Sunday, August 9, 2009

खुफिया तंत्र का आतंकवाद

कभी दुनिया के देशों में राजनैतिक हत्यायें कराने वाली सी.आई.ए. आज ओबामा के अमरीकी प्रशासन में जाँच का सामना कर रही है। आंतकवाद के नाम पर पकड़े गये नौजवानों को जेल में दी गयी यातनाओं के लिए उनसे सवाल पूछे जा रहे हैं। मानवाधिकार से जुड़े संगठन ब्रिटेन में वहाँ की खुफिया एजेंसी एम17 को कचहरी में घसीट रहे हैं। नतीजतन इन देशों के खुफिया अधिकारी अब अपने काम में कानूनी सलाह लेने लगे हैं। आतंकवाद, मानवाधिकार और कानून का पालन इन तीनों के रिश्ते कभी मधुर नहीं रहे, विरोधाभासी रहे हैं।

आतंकवाद के लिए जिम्मेदार लोग अमानवीय हैं, पाश्विक हैं, निर्मम हैं, इसलिए उनके साथ कोई उदारता नहीं बरती जानी चाहिए। इस पर लगभग हर उस व्यक्ति की सहमति होगी जिसने आतंकवाद का सामना किया है या उसके खौफ में जी रहा है। इस मानसिकता के लोग मानवाधिकार या कानून की प्रक्रिया को आतंकवाद खत्म करने के रास्ते में रोड़ा मानते हैं। मुम्बई हमले का आरोपी आमिर कसाब जिसने छत्रपति शिवाजी स्टेशन पर दर्जनों निरीह लोगों को मौत के घाट उतार दिया, जिनमें हिन्दू और मुसलमान शामिल थे, उसका क्या मानवाधिकार बचा और क्या कानूनी हक बचा? इन दोनों ही प्रक्रियों को आतंकवाद के खात्मे में रूकावट मानने वाले पुलिस अधिकारी चाहें वे भारतीय पुलिस के हों या अमरीकी पुलिस के, मानते हैं कि आतंकवादी को देखते ही गोली मार देनी चाहिए। एक बार पंजाब के पूर्व पुलिस महानिदेशक के.पी.एस. गिल से एक जनसभा में प्रश्न पूछा गया कि एन.डी.ए. सरकार ने आतंकवादियों को कांधार जाकर  रिहा कर दिया, क्या आप इसे उचित मानते हैं? श्री गिल का उत्तर था, उन्हें गिरफ्तार ही क्यों किया गया? जब लोगों को यह उत्तर समझ में आया तो पूरे हाॅल में ठहाका लग गया। बिना कहे गिल का उत्तर था कि उन्हें पहले ही मार देना चाहिए था।

दूसरी तरफ मानवाधिकार वाले यह मानते हैं कि हर वह व्यक्ति जिसे पुलिस गिरफ्तार करती है, जरूरी नहीं कि आतंकवादी ही हो। शक के बिनाह पर गिरफ्तार किया गया नौजवान निर्दोष भी हो सकता है। जैसा कि न्यूयाॅर्कपर फ्राइडेफिल्म में दिखाया गया है। ऐसे नौजवानों को पूछताछ के नाम पर जो यातनाऐं दी जाती हैं, वह उसकी जिन्दगी तबाह कर सकती हैं। उसे न चाहते हुए भी आतंकवादी बनने पर मजबूर कर सकती हैं। अमरीकी प्रशासन के तहत 2002 में सी.आई.ए. ने पूछताछ के तरीकों के इजाफाका गुप्त निर्देश जारी किया था। जिसमें पूछताछ के लिए धरे गये कैदी को पानी में डुबो-डुबो कर तड़पाना, उसके चारों तरफ तेज रोशनियाँ जलाकर उसे खड़े रखकर कई दिनों तक सोने न देना, उसे पकड़कर दीवार से पटक-पटककर मारना, उसे इस तरह उल्टा लटकाना या बेहद तकलीफदेह स्थिति में रखना जिसमें उसकी हिम्मत जबाव दे जाये या उसे ऐसे तंग डिब्बे में बंद कर देना जिसमें आक्रामक जहरीले कीड़े हों, जो उसे बार-बार काटकर सतायें, जैसी यातनायें शामिल थीं। इन निर्देशों के तहत 11 सितम्बर, 2001 के अमरीकी हमले के मुख्य आरोपी खालिद शेख मोहम्मद को 183 बार पानी में डुबो-डुबो कर तड़पाया गया।

बराक ओबामा ने ऐसे सारे अमानवीय तरीकों पर पाबन्दी लगा दी है। इतना ही नहीं ग्वांतानामो खाड़ी में मौजूद अमरीकी जेल को एक वर्ष के भीतर बन्द करने की घोषणा भी की है। अमरीकी फौज की यह जेल युद्ध में गिरफ्तार किये गये सैनिकों और अफसरों की यातना के लिए विश्वभर में बदनाम हो चुकी है। जाहिर है कि सी.आई.ए. के अधिकारी राष्ट्रपति ओबामा के इन क्रांतिकारी कदमों से खुश नहीं हैं और यह मानते हैं कि इससे आतंकवाद के खिलाफ काम करने वाली एजेंसियों का मनोबल गिरेगा। पर दूसरी तरफ अमरीका और यूरोप के समाज में लगभग आधी आबादी इन सुधारों का समर्थन कर रही है। इन लोगों का मानना है कि इस तरह के अमानवीय व्यवहार से आतंकवाद खत्म होने की बजाय बढ़ेगा। ऐसे समुदाय का मानना है कि आतंकवादी के मानवाधिकारों और कानूनी अधिकारों की भी रक्षा की जानी चाहिए और उसे कचहरी में अपनी बात रखने का हक दिया जाना चाहिए। पर खुफिया एजेंसियाँ इससे सहमत नहीं हैं। उन्हें इस बात की चिन्ता है कि अगर अदालतेें इस तरह आतंकवाद से जुड़े मामलों में हर कार्यवाही पर प्रश्नचिन्ह खड़े करेंगी और उनके पीछे तर्क व प्रमाण मांगेगी तो उनके लिए काम करना असंभव हो जायेगा। वे दावा करती हैं कि उनके ऐसे सख्त रवैये के कारण ही अमरीका में 9/11 के बाद से आज तक कोई आतंकवादी घटना नहीं हुयी। दरअसल खुफिया एजेंसियों का काम करने का तरीका अनादिकाल से खुफिया ही रहा है। वे दूसरे देशों में अफवाह फैलाने, सरकारी तंत्र के लोगों को रिश्वत देने, राजनैतिक हत्याऐं कराने, षडयंत्र रचने और समाज में अराजकता फैलाने का काम हमेशा से करती आयी हैं। महान राजनीतिज्ञ चाणक्य पण्डित ने खुफिया एजेंसियों के काम के तरीकों के बारे में विस्तार से लिखा है और उनके काम के महत्व की स्थापना की है। जो राष्ट्र की सुरक्षा के लिए किया जाता है। े

