Sunday, January 10, 2010

अनोखे सफर की अनोखी दास्तान

भारत की राष्ट्रपति श्रीमती प्रतिभा सिंह पाटिल ने, चार दिन पहले उनसे मिलने आये, एक त्रिदंडी अमेरिका स्वामी से पूछा कि उन्हें भारत की संस्कृति में ऐसा क्या लगा जो वे भारत के होकर रह गए। राधानाथ स्वामी का जवाब था कि भारत की संस्कृति एक महासागर है। जिसमें सारी दुनिया की संस्कृतियों का समावेश है। यह तथ्य 1950 में शिकागो के एक सम्पन्न यहूदी परिवार में जन्में रिची को तब समझ में आया जब उसने 19 वर्ष की उम्र में गृहत्याग कर आध्यात्मिक सफर की शुरूआत की। अमरीका से यूरोप और यूरोप से पश्चिम एशिया का 6 महीने तक रोमांच, अवसाद और खतरों से भरा सफर करते हुए रिची पाकिस्तान की ओर से भारत में प्रवेश करने के लिए बाघा सीमा पर पहुंचा। वहां खडे भारत के आव्रजक अधिकारी ने इस धूल-धूसरित फटेहाल अमरीकी नौजवान से कहा कि भारत में पहले ही बहुत भिखारी हैं, मैं तुम्हें प्रवेश नहीं दूंगा।कुछ घंटे बाद जब उसकी ड्यूटी बदली तो एक उम्रदार सरदार जी ड्यूटी पर आए। उन्होंने इस नौजवान की दयनीय दशा और आद्र प्रार्थना सुनकर उसे भारत में आने दिया। जिसके बाद कई वर्षों तक, बिना पैसे के, अयाचक भाव से देशभर में घम-घूम कर रिची ने पूरे भारत की आध्यात्मिक परंपराओं का नजदीकी से अध्ययन किया। देश के सभी बड़े संतों से सत्संग किया और अंत में भक्तियोग का मार्ग अपना लिया और उसका नाम हुआ राधानाथ स्वामी। आज राधारानाथ स्वामी का प्रचार क्षेत्र पूरा विश्व है। उनके हजारों शिष्यों में सैकड़ों नौजवान मेडिकल, आईआईटी, आईआईएम के स्नातक हैं, मुंबई के दर्जनों बड़ें उद्योगपति हैं। यह सब हजारों शिष्य चाहे गरीब हो या अमीर आपसी प्रेम और सहयोग के साथ एक वृहद परिवार के रूप में रहते हैं। कोई किसी की निंदा नहीं करता। दूसरे को अपनी सेवा, दीनता व प्रेम से जीतने का प्रयास करते हैं। ऐसा अद्भुत अनुभव कम स्थानों पर ही होता है।

रिची से राधानाथ स्वामी तक का अनोखा सफर बहुत रोमांचकारी था। जिसे अब 40 वर्ष बाद स्वामी जी ने द जर्नी होमया अनोखा सफरनाम से प्रकाशित अपनी पुस्तकों में लिखा है। मशहूर क्रिकेट खिलाड़ी सौरभ गांगुली का कहना है कि, ‘यह पुस्तक पूरी युवा पीढ़ी के लिए उत्कृष्ट भेंट है। अशांति से भरे हमारे संसार में यह एक अमरीकी युवक द्वारा संतुष्टि की खोज की कथा है।आज भारत का युवा पश्चिम की चमक-दमक से चकाचैंध है। डीजे, डिस्को, ड्रग्स, सैक्स व उपभोगतावाद के जाल में उलझता जा रहा है। दूसरी तरफ रिची ने 19 वर्ष की आयु में  संपन्नता के शिखर पर बैठे अमरीकी समाज को छोड़ा था तो वहां संपन्नता से उकताये लाखाs युवा हिप्पी बन रहे थे। रिची भी बन सकता था। पर उसे तलाश थी जीवन के ध्येय की जो उसे मिला भारत की सनातन संस्कृति में। आज भारत आर्थिक सफलता की ओर तेजी से बढ़ रहा है। फिर भी उसे अभी ऐसी सफलता नहीं मिली कि एक सौ दस करोड़ भारतीयों के पास वैभव के ढेर लग गए हों और भारत की युवा पीढ़ी इस वैभव से उकताने लगी हो। अभी तो भारत में मुठ्ठीभर लोगों के हाथ में अकूत दौलत आयी है। शेष भारत तो आज भी दो वक्त की रोटी के लिए जूझ रहा है। ऐसे में पश्चिम की संस्कृति का अंधानुकरण आत्मघाती सिद्ध हो रहा है। पर युवाओं को झकझोरने वाला, जगाने वाला और रास्ता दिखाने वाला कोई नहीं। इसलिए भटकन है। इसलिए बिखराव है और इसीलिए हताशा है।

अनोखा सफरएक ऐसी सम-सामायिक पुस्तक है जिसे पढ़कर भारत के युवा, विशेषकर वे युवा जो पश्चिम से आकर्षित हैं, भारत की संस्कृति में ही अपनी कुंठाओं के हल खोज सकते हैं। 336 पेज की यह पुस्तक इतनी सरल भाषा में लिखी गयी है कि पाठक को हर क्षण लगता है कि वह रिची के साथ इस रोमांचक यात्रा को स्वयं कर रहा है। राधानाथ स्वामी ने इस्लाम, ईसायित, बौद्धधर्म, तांत्रिक व औघड़ पंरपरायें, हठयोग जैसी अनेक आध्यात्मिक धाराओं का अनुभव किया।  इस अनुभव को इतनी खूबसूरती से इस पुस्तक में जड़ दिया कि बिना किसी के प्रति नकारात्मक भाव अभिव्यक्ति किये ही भारत की सनातन संस्कृति की ही श्रेष्ठता को पाठकों के लिए प्रस्तुत कर दिया। आज से कई दशक पहले 1946 में एक पुस्तक प्रकाशित हुई थी एक योगी की आत्मकथा।इस पुस्तक ने दुनियाभर में तहलका मचा दिया था। आज दशकों बाद भी इस पुस्तक की ढेरों प्रतियां पूरे विश्व में बिकती रहती हैं। उस पुस्तक के लेखक परमहंस योगानंद एक भारतीय स्वामी थे। जिन्होंने हठयोग और ध्यान की अपनी सिद्धि को स्थापित कर पश्चिमी जगत को चमत्कृत किया था। आज दशकों बाद एक अमरीकी स्वामी ने अपनी आध्यात्मिक खोज को युवा पीढ़ी के सामने इस तरह प्रस्तुत किया है कि उसे जीवन का सही रास्ता खोजने की प्रेरणा मिल सके।

स्वामी जी ने बहुत संजीदगी, संवेदनशीलता और कलात्मक आकर्षण के साथ कृष्णभक्ति और भगवान की लीलास्थली ब्रज क्षेत्र की महिमा को भी प्रस्तुत किया है और इसे ही अपने जीवन का अंतिम पड़ाव बनाया है। यही कारण है कि उनके हजारों अनुयायी ब्रज भूमि और कृष्णभक्ति के प्रति अगाध श्रद्धा रखते हैं और इस भूमि के लिए हर तरह की सेवा करने को तत्पर रहते हैं। अनोखी बात है कि एक अमरीकी युवा इतने कम समय में भारत के प्रबुद्ध और संपन्न लोगों को कृष्ण भक्ति व ब्रज भक्ति के प्रति आकर्षित करने में सफल रहा। हाल ही में जारी हुई यह पुस्तक मराठी, कन्नड़ व तेलगू भाषाओं में भी जल्दी ही जारी हो रही है। निश्चित रूप से इसकी शैली और इसमें व्यक्त की गई भावना भारत के युवाओं को कुछ सोचने पर मजबूर करेगी। बशर्ते कि वे इसे पढ़ने की जहमत उठाने को तैयार हों।

Sunday, January 3, 2010

तीन इडियट ही क्यों?

