा, तब तक दो साल और लग जायेंगे; पर जैन हवाला काण्ड में हमने 1996 में ही देश के दर्जनों मंत्रियों, राज्यपालों, मुख्यमंत्रियों व बड़े अधिकारियों को भ्रष्टाचार के मामले में चार्जशीट करवाया था। बाद के वर्षों में दूसरे घोटालों में जयललिता, लालू यादव, सुखराम, मधु कोढ़ा, ए.राजा और सुरेश कलमाड़ी तक, बड़े से बड़े राजनेता बिना लोकपाल के ही मौजूदा कानूनों के तहत पकड़े जा चुके हैं। अगर इन्हें सजा नहीं मिली तो हमें सी.बी.आई. की जाँच प्रक्रिया में आने वाली रूकावटों को दूर करना चाहिए। केन्द्रीय सतर्कता आयोग की स्वायत्ता सुनिश्चित करनी चाहिए। एकदम से सारी पुरानी व्यवस्थाओं को खारिज करके नई काल्पनिक व्यवस्था खड़ी करना, जिसकी सफलता अभी परखी जानी है, बुद्धिमानी नहीं होगी।

अनेक वक्ताओं ने कहा कि यद्यपि न्यायपालिका में भारी भ्रष्टाचार है, फिर भी न्यायपालिका को लोकपाल के अधीन लाना सही नहीं होगा। न्यायपालिका की जबावदेही सुनिश्चित करने की अलग व्यवस्था बनानी चाहिए। क्योंकि उसकी कार्यप्रणाली और कार्यपालिका की कार्यप्रणाली में मूलभूत अन्तर होता है। जिसके लिए न्यायपालजैसी कोई व्यवस्था रची जा सकती है।

प्रस्तावित लोकपाल को केवल राजनेताओं के आचरण पर निगाह रखने का काम दिया जाना चाहिए। इस तरह अपनी लोकतांत्रिक व्यवस्था में जो चैक व बैलेंसकी व्यवस्था है, वह बनी रहेगी। सबसे बड़ा सवाल तो ईमानदार लोकपाल को ढूंढकर लाने का है। जब सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश ही भ्रष्ट आचरण करते रहे हों तो यह काम बहुत मुश्किल हो जाता है। ऐसे में अगर लोकपाल को न्यायपालिका, कार्यपालिका व विधायिका तीनों के ऊपर निगरानी रखने का अधिकार दे दिया तो भ्रष्ट लोकपाल पूरे देश का कबाड़ा कर देगा। फिर कहीं बचने का रास्ता नहीं मिलेगा।

इसके साथ ही यह भी देखने में आया है कि स्वंयसेवी संस्थाऐं (एन.जी.ओ.) जो विदेशी आर्थिक मदद लेती हैं, उसमें भी बड़े घोटाले होते हैं। अन्तर्राष्ट्रीय संस्थाऐं भी भारत में बड़े घोटाले कर रही हैं। तो ऐसे सभी मामलों को जाँच के दायरे में लेना चाहिए। इस पर विधेयक में अभी तक कोई प्रावधान नहीं है।

भ्रष्टाचार से आम हिन्दुस्तानी दुखी है और इससे निज़ात चाहता है। इसलिए अन्ना का अनशन शहरी मध्यम वर्ग के आक्रोश की अभिव्यक्ति बन गया। पर इसके साथ ही इस आन्दोलन से जुड़े कुछ अहम सवाल भी उठ रहे हैं। पहला तो यह कि भूषण पिता-पुत्र अनैतिक आचरण के अनेक विवादों में घिरे हैं। फिर भी उन्हें अन्ना समिति से हटा नहीं रहे हैं। उस समिति से, जो भ्रष्टाचार से निपटने का कानून बनाने जा रही है। उल्लेखनीय है कि मुख्य सतर्कता आयुक्तपी.जे. थाॅमस की नियुक्ति को चेतावनी देने वाली प्रशांत भूषण की ही जनहित याचिका में तर्क था कि ऐसे संवेदनशील पद पर बैठने वाले का आचरण संदेह से परेहोना चाहिए। अलबŸाा प्रशांत ने अदालत में जिरह करते वक्त यह कहा था कि, ‘‘मैं जानता हूँ कि थाॅमस भ्रष्ट नहीं हैं।’’ पूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त श्री लिंग्दोह ने भी थाॅमस को सच्चरित्र बताया था। फिर भी सर्वोच्च न्यायालय ने आदेश दिया कि यदि जनता को संदेह है तो थाॅमस को जाना पड़ेगा।