भारत जैसे देश में जहाँ आतंकवादियों को राजनेताओं, पुलिस अधिकारियों व हवाला कारोबारियों का संरक्षण और समर्थन हासिल है, वहाँ तो शायद इस बहस की अभी सार्थकता स्थापित होने में समय लगेगा। क्योंकि हमारी समस्या तो ये है कि हमारा तंत्र भ्रष्टाचार और कामचोरी के कारण आतंकवाद को सीधे या परोक्ष रूप से समर्थन दे रहा है।

दरअसल इस पूरे मामले का एक पक्ष और भी है, जो कहता है कि कोई आतंकवादी बनता क्यों है, इसकी जाँच की जानी चाहिए। साम्यवादी बंगाल में भी हिंसक नक्सलवादी आंदोलन इसलिए शुरू हुआ क्यांेकि साम्यवाद का ढिढांेरा पीटने वाली पश्चिमी बंगाल की सरकार अपनी जनता के बुनियादी हक भी सुनिश्चित नहीं कर सकी। मजबूरन युवाओं को आतंकवाद व हिंसा का सहारा लेना पड़ा। यही बात देश के अन्य हिस्सों पर भी लागू होती है, जहाँ बलात्कार के बाद भी पुलिस से राहत न मिलने के कारण बलात्कार की शिकार हुयी युवती नक्सलवादी या डाकू बन जाती है और बन्दूक उठा लेती है। कानून का समान रूप से लागू न होना, आर्थिक विषमताओं का बढ़ते जाना, एक संस्कृति पर बाहरी संस्कृति थोपना, कुछ ऐसे कारण हैं जो हताशा और हिंसा को जन्म देते हैं, जिनकी जाँच की जानी चाहिए। इसलिए राष्ट्र की सुरक्षा और कानून का पालन दोनों जरूरी हैं। पर इस उदारता के साथ कि हम हिंसा के कारणों को भी जानने और दूर करने के लिए ईमानदारी से प्रयास करें। अन्यथा समाज में अशांति बढ़ेगी।

Sunday, August 2, 2009

हाई प्रोफाइल अपराधों में कैसे हो गवाहों की सुरक्षा?

ऐसे मामलों की फेहरिस्त बहुत लंबी है जब अपराधी किसी पैसे वाले, बड़े राजनेता या नामी परिवार का कुलदीपक होता है तो कितने भी गवाह क्यों न हों, आखिर तक टिके नहीं रहते। अपने बयान से मुकर जाते हैं। बार-बार बयान बदलते हैं। साफ जाहिर है कि उन्हें मुंह मांगी रकम देकर खरीद लिया जाता है या उन्हें डरा धमकाकर खामोश कर दिया जाता है। इसलिए अब सर्वोच्च न्यायालय ऐसे मामले में संवेदनशील हो गया है। हाल ही में माननीय न्यायाधीशों ने कहा, ‘‘हमारे देश में गवाहों की सुरक्षा की बहुत जरूरत है।’’

संजीव नंदा के बी.एम.डब्ल्यू मामले में चश्मदीद गवाह सुनील कुलकर्णी को न्यायालय में कड़ी फटकार लगाई गई और उसके खिलाफ कानूनी कार्यवाही करने के आदेश दिये गये। अदालत को इस बात पर नाराजगी है कि सुनील कुलकर्णी ने इस मामले में बार-बार बयान बदले हैं। भारतीय नौसेना के पूर्व एडमिरल के पोते संजीव नंदा पर आरोप है कि उसने 10 जुलाई, 1999 की रात अपनी बी.एम.डब्ल्यू कार से दिल्ली की लोदी रोड पर 6 लोगों को कुचल कर मार डाला। हथियारों के सौदे में बडे स्तर का अंतर्राष्ट्रीय कारोबार करने वाले नंदा परिवार के इस नौनिहाल को लेकर देश में बहुत बहस चली। गवाह के मुकर जाने से अब संजीव के बरी होने का समय आ गया है।

दक्षिणी दिल्ली के एक पाॅश इलाके में जैसिका लाल की हत्या कुलीन लोगों की शराब पार्टी के बीच दर्जनों चश्मदीद गवाहों की मौजूदगी में हुई। जिनमें राजनेता, पुलिस आधिकारी, नामी वकील व दिल्ली की मशहूर हस्तियां शामिल थीं। पर 29 गवाहों के मुकर जाने से इस मामले में पूर्व राष्ट्रपति का पोता मनु शर्मा बरी हो गया। यही बात 2002 के वदोदरा के साम्प्रदायिक दंगे के मशहूर बेस्ट बेकरी केस में भी हुई। पूर्व सांसद अहसान जाफरी की हत्या के मामले में चश्मदीद गवाह जाहिरा शेख ने बार-बार बयान बदल कर मामले को पेचीदा बना दिया। उसे अदालत की खासी फटकार मिली। इतना ही नहीं दिल्ली के एक छोटे व्यापारी ललित सुनेजा की पत्नी वीना सलूजा अपने ही पति की हत्या के मामले में अपने बयान से मुकर गई। नतीजतन अंडर वल्र्ड सरगना बबलू श्रीवास्तव इस मामले में बरी हो गया।

इस देश में बेगुनाह गरीबों को बरसों जेल के सीखचों में डालकर रखा जाता है। उनके खिलाफ आरोप पत्र तक दाखिल नहीं होते। आम आदमी को न्याय के लिए बरसों अदालतो ंके धक्के खाने पड़ते हैं। पर रईसजादों के अपराधों पर पर्दा डालकर उन्हें जल्दी से जल्दी बरी करा लिया जाता है। क्योंकि इन मुकदमों के गवाहों को अपराधी पक्ष द्वारा मैनेजकर लिया जाता है। चूंकि इन गवाहों की सुरक्षा की कोई व्यवस्था नहीं है इसलिए भी कुछ गवाह मुकर जाते हैं। कुछ बरस पहले मैं एक व्याख्यान देने कोलकाता गया। मेरे मेजबान का भतीजा चार्टड एकाउंटेंड था और बेहद भयभीत था। उसे धनबाद के कोयला खान माफिया के खिलाफ रांची की अदालत में सीबीआई की तरफ से गवाही देनी थी। वो जाने से घबरा रहा था। क्योंकि खान माफिया ने उसे फोन पर जान से मारने की धमकी दी थी। इधर सीबीआई अदालत में पेश न होने पर उसके खिलाफ कानूनी कार्यवाही करने की धमकी दे रही थी। उसकी पत्नी रो-रोकर बेहाल थी। मैंने सीबीआई के तत्कालीन निदेशक श्री त्रिनाथ मिश्रा से वहीं से बात की और उनसे अनुरोध किया कि इस व्यक्ति को कोलकाता से रांची सुरक्षित लाने ले जाने की जिम्मेदारी उनके क्षेत्रीय अधिकारी सुनिश्चित कर दें। यह व्यवस्था हो गई और वह अगली तारीख पर गवाही दे आया। पर ऐसी व्यवस्था हर उस गवाह के लिए नहीं होती जिसे ऐसी विषम परिस्थतियों का सामना करना पड़ता है। एक तरफ कुंआ दूसरी तरफ खाई। गवाह करे तो क्या करे?