आईआईटी के छात्र रहे चेतन भगत की पुस्तक पर आधारित फिल्म थ्री इडियटखासी लोक प्रिय हो रही है। सिनेमाघरों के बाहर लंबी कतारें लगी है। फिल्म है भी बहुत बढि़या। पूरे तीन घंटे हंसते-हंसते गुजर जाते हैं। पर इस हंसी के बीच बहुत सारे सार्थक संदेश दिए गए हैं। जो  आज के युवाओं और उनके अविभावकों के बड़े काम के हैं। इस पूरी फिल्म की कहानी उन तीन युवाओं के इर्द-गिर्द घूमती है जो आईआईटी जैसे इंजीनियरिंग संस्थान में पढ़ रहे हैं और भौतिक जिंदगी की दौड़ में आगे निकलने के लिए लगातार एक दबाव में जी रहे हैं। आईआईटी जैसे संस्थानों में होने वाली आत्महत्याओं का कारण भी यही तनाव बताया गया है।

फिल्म का मूल संदेश यह है कि अगर एक नौजवान अपनी दिल की आवाज सुनकर अपनी जिंदगी की राह तय करता है तो वह खुश भी होता है सही मायने में सफल भी। केवल ज्यादा पैसे कमाने के लिए पढ़ने वाले कोल्हू के बैल ही होते हैं। जिनकी जिंदगी में रस नहीं आ पाता। यही कारण है कि आईआईटी जैसी प्रतिष्ठित संस्थानों से पढ़कर सैकड़ों नौजवान आज देश में ऐसे काम कर रहे हैं जिसका उनकी डिग्री से कोई लेना देना नहीं है। मसलन झुग्गीयों में बच्चों को पढ़ाना, आध्यात्मिक आन्दोलनों में भगवत्गीता का प्रचारक बनना या गांव के नौजवानों के लिए छाटे-छोटे कुटीर उद्योग स्थापित करने में मदद करना। दूसरी तरफ इंजीनियरिंग की डिग्री की भूख इस कदर बढ़ गयी है कि एक-एक २kहर में दर्जनों प्राईवेट इंजीनियरिंग का¡लेज खुलते जा रहे हैं। जिनमें दाखिले का आधार योग्यता नहीं मोटी रकम होता है। इन का¡लेजों में योग्य शिक्षकों और संसाधनों की भारी कमी रहती है। फिर भी यह छात्रों से भारी रकम फीस में लेते हैं। बेचारे छात्र अधिकतर ऐसे परिवारों से होते हैं जिनके लिए यह फीस देना जिंदगी भर की कमाई को दाव पर लगा देना होता है। इतना रूपया खर्च करके भी जो डिग्री मिलती है उसकी बाजार में कीमत कुछ भी नहीं होती। तब उस युवा को पता चलता है कि इतना रूपया लगाकर भी उसने दी गयी फीस के ब्याज के बराबर भी पैसे की नौकरी नहीं पाई। तब उनमें हताशा आती है। आज हालत यह है कि एम.बी.ए. की डिग्री प्राप्त लड़के साडि़यों की दुकानों पर सेल्समैन का काम कर रहे हैं। समय और पैसे का इससे बड़ा दुरूपयोग और क्या हो सकता है?

थ्री इडियटफिल्म में आमिर खान की भूमिका एक ऐसे युवा की है जो हमेशा अपने रास्ते खुद बनाने में विश्वास करता है। लीक का फकीर बनने में नहीं। यह सलाह वह दूसरों को भी देता है। आज देश की 40 फीसदी आबादी युवाओं की है। जीवन की दिशा स्पष्ट न होने के कारण और बने बनाये रास्तों से अलग हटकर रास्ता बनाने की प्रवृत्ति न होने के कारण यह युवा भटक रहे हैं। नक्सलवाद, आतंकवाद व सामान्य अपराधों में यही युवा लिप्त होते जा रहे हैं। यह खतरनाक स्थिति है। अगर इसी तरह नौजवान हिंसा की तरफ बढ़ते गए तो इन्हें फौज और पुलिस की बंदूकों से रोकना संभव न होगा। जरूरत इस बात की है कि थ्री इडियटजैसी फिल्में दिखाकर देश के युवाओं को अपना भविष्य खुद बनाने की प्रेरणा दी जाए। अगर युवा अपने निकट के परिवेश को समझकर समाज को अपनी सेवाऐं प्रदान करेंगे और नई सोच से समस्याओं के हल ढूँढेगे तो यकीनन वे अपने मकसद में कामयाब होंगे। आज शहरी जीवन में हजारों नई तरह की समस्याएं पैदा हो गई हैं। शहर नरक बनते जा रहे हैं। ऐसे में यह युवा अपनी नई सोच से समस्याओं के हल खोजकर अपनी जीविका कमा सकते हैं। अपनी सेवाओं के बदले समाज से खासी आमदनी पैदा कर सकते हैं। इससे देश की तरक्की भी होगी व युवाओं की भटकन दूर होगी।

सरकारी नौकरियों पर निर्भरता, नौकरियों में आरक्षण की मांग, नौकरियाँ पाने के लिए कठिन प्रतियोगिता, सिफारिश, रिश्वत, ये ऐसे झंझट हैं जो एक युवा को उसकी जिन्दगी के सबसे उत्पादक दौर में थका देते हैं। फूल सी ताजगी खत्म कर देते हैं। इस सबके बाद भी अगर नौकरी न मिले तो उसे हताशा और गलत रास्ते पर चलने को मजबूर कर देते हैं। जितनी ऊर्जा केन्द्र और प्रांत की सरकारें नौकरी का आश्वासन देने में और उसका तानाबाना बुनने में लगाती हैं, उसे कहीं कम खर्चें और प्रयास से इन युवाओं को आत्मनिर्भरता के लिए प्रेरित किया जा सकता है। उसके लिए जिलों के प्रशासन को संवेदनशील बनाना होगा ताकि वे इन युवा उद्यमियों के रास्ते में आने वाली प्रशासनिक दिक्कतों को दूर कर सकें। इसके साथ ही देश के शिक्षा संस्थानों में ऐसा माहौल पैदा करने के लिए सबसे पहले शिक्षकों को अपनी प्रवृत्ति बदलनी होगी। रटे-रटाये कोर्स से अलग हटकर जीवन उपयोगी शिक्षा देने का अभ्यास करना होगा। छात्रों से अधिक अंक लाने की अपेक्षा करने की बजाय उन्हें एक अच्छा इंसान, खुश इंसान और संतुष्ट इंसान बनने की प्रेरणा देनी होगी। यदि शिक्षक ऐसा कर पाते हैं तो भारत की मौजूदा युवा पीढ़ी देश के लिए बहुमूल्य निधि बन जायेगी। इसके लिए मानव संसाधन विकास मंत्री श्री कपिल सिब्बल को नीतिगत ढाँचे में बदलाव करने होंगे। उम्मीद की जानी चाहिए कि जिस तरह मुन्नाभाई से देश के मध्यमवर्गीय शहर वालों ने गांधी गिरी सीखी उसी तरह थ्री इडियटफिल्म से शिक्षा के क्षेत्र में गैर पारंपरिक सोच को आगे बढ़ने का मौका मिलेगा।

Sunday, December 20, 2009

कोपेनहेगन विफल: अशोक गहलोत सफल

Rajasthan Patrika 20-Dec-2009
जो उम्मीद थी कोपेनहेगन में वही हुआ। न तो विकासशील देश दबे और न ही विकसित देशों ने उनकी मांग मानी। अब दिसम्बर 2010 में मैक्सिको में फिर यही सर्कस होगा। फिर दुनिया भर के हजारों पर्यावरणविदों का मेला जुटेगा, तर्कों की गरमी पैदा होगी पर ग्लेश्यिरों का पिघलना जारी रहेगा। मालदीव, बांग्लादेश, भारत का तटीय क्षेत्र ही नहीं दुनिया के तमाम देश जल प्रलय में डूबने की कगार पर पहुंचते जायेंगे। जैसा हमने अपने पिछले लेख में लिखा था कि जलवायु परिर्वतन को यदि रोकना है तो हमें भारतीय जीवन पद्धत्ति को अपनाना होगा। पश्चिम की उपभोक्तावादी संस्कृति ने जीने के आधार को जितनी तेजी से पिछले कुछ दशकों में खत्म किया है उतना विनाश मानव इतिहास में पिछले लाखों सालों में नहीं हुआ था।

