कभी दुनिया के देशों में राजनैतिक हत्यायें कराने वाली सी.आई.ए. आज ओबामा के अमरीकी प्रशासन में जाँच का सामना कर रही है। आंतकवाद के नाम पर पकड़े गये नौजवानों को जेल में दी गयी यातनाओं के लिए उनसे सवाल पूछे जा रहे हैं। मानवाधिकार से जुड़े संगठन ब्रिटेन में वहाँ की खुफिया एजेंसी एम17 को कचहरी में घसीट रहे हैं। नतीजतन इन देशों के खुफिया अधिकारी अब अपने काम में कानूनी सलाह लेने लगे हैं। आतंकवाद, मानवाधिकार और कानून का पालन इन तीनों के रिश्ते कभी मधुर नहीं रहे, विरोधाभासी रहे हैं।
आतंकवाद के लिए जिम्मेदार लोग अमानवीय हैं, पाश्विक हैं, निर्मम हैं, इसलिए उनके साथ कोई उदारता नहीं बरती जानी चाहिए। इस पर लगभग हर उस व्यक्ति की सहमति होगी जिसने आतंकवाद का सामना किया है या उसके खौफ में जी रहा है। इस मानसिकता के लोग मानवाधिकार या कानून की प्रक्रिया को आतंकवाद खत्म करने के रास्ते में रोड़ा मानते हैं। मुम्बई हमले का आरोपी आमिर कसाब जिसने छत्रपति शिवाजी स्टेशन पर दर्जनों निरीह लोगों को मौत के घाट उतार दिया, जिनमें हिन्दू और मुसलमान शामिल थे, उसका क्या मानवाधिकार बचा और क्या कानूनी हक बचा? इन दोनों ही प्रक्रियों को आतंकवाद के खात्मे में रूकावट मानने वाले पुलिस अधिकारी चाहें वे भारतीय पुलिस के हों या अमरीकी पुलिस के, मानते हैं कि आतंकवादी को देखते ही गोली मार देनी चाहिए। एक बार पंजाब के पूर्व पुलिस महानिदेशक के.पी.एस. गिल से एक जनसभा में प्रश्न पूछा गया कि एन.डी.ए. सरकार ने आतंकवादियों को कांधार जाकर रिहा कर दिया, क्या आप इसे उचित मानते हैं? श्री गिल का उत्तर था, उन्हें गिरफ्तार ही क्यों किया गया? जब लोगों को यह उत्तर समझ में आया तो पूरे हाॅल में ठहाका लग गया। बिना कहे गिल का उत्तर था कि उन्हें पहले ही मार देना चाहिए था।
दूसरी तरफ मानवाधिकार वाले यह मानते हैं कि हर वह व्यक्ति जिसे पुलिस गिरफ्तार करती है, जरूरी नहीं कि आतंकवादी ही हो। शक के बिनाह पर गिरफ्तार किया गया नौजवान निर्दोष भी हो सकता है। जैसा कि ‘न्यूयाॅर्क’ पर ‘फ्राइडे’ फिल्म में दिखाया गया है। ऐसे नौजवानों को पूछताछ के नाम पर जो यातनाऐं दी जाती हैं, वह उसकी जिन्दगी तबाह कर सकती हैं। उसे न चाहते हुए भी आतंकवादी बनने पर मजबूर कर सकती हैं। अमरीकी प्रशासन के तहत 2002 में सी.आई.ए. ने पूछताछ के तरीकों के ‘इजाफा’ का गुप्त निर्देश जारी किया था। जिसमें पूछताछ के लिए धरे गये कैदी को पानी में डुबो-डुबो कर तड़पाना, उसके चारों तरफ तेज रोशनियाँ जलाकर उसे खड़े रखकर कई दिनों तक सोने न देना, उसे पकड़कर दीवार से पटक-पटककर मारना, उसे इस तरह उल्टा लटकाना या बेहद तकलीफदेह स्थिति में रखना जिसमें उसकी हिम्मत जबाव दे जाये या उसे ऐसे तंग डिब्बे में बंद कर देना जिसमें आक्रामक जहरीले कीड़े हों, जो उसे बार-बार काटकर सतायें, जैसी यातनायें शामिल थीं। इन निर्देशों के तहत 11 सितम्बर, 2001 के अमरीकी हमले के मुख्य आरोपी खालिद शेख मोहम्मद को 183 बार पानी में डुबो-डुबो कर तड़पाया गया।