आपराधिक कानून में गवाह एक अत्यंत महत्वपूर्ण पक्ष होता है। हत्या व बलात्कार जैसे संगीन जुर्मों के अपराधी भी गवाह के अभाव में अक्सर छूट जाते हैं। जांच ऐजेंसियों को मुकदमे को अंतिम परिणाम तक ले जाने के लिए अपराध के सबूतों के साथ गवाहों को भी ढू़ंढने की भारी कवायद करनी पड़ती है। कानून की प्रक्रिया की जटिलता के चलते आसानी से कोई गवाह बनने को तैयार नहीं होता। उसे डर होता है कि गवाह बनकर उसकी जिंदगी बरबाद हो जायेगी। उसके लिए मुश्किलें बढ़ जायेंगी। ऐसे में अगर कुछ लोग हिम्मत करके अपनी अंतरआत्मा की आवाज पर गवाही देने को तैयार हो जाते हैं तो समाज को उनका आभार मानना चाहिए। कानून की प्रक्रिया को चलाने में मदद देने वाले इन लोगों को यह आश्वासन मिलना चाहिए कि उन्हें गवाही देकर परेशानी में नहीं डाला जायेगा। इतना भी न हो तो कम से कम उनकी सुरक्षा की व्यवस्था तो सरकार को करनी ही चाहिए।

ऐसा नहीं है कि देश के न्यायविद्ों को इस समस्या का अहसास नहीं है। भारत के विधि आयोग की  14वीं, 154वीं व 172 वीं रिपोर्ट में गवाहों की सुरक्षा को लेकर कई सुझाव दिये गये। जिन पर कायदे से अमल नहीं किया गया। 2003 में एक मामले की सुनवाई करते हुए सर्वोच्च न्यायालय ने कहा था कि इस देश में गवाहों की सुरक्षा के लिए न तो कोई कानून है और न ही केन्द्र और राज्य सरकारों ने कोई नीति ही बनाई है।

कई बार यह बात उठी कि ऐसे संनसनीखेज मामलों में, जिनमें ताकतवर लोग अपराधी हों, गवाहों की पहचान को छिपा दिया जाए। पर न्यायाविद् इससे सहमत नहीं है। कानून के मुताबिक अपराधी को भी गवाह से अदालत में सवाल पूछने को हक होता है। अगर गवाह की पहचान छिपा दी जायेगी तो कानून की प्रक्रिया में बाधा उत्पन्न होगी। इसलिए मौजूदा व्यवस्था में ही गवाहों की सुरक्षा सुनिश्चित करने के कानूनी और प्रशासनिक कदम उठाने की जरूरत है। हाई प्रोफाइल मुकदमों में देश की जनता के सामने व मीडिया में हो रही ऐसे मुकदमों की किरकिरी से सबक लेकर व सर्वोच्च न्यायालय की इस पहल से केन्द्र व राज्य सरकारें अब इस गंभीर मुद्दे की उपेक्षा नहीं कर सकती। उन्हें गवाहों की सुरक्षा के लिए कानून बनाना ही होगा। यह बात दीगर है कि कानून बनने के बाद उसे लागू करवाना भी आसान नहीं होगा। पर पहले आगाज़ तो हो, अंजाम फिर देखा जायेगा।

Sunday, July 26, 2009

कलाम की बेकद्री या वी.आई.पी. बनने की होड़

अमरीका की का¡टींनेंटल एअरलाइंस ने भारत के पूर्व राष्ट्रपति ए.पी.जे. अब्दुल कलाम के जूते क्या उतरवा दिए कि हिन्दुस्तान के वी.आई.पीयों ने तूफान खड़ा कर दिया। मजे की बात ये है कि आम आदमी की तरह शालीनता से जिन्दगी जीने वाले डा¡. कलाम को इसमें कुछ भी नागवार नहीं लगा। उन्हें आश्चर्य है कि जिस मुद्दे पर वे चार महीने तक कुछ नहीं बोले उस पर आज अचानक शोर क्यों मचाया जा रहा है? वैसे तो एअरलाइंस ने इस मामले पर माफी मांग ली है। लेकिन यह पूरा मामला कई बुनियादी सवाल खड़े करता है।

हमारे देश के संविधान में कानून की नजर में सब समान है। पर हकीकत में ऐसा नहीं है। इस देश में दो जाति हैं, एक वोटर की और एक लीडर की। सारे कानून वोटरों पर लागू होते हैं। लीडर का मतलब ही है, जिस पर कोई कानून लागू न होता हो। मसलन अगर कहीं नो एण्ट्रीं का बोर्ड लगा है तो आम आदमी चुपचाप वहाँ से मुड़ जाता है। पर लाल बत्ती वाली गाड़ी में बैठा हुआ लीडर जिद्द करता है कि वो वहीं से आगे जायेगा। दिल्ली के प्रगति मैदान में औद्योगिक मेले के दौरान हर आदमी अपनी कार बहुत दूर बनी पार्किंग में खड़ी करके चलकर आता है। पर कितनी भी भीड़ क्यों न हो, कितने भी लोगों को असुविधा क्यों न हो, वी.आई.पी. गाड़ी उसी भीड़ को चीरकर गेट तक जाती है और उससे उतरने वाले साहब-मेमसाहब चारों ओर ऐसे नजर घुमाते हैं मानों वे किसी दूसरे ग्रह से उतरकर आये हों!

अस्पताल में भर्ती होना हो या रेलवे में आरक्षण कराना हो। इतना ही नहीं मन्दिर में दर्शन करने के लिए भी वी.आई.पी. कतार अलग लगती है। ये कैसा लोकतंत्र है? का¡टींनेंटल एअरलाइंस उस अमरीकी देश की है जहाँ एक विद्वान या वैज्ञानिक को राजनेता से ज्यादा सम्मान दिया जाता है। यह उस अमरीका की है जहाँ किसी हवाई जहाज में वी.आई.पी. के लिए कोई सीट आरक्षित नहीं होती। यह उस देश की है जहाँ सुरक्षा जाँच में केवल मौजूदा राष्टपति जैसे महत्वपूर्ण व्यक्तियों को छोड़कर और किसी को जाँच के नियमों से मुक्त नहीं किया जाता। जहाँ कोई वी.आई.पी. पार्किंग नहीं होती। जहाँ सांसद और अफसर सुरक्षा कर्मियों के साथ रौब गांठते नहीं घूमते बल्कि आम आदमी की तरह खरीदारी करते हैं, होटल और सिनेमा हा¡ल में जाते हैं और लाइन में लगकर टिकट खरीदते हैं। ऐसे में अगर उस देश की एअरलाइंस में डा¡. कलाम की सुरक्षा जाँच की तो उनके कानून के मुताबिक इसमें कुछ भी असमान्य नहीं है। हाँ हमने कानून बनाकर कुछ विशिष्ट व्यक्तियों को हवाई अड्डों पर सुरक्षा जाँच से मुक्त रखा है। जिनमें भारत के सभी पूर्व राष्टपति भी आते हैं। इस लिहाज से एअरलाइंस के कर्मचारियों का व्यवहार भारतीय कानून का उल्लंघन जरूर है। पर इस क्रिया के पीछे की मानसिकता को समझने की जरूरत है। काॅटींनेंटल एअरलाइंस के कर्मचारियों के लिए अपने कर्तव्य का पालन बहुत महत्वपूर्ण है। जिसमें वे कोई कोताही नहीं बरतना चाहते। इसलिए उन कर्मचारियों ने जो कुछ किया वह उनकी कर्तव्यनिष्ठा के रूप में देखा जाना चाहिए। इस घटना पर शोर मचाकर हम अपनी भावनाओं को भड़का तो सकते हैं, पर इससे हम अपने ही लिए कांटें बोते हैं। अगर अमरीकी वायुसेवाऐं और वहाँ के हवाई अड्डे सुरक्षा जाँच के नियमों का इतनी कड़ाई से पालन नहीं करते तो क्या यह कैसे सम्भव था कि 11 सितम्बर के बाद से आज तक अमरीका में एक भी आतंकवादी घटना नहीं हुई। हमारे यहाँ जब बार-बार आतंकवादी घटना होती है तो हम सुरक्षा व्यवस्था की खामियों की ओर नजर दौड़ाते हैं और सरकार की लचर व्यवस्था की धज्जियाँ उड़ाते हैं। इसीलिए हमारे  देश में बार-बार आतंकवादी घटनाऐं होती हैं। इस तरह अपने को वी.आई.पी. बताकर धौंस जमाने वाले लोग सुरक्षा कर्मियों का मनोबल गिरा देते हैं। उन्हें चिल्ला-चिल्लाकर जलील करते हैं। बात-बात पर अपने कौन हूँ मैं, बता दूंगाका उद्घोष करते हैं। निष्ठापूर्वक सुरक्षा जाँच में जुटे कर्मचारियों को तबादला करवाने की धमकी देते हैं। ऐसे माहौल में रहकर हमारे सुरक्षाकर्मी कई बार मन से टूट जाते हैं। फिर उनसे लापरवाही हो जाना स्वाभाविक है।

