Friday, May 16, 2008

क्या बताना चाहते हैं राहुल गांधी ?

राहुल गांधी देश के पिछड़े इलाकों में दौरे करके आम आदमी की बदहाली का जायजा ले रहे हैं। इससे पहले सभी दलों के युवा सांसदों ने भी ऐसी ही एक साझी कोशिश की थी। ये युवा सांसद हैरान है कि सरकार की तमाम नीतियां गरीबों के हक में होने के बावजूद जमीनी हकीकत इतनी हृदयविदारक क्यों हैं ? ये बात दूसरी है कि इनमें से सभी बहुत सफल, संपन्न और दीर्घ काल तक सत्ता में रहे राजनेताओं के साहबजादे और साहेबजादियां हैं। आश्चर्य की बात यह है कि जो बात इस देश के साधारण स्कूलों में पढ़ने वाले बच्चे भी जानते हैं, उस बात को जानने के लिए विदेशों में पढ़े इन युवा सांसदों को इतनी कवायद करने की क्या जरूरत है ? खुद राहुल गांधी के पिता और पूर्व प्रधानमंत्री यह स्वीकार चुके हैं कि रूपए में 14 पैसे भी आम आदमी तक नहीं पहुंचते। नोबल पुरास्कार विजेता भारतीय मूल के अर्थशास्त्री डा. अमत्र्यसेन भी यही मानते हैं कि भारत में गरीबी का कारण भ्रष्टाचार है। इसलिए देश की गरीबी, बेरोजगारी और बदहाली पर आंसू बहाने की बजाए इन युवा सांसदों को प्रशासनिक भ्रष्टाचार के विरूद्ध मोर्चा खोलना चाहिए। क्योंकि गरीबी और बेरोजगारी का कारण है भ्रष्टाचार।

विकास की नीतियां बनाने वालों का जमीन से कोई मतलब नहीं होता। ये नीतियां राजनैतिक फायदे के लिए ज्यादा और आम आदमी को राहत पहंुचाने के लिए कम होती हैं। दूसरी तरफ नीतियां लागू करने वाली राज्य सरकारें और उसकी मशीनरी का मकसद हर योजना के आवंटन का अधिकतम पैसा अपनी जेब में पहुंचाना होता है। इसलिए कोई भी राजनैतिक दल इस बुनियादी समस्या पर चोट नहीं करता। क्योंकि हमाम में सब नंगे हैं। राजनैतिक लाभ के लिए भ्रष्टाचार पर केवल शोर मचाने का नाटक किया जाता है। वैसे भी हर आदमी दूसरे पर ही अंगुली उठाता है और खुद के दामन के दागों को छुपाता हैं। इसमें कोई अपवाद नहीं। यहां तक कि देश की सर्वोच्च न्यापालिका भी नैतिकता के मामले में दोहरे मानदंडों का समर्थन कर रही है। सूचना के अधिकार के दायरे में लाए जाने से न्यायपालिका खुश नहीं है। जबकि न्यायपालिका में फैले भ्रष्टाचार से निपटने का कोई तरीका आज उपलब्ध नहीं है। फिर भी न्यायपालिका न तो अपने ऊपर अंकुश चाहती है और ना ही जवाबदेही।