जीवन जीने के लिए और जलवायु को दुरस्त रखने के लिए पहाड़, जंगल, नदी-पोखर, जमीन, हवा व वन्य जीवन सबकी रक्षा करना जरूरी होता है। हवा प्रदूषित होगी तो हरियाली पर विपरीत प्रभाव पड़ेगा। लाखों जीव-जन्तु समाप्त हो जायेंगे। वातावरण दूषित होगा और पृथ्वी सूर्य से जो गर्मी लेगी वह आकाश तक लौटा नहीं पायेगी। इससे तापक्रम बढ़ेगा। ध्रुवों की बर्फ पिघलेगी। समुद्र का जल स्तर ऊंचा उठेगा और दुनिया पर जलप्रलय का खतरा मंडराने लगेगा।

जंगल कटेंगे तो वर्षा कम होगी। खेती कम होगी। जमीन की नमी कम होगी। अकाल और भूख से लोग मरेंगे। पर्वत टूटेंगे तो रेगिस्तान बढ़ेगा। चारागाह घटेंगे। दूध की कमी होगी। वर्षा कम होगी। भू-जल स्तर नीचे चला जायेगा। भू-चाल ज्यादा आयेंगे। भारी तबाही होगी। जमीन में रासायनिक उर्वरक डाले जायेंगे तो जमीन जहरीली होगी। फसल नुकसानदेह होगी। बीमारियां बढ़ेंगी। इसलिए जरूरी है कि जमीन, जंगल, पहाड़, पानी व हवा सबको हीरे-पन्ने से भी ज्यादा सावधानी से बचाकर सुरक्षित रखा जाए। कोपेनहेगन में यही तय होना था। पर हुआ नहीं। जीने का आधुनिक तरीका बदले बिना यह होगा नहीं। इसलिए कड़े निर्णय लेने की जरूरत है। पर्यावरण बचाने के बयान और नारे तो हम गत 30 वर्षों से सुन रहे हैं पर ऐसे हुक्मरान दिखाई नहीं देते जो अपनी कथनी और करनी को एक करने की कोशिश करें। पर राजस्थान के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत ने कथनी और करनी को एक कर इतिहास रच दिया है।

उन्होंने हरित राजस्थान का नारा दिया और इसके लिए देशभर के विशेषज्ञों और स्वयंसेवी संस्थाओं को बुलाकर इस काम में जोड़ा। जब उनका ध्यान डीग और कामा के पर्वतों पर चल रहे खनन की ओर दिलाया गया तो उन्होंने चंद घंटों में समस्या की गंभीरता को समझ लिया। ब्रज क्षेत्र के बीच आने वाले इन पर्वतों को एक ही दिन में आरक्षित वन घोषित कर दिया। जिससे न सिर्फ राजस्थान और ब्रज भूमि के पर्वतों की रक्षा हो सकी बल्कि पूरे पर्यावरण की रक्षा हुई। यह एक ऐसा ऐतिहासिक कदम था जिसने राजस्थान के मुख्यमंत्री की प्रतिष्ठा को पूरी दुनिया की नजर में रातों-रात काफी ऊंचा उठा दिया। दुनिया भर के कृष्ण भक्त और संत ही नहीं बल्कि मुसलमान, ईसाई, चीनी और बौद्ध लोगों ने भी ई-मेल पर उनके इस कदम की वाह-वाही की। यहां तक कि संसद में विपक्ष के नेताओं ने श्री गहलोत को बधाई संदेश भेजे। इस तरह जहां एक तरफ कोपेनहेगन में दुनिया के पर्यावरणविद हताश और विफल हो रहे थे वहीं श्री गहलोत ने आशा और विश्वास की लहर का संचार किया। यह विश्वास दिलाया कि मुठ्ठी भर वोटरों के ब्लैकमेल और अवैध खनन के अवैध काले धन से उन्हें दबाया या खरीदा नहीं जा सकता। जाहिर है कि केंद्रीय पर्यावरण मंत्री जयराम रमेश को भी श्री गहलोत के इस कदम से बल मिलेगा और वे देश के बाकी हिस्सों में पर्यावरण की रक्षा को लेकर लड़ी जा रही लड़ाईयों को इसी तरह निर्णायक स्थिति में ले जाने की गंभीर कोशिश करेंगे।

यहां यह उल्लेख करना अप्रसांगिक न होगा कि डीग और कामा के यह पर्वत पौराणिक महत्व के भी हैं। इनका सीधा संबंध भगवान श्रीकृष्ण की अनेक लीलाओं से है। इसलिए तमाम साधु-संत और भक्त वर्षों से इनकी रक्षा के लिए संघर्ष कर रहे थे। आश्चर्य की बात यह है कि स्वयं को हिंदू धर्म का रक्षक बताने वाली भाजपा की राजस्थान सरकार ने इन संतों और भक्तों को 5 वर्ष तक मानसिक, शारीरिक और आर्थिक यातना दी। उनकी एक न सुनी। जब चुनाव सिर पर आया और भाजपा के पास चुनाव के लिए कोई मुद्दा न बचा तो उसे रामसेतु का मुद्दा पकड़ना पड़ा। रामसेतु की बात करें और ब्रज के पर्वतों को तोड़े यह चल नहीं सकता था। इसलिए वसुधरा राजे ने चुनाव से पहले चुनावी स्टंट के तौर पर डीग और काॅॅमा के पर्वतों को वन विभाग को हस्तांतरित करने का नाटक किया। नाटक इसलिए कि न तो इसे आरक्षित वन घोषित किया और न ही यहां से स्टोन-के्रशर हटवाये। अगर वे गंभीर थीं तो उन्हें सर्वोच्च न्यायालय में विचाराधीन जनहित याचिका में शपथ पत्र दाखिल करना चाहिए था कि वह ब्रज रक्षक दल के याचिकाकर्ताओं से सहमत है और इस क्षेत्र में खनन न होने देने के लिए प्रतिबद्ध है। ऐसा होता तो सर्वोच्च न्यायालय का निर्णय भी जल्दी ही आ जाता। पर श्रीमती वसुंधरा राजे को एक तीर से कई शिकार करने थे। संतों को फुसला दिया कि तुम्हारी मांग मान ली। देश में प्रचारित करवा दिया कि रामसेतु के लिए लड़ने वाले सभी पौराणिक पर्वतों की रक्षा के लिए वे प्रतिबद्ध हैं। जबकि 5 वर्षों में इन्हीं पर्वतों का उन्होंने नृश्रंस विनाश करवाया। स्टोन क्रेशर वालों व खान वालों को झुनझुना थमा दिया कि फिलहाल चुप बैठो जब हम चुनाव जीत कर आयेंगे तो फिर इस निर्णय को पलट देंगे। पर नियति को कुछ और ही मंजूर था।