जरूरत इस बात की है कि का¡टींनेंटल एअरलाइंस की इस घटना पर उत्तेजित होने की वजाए संसद में एक खुली बहस हो जिसमें इस बात पर विचार किया जाए कि हमारे देश में जो वी.आई.पी. बनने की होड़ लग गयी है उसे कैसे रोका जाए? गृहमंत्री चिदंबरम बिना सुरक्षा कवच के रहकर काम करना चाहते हैं, तो विधायकों, सांसदों और मंत्रियों को इतने सुरक्षाकर्मियों और एस्का¡र्ट गाडि़यों की जरूरत क्यों पड़ती है? यह भी बहस होनी चाहिए कि लोकतंत्र में इस तरह विशिष्ट व्यक्तियों को रेखांकित करने से क्या देश का भला हो रहा है या नुकसान? प्रस्ताव आना चाहिए कि केवल राष्टपति, प्रधानमंत्री, मुख्य न्यायाधीश, मुख्यमंत्री और राज्यपाल के अलावा और किसी भी पद पर बैठे व्यक्ति को वी.आई.पी. न माना जाए। पर ऐसा प्रस्ताव लायेगा कौन? कौन चाहेगा कि उसके कमाण्डो हटा दिये जायें और उसे बिना लालबत्ती की गाड़ी में घूमने को मजबूर किया जाये। इसलिए इस गम्भीर विषय पर कभी चर्चा नहीं हुई। चर्चा होगी तो इस बात पर कि देश के पूर्व राष्ट्रपति की सुरक्षा जाँच करके का¡टींनेंटल एअरलाइंस ने देश को अपमानित किया है। यह भावना से जुड़ा मुद्दा है और इस पर कितना भी शोर मचाया जा सकता है। पर उससे कोई समाधान नहीं निकलेगा। डा¡. कलाम को चाहिए कि वे खुद ही वी.आई.पी. मानसिकता के खिलाफ एक अभियान शुरू करें और देशवासियों को यह बतायें कि कानून की नजर में सब बराबर हैं। न कोई वी.आई.पी. है और न कोई वी.ओ.पी.। सब समान हैं और सबके लिए नियम और कानून एक से ही लागू होते हैं।

Sunday, July 19, 2009

जाके पांव ना फटी बिवाई

36 सांसद और पूर्व मंत्री नई दिल्ली के महलनुमा सरकारी बंगले अवैध रूप से कब्जा करे बैठे हैं। जिनमें रामविलास पासवान, जार्ज फार्नाडीज, शंकर सिंह बाघेला व सुखवीर सिंह बादल शामिल हैं। कानून के मुताबिक चुनाव हारने या पद से हटने के 30 दिन बाद इन्हें ये बंगले खाली कर देने चाहिए। अन्यथा इन पर एक लाख रूपया महीना किराया चढ़ता है और यह भी सीमित समय तक ही करना संभव है। इन नेताओं की इस जबरदस्ती के कारण सर्वोच्च न्यायालय के पांच न्यायाधाीशों की नियुक्ति रूकी पड़ी है। क्योंकि उन्हें देने के लिए सरकार के पास बंगले नहीं है। इस कारण पहले से लंबित पड़े मुकदमों में और देरी हो रही है।

प्रश्न उठता है कि लोकतंत्र के कर्णधारों को आम जनता का वोट मिलने के बाद आम जनता से काटकर रातों रात राजसी ठाट-बाट क्यों दिया जाता है? क्यों उनकी आदत बिगाड़ी जाती है? क्यों उनके वैभव पर गरीब जनता के कर का पैसा बर्बाद किया जाता है? इंग्लैंड व अमरीका दो देशों के संविधान से नकल करके हमने अपने लोकतंत्र की कई परंपरायें स्थापित की हैं। यह दोनों ही देश भारत के मुकाबले कई ज्यादा संपन्न हैं। पर इन देशों में भी सांसदों और नेताओं को लंदन या वाशिंगटन डीसी में अपने परिवार के साथ रहने को बंगला या अपार्टमेंट नहीं मिलता। केवल एक काम चलाऊ यूनिट मिलती है जिसमें वह अपना दफ्तर चला सकते हैं। जब इतने धनी देश अपने नेताओं पर यह फिजूल खर्चे नहीं करते तो हम क्यों नहीं इस बर्बादी को रोकते? ममता बनर्जी जैसे राजनेता कम ही हैं, पर यह सिद्ध करने के लिए काफी है कि बड़े से बड़ा और गंभीर से गंभीर मंत्रालय संभालने वाले व्यक्ति को भी बंगले की जरूरत नहीं होती। पहली यूपीए सरकार में गृहमंत्री रहे इन्द्रजीत गुप्ता मंत्री बनने के बाद भी जनपथ स्थित वैस्टर्नकोर्ट के अपने सरकारी फ्लैट में ही रहते रहे व गृहमंत्री के लिए आवंटित बड़ा बंगला लेने से मना कर दिया।