जबसे संसद की सलाहकार समिति ने न्यायपालिका को सूचना के अधिकार कानून के दायरे में लेने की सिफारिश की है तब से भारत के मुख्य न्यायाधीश काफी उखड़े हुए हैं। उनका कहना है कि वे संवैधानिक पद पर हैं और संवैधानिक पदों को ऐसे कानून के दायरे में नहीं लिया जा सकता। जबकि लगभग सभी सांसदों और सभी राजनैतिक दलों का मानना है कि न्यायपालिका की जवाबदेही सुनिश्चित होनी चाहिए। लोकतंत्र के चार खम्बों में से एक है न्यायपालिका। जो किसी के प्रति जवाबदेह नहीं हैं। बाकी तीन खम्बें हैं कार्यपालिका, विधायिका और मीडिया। कार्यपालिका की जवाबदेही विधायिका के प्रति होती है और विधायिका की जनता के प्रति और मीडिया की जवाबदेही उसके पाठकों के प्रति होती है। आदर्श स्थिति में ये चारों अंग एक-दूसरें के पूरक और एक दूसरे पर निगाह रखने का काम करें तो लोकतंत्र सुदृढ़ होता है। संविधान के निर्माताओं ने न्यायाधीशों को बाकी तीन अंगों के प्रति जवाबदेह न बना कर न्यायपालिका की गरिमा को स्थापित किया था। पर आज वह गरिमा न्यायपालिका के आचरण से ही टूट रही है। इसलिए देश में यह मांग उठ रही है। न्यायपालिका का आचरण अगर पारदर्शी नहीं होगा तो गरीब को उसका हक कैसे मिलेगा ?

जहां तक सरकार की नीतियों के क्रियान्वयन का प्रश्न है तो उसका एक दूसरा प्रभावी तरीका हो सकता है कि इन योजनाओं को लागू करने में समाज सेवी और जागरूक लोगों व प्रतिष्ठित स्वयं सेवी संस्थाओं की मदद ली जाए। क्यांेकि ये लोग सेवाभावना से, निष्ठा से और कम खर्चीले तरीके से काम करने के आदी होती है। मुश्किल इस बात की है कि सच्चे और अच्छे लोगों और संस्थाओं को ऐसे कार्यक्रमों में शामिल नहीं किया जाता। एन.जी.ओ. के नाम पर भी आला अफसरों और नेताओं के घरों की महिलाएं और बच्चे संगठन बना लेते हैं और योजनाओं का करोड़ो रूपया डकार जाते हैं। इसलिए देश के गरीब और आदिवासी बदहाल हैं।

कैसी विडंबना है कि सरकार के पास देश की बदहाली दूर करने के लिए हजारों करोड रूपया है। सैकड़ों योजनाएं हैं। लाखों कर्मचारी हैं। पर जमीनी हालत नहीं बदलती। एक तरफ हम विकास की दौड़ में तेजी से बढ़ना चाहते है और दूसरी तरफ हम अपनी बदहाली के कारणों को देखकर भी अनदेखा कर देते हैं। इसीलिए कुछ नहीं बदलता। हर नया नेता, नए सपने दिखाकर मतदाताओं को लुभाना चाहता है। राहुल गांधी भी ऐसे ही सपने दिखा रहे हैं। लोग सब समझते हैं। फिर भी कुछ कर नहीं पाते। क्योंकि उनके पास कोई विकल्प है ही नहीं। हां इतना बदलाव जरूर आया है कि अब मतदाताओं को आसानी से ठगा नहीं जा सकता। ठोस काम करने वाला मतदाता की निगाह में चढ़ता जरूर है। इसलिए राहुल गांधी को भी कुछ ठोस कार्यक्रम बनाने चाहिए। जिनसे देश में बदलाव आए। अभी उनके पास काफी वक्त है। वे जोखिम उठा सकते हैं। इसलिए जनता की बदहाली पर आंसू बहाने से बेहतर हो कि वे स्थायी बदलाव की कोशिश करें।

