चुनाव आयुक्त नवीन चावला को लेकर चुनाव आयोग में घमासान मचा है। मुख्य चुनाव आयुक्त के गोपनीय पत्र ने भाजपा को इंका पर हमला करने का एक और शस्त्र दे दिया है। लोगों के मन में शंका है कि इस तरह आपस में उलझा चुनाव आयोग क्या आगामी लोकसभा चुनाव ठीक से करवा पायेगा? क्या नवीन चावला मुख्य चुनाव आयुक्त बनकर इंका को मदद नहीं पहुँचायेंगे? क्या चुनाव आयोग की छवि इस विवाद से धूमिल नहीं पड़ेगी? ये सभी प्रश्न महत्वपूर्ण हैं और सब पर विचार करने की जरूरत है।
जहाँ तक चुनाव आयोग की चुनाव संचालन क्षमता का सवाल है, उसमें कोई विशेष अन्तर नहीं पड़ने वाला। टी.एन.शेषन के पहले तो चुनाव आयोग का वजूद तक आम आदमी नहीं जानता था। शेषन ने चुनाव आयोग को काफी विस्तृत रूप दे दिया। पर अनुभव बताता है कि मतदाता इन बातों से प्रभावित नहीं होता। अगर चुनाव आयोग को मैनेज किया जा सकता तो श्रीमती इन्दिरा गाँधी 1977 का आम चुनाव कभी न हारतीं। ऐसा इसलिए है कि चुनाव करवाने के कायदे-कानून काफी स्पष्ट और पारदर्शी हैं। चुनाव लड़ने वाला हर दल सजग रहता है। अधिकारी भी अपने काम से काम रखना चाहते हैं। क्योंकि वे जानते हैं कि अगर आज किसी एक दल को फायदा पहुँचायेंगे तो दूसरा दल जब सत्ता में आयेगा तो उनकी काफी दुर्गति हो सकती है। इसमें अपवाद होते हैं। लेकिन जिस तरह लालू यादव बिहार विधानसभा का चुनाव हारे, वसुन्धरा राजे राजस्थान में हारीं, जयललिता तमिलनाडु में हारीं उससे यह स्पष्ट है कि सरकारी मशीनरी सबसे ताकतवर मुख्यमंत्री के भी कब्जे में नहीं रहती।
चुनाव आयोग के पास यह ताकत नहीं है कि वो मनमोहन सिंह का कार्यकाल बढ़ा दे या चुनाव समय से आगे टाल दे या चुनाव को इस तरह करवाये कि उसकी पसन्द का दल सत्ता में आ जाये। जब ऐसी कोई ताकत चुनाव आयोग के पास नहीं है तो नवीन चावला मुख्य चुनाव आयुक्त बनकर भी क्या कर लेंगे? एक उदाहरण एस.वाई. कुरैशी का है जिन्हें इंका सरकार ने अपना आदमी समझकर आयोग में भेजा था। पर कर्नाटक के चुनाव में श्री कुरैशी ने इंका की अपेक्षाओं के विरूद्ध निर्णय दिया। क्यांेकि वे साफ आदमी हैं और चुनाव आयोग में जाने का मतलब ये नहीं कि उन्होंने अपना ईमान गिरवी रख दिया हो। इसलिए भाजपा का डर पूरी तरह से बेबुनियाद न भी हो तो भी कोई उसका खास बिगाड़ नहीं सकता। भाजपा के डर की वजह यह है कि नवीन चावला पूरी तरह से इंका के आदमी हैं। वे आपातकाल में संजय गाँधी के दाहिने हाथ हुआ करते थे। जनता सरकार ने उन्हें कालापानी भेज दिया। पर फिर 1980 में वे केन्द्र में लौट आये और तब से लगातार महत्वपूर्ण पदों पर तैनात रहे। श्री चावला की काबिलियत पर किसी को शक हो न हो, पर इससे कोई असहमत नहीं हो सकता कि उनका झुकाव इंका की तरफ हमेशा रहेगा। ऐसा व्यक्ति मुख्य चुनाव आयुक्त बनकर कई बार चुनावी नतीजों सम्बन्धि विवादों में कुछ खेल कर सकता है। पर उसकी भी ज्यादा सम्भावना नहीं है। क्योंकि चुनाव आयोग में दो सदस्य और भी होते हैं। फिर ऐसे फैसले चुनाव अधिकारी यानि जिलाधिकारी पर ज्यादा निर्भर होते हैं। इसलिए ऐसा कुछ भी नहीं होने जा रहा है जिसके कारण इंका को तगड़ा लाभ और शेष दलों को महत्वपूर्ण नुकसान हो जाए।