होता यह है कि जब आप किसी छोटे से गांव, कस्बे या शहर से चुनाव जीत कर आये पार्टी के एक कार्यकर्ता को रातों-रात राजसी ठाट-बाट मुहैया करा देते हैं तो उसका जमीन से नाता टूट जाता है। उसका परिवार दिल्ली आकर बस जाता है। जिससे अपने मतदाताओं से उसका रहा बचा संबंध भी समाप्त होने लगता है। उसे पता ही नहीं चलता कि जनता कैसे रह रही है। यह लोकतंत्र के हित में नहीं है। जरूरत इस बात की है कि इन सांसदों व नेताओं को दिल्ली में या प्रांतों की राजधानी में दो-दो कमरे के फ्लैट दिये जांए जिनमें इनका कार्यालय चले और यह स्वयं संसद या विधान सभाओं के अधिवेशन के दौरान दिल्ली या राज्यों की राधानी में रह सके। जबकि हर सांसद या विधायक के लिए अपने परिवार को अपने संसदीय या विधान सभा क्षेत्र में ही रखना अनिवार्य होगा। इससे न सिर्फ भारी फिजूल खर्ची बचेगी बल्कि राजनेताओं में अपने मतदाताओ के प्रति जिम्मेदारी का भाव भी बढ़ेगा।

आर्थिक संकटों से जूझती सरकारें अपने सांसदों और विधायकों और मंत्रियों के लिए बनाए गए बंगलों को पर्यटन विभाग को सौंप कर उनका व्यवसायिक लाभ उठा सकती हैं या उनमें सामाजिक सारोकार के कार्यक्रम चला सकतीं हैं। जिनमें भाग लेने आने वाले देशभर के आम लोगों को इन बंगलों के खुले बगीचों में बैठकर देश की समस्याओं पर आपस में विचार विमर्श करने का मौका मिल सके। दिल्ली में सरकारी बंगलों को हासिल करने के लिए हमेशा मार मची रहती है। बड़े से बड़े अधिकारियों या अन्य आवंटियों की कोशिश बढि़या से बढि़या बंगला हथियाने की रहती है। बंगला मिलने के बाद कुछ लोग तो अपने या अपने मंत्रालय के साधनों से पचासों लाख रूपया इन बंगलों की साज-सज्जा पर खर्च करते हैं। जिसके लिए इनके पास कोई वैध अनुमति भी नहीं होती। इसमें कुछ क्षेत्रीय दलों को छोड़कर हर दल के नेता शामिल हैं। सुरेश कलमाडी व अमर सिंह के बंगले देखकर तो लगेगा ही नहीं कि यह कोई सरकारी बंगला है। इस प्रवृति का कारण यह है कि जिस नेता को मंत्री बनने के बाद बंगला मिल गया तो वे उसे निजी जायदाद समझने लगते हैं और उसमें इतना रूपया यही सोचकर लगाते हैं कि वे अब जीवन भर यहीं रहने वाले हैं।

यदि सांसदों व विधायकों को बंगले और फ्लैट मिलने बंद हो जांए और उन्हें भी शहर में रहने वाले लोगों की तरह अपने लिए आवास किराये पर ढूंढना हो तो उन्हें जिंदगी की हकीकत दिखाई देगी। वे जान पाऐंगे कि बिना बिजली आए, बिना पानी मिले, बिना चारों तरफ सफाई हुए आम आदमी कैसी जिंदगी जी रहा है। एक कहावत है कि, ‘‘जाके पांव ना फटी बिवाई, वो क्या जाने पीर पराई’’

मुश्किल इस बात की है कि संसद और विधान सभा में अन्य मुद्दों पर आसमान सिर पर उठा लेने वाले राजनैतिक दल जब सांसदों और विधायकों की सुविधाओं का सवाल आता है तो बिना हिचक एकजुट व एकमत हो जाते हैं और हर उस प्रस्ताव को झट से पारित कर देते हैं जिसमें उनकी सुविधायें बढ़ रही हों और हर उस कदम का विरोध करते हैं जहां उन पर अंकुश लगाने की बात सामने आती है। ऐसे में बिल्ली के गले में घंटी कौन बांधेगा? लोग कस्बों और शहरों में बिजली और पानी को तरसते रहेंगे और यह राजनेता इसी तरह जनता के पैसे पर राजसी जीवन जीते रहेंगे।

Sunday, July 12, 2009

समलैंगिकता पर नया बवाल

दिल्ली उच्च न्यायालय के निर्णय के बाद से समलैंगिकता को लेकर देश में एक नई बहस छिड़ गई है। नाज़ फाउण्डेशन वाले और समलैंगिक जीवन जीने वाले इस निर्णय से बेहद उत्साहित हैं। उन्हें खुशी है कि अब वे अपने सम्बन्धों को खुलकर जी सकेंगे। दूसरी तरफ अनेक धर्माचार्य इसके विरूद्ध उठ खड़े हुए हैं। बाबा रामदेव से लेकर मुसलमान, जैन, सिख, ईसाई सभी सम्प्रदायों के धर्म गुरूओं ने साझे मंच से इसका विरोध शुरू कर दिया है।  उनका तर्क है कि अप्राकृतिक यौनाचर अनैतिक कृत्य है जिसे वैधानिक छूट नहीं दी जा सकती। दूसरे भी अनेक महत्वपूर्ण व्यक्तियों व कुछ राजनेताओं ने दिल्ली उच्च न्यायालय के इस निर्णय के विरूद्ध जोरदार हमला बोला है। रोचक बात यह है कि हमला बोलने वाले इन लोगों में एक बड़े नेता ऐसे भी हैं जिन्हें कुछ दशक पहले अप्राकृतिक यौनाचार के कारण अपने दल के जयपुर कार्यालय से निकाल दिया गया था। सार्वजनिक जीवन में दोहरे मापदंड रखना आम बात है। सारी दुनिया में अगर अप्राकृतिक मामलों की जाँच गहराई से जाँच की जाए तो उसमें धर्माचार्यों की संख्या कम नहीं रहेगी। एक कृष्णभक्त संस्था के धर्मगुरू किशोरों के साथ यौनाचार के आरोप में अमरीका में एक बड़ा मुकदमा हार चुके हैं और उन्हें सैंकड़ों करोड़ रूपए का मुआवजा देना पड़ रहा है। फौज, पुलिस और जल सेना में जहाँ स्त्री संग संभव नहीं होता, इस तरह के यौनाचार के मामले अक्सर सामने आते रहते हैं।

प्रश्न उठता है कि क्या अप्राकृतिक यौनाचार नैतिक रूप से उचित है? क्या इसे कानूनी मान्यता दी जा सकती है? क्या इस विषय पर इस तरह खुली बहस की आवश्यकता है? क्या अप्राकृतिक यौनाचार से समाज में एड्स जैसी बीमारी बढ़ रही है?

जहाँ तक नैतिकता का सवाल है, इसके मापदंड अलग-अलग समाजों में अलग-अलग होते हैं। फिर भी यह मानने में कोई संकोच नहीं होना चाहिए कि अप्राकृतिक यौनाचार एक स्वस्थ मानसिकता का परिचायक नहीं। किसी व्यक्ति के इस तरफ झुकने के कारण जो भी रहे हों पर इस तरह की मानसिकता वाले लोग समाज में अटपटे तो लगते ही हैं। भले ही उसका असर बहुत सीमित रहता हो। हाँ, इस कृत्य को नैतिक बिल्कुल नहीं कहा जा सकता। पर जिस तरह समाज में ज्यादातर लोग अलग-अलग क्षेत्रों में अलग-अलग स्तर पर नैतिक या अनैतिक आचरण करते हैं, ऐसे ही सैक्स के मामले में भी अलग-अलग स्तर हो सकते हैं। सवाल है कि कोई समलैंगिक है या विषम लैंगिक यह समाज में मुक्त चर्चा का विषय क्यों होना चाहिए? क्या पति-पत्नी के शयन कक्ष के रिश्तों पर सड़कों पर बहस होती है? अगर नहीं तो दो युवकों या युवतियों के निजी सम्बन्ध को लेकर इतना बवाल मचाने की क्या जरूरत है?