अब श्री गहलोत को चाहिए कि डीग और काॅमा के इन पर्वतों की सुरक्षा के लिए कड़े कदम उठायें। यहां अवैध खनन रोकें। इस क्षेत्र में सघन वृक्षारोपण व तीर्थाटन के लिए विशेष प्रयास करे। साथ ही भवन निर्माण उद्योग की मांग पूरी करने के लिए वैकल्पिक इलाके में खनन का इंतजाम करें। इसके लिए काॅमा से लगे पहाड़ी क्षेत्र के पर्वतों का नेशनल रिमोट सेंसिंग ऐजेंसी की मदद से उपग्रह सर्वेक्षण करवायें। इस क्षेत्र से संबंधित राजस्व खातों की पारदर्शी पड़ताल करवायें। जिससे पहाड़ी क्षेत्र में बंदर बांट किये गये खनन के पट्टों को तार्किक आधार पर फिर से बांटा जा सकें। इस तरह डीग और काॅमा से विस्थापित होने वाले खनन उद्योग को पहाड़ी क्षेत्र वैकल्पिक खान आवंटित की जाए। यदि संभव हो तो उन्हें आवश्यकतानुसार कर में रियायत दी जाए जिससे वे अपना धंधा ब्रज के बाहर चला सके। पर खनन कहीं भी हांे अवैज्ञानिक और विध्वंसकारी तरीके से न हो।

अगर राजस्थान सरकार गंभीरता और तेजी से काम करेगी तो डीग और काॅमा सजेंगे और पर्यटन से इतना रोजगार पैदा करेंगे कि लोग अवैध खनन की आमदनी को भूल जायेंगे। वैष्णों देवी के जीर्णाेद्धार से पहले वहां के उपराज्यपाल जगमोहन जी को पंडों का विरोध महीनों झेलना पड़ा। उन्होंने बाजार बंद किये, सड़कों पर लेट गये, पर जगमोहन नहीं झुके। वैष्णों देवी को अपनी योजना के अनुरूप तीर्थयात्रियों के सुख के लिए वैज्ञानिक तरीके से विकसित किया। आज वही पंडे सबसे ज्यादा खुशहाल हैं। उन्ही की टैक्सियां दौड़ रही हैं। गेस्ट हाउस सोना उगल रहे हैं। बाजारों में उनके नौनिहाल बड़े-बड़े दुकानदार बन गये हैं। कल विरोध करने वाले आज यशगान कर रहे हैं। ऐसा ही डीग और कामा में भी होगा। समय का अंतर है। आज जो असंभव लग रहा है वह कल संभव होगा और तब लोग उन संतों, पर्यावरण व आन्दोलनकारियों को साधुवाद देंगे जिनके त्याग और तप से ब्रज के पहाड़ बचे हैं। इतिहास अशोक गहलोत को इस पहल के लिए सदियों तक याद रखेगा। जलवायु परिर्वतन का अगला वैश्विक संम्मेलन 2010 में मैक्सिको में जब होगा तब न जाने क्या परिणाम आये पर राजस्थान के डीग और काॅमा तब तक जलवायु संरक्षण की दिशा में बहुत आगे बढ़ चुके होंगे।

Sunday, December 13, 2009

तेलांगना राज्य किसके लिए?


         
Rajasthan Patrika 13-Dec-2009
चंद्रशेखर राव की भूख-हड़ताल ने व उस्मानिया विश्वविद्यालयके छात्रों के प्रचंड आन्दोलन ने नये तेलंगाना राज्य के निर्माण की जमीन तैयार कर दी। सवाल है कि क्या आज इस अलग राज्य की जरूरत है? क्या तेलंगाना के वही हालात हैं जो 40 वर्ष पहले 1969 में थे? जब पहली बार इस आन्दोलन का जन्म हुआ था? क्या नया राज्य बनने से आम आदमी के दुख-दर्द दूर हो जायेंगे? टीआरएस की मानें तो इन सवालों का जवाब होगा हां। वे खुश हैं कि उनके नेता चंद्रशेखर राव इस बार बाजी मार ले गए। वरना काफी लंबे समय से धोखा खा रहे थे। यूं तो 1947 में भी तत्कालीन हैदराबाद रियासत (तेलंगाना) के निज़ाम भारत के साथ विलय नहीं चाहते थे। लौह पुरूष सरदार पटेल ने 1948 में पुलिस कार्यवाही करके इसे भारत का हिस्सा बना दिया और 1953 में तेलगू-भाषी आंध्र प्रदेश का गठन हुआ। वैसे भाषा के आधार पर प्रांतों के पुनर्गठन के लिए बनी समिति हैदराबाद रियासत और आन्ध्र प्रदेश वाले हिस्से का विलय नहीं चाहती थी। पर केंद्र सरकार ने तेलंगाना को समुचित विकास का आश्वासन देकर फुसला लिया।

इसके बाद 13 साल बीत गए। पर तेलंगाना का विकास नहीं हुआ। तब जनता का आक्रोश बढ़ने लगा। वैसे भी पं. नेहरू की तीनों पंचवर्षीय योजनाएं आम आदमी का सपना पूरा नहीं कर पाईं थीं। इसलिए पंचवर्षीय योजनाओं को रोक दिया गया और एक-एक वर्ष की 3 योजनाएं 1966 से 1969 के बीच चलीं। देश के हालात काफी बदल चुके थे। पाकिस्तान से युद्ध, अमरीका पर खाद्यान्न की निर्भरता, बड़ी योजनाओं में भारी विदेशी कर्ज कुछ ऐसे संकट थे जिन से देश में हताशा फैली थी। तेलंगाना वासी और ज्यादा बेचैन हो गए और 1969 में जय तेलंगाना आन्दोलनशुरू हुआ। जिसकी शुरूआत भी उस्मानिया विश्वविद्यालय के छात्रों ने ही की थी। इस आन्दोलन में सैकड़ों लोग मारे गये। पर तेलंगाना राज्य फिर भी नहीं बना। सत्तारूढ़ कांगेस ने राजनैतिक दावपेंच खेलकर इन अलगावादी नेताओं को खरीद लिया या कांग्रेस में ले लिया। आन्दोलन विफल हो गया।

तब से आज तक हालात काफी बदल चुके हैं। आज तेलंगाना क्षेत्र में भारत का पांचवा सबसे बड़ा शहर हैदराबाद है।जो तेजी से फैलता जा रहा है और जिसने दुनिया में अपने झंडे गाढ़े हैं। विकास का फल भी कुछ सीमित मात्रा में इस इलाके में पहुंचा है। अलग राज्य बनकर ऐसा होने कुछ नहीं जा रहा जिससे आम आदमी की हालत सुधर सकेगी। अलबत्ता तेलंगाना के राजनेताओं की तकदीर जरूर चमक जायेगी। जो आज तक सत्ता का सुख भोगने का सपना देखते आए हैं। उल्लेखनीय है कि 1990 और 2004 में भाजपा और कांग्रेस ने पृथक तेलंगाना राज्य की मांग को अपने चुनावी घोषणा पत्र का हिस्सा बनाकर चुनाव लड़ा था। पर साझी केंद्रीय सरकार के सहयोगी दल तेलगूदेशम पार्टी के विरोध के कारण तब यह राज्य नहीं बनाया गया। इसी तरह 2004 में सत्ता में आई कांग्रेस ने टीआरएस के साथ चुनाव लड़ा पर बाद में वायदे से मुंह मोड़ लिया। अब चन्द्रशेखर राव के आमरण अनशन ने ऐसे हालात पैदा कर दिये कि सोनिया गांधी को उनकी जि़द के आगे झुकना पड़ा। कांग्रेस जानती है कि इस वक्त अगर तेलंगाना राज्य का गठन होता है तो राजनैतिक लाभ भी टीआरएस को ही मिलेगा। पर अगर मांग न मानती तो हालात बेकाबू हो जाते। पर इस सारे आन्दोलन के पीछे क्षेत्र के विकास की चिंता कम और अपने राजनैतिक भविष्य की चिंता ज्यादा दिखाई देती है। क्या वजह है कि एनटीआर के जमाने में यह आन्दोलन ठंडा पड़ा रहा?