Sunday, May 11, 2008

जार्ज बुश अपने गिरेबाँ में झांके


Rajasthan Patrika 11-05-2008
अमेरिकी राष्ट्रपति जा¡र्ज बुश और उनसे पहले कोनडोलीजा राइस ने दुनिया भर में खाद्य पदार्थों की कमी का कारण भले ही भारत के मध्यम वर्ग की संपन्नता को बताया है पर सच यह है कि दुनिया भर में अनाज का उत्पादन 1997-99 में 357 किलाग्राम प्रति व्यक्ति प्रति वर्ष से घटकर 2005-07 में 317 किलोग्राम रह गया था। जिसके लिए भारत जिम्मेदार नहीं है। इसके कई कारण और हैं।  अगर हम फिलहाल इसकी चर्चा न करें और यह जानने की कोशिश करें कि अनाज उत्पादन बढ़ाने को प्रोत्साहन देने वाला कोई कारण है क्या ? तो हमें कोई ठोस कारण नजर नहीं आता है। खाद्य पदार्थें का उत्पादन बढ़ाने के पक्ष में बस एक ही कारण है - बढ़ती कीमत। पर इससे किसानों को कितना फायदा मिलेगा तथा इस पर कितना भरोसा किया जा सकता है यह जांच का विषय है।

यहां हम जा¡र्ज बुश के बयान की बात करें तो सीधा सा जवाब है कि अगर आज  भारतीय ज्यादा खा रहे हैं तो पैदा भी ज्यादा कर रहे हैं। खाद्य संकट दुनिया भर में है और इसे दुनिया के स्तर पर ही देखना होगा। जहा¡ तक भारत की बात है खाद्य पदार्थों के मामले में आत्मनिर्भर है और मौजूदा संमस्या से भी वह अपने स्तर पर निपट लेगा। सच तो यह है कि 25 अप्रैल को समाप्त हुए सप्ताह के दौरान खाद्य तेलों की कीमत कम हुई है। जबकि चावल, गेहूं, आटा, तूर दाल और आलू की कीमत महीने भर से स्थिर है। दिल्ली में सरसों के तेल की कीमत 73 रूप्ए से घटकर 71 रूपए रह गई है। सरकार का दावा है कि कीमतें अभी और कम होंगी तथा उसने जो कदम उठाए हैं उसके नतीजे आने लगे हैं।

वैसे तो जा¡र्ज बुश ने अपनी बात दिलचस्प सोचके रूप में प्रस्तुत की है। पर ऐसा कहते हुए वे यह भूल गए कि भारत का मध्यम वर्ग अगर अच्छा खा और मांग रहा है तो देश की आबादी का बहुत बड़ा हिस्सा अभी भी भूख और कुपोषण का शिकार है। इसका कारण यहां अनाज की कमी नहीं, गरीबी है। भारत वैसे भी खाद्य पदार्थों का आयात नहीं, निर्यात करता है। ऐसे में यह सोचना कि भारत के मध्यम वर्ग की हालत बदलने का असर सारी दुनिया पर पड़ रहा है तो यह पूरी तरह गलत है। हमारा मध्यम वर्ग अच्छा खाना मांग रहा है तो बुश को तकलीफ हो रही है पर हमारा गरीब भूखा भी सो रहा है। बुश उसे क्यों नहीं देखते ? देखें भी कैसे, अमेरिका में तो हर चीज की प्रति व्यक्ति खपत शेष दुनिया से कई गुना ज्यादा है।

वैसे भी भारत की अर्थव्यवस्था कुछ मामलों में पिछले 4-5 वर्षों से तेजी से बढ़ रही है और ऐसा नहीं है कि अमेरिका को इस बात का पता अचानक चला है। बुश ने यह गलती भोलेपन में भी नहीं की है। सब जानते हैं कि अमेरिका ने अनाज का उत्पादन करने की जगह बायो-फ्यूएल और कैश क्राॅप पर जोर देना शुरू कर दिया है। इसलिए आज अगर दुनिया में अनाज का संकट है तो अमेरिकी नीतियों के कारण और कीमतें बढ़ रहीं तो उसी के कारण।