दरअसल यह उसी पश्चिमी मानसिकता की देन है जो 364 दिन तो अपने माँ-बाप को ओल्ड ऐज होममें पटक देती है और एक दिन मदर्स डेया फादर्स डेका जश्न मनाकर अपने मातृ या पितृ प्रेम का इजहार करती है। उनके पोस्टरों पर छपा होता है इफ यू लव समवन - शो इट। हमारे देश में भी समलैंगिकता को लेकर साहित्य, चित्र व वास्तुकला उपलब्ध है। खुजराहो के मन्दिर में ही इस तरह का एक शिल्प है जहाँ गाइड बताते हैं कि यह गुरू व शिष्य में और एक सिपाही व घोड़े में अप्राकृतिक यौनाचार हो रहा है। पर इस विषय पर चर्चा करने की या उस पर शोर मचाने की हमारे यहाँ कभी प्रथा नहीं रही। आज भी अगर सर्वेक्षण किया जाए तो इस तरह का यौनाचार करने वालों की संख्या नगण्य है।

जहाँ तक अप्राकृतिक यौनाचार से एड्स फैलने का खतरा है तो इस भ्रम को बार-बार वैज्ञानिक रूप से झूठ सिद्ध किया जा चुका है। कुन्नूर (केरल) की एक संस्था ने तो नाको को बार-बार नाकों चने चबवाए हैं। नाको का भारत में एड्स मरीजों की संख्या के सम्बन्ध में बार-बार अपने आँकड़ों का बदलना इसे सिद्ध करता है।

नाज़ फाउण्डेशन ने जब यह याचिका दाखिल की तो उनका कहना था कि वे समलैंगिकों पर हो रहे पुलिस अत्याचार को रोकने के लिए यह कोशिश कर रहे हैं। अगर यह कोशिश संजीदगी से अपने मकसद को हासिल कर लेती है तो शायद इतना बवाल न मचता। पर अब तो ऐसा लगता है कि यह विषय काफी दिनों तक चर्चा में रहेगा और सैक्स को उद्योग की तरह चलाने वाले लोग इस माहौल का फायदा उठाते रहेंगे।

जरूरत इस बात की है कि इस पूरे मामले पर समाज कल्याण मन्त्रालय एक गहन अध्ययन करवाकर इन लोगों की समस्याओं का व्यवहारिक निदान खोजने का प्रयास करे। जो जैसे जीना चाहता है जिए, पर उसका भौंडा प्रदर्शन न हो। वैसे भी लोग अपने निजी जीवन में क्या करते हैं, यह कोई सड़क पर बताने नहीं आता। इसे सामाजिक दायरों में बहस का विषय न बनाया जाए। यह ठीक वही बात हुई कि देश में 80 फीसदी लोग पीने के गन्दे पानी के कारण बीमार पड़ते हैं पर देशभर में हल्ला एड्स का मचा हुआ है। न जाने कैसी महामारी आ गई जो पिछले 10 वर्षों से स्वास्थ्य मन्त्रालय की सबसे बड़ी प्राथमिकता बनी हुई है। मजाक ये कि अगर नाको के 10 साल पुराने आँकड़े देखें तो अब तक भारत में सारी आबादी को एड्स से मर जाना चाहिए था। पर ऐसा कुछ नहीं हुआ और न होगा। सारा खेल कुछ और ही है। इसी तरह समाज में बढ़ते सैक्स और हिंसा पर मीडिया में बवाल मचाकर एक पूरा उद्योग फल-फूल रहा है। वह उद्योग एड्स जैसे मुद्दों को हवा देकर अपना उल्लू सीधा करता रहता है।

इसलिए इस पूरे मामले को भी इसी दृष्टि से समझना चाहिए। हमारे सामने इससे कहीं गंभीर समस्याऐं मुँह बाएँ खड़ी हैं और हम उनकी तरफ देख भी नहीं रहे।

Sunday, July 5, 2009

रेल बजट अलग क्यों ?

ममता दीदी का रेल बजट आ गया। सरल, सीधा और लोकप्रिय। दीदी को वाह वाही मिली। कुछ लेख इस पर इस हफ्ते छपेंगे। फिर सब समान्य हो जायेगा। पर हम कुछ बुनियादी सवाल उठा रहे हैं। जिनके जवाब और समाधान ममता बनर्जी को देने चाहिए।

रेल बजट अलग क्यों बनता है? पूरी दुनिया में किसी भी देश में रेल बजट अलग से प्रस्तुत नहीं किया जाता। भारत के संविधान में भी इसका कोई प्रावधान नहीं है। केवल एक परंपरा है जो अंग्रेज हुक्मरानों ने डाली थी। जिससे हम ढ़ो रहे है। बिना सोचे बिना समझे। अलग बजट का मतलब पूरी कैबिनेट का इसमें योगदान न होना। इसका मतलब यह कि रेल बजट भारत सरकार का न होकर केवल रेल मंत्री नाम के एक व्यक्ति का होता है। फिर वह चाहे जाॅर्ज फर्नाडीज हाs, लालू यादव हों या ममता बनर्जी हाs। रेल बजट एक व्यक्ति की सोच, अहमकपन या राजनैतिक महत्वाकांशा को दर्शाता है। लोकतंत्र में इसकी कोई गंqजाइश नहीं होनी चाहिए। रेल मंत्रालय क्या कोई निजी उद्योग है? जो इसे सरकार के मूल बजट से अलग बजट बनाने की छूट मिली हुई है? क्या रेल मंत्रालय भारत की संप्रभुता से अलग कोई स्वतंत्र राजनैतिक इकाई है? ऐसा कुछ नहीं है। फिर इस परंपरा को तोड़ा क्यों नहीं जाता? इस बजट की प्रस्तुति पर क्यों अनावश्यक खर्च किया जाता है? तर्क हो सकता है रेल मंत्रालय बहुत विशाल है। इसका अर्थ तो यह हुआ कि रक्षा, शिक्षा, प्रेट्रोलियम, ग्रामीण विकास व कृषि जैसे मंत्रालय भी अपने आकार के कारण अपने बजट अलग-अलग प्रस्तुत कर सकते हैं। अलग रेल बजट प्रस्तुत करने की इस गलत परंपरा को ममता बनर्जी तोड़ सकती है।

ममता बनर्जी अन्य राजनेताओं से भिन्न है। वे कैबिनेट मंत्री होकर भी मंत्री के बंगले में नहीं रहती। सरकारी गाडी पर भी नहीं चलती। उनसे मिलने जाओ तो रेल मंत्रालय के पांच सितारा केटरिंग स्टा¡फ से लज़ीज चाय नाश्ता नहीं मंगवाती। बल्कि कैंटीन की चाय पिलवाती हS और अपने पर्स में से पैंसे देती है। बहुत साधारण जीवन जीती हंै। बिलकुल एक आम आदमी का। ममता दीदी को चाहिए कि कुछ आर्थिक विशेषज्ञों को बिठाकर इस परंपरा का निष्पक्ष मूल्यांकन करवायें और इसे तोड़ने की पहल करें।