वही प्रशांत भूषण, थाॅमस से जो अपेक्षा रखते थे, उसे अपने ऊपर लागू नहीं करना चाहते। जब दोनों पिता-पुत्र के आचरण पर इतने सारे सवाल खड़े हो गये हैं, तो सर्वोच्च न्यायालय के इस फैसले की भावना के अनुरूप इन दोनों को लोकपाल विधेयक बनाने वाली समिति से हट जाना चाहिए। पर विडम्बना देखिए कि न तो वे खुद हटना चाहते हैं और न ही उनके साथी उन्हें हटा रहे हैं। एक अंग्रेजी टी.वी. चैनल पर बहस के दौरान जस्टिस हेगडे़ और भारत के पूर्व महाअधिवक्ता सोली सोराबजी ने मुझसे कहा कि भूषण का आचरण नहीं, उनकी कार्यक्षमता देखनी चाहिए।मेरा जबाव था कि जिस व्यक्ति के चरित्र पर संदेह हो, उससे पारदर्शी कानून बनाने की अपेक्षा कैसे की जा सकती है?

फिलहाल इस बहस को अगर यहीं छोड़ दें तो सवाल उठता है कि इस वाली सिविल सोसाइटीने परदे के पीछे बैठकर जल्दबाजी में सारे फैसले कैसे ले लिए। देश को न्यायविदों के नाम सुझाने का 24 घण्टे का भी समय नहीं दिया। पिता-पुत्र को ले लिया और विवाद खड़ा कर दिया। सर्वेंट आॅफ इण्डिया सोसाइटी व ट्रांसपेरेंसी इंटरनेशनल से जुड़े सामाजिक कार्यकर्ताओं का आरोप है कि इस समिति के सदस्यों ने लोकपाल विधेयकपर उनका अर्से से चल रहा आन्दोलन यह कहकर बन्द करवा दिया कि इस मुद्दे पर सब मिलकर लड़ेंगे। फिर उनकों ठेंगा दिखा दिया। उधर बाबा रामदेव का भी आरोप है कि भ्रष्टाचार के विरूद्ध सारी हवा उन्होंने बनाई, इन लोगों को मंच, आस्था टी.वी. चैनल पर कवरेज और इनकी सभाओं में अपने समर्थक भेजकर भारी भीड़ जुटाई। पर अन्ना हजारे के धरने के शुरू होते ही, इन्होंने बाबा से भी पल्ला झाड़ लिया। बाबा इससे आहत हैं और आगे की लड़ाई वे इन्हें बिना साथ लिये लड़ना चाहते हैं।

समिति के प्रवक्ताओं का यह कहना कि इस विधेयक को इन पिता-पुत्र के अलावा कोई नहीं तैयार कर सकता, बड़ा हास्यास्पद लगता है। 121 करोड़ के मुल्क में क्या दो न्यायविद् भी ऐसे नहीं हैं जो इस कानून को बनाने में मदद कर सकें? हजारों हैं जो इनसे कहीं बढि़या और प्रभावी लोकपाल विधेयक तैयार कर सकते हैं। पर समिति की नीयत साफ नज़र नहीं आती और वह दूसरों पर आरोप लगा रही है कि उसके खिलाफ षडयंत्र रचा जा रहा है। पाठक जानते हैं कि हम पिछले कितने वर्षों से उन षडयंत्रों के बारे में लिखते आ रहे हैं जो निहित स्वार्थ भ्रष्टाचार के विरूद्ध लड़े जा रहे संघर्षों को पटरी पर से उतारने के लिए रचते हैं। इसमें हमने भूषण पिता-पुत्रों और रामजेठमलानी की भूमिका का भी उल्लेख कई बार किया है। हमारा सी.डी. विवाद से कोई लेना-देना नहीं है। क्योंकि हम अन्ना हज़ारे की माँग का पूरा समर्थन करते हैं और चाहते हैं कि भ्रष्टाचार के विरूद्ध कड़े कानून बनें। पर इस तरह नासमझी से और रहस्यमयी तरीके से नहीं, जैसा आज हो रहा है।