इसी तरह भारत में भी खेती की जमीन कम हो रही है और उसकी जगह उद्योग व कल कारखाने लग रहे हैं तो इसका कारण भी अंतर्राष्ट्रीय शक्तियों का दबाव किसी से छिपा हुआ नहीं है। हां शहरीकरण का विस्तार भी इसका एक कारण है। पर प्रश्न है कि अमरीका में मक्का और वनस्पति तेल का उपयोग अगर बायो-डीजल के उत्पादन के लिए किया जाएगा तो क्या इसका असर नहीं होगा ? अकेले अमेरिका में एथनाॅल के उत्पादन में उपयोग की गई मक्का की मात्रा दुनिया भर के कुल उत्पादन के 5 फीसदी के बराबर है। यह दुनिया भर में होने वाले अनाज के कारोबार का एक तिहाई से भी ज्यादा है। इसके अलावा खाद्यान्न की एक फसल का उपयोग बायो-फ्यूएल के लिए किए जाने का असर दूसरे अनाज पर भी होता है। इसीलिए भारत ने अमेरिका से कहा है कि वह उसे देश की अहार सुरक्षा को जोखिम में डाले बगैर बायो-फ्यूएल कार्यक्रम को जारी रखने के तरीके सिखा सकता है।

बुश को भारत की निन्दा करने से पहले चाहिए कि कृषि भूमि का उपयोग दूसरे कामों के लिए करना छोड़ें। सब जानते हैं कि अमेरिका और इंग्लैंड जैसे देशों में अनाज का उत्पादन करने वाली जगह कम हुई है। इसलिए वहां संकट पैदा हो रहा है। भारत ने इस मामले पर पहले ही विचार कर लिया है और इसके लिए बनाई जाने वाली कार्ययोजना में यह स्पष्ट किया जाने वाला है कि कृषि भूमि या मनुष्यों के खाने वाले अनाज का उपयोग बायो-फ्यूएल बनाने के लिए नहीं किया जाएगा। तब इससे देश की आहार सुरक्षा के लिए कोई खतरा पैदा नहीं होगा। पर अमरीका की बात करें तो वहां कृषि की जगह कृषि कारोबार हो रहा है। इस साल वहां उपजे कुल अनाज के 30 फीसदी का उपयोग बायो-फ्यूएल के लिए हुआ है। जबकि पिछले साल यह मात्रा केवल 18 फीसदी थी। विशेषज्ञों का कहना है कि इस साल अमरीका में बायो-फ्यूएल के उत्पादन में दस करोड़ टन अनाज खप जाएगा। जबकि इसका उपयोग दुनिया में भूखे लोगों को खिलाने में किया जा सकता था। अमरीका यह कभी नहीं करेगा और दूसरों को उपदेश देता रहेगा।

उल्लेखनीय है कि भारत की आबादी प्रतिवर्ष लगभग डेढ़ फीसदी बढ़ रही है और प्रति व्यक्ति खाद्य पदार्थ की मांग भी बढ़ रही है। चिंता की बात है कि हमारे यहां अनाज और दाल के उत्पादन की वृद्धि आबादी में वृद्धि की दर से नहीं हो रही है। यहां भी वैश्वीकरण एक कारण रहा है। खेसरी दाल को घातक बता कर उसे प्रतिबंधित करवा दिया गया। जबकि यह दाल कम पानी में भी उपजाई जाती थी और गरीब के घर खूब पकती थी। नागपुर के डाॅ. शान्तिलाल कोठारी इस प्रतिबंध के बावजूद धड़ल्ले से खेसरी दाल उगा रहे हैं और वर्षों से खा रहे हैं। जरूरत है कि सरकार इन गलतियों को सुधारे। अस्थायी राहत देने के उपाय कुछ समय के लिए कारगर हो सकते हैं पर स्थायी समाधान के लिए कुछ दूसरे उपाय करने होंगे जिसके लिए भारत में पूरी संभावना है। बशर्ते कि हम कृषि के देशी तरीकों को फिर से और समझदारी से अपनाने को तैयार हों। पर जाॅर्ज बुश के अहमकाना बयानों की परवाह करने की हमें कोई जरूरत नहीं है। 