बराक ओबामा ने ऐसे सारे अमानवीय तरीकों पर पाबन्दी लगा दी है। इतना ही नहीं ग्वांतानामो खाड़ी में मौजूद अमरीकी जेल को एक वर्ष के भीतर बन्द करने की घोषणा भी की है। अमरीकी फौज की यह जेल युद्ध में गिरफ्तार किये गये सैनिकों और अफसरों की यातना के लिए विश्वभर में बदनाम हो चुकी है। जाहिर है कि सी.आई.ए. के अधिकारी राष्ट्रपति ओबामा के इन क्रांतिकारी कदमों से खुश नहीं हैं और यह मानते हैं कि इससे आतंकवाद के खिलाफ काम करने वाली एजेंसियों का मनोबल गिरेगा। पर दूसरी तरफ अमरीका और यूरोप के समाज में लगभग आधी आबादी इन सुधारों का समर्थन कर रही है। इन लोगों का मानना है कि इस तरह के अमानवीय व्यवहार से आतंकवाद खत्म होने की बजाय बढ़ेगा। ऐसे समुदाय का मानना है कि आतंकवादी के मानवाधिकारों और कानूनी अधिकारों की भी रक्षा की जानी चाहिए और उसे कचहरी में अपनी बात रखने का हक दिया जाना चाहिए। पर खुफिया एजेंसियाँ इससे सहमत नहीं हैं। उन्हें इस बात की चिन्ता है कि अगर अदालतेें इस तरह आतंकवाद से जुड़े मामलों में हर कार्यवाही पर प्रश्नचिन्ह खड़े करेंगी और उनके पीछे तर्क व प्रमाण मांगेगी तो उनके लिए काम करना असंभव हो जायेगा। वे दावा करती हैं कि उनके ऐसे सख्त रवैये के कारण ही अमरीका में 9/11 के बाद से आज तक कोई आतंकवादी घटना नहीं हुयी। दरअसल खुफिया एजेंसियों का काम करने का तरीका अनादिकाल से खुफिया ही रहा है। वे दूसरे देशों में अफवाह फैलाने, सरकारी तंत्र के लोगों को रिश्वत देने, राजनैतिक हत्याऐं कराने, षडयंत्र रचने और समाज में अराजकता फैलाने का काम हमेशा से करती आयी हैं। महान राजनीतिज्ञ चाणक्य पण्डित ने खुफिया एजेंसियों के काम के तरीकों के बारे में विस्तार से लिखा है और उनके काम के महत्व की स्थापना की है। जो राष्ट्र की सुरक्षा के लिए किया जाता है। े
भारत जैसे देश में जहाँ आतंकवादियों को राजनेताओं, पुलिस अधिकारियों व हवाला कारोबारियों का संरक्षण और समर्थन हासिल है, वहाँ तो शायद इस बहस की अभी सार्थकता स्थापित होने में समय लगेगा। क्योंकि हमारी समस्या तो ये है कि हमारा तंत्र भ्रष्टाचार और कामचोरी के कारण आतंकवाद को सीधे या परोक्ष रूप से समर्थन दे रहा है।
दरअसल इस पूरे मामले का एक पक्ष और भी है, जो कहता है कि कोई आतंकवादी बनता क्यों है, इसकी जाँच की जानी चाहिए। साम्यवादी बंगाल में भी हिंसक नक्सलवादी आंदोलन इसलिए शुरू हुआ क्यांेकि साम्यवाद का ढिढांेरा पीटने वाली पश्चिमी बंगाल की सरकार अपनी जनता के बुनियादी हक भी सुनिश्चित नहीं कर सकी। मजबूरन युवाओं को आतंकवाद व हिंसा का सहारा लेना पड़ा। यही बात देश के अन्य हिस्सों पर भी लागू होती है, जहाँ बलात्कार के बाद भी पुलिस से राहत न मिलने के कारण बलात्कार की शिकार हुयी युवती नक्सलवादी या डाकू बन जाती है और बन्दूक उठा लेती है। कानून का समान रूप से लागू न होना, आर्थिक विषमताओं का बढ़ते जाना, एक संस्कृति पर बाहरी संस्कृति थोपना, कुछ ऐसे कारण हैं जो हताशा और हिंसा को जन्म देते हैं, जिनकी जाँच की जानी चाहिए। इसलिए राष्ट्र की सुरक्षा और कानून का पालन दोनों जरूरी हैं। पर इस उदारता के साथ कि हम हिंसा के कारणों को भी जानने और दूर करने के लिए ईमानदारी से प्रयास करें। अन्यथा समाज में अशांति बढ़ेगी।