Sunday, May 1, 2011

लोकपाल विधेयक ही काफी नहीं

  भ्रष्टाचार से आम हिन्दुस्तानी दुखी है और इससे निज़ात चाहता है। इसलिए अन्ना का अनशन शहरी मध्यम वर्ग के आक्रोश की अभिव्यक्ति बन गया। पर इसके साथ ही इस आन्दोलन से जुड़े कुछ अहम सवाल भी उठ रहे हैं। पहला तो यह कि भूषण पिता-पुत्र अनैतिक आचरण के अनेक विवादों में घिरे हैं। फिर भी उन्हें अन्ना समिति से हटा नहीं रहे हैं। उस समिति से, जो भ्रष्टाचार से निपटने का कानून बनाने जा रही है। उल्लेखनीय है कि मुख्य सतर्कता आयुक्तFkk¡el की नियुक्ति को चेतावनी देने वाली प्रशांत भूषण की ही जनहित याचिका में तर्क था कि ऐसे संवेदनशील पद पर बैठने वाले का आचरण संदेह से परेहोना चाहिए। प्रशांत ने अदालत में जिरह करते वक्त यह कहा था कि, ‘‘मैं जानता हूँ कि Fkk¡मस भ्रष्ट नहीं हैं।’’ पूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त श्री लिंग्दोह ने भी थामस को सच्चरित्र बताया था। फिर भी सर्वोच्च न्यायालय ने आदेश दिया कि यदि जनता को संदेह है तो Fkk¡मस को जाना पड़ेगा।
वही प्रशांत भूषण, Fkk¡मस से जो अपेक्षा रखते थे, उसे अपने ऊपर लागू नहीं करना चाहते। जब दोनों पिता-पुत्र के आचरण पर इतने सारे सवाल खड़े हो गये हैं, तो सर्वोच्च न्यायालय के इस फैसले की भावना के अनुरूप इन दोनों को लोकपाल विधेयक बनाने वाली समिति से हट जाना चाहिए। पर विडम्बना देखिए कि न तो वे खुद हटना चाहते हैं और न ही उनके साथी उन्हें हटा रहे हैं। एक अंग्रेजी टी.वी. चैनल पर बहस के दौरान जस्टिस हेगडे़ और भारत के पूर्व महाअधिवक्ता सोली सोराबजी ने मुझसे कहा कि भूषण का आचरण नहीं, उनकी कार्यक्षमता देखनी चाहिए।मेरा जबाव था कि जिस व्यक्ति के चरित्र पर संदेह हो, उससे पारदर्शी कानून बनाने की अपेक्षा कैसे की जा सकती है?
फिलहाल इस बहस को अगर यहीं छोड़ दें तो सवाल उठता है कि इस वाली सिविल सोसाइटीने परदे के पीछे बैठकर जल्दबाजी में सारे फैसले कैसे ले लिए। देश को न्यायविदों के नाम सुझाने का 24 घण्टे का भी समय नहीं दिया। पिता-पुत्र को ले लिया और विवाद खड़ा कर दिया। सर्वेंट vk¡फ इण्डिया सोसाइटी व ट्रांसपेरेंसी इंटरनेशनल से जुड़े सामाजिक कार्यकर्ताओं का आरोप है कि इस समिति के सदस्यों ने लोकपाल विधेयकपर उनका अर्से से चल रहा आन्दोलन यह कहकर बन्द करवा दिया कि इस मुद्दे पर सब मिलकर लड़ेंगे। फिर उनकों ठेंगा दिखा दिया। उधर बाबा रामदेव का भी आरोप है कि भ्रष्टाचार के विरूद्ध सारी हवा उन्होंने बनाई, इन लोगों को मंच, आस्था टी.वी. चैनल पर कवरेज और इनकी सभाओं में अपने समर्थक भेजकर भारी भीड़ जुटाई। पर अन्ना हजारे के धरने के शुरू होते ही, इन्होंने बाबा से भी पल्ला झाड़ लिया। बाबा इससे आहत हैं और आगे की लड़ाई वे इन्हें बिना साथ लिये लड़ना चाहते हैं।
 
समिति के प्रवक्ताओं का यह कहना कि इस विधेयक को इन पिता-पुत्र के अलावा कोई नहीं तैयार कर सकता, बड़ा हास्यास्पद लगता है। 121 करोड़ के मुल्क में क्या दो न्यायविद् भी ऐसे नहीं हैं जो इस कानून को बनाने में मदद कर सकें? हजारों हैं जो इनसे कहीं बढि़या और प्रभावी लोकपाल विधेयक तैयार कर सकते हैं। पर समिति की नीयत साफ नज़र नहीं आती और वह दूसरों पर आरोप लगा रही है कि उसके खिलाफ षडयंत्र रचा जा रहा है। पाठक जानते हैं कि हम पिछले कितने वर्षों से उन षडयंत्रों के बारे में लिखते आ रहे हैं जो निहित स्वार्थ भ्रष्टाचार के विरूद्ध लड़े जा रहे संघर्षों को पटरी पर से उतारने के लिए रचते हैं। इसमें हमने भूषण पिता-पुत्रों और रामजेठमलानी की भूमिका का भी उल्लेख कई बार किया है। हमारा सी.डी. विवाद से कोई लेना-देना नहीं है। क्योंकि हम अन्ना हज़ारे की माँग का पूरा समर्थन करते हैं और चाहते हैं कि भ्रष्टाचार के विरूद्ध कड़े कानून बनें। पर इस तरह नासमझी से और रहस्यमयी तरीके से नहीं, जैसा आज हो रहा है।
 