जार्ज बुश अपने गिरेबाँ में झांके


अमेरिकी राष्ट्रपति जा¡र्ज बुश और उनसे पहले कोनडोलीजा राइस ने दुनिया भर में खाद्य पदार्थों की कमी का कारण भले ही भारत के मध्यम वर्ग की संपन्नता को बताया है पर सच यह है कि दुनिया भर में अनाज का उत्पादन 1997-99 में 357 किलाग्राम प्रति व्यक्ति प्रति वर्ष से घटकर 2005-07 में 317 किलोग्राम रह गया था। जिसके लिए भारत जिम्मेदार नहीं है। इसके कई कारण और हैं।  अगर हम फिलहाल इसकी चर्चा न करें और यह जानने की कोशिश करें कि अनाज उत्पादन बढ़ाने को प्रोत्साहन देने वाला कोई कारण है क्या ? तो हमें कोई ठोस कारण नजर नहीं आता है। खाद्य पदार्थें का उत्पादन बढ़ाने के पक्ष में बस एक ही कारण है - बढ़ती कीमत। पर इससे किसानों को कितना फायदा मिलेगा तथा इस पर कितना भरोसा किया जा सकता है यह जांच का विषय है।

यहां हम जा¡र्ज बुश के बयान की बात करें तो सीधा सा जवाब है कि अगर आज  भारतीय ज्यादा खा रहे हैं तो पैदा भी ज्यादा कर रहे हैं। खाद्य संकट दुनिया भर में है और इसे दुनिया के स्तर पर ही देखना होगा। जहा¡ तक भारत की बात है खाद्य पदार्थों के मामले में आत्मनिर्भर है और मौजूदा संमस्या से भी वह अपने स्तर पर निपट लेगा। सच तो यह है कि 25 अप्रैल को समाप्त हुए सप्ताह के दौरान खाद्य तेलों की कीमत कम हुई है। जबकि चावल, गेहूं, आटा, तूर दाल और आलू की कीमत महीने भर से स्थिर है। दिल्ली में सरसों के तेल की कीमत 73 रूप्ए से घटकर 71 रूपए रह गई है। सरकार का दावा है कि कीमतें अभी और कम होंगी तथा उसने जो कदम उठाए हैं उसके नतीजे आने लगे हैं।

वैसे तो जा¡र्ज बुश ने अपनी बात दिलचस्प सोचके रूप में प्रस्तुत की है। पर ऐसा कहते हुए वे यह भूल गए कि भारत का मध्यम वर्ग अगर अच्छा खा और मांग रहा है तो देश की आबादी का बहुत बड़ा हिस्सा अभी भी भूख और कुपोषण का शिकार है। इसका कारण यहां अनाज की कमी नहीं, गरीबी है। भारत वैसे भी खाद्य पदार्थों का आयात नहीं, निर्यात करता है। ऐसे में यह सोचना कि भारत के मध्यम वर्ग की हालत बदलने का असर सारी दुनिया पर पड़ रहा है तो यह पूरी तरह गलत है। हमारा मध्यम वर्ग अच्छा खाना मांग रहा है तो बुश को तकलीफ हो रही है पर हमारा गरीब भूखा भी सो रहा है। बुश उसे क्यों नहीं देखते ? देखें भी कैसे, अमेरिका में तो हर चीज की प्रति व्यक्ति खपत शेष दुनिया से कई गुना ज्यादा है।

वैसे भी भारत की अर्थव्यवस्था कुछ मामलों में पिछले 4-5 वर्षों से तेजी से बढ़ रही है और ऐसा नहीं है कि अमेरिका को इस बात का पता अचानक चला है। बुश ने यह गलती भोलेपन में भी नहीं की है। सब जानते हैं कि अमेरिका ने अनाज का उत्पादन करने की जगह बायो-फ्यूएल और कैश क्राॅप पर जोर देना शुरू कर दिया है। इसलिए आज अगर दुनिया में अनाज का संकट है तो अमेरिकी नीतियों के कारण और कीमतें बढ़ रहीं तो उसी के कारण।

