दुनिया भर के संसाधनों का दोहन कर पिछले चार दशकों में सम्पन्नता के शिखर पर पहुचा पूरा अमरीकी समाज सुख सुविधाओं के सागर में डूब गया था। मेहनत कम और आमदनी ज्यादा। सामाजिक सुरक्षा की गारण्टी। कल्याणकारी राज्य के फायदे। नतीजा ये कि बिना कुछ करे भी मौज-मस्ती की गारण्टी। जैसे रोज रसगुल्ला खाया जाये तो आकर्षण समाप्त हो जाता है। ऐसे ही मौज-मस्ती के सभी पारंपरिक तरीके अमरीकी समाज में जब पिट गये तो नये तरीके खोजे जाने लगे। समलैंगिकता को महिमामंडित करना, बिना विवाह के साथ रहना और संतान उत्पन्न करना, कामोत्तेजक साहित्य, फिल्म, संगीत, उपकरण व सजीव शो इसी दिशा में किये गये कुछ बेहद सफल प्रयोग थे। पिछले दशक के प्रारम्भ तक इनका कारोबार खूब पनपा। फिर लोग उबने लगे। ऐसे में उपभोक्तावाद को बढ़ाने की दृष्टि से बाजार की शक्तियों ने टी.वी. जैसे सशक्त माध्यम को लोगों की मानसिकता बदलने का औजार बनाया। रियल्टी शो इसी प्रक्रिया का हिस्सा हैं।
जंगल में लोगों को खुला छोड़ देना और उनके जीवट का फिल्मांकन कर दिखाना वास्तव में एक रोमांचक रियल्टी शो है। आजकल भारत में दिखाये जा रहे ‘मुझे इस जंगल से बचाओ’ शो इसी भावना पर आधारित हैे। इसमें कथानक स्वंय विकसित होता है। पात्र नाटक न कर वास्तविक अभिव्यक्ति करते हैं। रोमांच, अवसाद और हर्ष के क्षण स्वभााविक रूप से आते-जाते रहते हैं। यह सब कुछ इतना सहज होता है कि दर्शक टी.वी. के पर्दे से चिपका रहता है। दावा किया जाता है कि ऐसे रियल्टी शो बच्चों और बढ़ों को मानसिक रूप से विषम परिस्थितियों का सामना करने के लिए तैयार करते हैं। पर हकीकत ये है कि आज के आधुनिक युग में जब संचार और यातायात के साधनों का जाल बिछ चुका है, ऐसी विषम परिस्थिति का सामना करने के हालात करोड़ों लोगों में से शायद ही किसी एक-दो के सामने आते हों। कुल मिलाकर पूरा खेल लोगों की तकलीफ को दिखाकर सनसनी पैदा करना, अपना शो लोकप्रिय बनाना और विज्ञापनों को बढ़ावा देना है। इन्हें देखकर जो दिल और दिमाग पर असर पड़ता है, उसके नुकसान का आंकलन अभी भारत में शुरू नहीं हुआ। पर पश्चिमी देशों में इस पर खूब अध्ययन हुये हैं। यही कारण है कि वहाॅ पढ़े-लिखे समझदार लोग टी.वी. को ‘बुद्धू बक्सा’ कहते हैं।
‘सच का सामना’ भी इसी क्रम में एक रियल्टी शो है, जिसकी मूल भावना बहुत घातक है। यह शो लोगों के निजी जीवन में इतनी कड़वाहट पैदा कर देता है कि भागीदार आत्महत्या तक करने को मजबूर हो जाता है। शो के प्रस्तुतकर्ता अपने समर्थन में कुछ भी तर्क क्यों न दें, सच्चाई तो यह है कि लोगों को पैसे का लालच देकर उनके निजी प्रसंगों का प्रसारण करना उस व्यक्ति ही नहीं उसके पूरे परिवार और परिवेश पर घात्क प्रभाव डालता है। पैसे की चाहत में भागीदार नुकसान का अनुमान नहीं लगा पाते और निर्माता रूपी बाजारू शक्तियों के शिकंजे में फंस जाते हैं। जैसे भोले-भाले किशोर नशीले दवाओं के सौदागरों के कब्जे में फंसकर यह भूल जाते हैं कि क्षणिक सुख उनका पूरा जीवन तबाह करने वाला है।