दरअसल जब किसी नेता या दल को अपनी पहचान बनानी होती है या राजनैतिक फसल काटनी होती है तो उसे ऐसा  कुछ जरूर करना होता है जिससे उथल-पुथल मचे और दुनिया का ध्यान उस पर या उसके नए दल की ओर आकर्षित हो। गोरखालैंड के लिए मांग करने वाले सुभाष घीसिंग या राज ठकरे, अर्जन मुंडा हों या छत्तीस गढ़ के नेता, सब अपनी पहचान के लिए अपने राज्य की मांग करते हैं या सत्ता es अपनी हिस्सेदारी सुनिश्चित करते है। राज्य के गठन के बाद नया सचिवालय, नई विधान सभा, नई राजधानी, नई सरकारी इमारतें आदि इतना कुछ बनता है कि नए राज्य के नेताओं की मोटी कमाई होती है। फिर मंत्री पदों की बंदरबांट होती है। जनता के पैसे पर शाही ठाट-बाट जुटाये जाते हैं। अंत में जनता वहीं की वहीं रह जाती है। लुटी-पिटी और बदहाल।

तेलंगाना की आमदनी का जरिया शराब की बिक्री से प्राप्त आबकारी कर है। अलग राज्य होकर ये अपने विकास के लिए साधन कहां से लायेगा? क्या नया राज्य ज्यादा शराब बेचेगा? फिर तो जनता और लुटेगी। राज्य का विनाश होगा या विकास होगा? ऐसे सवालों की 
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पृथक राज्य की मांग करने वालों को नहीं है। इसलिए वे आज जीत का जश्न मना रहे हैं। ठीक वैसे ही जैसे अयोध्या में कार सेवकों पर हुए पुलिसिया खूनी हमले के बाद भाजपा नेताओं ने जश्न मनाया था कि अब हमारी गद्दी पक्की। गद्दी तो उन्हें मिली पर मंदिर आज तक नहीं बना। मंदिर बनना तो दूर अयोध्या शहर की भी गति नहीं सुधरी। खैर यह तो वक्त ही बतायेगा कि केंद्र सरकार किस सीमा तक तेलंगाना राज्य को स्वतंत्रता देगी। पर फिलहाल इतना तय है कि तेलंगाना के नेताओं ने अपने ताजा संघर्ष से वह सब हासिल कर लिया जो वे 40 वषों में नहीं कर पाये थे। अब देखना यह है कि वे तेलंगाना की जनता के लिए क्या क्रांतिकारी कार्य करते हैं।

Sunday, December 6, 2009

आईआईटी दाखिलों में धांधली


Rajasthan Patrika 6-Dec-2009
भारत के प्रोद्योगिकी संस्थानों ने गत 50 वर्षों में पूरी दुनिया में अपनी गुणवत्ता की धाक जमाई है। आज आईआईटी के पढ़े नौजवानों की दुनिया के बाजार में सबसे ऊंची बोली लगती है। जाहिर है कि ये नौजवान विश्व स्तर पर अपने श्रेष्ठ गुणों के कारण स्थापित हो चुके हैं। फिर यह मानने की कोई वजह नहीं होनी चाहिए कि इन प्रतिष्ठित संस्थानों में दाखिले के समय किसी तरह की धांधली की जाती हो। हर साल भारत के 15 आईआईटी में 3.5 लाख छात्र इनकी प्रवेश परीक्षा में बैठते है। जिसमें से लगभग 8 हजार छात्र चुने जाते हैं। इस कठिन परीक्षा के लिए देशभर में छात्र वर्षों कड़ी मेहनत करते हैं। महंगे कोचिंग संस्थानों में पढ़ाई करते है। फिर भी इनमें से अनेक ऐसे छात्र दाखिला पाने से रह जाते हैं जिनकी योग्यता के बारे में किसी को संदेह नहीं होता और दूसरी तरफ कुछ ऐसे छात्र दाखिल हो जाते हैं जिनके दाखिले पर अचंभा होता है।

ऐसी ही एक घटना 2006 के ज्वाइंट ऐन्ट्रेंस एक्ज़ाममें हुई। इस परीक्षा को आईआईटी खड़गपुर ने संचालित किया था। इसी आईआईटी के कंप्यूटर साइंस के प्रो0 राजीव कुमार को यह बइमानी नागवार गुजरी और तब से वे अपनी ही संस्थान की परीक्षा प्रणाली की बखियां उखेड़ने में जुट गए। इसके लिए पिछले 3 सालों es उन्होंने मानव संसाधन विकास मंत्रालय, केंद्रीय सूचना आयोग, संसद व अदालतों में काफी भागा-दौड़ी की। उन्होंन इस परीक्षा प्रणाली के विषय में तमाम तरह का शोध किया। अपने संस्थान के वरिष्ठ अधिकारियों पर कानूनी दबाव डालकर उन्हें सच उगलने पर मजबूर किया। जो सच सामने आया वह चैंकाने वाला है। 2006 की इस परीक्षा में जिन विद्यार्थियों के अंक क्रमशः 231, 251 या 279 आये थे वे तो असफल रहे। पर जिन विद्यार्थियों के अंक 154, 156 या 174 आये थे वे सफल रहे। ऐसा इसलिए हुआ कि चयन कर्ताओं ने भौतिक शास्त्र, रसायन शास्त्र व गणित में न्यूनतम अंकों की जो सीमा तय करी थी वह काफी धांधलीपूर्ण थी। उसका कोई तार्किक आधार नहीं था।

इसी खोज में यह बात भी सामने आई कि आईआईटी कानपुर और आईआईटी खड़गपुर के रसायन शास्त्र के प्रोफेसरों के साहबजादों को रसायन शास्त्र विषय में 184 में से 135, 130, 125 या 120 जैसे उच्च अंक प्राप्त हुए। जबकि उनका अन्य विषयों में प्रदर्शन काफी निम्न स्तर का था। फिर भी उनका चयन हो गया। जब बार-बार चयन कर्ताओ से केंद्रीय सूचना आयोग ने चयन की प्रक्रिया पर असुविधाजनक सवाल पूछे तो हर बार उसे विरोधाभासी उत्तर दिया गया। जाहिर है कि चयनकर्ता तथ्यों को छिपा रहे थे क्यों कि उन्हें पकड़े जाने का भय था। सबसे ज्यादा चिंतनीय बात तो यह हुई कि जब सूचना आयोग का दबाव बढ़ने लगा तो आईआईटी खड़गपुर ने अपने ही नियम के विरुद्ध जाकर 2006 के परीक्षार्थियों की उत्तर पुस्तिकाएं नष्ट कर दी, ताकि कोई प्रमाण ही न बचे। जबकि नियमानुसार उन्हें एक वर्ष तक सलामत रखना चाहिए था।