पिछले हफ्ते अरविन्द केजरीवाल, स्वामी अग्निवेश व किरण बेदी ने देश के कुछ खास लोगों को दिल्ली बुलाकर प्रस्तावित लोकपाल विधेयक पर खुली चर्चा की। इस चर्चा से यह स्पष्ट हुआ कि विधेयक के मौजूदा प्रारूप को लेकर सिविल सोसाइटी में भारी मतभेद हैं।
 
प्रस्तावित विधेयक में नेताओं और अफसरों के विरूद्ध तो कड़े प्रावधान हैं, लेकिन समिति यह भूल रही है कि भ्रष्टाचार की ताली एक हाथ से नहीं बजती। भ्रष्टाचार बढ़ाने में सबसे बड़ा हाथ, बड़े औद्योगिक घरानों का देखा गया है। जो चुनाव में 500 करोड़ रूपया देकर अगले 5 सालों में 5 हजार करोड़ रूपये का मुनाफा कमाते हैं। जब तक यह व्यवस्था नहीं बदलेगी, तब तक राजनैतिक भ्रष्टाचार खत्म नहीं हो सकता। ऐसे उद्योगपतियों को पकड़ने के लिए लोकपाल विधेयक में कोई प्रावधान फिलहाल नहीं हैं।
 
इस बैठक में मैंने याद दिलाया कि लोकपाल तो जब बनेगा, जाँच करेगा और सजा दिलवायेगा, तब तक दो साल और लग जायेंगे; पर जैन हवाला काण्ड में हमने 1996 में ही देश के दर्जनों मंत्रियों, राज्यपालों, मुख्यमंत्रियों व बड़े अधिकारियों को भ्रष्टाचार के मामले में चार्जशीट करवाया था। बाद के वर्षों में दूसरे घोटालों में जयललिता, लालू यादव, सुखराम, मधु कोढ़ा, ए.राजा और सुरेश कलमाड़ी तक, बड़े से बड़े राजनेता बिना लोकपाल के ही मौजूदा कानूनों के तहत पकड़े जा चुके हैं। अगर इन्हें सजा नहीं मिली तो हमें सी.बी.आई. की जाँच प्रक्रिया में आने वाली रूकावटों को दूर करना चाहिए। केन्द्रीय सतर्कता आयोग की स्वायत्ता सुनिश्चित करनी चाहिए। एकदम से सारी पुरानी व्यवस्थाओं को खारिज करके नई काल्पनिक व्यवस्था खड़ी करना, जिसकी सफलता अभी परखी जानी है, बुद्धिमानी नहीं होगी।
 
अनेक वक्ताओं ने कहा कि यद्यपि न्यायपालिका में भारी भ्रष्टाचार है, फिर भी न्यायपालिका को लोकपाल के अधीन लाना सही नहीं होगा। न्यायपालिका की जबावदेही सुनिश्चित करने की अलग व्यवस्था बनानी चाहिए। क्योंकि उसकी कार्यप्रणाली और कार्यपालिका की कार्यप्रणाली में मूलभूत अन्तर होता है। जिसके लिए न्यायपालजैसी कोई व्यवस्था रची जा सकती है।
 
प्रस्तावित लोकपाल को केवल राजनेताओं के आचरण पर निगाह रखने का काम दिया जाना चाहिए। इस तरह अपनी लोकतांत्रिक व्यवस्था में जो चैक व बैलेंसकी व्यवस्था है, वह बनी रहेगी। सबसे बड़ा सवाल तो ईमानदार लोकपाल को ढूंढकर लाने का है। जब सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश ही भ्रष्ट आचरण करते रहे हों तो यह काम बहुत मुश्किल हो जाता है। ऐसे में अगर लोकपाल को न्यायपालिका, कार्यपालिका व विधायिका तीनों के ऊपर निगरानी रखने का अधिकार दे दिया तो भ्रष्ट लोकपाल पूरे देश का कबाड़ा कर देगा। फिर कहीं बचने का रास्ता नहीं मिलेगा।
 
इसके साथ ही यह भी देखने में आया है कि स्वंयसेवी संस्थाऐं (एन.जी.ओ.) जो विदेशी आर्थिक मदद लेती हैं, उसमें भी बड़े घोटाले होते हैं। अन्तर्राष्ट्रीय संस्थाऐं भी भारत में बड़े घोटाले कर रही हैं। तो ऐसे सभी मामलों को जाँच के दायरे में लेना चाहिए। इस पर विधेयक में अभी तक कोई प्रावधान नहीं है।