सच ही दिखाना है या सच का सामना ही करना है तो इस देश में ऐसा बहुत कुछ है जिसे दिखाकर देश के हालात सुधारे जा सकते हैं। आज देशी घी के नाम पर चर्बी बेची जा रही है। खाद्यानों और फल-सब्जियों में जहरीले रसायन मिलाये जा रहे हैं। विकास के कार्यक्रमों को लेकर जो लूट मची है, उससे आम जनता कितनी तबाह है। हमारा जीवन प्र्रक्रति के प्रति कितना असंवेदनशील हो गया है कि हम खुद ही अपने लिए और अपने बच्चों के लिए खाई खोद रहे हैं। बाजार की शक्तिया¡ किस तरह बाजार पर नियन्त्रण कर हमारे जीवन को स्थायी रूप से असुरक्षित और तनावग्रस्त बना रही हैं? ऐसा बहुत कुछ घट रहा है जिसे दिखाकर लोगों की भावनाओं को सद्मार्ग की ओर प्रेरित किया जा सकता है। उन्हें विकल्प बताये जा सकते हैं। जिससे समाज और राष्टृ को वास्तविक रूप में सुखी और सम्पन्न बनाया जा सकता है। पर ऐसे कार्यक्रम पहले ही कम थे, अब बिल्कुल गायब होते जा रहे हैं। खैनी का विज्ञापन देने वाले क्यों चाहेंगे कि लोग खैनी खाने के खतरों से आगाह किये जायें? वे ऐसे किसी कार्यक्रम को विज्ञापन नहीं देंगे। यही हाल दूसरे उत्पादनों का भी है। विज्ञापन मिलेगा उससे जिसका मुनाफा तगड़ा है। मुनाफा तगड़ा उसका होगा जो समाज का ज्यादा से ज्यादा अहित करेगा। ऐसा विज्ञापन देने वाला क्यों चाहेगा कि लोगों को जगाने वाले कार्यक्रम बनें? इसलिए लोगों को भयाक्रांत, विचलित, तनावग्रस्त व अनावश्यक रूप से चिन्तित करने वाले कार्यक्रम बनाये जा रहे हैं। लोगों की ‘फीयर साइका¡सिस’ यानि ‘भय की मानसिकता’ को भुनाने का जघन्य कार्य किया जा रहा है। डरा दिमाग जल्दी आत्मसमर्पण कर देगा। समर्पित दिमाग को काबू करना आसान होगा। फिर चाहे रासायनिक फ्रूटी बेचनी हो या आत्मघाती अन्य साजो सामान। जितने ये शो लोकप्रिय होते जायेंगे, उतना ही बाजारू शक्तियाॅं हमारे दिलो-दिमाग पर काबिज होती जायेंगी। फिर हम गुलाम की जिंदगी जीयेंगे और तब ये निहित स्वार्थ हमें अपना हर कचरा माल बेचने में सफल हो जायेंगे।
भारत का समाज नकारात्मक वस्तुओं से नहीं, सकारात्मक प्रतीकों से आनन्द लेता आया है। जितने त्यौहार, उत्सव व मेले भारत में होते हैं, इतने अन्यत्र नहीं। इनके माध्यम से गरीब और अमीर सब आनन्द लेते हैं और यह आनन्द नित्य बढ़ता ही है, घटता नहीं। जबकि बाजारू शक्तियों द्वारा दिये जा रहे मनोरंजन के पैकेज से अन्ततः जीवन में निराशा, घुटन, अकेलापन, व्याधि व दुःख आता है। इंसान जीवनी शक्ति खो देता है। अमरीकी समाज में पिछले दशकों में यही हुआ। फिर यह आक्रोश ‘हिप्पी संस्कृति’, अनैतिक यौनाचार, हिंसा और अपराध और अन्ततः आत्महत्याओं में परिणीत होता चला गया। इसलिए अब वहा के लोग तेजी से जाग रहे हैं और दुनियाभर में अपनी समस्याओं के समाधान के लिए आध्यात्मिक, सांस्कृतिक और पारंपरिक समाधान खोज रहे हैं। पर्यटन और अध्ययन के माध्यम से पूर्वी संस्कृति को जानने की कोशिश कर रहे हैं और हम सबकुछ होते हुये उनके कूड़े के ढेरों को अपने घर में सजाकर खुश होने का भ्रम पाल रहे हैं।