ऐसा नहीं है कि इन अधिकारियों को इस बात का ज्ञान नहीं था कि यह मामला कोलकाता उच्च न्यायालय व केंद्रीय सूचना आयोग में विचाराधीन है। फिर भी उन्होंने उत्तर पुस्तिकाओं को नष्ट करने की हड़बड़ी क्यों की? जब इस मामले पर संसद में सवाल पूछा गया तो मानव संसाधान विकास राज्यमंत्री ने लीपा-पोती करके मामला टाल दिया। इसी तरह 2007 के जेईई में भी कुछ ऐसा ही हुआ, जिसका संचालन मुंबई आईआईटी ने किया था। इस परीक्षा में भी ऐसे छात्र सफल हो गए जिन्हें गणित में 1 अंक, भौतिक शास्त्र में 4 अंक और रसायन शास्त्र में मात्र 3 अंक प्राप्त हुए थे। 2008 में भी कोई सुधार नहीं हुआ। गणित में 15 फीसदी और भौतिक शास्त्र में 5 फीसदी अंक पाने वाले को भी आईआईटी खड़कपुर में दाखिला मिल गया। एक छात्र को भौतिक शास्त्र में 104 अंक, गणित में 75 और रसायन शास्त्र में 52 अंक मिले। उसका कुल योग 231 था पर उसका चयन नहीं हुआ, जबकि कुल 174 अंक पाने वाले छात्र का दाखिला हो गया। ऐसा इसलिए हुआ कि इस विद्यार्थी के भौतिक शास्त्र में 50, रसायन में 73 और गणित में 51 अंक थे और चयन कर्ताओं ने इस वर्ष यह तय किया रसायन शास्त्र में 55 से कम अंक पाने वाले को दाखिला नहीं दिया जायेगा। ऐसे ही बेसिर-पैर के गोपनीय फैसलों से आईआईटी के चयनकर्ता लाखों मेधावी छात्रों के साथ वर्षों से खिलावाड़ करते आ रहे है। देश के ज्यादातर छात्र/छात्रा व अभिभावकों को इस गोरखधंधे का पता नहीं। पर पिछले कुछ महीनों से देश के अंग्रेजी मीडिया में विरोध के स्वर उभरने लगे हैं। केंद्रीय सूचना आयोग भी दबाव बनाये हुए हैं। प्रो0 राजीव कुमार जैसे योद्धा वैज्ञानिक तर्कोंं के साथ चयनकार्ताओं के छक्के छुड़ा रहे हैं। यही समय है जब मानव संसाधन मंत्री कपिल सिब्बल को इस पूरे मामले की गहरी छान-बीन करवानी चाहिए और इस प्रतिष्ठित परीक्षा को पारदर्शी बनाना चाहिए। नए-नए आईआईटी खोलने की जल्दी में अगर श्री सिब्बल ने इस नासूर को दूर नहीं किया तो यह कैंसर की तरह फैल जायेगा और आईआईटी अंतर्राष्ट्रीय बाजार में अपनी कीमत खो देंगे। तब विदेशी विश्वविद्यालय भारत में आकर महंगी शिक्षा बेचेंगे और भारत के मेधावी किन्तु साधनहीन युवाओं को असहाय बनाकर छोड़ देगें, क्योंकि उनके माता-पिता इतनी मंहगी शिक्षा का भार वहन नहीं कर पायंगे।

इसलिए देशभर के छात्रों को भी, जिन्हे आईआईटी प्रवेश में रुचि है, जेईई को पारदर्शी बनाने के लिए ज़ोरदार आवाज़ उठानी चाहिए। अपने सांसदों, अखबारों के संपादकों को पत्र लिख कर इस मुदns पर ध्यान दिलाना चाहिए। अभिभावकों को भी जनहित याचिकाएं दाखिल करके आईआईटी को मजबूर करना चाहिए के वह जेईई को पारदर्शी बनाये। भारत की भावी वैज्ञानिक पीढ़ी के भविष्य के लिए यह एक ज़रूरी प्रयास होगा।

Sunday, October 18, 2009

क्या बिक रहे हैं देवस्थान के मंदिर ?



गत दिनों एक प्रमुख दैनिक के प्रथम पृष्ठ पर एक बड़ी खबर छपी कि देवस्थान विभाग के मंदिरों को राजस्थान सरकार बेचने जा रही है। खबर का शीर्षक ही पाठकों को आन्दोलित करने के लिए काफी था। इस खबर के दो हिस्से थे। एक यह कि सरकार इन मंदिरों को बेचने का फैसला कर चुकी है। दूसरा यह है कि भू-माफियाओं के ट्रस्ट ने वृन्दावन के राधामाधव मंदिर के लिए आवेदन किया है। यह दोनों ही सूचनाएं असत्य हैं। आश्चर्य होता है यह देखकर कि प्रमुख अखबारों के संवाददाता भी कैसे बिना जांच परख के न सिर्फ अपनी रिपोर्ट अखबार के कार्यालय में दाखिल कर देते हैं बल्कि उसे इतना सनसनीखेज बना देते हैं कि झूठ भी सच लगने लगे।

राजस्थान सरकार ने अभी तक ऐसी कोई नीति नहीं बनाई है जिसके तहत वह देवस्थान विभाग के मंदिरों को बेचने जा रही हो। जनता की चुनी हुई कोई भी सरकार ऐसा मूर्खतापूर्ण कार्य आसानी से नहीं कर सकती। फिर अशोक गहलोत तो बहुत ही संभलकर चलने वाले मुख्यमंत्री हैं। इस खबर में उत्तर प्रदेश के मथुरा जिले के वृन्दावन स्थित श्री राधामाधव मन्दिर के बारे में जो कुछ लिखा है वह भी तथ्यों से परे है। खबर में जिन दामोदर बाबा को उद्ध्रत किया गया है, उनका अपना आचरण ही इस खबर का आधार होना चाहिए था। क्योंकि वृन्दावन स्थित राधामाधव मन्दिर पर ये दामोदर बाबा गत् दो दशक से अवैध कब्जा जमाये बैठे हैं। इस खबर को पढ़ने से लगता है कि दामोदर बाबा को मन्दिर के भविष्य की चिंता है, जो उनका नाटक मात्र है।

दरअसल दो दशक पहले वृन्दावन के संत श्रीपाद बाबा ने ब्रज अकादमीबनाने व भजन करने के लिए राधामाधव मन्दिर, वृन्दावन का एक हिस्सा राजस्थान सरकार से अस्थायी रूप में लिया था। श्रीपाद बाबा ने अपने जीवनकाल में अपना कोई उत्तराधिकारी नियुक्त नहीं किया। उन दिनों श्रीपाद बाबा के सम्पर्क में रहने वाले वृन्दावन के चश्मदीद गवाह बताते हैं कि बाबा के इर्द-गिर्द मंडराने वाले ब्रजेश, राकेश और दामोदर बाबा ने श्रीपाद बाबा से बार-बार ट्रस्ट बनाने को कहा। पर बाबा ने इन्हें फटकार दिया और कहा कि मैं अपने मरने के बाद तुम्हें अपने नाम पर दुकानदारी नहीं चलाने दूँगा। वृन्दावनवासी बताते हैं कि इन लोगों ने श्रीपाद बाबा की भावना के विपरीत कार्य किया और वहीं श्रीराधामाधव मन्दिर में जबरन बाबा की समाधि बना दी। जिसका इन्हें कोई कानूनी अधिकार नहीं था। इसके लिए इन्होंने देवस्थान विभाग से अनापत्ति पत्र भी नहीं लिया था। इतना ही काफी न था, इन लोगों ने श्रीपाद बाबा द्वारा जतन से इकट्ठा की गयी पाण्डुलिपियों के स्वामित्व पर भी कानूनी विवाद खड़ा करके करोड़ों रूपये मूल्य की पाण्डुलिपियों को दीमकों के हवाले करके ताले में बन्द करवा दिया। जिससे राधामाधव मन्दिर का एक बड़ा हिस्सा आज भी बन्द है और उसका भवन लगातार ध्वस्त होता जा रहा है। अपने को श्रीपाद बाबा का शिष्य बताने वाले दामोदर बाबा ने इसी राधामाधव मन्दिर में लम्बी-चैड़ी गौशाला खड़ी करके इस मन्दिर के ज्यादातर हिस्से पर कब्जा जमा लिया। जिससे मन्दिर का रहा बचा सौन्दर्य भी जाता रहा। उल्लेखनीय है कि उक्त खबर देने वाले संवाददाता ने इस तथ्य को खबर में छिपाया ही नहीं बल्कि पाठकों को गुमराह करने की कोशिश की है और लिखा है कि मन्दिर के पास गौशाला चलाने वाले दामोदर बाबा।जबकि हकीकत यह है कि यह दामोदर बाबा राधामाधव मन्दिर में ही आज भी अवैध कब्जा जमाये बैठा है।