जहां तक बजट की बात है उसमें कुछ टिप्पणी करने जैसा विशेष नहीं है। एक लोकप्रिय बजट है। बिना जनता को तकलीफ दिये सुहावने नारों से भरा है। पर कुछ महत्वपूर्ण बातों की तरफ यह बजट ध्यान नहीं देता। साइडिंग आज देश के औद्यौगिक जगत की बहुत बड़ी जरूरत है। साइडिंग का मतलब होता है कि जब मालगाडी सीधे कारखानों के भीतर जाकर माल उतारतीं हैं। इससे ढुलाई की आफत और खर्चा बचता है। सड़कों पर यातायात में व्यवधान नहीं होता। औद्यौगिक कार्यक्षमता बढ़ती है। दुर्भाग्य से हमारे देश में साइडिंग व्यवस्था में सौ वर्षा में भी कोई तरक्की नहीं हुई। जबकि औद्यौगिक तरक्की के कारण हमरी साइडिंग की मांग सैकड़ों गुना बढ़ चुकी है। हर रेलमंत्री नारे बाजी से भरा बजट प्रस्तुत करके चला जाता है। पर साइडिंग जैसे महत्वपूर्ण सवाल पर किसी नीति या कार्यक्रम की घोषणा नहीं करता। जबकि देश के औद्यौगिक विकास के लिए यह बहुत महत्वपूर्ण है।

ममता बनर्जी ने देश के 50 रेलवे स्टशनों को अंतर्राष्ट्रीय स्तर का बनाने की घोषणा की है। अंतर्राष्ट्रीय स्तर क्या होता है यह आप जानते ही होंगे। 1984 में जब मैं पहली बार लंदन से पैरिस रेल से गया तो वहां का स्टेशन देखकर मुझे लगा कि मैं किसी रेलवे स्टेशन में नहीं पांच सितारा होटल में आ गया हूं। तो क्या ऐसा स्तर देने की सोच रही हैं ममता बनर्जी? पर सच्चाई कुछ और कहती है। बाकी देश को छोडि़ये नई दिल्ली स्टेशन पर लगे गंदगी के ढेर, रेलवे की भूमि पर चारों ओर हजारों की तादाद में अवैध निर्माण और बदबू और सड़ायधं से भरे प्लेटफाॅर्म हैं जहां 24 घंटे आदमी कंधे से कंधा छू कर चलता है। उसे अंतर्राष्ट्रीय स्तर का कैसे बनाया जा सकता है? जब तक कि उस पर से अवैध निर्माण व गंदगी के साम्राज्य को हटाया न जाय। आज तक किसी भी रेलमंत्री ने इस पहल की हिम्मत नहीं की। क्योंकि अवैध निर्माण के मालिक ताकतवर लोग हैं। क्या ममता बनर्जी यह पहल करेगी? यही बात बाकी स्टेशनों पर भी लागू होती है।

बजट में ममता दीदी ने रोजगार संबंधित घोषणायें भी की हैं। हर राजनेता के लिए यह लालच रोक पाना सरल नहीं होता कि वो अपने कार्यकर्ताओं को मंत्रालय में नौकरी न दे। नतीजतन आज रेलमंत्रालय में 14 लाख कर्मचारियों की भारी फौज जमा है। आप जरा सा कुरेदिये तो पता चलेगा कि हर कर्मचारी किसी न किसी रेलमंत्री का भर्ती किया हुआ है। हकीकत यह है कि रेलमंत्रालय का काम 12 लाख कर्मचारियों से भी अच्छी तरह चल सकता है। यह 2 लाख अतिरिक्त कर्मचारी रेल की अर्थव्यवस्था पर अनावश्यक आर्थिक बोझ डाल रहे हैं और कार्यक्षमता को घटा रहे हैं। ममता बनर्जी को नई भर्तियों की जगह अयोग्य और अकुशल कर्मचारियों को निकालने की कार्यवाही शुरू करनी चाहिए। नई भर्तियां करने का तो प्रश्न ही पैदा नहीं होता। पर क्या वह ऐसा करेंगी

अपने पिछले कार्यकाल में जब ममता बनर्जी रेलमंत्री थीं तो एक रात दिल्ली में कोहरे के कारण अचानक उनका हवाई जहाज आधी रात में जयपुर उतर गया। वे चाहतीं तो रेलवे के जयपुर स्थित महाप्रबंधक अजीत किशोर को हवाई अड्डे बुलवाती और उनका सैलून किसी ट्रेन में लगवाकर दिल्ली आतीं। पर उन्होंने ऐसा नहीं किया। वह जयपुर के एक दैनिक अखबार के संवाददाता के स्कूटर पर पीछे बैठकर जयपुर रेलवे स्टेशन आ गयीं और स्टेशन मास्टर से बोलीं कि, ‘मैं रेलमंत्री हूं मुझे किसी दिल्ली की गाडी में बिठा दोउसे विश्वास नहीं हुआ कि ये रेलमंत्री हैं। उसने श्री किशोर को रात 2 बजे फोन करके जगाया। श्री किशोर हड़बड़ाये स्टेशन आये और अपने सैलून में ममता बनर्जी को दिल्ली भेजने का निवेदन किया पर वे नहीं मानी। बल्कि एक साधारण यात्री की तरह रेलगाडी में बैठकर दिल्ली चली गयीं। ऐसी क्रांतिकारी रेलमंत्री से रेलमंत्रालय में क्रांतिकारी कदमों की अपेक्षा की जानी चाहिए। अभी तो वे नई-नई बनीं हैं पर अगले बजट तक तो एक साल है। देखें ममता दीदी क्या करिश्मा दिखातीं हS?

Sunday, June 21, 2009

कपिल सिब्बल की पहल

मानव संसाधन मंत्री कपिल सिब्बल ने उच्च शिक्षा जगत में हलचल मचा दी है। वे विश्वविद्यालय अनुदान आयोग व अखिल भारतीय तकनीकि शिक्षा परिषद् जैसी राष्ट्रीय संस्थाओं को पूरी तरह झकझोरना चाहते हैं। उनका कहना है कि उन सस्थाओं में काफी गिरावट आयी है। इनकी कार्यप्रणाली के कारण शिक्षा जगत में गुणवत्ता बढ़ने की बजाय शिक्षा का स्तर गिरा है। वे इन संस्थाओं को ज्यादा उत्तरदायी बनाना चाहते हैं। दूसरी तरफ नोलेज कमीशनके अध्यक्ष सैम पित्रोदा का कहना है कि उच्च शिक्षा को पूरी तरह से सरकारी नियन्त्रण से मुक्त कर देना चाहिए। शिक्षा पर शिक्षाविदों का नियन्त्रण हो और इन शिक्षाविदों पर बाजार की शक्तियों का नियन्त्रण हो। यह शक्तियाँ तय करेंगी कि उन्हें किस किस्म की शिक्षा पाये नौजवानों की जरूरत है। अगर ऐसा होगा तो डिग्री हासिल करने वाले नौजवानों को नौकरी के लिए भटकना नहीं पड़ेगा। औद्योगिक जगत उन्हें नौकरी देगा। उनका मानना है कि केवल डिग्री हासिल करने के लिए जो शिक्षा आज देश में चल रही है, उससे हमारे देश के मानव संसाधन का विकास नहीं हो रहा है।