अलबत्ता ये नैतिक प्रश्न जरूर है। चुनाव आयोग के सदस्य का पद संवैधानिक पद है। इस पद पर बैठने वाले में इतनी गरिमा अवश्य होनी चाहिए कि देशवासी उसका सम्मान करें। अगर सर्वोच्च न्यायालय या उच्च न्यायालय के किसी न्यायाधीश के आचरण पर उंगली उठती है तो अपेक्षा की जाती है कि वह न्यायाधीश उस मुकदमें से हट जायेगा। या फिर अपने पद से इस्तीफा दे देगा ताकि वादी और प्रतिवादियों की आस्था न्याय व्यवस्था में बनी रहे। पर अनेकों उदाहरण हैं जब इस अलिखित और अघोषित स्वाभाविक नियम की अवहेलना की जाती है। सर्वोच्च न्यायालय के कई न्यायाधीशों के अनैतिक आचरण के मामले समय-समय पर कालचक्र ने प्रकाशित किए। पर उन्होंने इस्तीफे नहीं दिए। आजकल भी कोलकोता उच्च न्यायालय के एक न्यायाधीश के भ्रष्टाचार के कई मामले सामने आ चुके हैं। पर न तो वे इस्तीफा दे रहे हैं और न ही संसद उन पर महाभियोग चला रही है। कुछ ऐसी ही बात श्री चावला पर भी लागू होती है। कानूनन उनको हटाया नहीं जा सकता। सर्वोच्च न्यायालय में विचाराधीन याचिका का जो भी परिणाम आये, नतीजा काफी विवादास्पद रहेगा। अगर अपने विरूद्ध फैसला आने के बाबजूद श्री चावला अपने पद पर बने रहने के लिए अड़े रहे तो उन्हें हटाना आसान नहीं होगा। पर नैतिकता का तकाजा यही होता कि वे इस विवाद के उठने से पहले ही इतने महत्वपूर्ण और संवेदनशील पद से इस्तीफा दे देते।
श्री चावला अकेले अपवाद नहीं हैं। एन.डी.ए. की सरकार में अनेक नेता ऐसे थे जिन्हें उनके आपराधिक रिकाॅर्ड के कारण सत्ता में नहीं होना चाहिए था। पर न सिर्फ उन्होंने सत्ता हासिल की बल्कि सारे कानूनों को धता बताकर और जनता की भावनाओं की उपेक्षा करते हुए सत्ता में बने रहे। दरअसल अब नैतिकता देश में कोई मुद्दा बचा ही नहीें। इसलिए नैतिकता के सवाल पर इस्तीफा देने के दिन लद गए। नवीन चावला इन्हीं बदले दिनों का सहारा लेकर अगर सारी टीका-टिप्पणी से कान और आँख बंद करलें तो उनका कोई कुछ बिगाड़ नहीं पायेगा। हाँ इस सब विवाद से कुछ समय के लिए चुनाव आयोग चर्चा में जरूर रहेगा और चुनाव में हारे हुए प्रत्याशी इस विवाद का सहारा जरूर लेंगे। कुल मिलाकर बात इतनी सी है कि चुनाव आयोग के मौजूदा घमासान से चुनावों पर कोई असर नहीं पड़ेगा। पर चुनाव आयोग की विश्वसनीयता और छवि पर देश के मीडिया में टिप्पणियाँ जरूर होंगी। अब ये तो श्री चावला और भारत सरकार को सोचना है कि उनके लिए क्या प्राथमिकता है? चावला की स्वामीभक्ति या चुनाव आयोग की छवि?