जहाँ तक भूमाफियाओं के कब्जे का सवाल है तो यह सही है कि आर्थिक संसाधनों के अभाव में देवस्थान विभाग के कई मन्दिर इसी तरह के लोगों ने अवैध रूप से कब्जे में ले रखे हैं। राजस्थान सरकार के देवस्थान विभाग के पास न तो इतने साधन हैं और न ही अधिकारी जो इन मंदिरों को संभाल सके। पर आश्चर्य की बात है कि इन कब्जा करने वालों के चरित्र और व्यक्तित्व पर इतने वर्षों में किसी संवाददाता ने कोई खोज नहीं की। कैसे यह लोग देवस्थान मंदिर की संपत्तियों पर कबिज हुए? कैसे इन्होंने मंदिर परिसरों को अपनी निजी जागीर की तरह बना लिया? कैसे इन लोगों ने निराधार कानूनी विवाद खड़े कर के देवस्थान विभाग को मुकदमों में उलझा दिया? क्यों देवस्थान विभाग आज तक इन मंदिरों पर से कब्जे नहीं हटवा पाया? कैसे चल रही है इन मंदिरों की सेवा-पूजा? कितने दशक लगेंगे जब देवस्थान के यह अधिकारी इन मंदिरों को कब्जों से मुक्त करा पाएंगे? क्या इन मंदिरों के खर्चे उनकी आमदनी से कई गुना ज्यादा हैं? इन मंदिरों की दयनीय आर्थिक दशा सुधारने के लिए क्या नीति बनाई अब तक राजस्थान की सरकारों ने?

कब्जे हटेंगे नहीं, मुकदमें चलते रहेंगे, हाकिम दौरे नहीं करेंगे, मंदिरों की संपत्ति साधनों व देखभाल के अभाव में खंडहर होती जा रही है। कब्जेदार उन पर अवैध निर्माण करवा रहे हैं। भक्त और दर्शनार्थी इन मंदिरों की तरफ मुंह भी नहीं करते। मंदिरों में विराजे देवों की सेवा-पूजा के लिए देवस्थान विभाग के पास कोई संसाधन नहीं है। ऐसे में क्या है इन मंदिरों का भविष्य?

माफिया या अवैध कब्जेदार इन पर काबिज रहे और इन्हें हज़म कर जाएं या राजस्थान की सरकार बुद्धिमानी से ऐसी नीति बनाए जिसमें इन मंदिरों को ऐसी संस्थाओं को सौंपा जा सके जो इनके जीर्णाेद्धार में मोटी रकम लगाने को तैयार हो। जो इन मंदिरों में से अवैध कब्जे हटवाने की ताकत रखतीं हो। जो इन मंदिरों का कलात्मक जीर्णाेद्धार करवा सके। जो मंदिरों के विग्रहों की श्रेष्ठ सेवा की व्यवस्था कर सके। जो अपनी बुद्धि, योग्यता, नवीनता, निष्कामता से देवस्थान विभाग के इन मंदिरों को सजा-संवारकर उनका अगले 30-40 वर्षों तक रख-रखाव करने को तैयार हो। जो इतना सारा धन और साधन इन मंदिरों पर लगाने के बाद भी इनके स्वामित्व का कोई हक न मांगते हो। जो राजस्थान सरकार के इन मंदिरों के प्रति नहीं निभ पा रहे फर्ज को अपने साधनों से निभाने को तैयार हों। जिनके ट्रस्टी चरित्रवान, समाज में प्रतिष्ठित और योग्य व्यक्ति हो। ऐसी संस्थाएं अगर इन मंदिरों की निष्काम भावना से सेवा करने को तैयार हों तो भला राजस्थान सरकार को इसमें आपत्ति क्यों होनी चाहिए?

पर सरकार को यह सुनिश्चित कर लेना चाहिए कि जिस संस्था को वह इन मंदिरों के जीर्णाद्धार व रख-रखाव का दायित्व सौंपे उस संस्था ने इस क्षेत्र में अपने काम से अपनी विश्वसनीयता व साख कायम की हो। ऐसी संस्थाओं के साथ करार करके राजस्थान सरकार न सिर्फ अपनी धरोहरों को सुरक्षित कर लेगी बल्कि फिर से उन्हें आध्यात्मिक गतिविधियों से झंकरित कर देगी। दो संस्थाओं के बीच इस करार में सरकार का पक्ष हमेशा हावी रहेगा। ऐसे में किसी संस्था को भी देवस्थान विभाग की संपत्ति से खिलवाड़ करने की छूट नहीं होगी। खबर लिखने वाले संवाददाताओं को ऐसे तमाम सवालों के जवाब खोजने चाहिए थे। अधकचरी सूचना और तथ्यों को तोड़-मरोड़ कर छापने से संवाददाता और उस अखबार की विश्वसनीयता पर ही प्रश्न चिन्ह लग जाते हैं। देवस्थान विभाग के मंदिर हमारी विरासत हैं। इनकी बढि़या देख-भाल और इनका जीर्णोद्धार होना राजस्थान की जनता के लिए हर्ष की बात होगी। बिना स्वामित्व खोए अगर राजस्थान सरकार ऐसी कोई अनूठी योजना बना सकती है तो निश्चित रूप से इन धरोहरों का भविष्य सुरक्षित होगा। अन्यथा यह क्रमशः धर्म के व्यापारियों या भू-माफियाओं के हाथ में सरकती जाएंगी।

Sunday, October 11, 2009

राजमार्गों के कातिल चालक

Rajasthan Patrika 11 Oct 2009
सऊदी अरेबिया में औद्योगिक सलाहकार का काम करने वाले राकेश सिंह ने 7 दिन पश्चिमी उत्तर प्रदेश के बिजनौर जिले के ढाबों और सड़कों पर बिताए। वे जानना चाहते थे कि गत मई महीने में उनके 16 वर्षीय जवान बेटे को कुचलकर भागने वाला ट्रक ड्राईवर कौन था? आखिर उन्हें कामयाबी मिली। जो काम उ0प्र0 पुलिस नहीं कर सकी, वो एक जागरूक और दुःखियारे पिता ने कर दिखाया। बावजूद इसके ट्रक ड्राईवर को इलाहाबाद उच्च न्यायालय से जमानत मिल गयी। इस खोज के दौरान श्री सिंह को पता चला कि राजमार्गों पर भारी वाहन चलाने वाले ड्राईवर मात्र 100 रूपया रिश्वत देकर भी ड्राईविंग लाईसेंस प्राप्त कर लेते हैं। स्वीकृत सीमा से कई गुना ज्यादा लदान करते हैं और ट्रक का संतुलन नहीं रख पाते। आये दिन जानलेवा दुर्घटनाऐं करते रहते हैं। मौजूदा कानून इस मामले में बहुत लचर है। अब वे नीतिश कटारा की माँ की तरह इन हत्यारे ड्राईवरों के विरूद्ध एक जेहादछेड़ना चाहते हैं ताकि उनके इकलौते बेटे की कुर्बानी बेकार न जाये।

राकेश सिंह इस लड़ाई में अकेले नहीं हैं। देशभर में लाखों माँ-बाप हैं जो अपने आँखों के तारों को इन लापरवाह ड्राईवरों की बलि चढ़ते देख चुके हैं। संजीव नंदा के बी.एम.डब्ल्यू. केस का क्या हुआ, ये सारे देश ने देखा। एक तरफ तो हम राष्ट्रमंडल खेलों के लिए देश की राजधानी को अन्तर्राष्ट्रीय स्वरूप देना चाहते हैं, दूसरी तरफ ये वही राजधानी है जहाँ ब्ल्यू लाइन बसें राकेश सिंह की तरह ही हजारों पिताओं को पुत्रविहीन कर चकी है। एक तरफ तो हमारे सड़क परिवहन मंत्री बीस कि.मी. राजमार्ग रोज बनाने का लक्ष्य हासिल करना चाहते हैं, दूसरी तरफ इन्हीं राजमार्गों पर हर रोज न जाने कितनी मौतें ऐसे लापरवाह चालकों के हाथों हो रही हैं। एक तरफ तो 240 कि.मी. प्रति घंटा की रफ्तार से चलने वाली दुनिया की सबसे मंहगी कारें भारत में बनने और बिकने लगी हैं और दूसरी ओर सड़कों का आलम ये है कि आवारा पशु से लेकर साईकिल सवार तक, बैलगाड़ी से लेकर भारी ट्रक तक, सब एक ही सड़क पर चलते हैं। नतीजतन बेगुनाह लोग अकारण सड़क हादसों में जान गंवा बैठते हैं। इस पूरे मामले में राज्य और केन्द्र की सरकार सबसे ज्यादा जिम्मेदार है। राकेश सिंह के शब्दों में तो सरकार ही इन अपराधों की गुनाहगार है। क्योंकि वह न तो ऐसे कानून बनाती है जिनसे ये दुर्घटनाऐं रूक सकें और न ही मौजूदा कानून में बदलाव करती है जिससे लापरवाह चालकों के मन में कानून का डर पैदा हो। इस मामले में दिल्ली के आबकारी मंत्री अशोक वालिया ने एक बढि़या पहल की है। उन्होंने सार्वजनिक स्थलों पर शराब पीने वालों पर पचास हजार रूपये तक का जुर्माना और नकली शराब बनाने वाले को मृत्यु दण्ड दिये जाने के कानून को दिल्ली विधानसभा में प्रस्तुत किया है।