उदाहरण के तौर पर देश में हजारों डिग्री काॅलेज हैं, जिनमें पढ़ने वाले करोड़ों छात्र ऐसे हैं जिन्हें यह नहीं पता कि वे जिस विषय में ग्रेजुएशन या पोस्ट ग्रेजुएशन कर रहे हैं, उस विषय को पढ़ने से उन्हें क्या हासिल होगा और आगे चलकर यह शिक्षा उनके जीवन में कैसे काम आयेगी? एक बार एक विश्वविद्यालय में एम.ए. समाजशास्त्र की छात्राओं से मैंने अपने भाषण के दौरान प्रश्न किया कि आप यह विषय क्यों पढ़ रही हैं? चालीस छात्राओं में से एक छात्रा ने उत्तर दिया कि वह समाजसेवा करना चाहती है। दूसरी ने कहा कि वह अच्छी माँ बनना चाहती है, इसलिए यह विषय चुना है। बाकी अड़तीस छात्राऐं सिर झुकाकर बैठ गयीं। बहुत कुरेदने पर उत्तर आया कि जब तक शादी नहीं होती, घर बैठकर क्या करें, इसलिए एम.ए. कर रही हैं। एक दूसरे काॅलेज में व्याख्यान के दौरान एक छात्र से पूछा तो उसने बताया कि वह इंग्लिश में एम.ए. कर रहा है। उसके स्वरूप से ऐसा नहीं लगा कि वह अंग्रेजी जानता है। इसलिए उससे एक छोटा-सा सवाल अंग्रेजी मंे किया। वह नहीं समझा और बोला सर हिन्दी में पूछिए। मैंने पूछा कि तुम एम.ए. अंगे्रजी कैसे कर रहे हो? तो उसका उत्तर था, ‘‘हिन्दी मीडियम में’’। मेरा सर चकरा गया।

इन उदाहरणों से यह स्पष्ट हो ही जाता है कि बहुत बड़ी तादाद में युवा निरर्थक और निरूद्देश्य शिक्षा प्राप्त कर रहे हैं। कोठारी आयोग से लेकर आज तक तमाम आयोगों ने शिक्षा के आमूलचूल परिवर्तन की बात बार-बार कही है। पर बदला कुछ भी नहीं। शिक्षा सार्थक हो, उपयोगी हो, ज्ञानवर्धक हो, योग्यता बढ़ाने वाली हो और यदि आवश्यकता हो तो रोजगार दिलाने वाली हो, ऐसी बात इन आयोगों की रिपोर्टों में बार-बार कही गयी। पर शिक्षा जगत के माफियाओं और राजनैतिक आकाओं ने शिक्षा में बदलाव नहीं होने दिया। आज हालात बदल चुके हैं। एक तरफ वैश्वीकरण का दबाब, दूसरी तरफ सूचना क्रांति से युवाओं में बढ़ती जिज्ञासा, अपेक्षा और हताशा और तीसरी ओर मंदी व बेरोजगारी की मार। इन दबावों के चलते शिक्षा को सुधारने की बात की जा रही है। जिस तरह उद्योग व व्यापार की घुटन को दूर करने के लिए नब्बे के दशक में डाॅ. मनमोहन सिंह ने हमारी अर्थव्यवस्था के कपाट खोले थे, वैसे ही लगता है कि कपिल सिब्बल शिक्षा के कपाट खोलने जा रहे हैं। उनकी योग्यता और कार्यक्षमता पर किसी को संदेह नहीं। लेकिन इतना बड़ा कदम उठाने से पहले कुुछ सावधानी बरतने की जरूरत है।

अगर पश्चिमी देशों में सारी शिक्षा बाजार की शक्तियों से ही नियन्त्रित होती तो कला, संस्कृति, समाज व इतिहास जैसे क्षेत्रों में न तो विद्यार्थी ही बचते और न शिक्षक। सबके सब इंजीनियर, एकाउण्टेंट, मैनेजर या मार्केटिंग विशेषज्ञ ही बनते। पर ऐसा नहीं है। वहाँ बहुत सारे विश्वविद्यालयों में ऐसी शिक्षा दी जा रही है जिसका बाजार से कोई सीधा सम्बन्ध नहीं है। यह दूसरी बात है कि इस तरह की शिक्षा को सरकारी मदद के अलावा बड़ी फाउण्डेशनों से भी सहायता मिलती है। पर भारत में ऐसा सोचना कि सारी शिक्षा बाजार से नियन्त्रित हो, बहुत बड़ी भूल होगी। हमें इस मानसिकता से बाहर निकलना होगा कि एक युवा का अस्तित्व केवल नौकरी हासिल करने तक सीमित है। सच्चाई तो यह है कि इस देश में कुल युवाओं का बहुत नगण्य प्रतिशत नौकरी में जाता है। ज्यादातर युवा अपने पारिवारिक व्यवसाय, खेती, बागवानी, दुकान-कारखाने आदि सम्भालते हैं। जो कम साधन वाले होते हैं पर आत्मनिर्भर बनना चाहते हैं, वे अगर कारखाने खड़े नहीं कर पाते, तो सड़क के किनारे लकड़ी के खोखों में दुकानें खोल लेते हैं।

ऐसे करोड़ों नौजवानों को ऐसी शिक्षा चाहिए जो उन्हें एक जिम्मेदार नागरिक बना सके। उन्हें देश और दुनिया की समझ दे सके। उनके व्यक्तित्व को निखारकर उन्हें आत्मनिर्भर बना सके। उनमें आत्मविश्वास और उत्साह भर सके। साथ ही उन्हें अपने पर्यावरण और परिवेश के प्रति संवेदनशील बना सके। बाजार की शक्तियाँ देश की इन जरूरतों पर ध्यान नहीं देंगी। वे शिक्षा का पूरी तरह व्यवसायीकरण कर देंगी। देश के हर शहर में कुकुरमुत्ते की तरह उग आये लाखों इंजीनियरिंग, मेडीकल या मैनेजमेंट काॅलेज पैसा कमाने का उद्योग बन गये हैं। नौजवानों की महत्वकांक्षा को बिना ठीक शिक्षा दिये भुनाने में जुटे हैं। उनकी मजबूरी का फायदा उठा रहे हैं।

जरूरत इस बात की है कि उच्च शिक्षा पर नियन्त्रण ऐसी संस्थाओं का हो जिनमें बाजार की जरूरत और समाज की जरूरत दोनों का सामंजस्य हो। यह संस्था सरकार के अधीन हो या स्वायत्त, ये बहस का विषय हो सकता है पर यह कहना कि केवल बाजार ही शिक्षा का स्वरूप और भविष्य तय करेगा, भारत जैसे देश के लिए न तो सम्भव है और न ही आवश्यक।