कुछ इसी तरह का प्रावधान वाहन चालकों के संदर्भ में भी किया जाना चाहिए। अयोग्य व्यक्ति को ड्राईविंग लाईसेंस दिलवाने या देने वाले सभी अधिकारियों को आजीवन कारावास का प्रावधान किया जाना चाहिए और लापरवाही से वाहन चलाने वाले उन ड्राईवरों को जो बेगुनाह लोगों की जान ले लेते हैं, मृत्यु दण्ड या इसके समकक्ष सजा की व्यवस्था की जानी चाहिए ताकि इन वाहन चालकों के मन में कानून का डर बैठ सके। यहाँ एक सवाल उठेगा कि ये फेसला कैसे किया जाये कि दुर्घटना के लिए जिम्मेदार कौन है? चालक या दुर्घटना का शिकार मारा गया व्यक्ति! ऐसा भी होता है जब दुर्घटना में मरने वाला अपनी ही लापरवाही से मारा जाता है। अभी पिछले हफ्ते दिल्ली-आगरा राजमार्ग पर दो बीस वर्षीय युवा अपनी नई मोटर साईकिल पर तेजी से गलत दिशा में जा रहे थे और सामने से आते हुए ट्रक से भिड़ गये और वहीं खत्म हो गये। प्रायः ऐसे हादसों में आसपास के गाँव वाले भीड़ लगा लेते हैं और कारण जाने बिना चालक की अच्छी तरह मरम्मत कर देते हैं। जबकि इस दुर्घटना के मृतकों के पिताओं ने माना कि उनके बेटे अपनी गलती से मारे गये हैं। कभी-कभी ट्रक चालक भी मानवीयता का नमूना प्रस्तुत करते हैं। मुरादाबाद के एक ट्रक चालक सरदार सोहन सिंह के ट्रक के सामने अचानक भागती हुयी एक दस बरस की ग्रामीण लड़की आ गयी। वे सीमा के भीतर ट्रक चला रहे थे। पर इस अप्रत्याशित स्थिति का सामना नहीं कर सके। लड़की कुचलकर मर गयी। नित्य ग्रंथसाहब का पाठ करने वाले सोहन सिंह जी का कलेजा मुँह को आ गया। क्लीनर के लाख चेतावनी देने के बावजूद वे नहीं माने और मौके से भागे नहीं। उस सुनसान सड़क पर पड़ी लाश को गोद में लेकर 2 कि.मी. दूर पैदल चलकर उस लड़की के घर पहुँचे। जाहिरन वहाँ कोहराम मच गया। गाँव वालों ने उनकी भलमनसाहत की परवाह न करते हुए उनकी धुनाई कर दी। फिर भी वे लड़की के घरवालों को जो धन उनके पास था, देकर ही वहाँ से हटे। यह एक असामान्य स्थिति है। पर ऐसे चालक भी होते हैं। अगर कानून इतना सख्त हो जायेगा तो कभी-कभी ऐसे बेगुनाह चालकों को भी इसका शिकार बनना पड़ेगा। इसलिए कानूनविद् इस मामले में एकमत नहीं हैं।

यह पेचीदा स्थिति है। कानून सख्त नहीं होगा तो सड़क हादसे नहीं रूकेंगे और सख्त होगा तो कभी-कभी बेगुनाह उसका खामियाजा भुगतेंगे। जरूरत इस बात की है कि सड़क दुर्घटनाओं के विषय में कानून बनाते समय इन तथ्यों का ध्यान रखा जाये। ऐसी गंुजाइश छोड़ी जाये कि जाँच के बाद अगर यह सिद्ध होता है कि दुर्घटना के लिए वाहन चालक जिम्मेदार नहीं है तो उसे किसी भी तरह की सजा या मृतक के परिवार को कोई भी मुआवजा देने के लिए बाध्य न किया जाये।

केवल कानून बनाने से ही समस्या का हल नहीं निकलेगा। गुजरात में नशाबंदी लागू है। पर महात्मा गाँधी के जन्मस्थान पोरबंदर में सबसे ज्यादा अवैध शराब बिकती है। भ्रष्टाचार के विरूद्ध तमाम कानून और ऐजेंसियाँ हैं पर आज देश की सर्वोच्च न्यायपालिका के आचरण पर ही उंगलियाँ उठ रही हैं। यही हश्र सड़क दुर्घटना से सम्बन्धित नये कानून का भी हो सकता है अगर उसे लागू करने वाले अधिकारी ईमानदार और सख्त नहीं हैं। मौजूदा कानून में ही चालक लाईसेंस देने के पहले क्या परीक्षाऐं ली जानी चाहिए, इसका विस्तृत विवरण है। पर बावजूद इसके देश के हर लाईसेंसिग कार्यालय में बिना परीक्षा के ड्राईविंग लाईसेंस दिलवाने वाले दलालों की कतारें खड़ी रहती हैं। यहाँ तक कि आपके नाम, फोटो, राशनकार्ड आदि को भी नहीं देखा जाता। गत् दिनांे उत्तर भारत के एक शहर में एक नागरिक ने मुम्बई आतंकी हमले के दोषी मौ0 अजमल कसाब के नाम से ड्राईविंग लाईसेंस बनवा लिया और बाद में उसे पत्रकार सम्मेलन में जारी किया। जब कोई कसाब बनकर लाईसेंस ले सकता है तो असली कसाबों को लाईसेंस लेने में क्या दिक्कत आयेगी? यह शर्मनाक स्थिति है।

प्रधानमंत्री डा¡. मनमोहनसिंह ने राष्ट्रमंडल खेलों की तैयारी में कोई कोताही न बरतने की सख्त हिदायत दी है। उनका कहना है कि अगर कोई कमी रह जाती है तो इससे भारत की अन्तर्राष्ट्रीय छवि धूमिल पड़ेगी। पर उन्होंने यह नहीं बताया कि लचर कानूनों और सरकारी अधिकारियों के भ्रष्ट व गैरजिम्मेदाराना व्यवहार के कारण भारत की छवि नित्य ही कैसे खराब होती जा रही है। राकेश सिंह अपने पुत्र की मौत से भारी दुखी हैं, जो स्वभाविक है। पर संताप के इन क्षणों को इन्होंने जनहित की लड़ाई के लिए ऊर्जा में बदलने का कार्य किया है। आवश्यकता इस बात की है कि सड़क परिवहन या कानून की जानकारी रखने वाले सभी लोग, चाहें वे देश के किसी भी हिस्से में क्यों न हों, इस विषय पर गम्भीर चिंतन करें कि राजमार्गों पर आये दिन होने वाली ऐसी दुर्घटनाओं को कैसे रोका जाये और उसके लिए कैसे कानून बनें?