इसी तरह भारत में भी खेती की जमीन कम हो रही है और उसकी जगह उद्योग व कल कारखाने लग रहे हैं तो इसका कारण भी अंतर्राष्ट्रीय शक्तियों का दबाव किसी से छिपा हुआ नहीं है। हां शहरीकरण का विस्तार भी इसका एक कारण है। पर प्रश्न है कि अमरीका में मक्का और वनस्पति तेल का उपयोग अगर बायो-डीजल के उत्पादन के लिए किया जाएगा तो क्या इसका असर नहीं होगा ? अकेले अमेरिका में एथनाॅल के उत्पादन में उपयोग की गई मक्का की मात्रा दुनिया भर के कुल उत्पादन के 5 फीसदी के बराबर है। यह दुनिया भर में होने वाले अनाज के कारोबार का एक तिहाई से भी ज्यादा है। इसके अलावा खाद्यान्न की एक फसल का उपयोग बायो-फ्यूएल के लिए किए जाने का असर दूसरे अनाज पर भी होता है। इसीलिए भारत ने अमेरिका से कहा है कि वह उसे देश की अहार सुरक्षा को जोखिम में डाले बगैर बायो-फ्यूएल कार्यक्रम को जारी रखने के तरीके सिखा सकता है।

बुश को भारत की निन्दा करने से पहले चाहिए कि कृषि भूमि का उपयोग दूसरे कामों के लिए करना छोड़ें। सब जानते हैं कि अमेरिका और इंग्लैंड जैसे देशों में अनाज का उत्पादन करने वाली जगह कम हुई है। इसलिए वहां संकट पैदा हो रहा है। भारत ने इस मामले पर पहले ही विचार कर लिया है और इसके लिए बनाई जाने वाली कार्ययोजना में यह स्पष्ट किया जाने वाला है कि कृषि भूमि या मनुष्यों के खाने वाले अनाज का उपयोग बायो-फ्यूएल बनाने के लिए नहीं किया जाएगा। तब इससे देश की आहार सुरक्षा के लिए कोई खतरा पैदा नहीं होगा। पर अमरीका की बात करें तो वहां कृषि की जगह कृषि कारोबार हो रहा है। इस साल वहां उपजे कुल अनाज के 30 फीसदी का उपयोग बायो-फ्यूएल के लिए हुआ है। जबकि पिछले साल यह मात्रा केवल 18 फीसदी थी। विशेषज्ञों का कहना है कि इस साल अमरीका में बायो-फ्यूएल के उत्पादन में दस करोड़ टन अनाज खप जाएगा। जबकि इसका उपयोग दुनिया में भूखे लोगों को खिलाने में किया जा सकता था। अमरीका यह कभी नहीं करेगा और दूसरों को उपदेश देता रहेगा।

उल्लेखनीय है कि भारत की आबादी प्रतिवर्ष लगभग डेढ़ फीसदी बढ़ रही है और प्रति व्यक्ति खाद्य पदार्थ की मांग भी बढ़ रही है। चिंता की बात है कि हमारे यहां अनाज और दाल के उत्पादन की वृद्धि आबादी में वृद्धि की दर से नहीं हो रही है। यहां भी वैश्वीकरण एक कारण रहा है। खेसरी दाल को घातक बता कर उसे प्रतिबंधित करवा दिया गया। जबकि यह दाल कम पानी में भी उपजाई जाती थी और गरीब के घर खूब पकती थी। नागपुर के डाॅ. शान्तिलाल कोठारी इस प्रतिबंध के बावजूद धड़ल्ले से खेसरी दाल उगा रहे हैं और वर्षों से खा रहे हैं। जरूरत है कि सरकार इन गलतियों को सुधारे। अस्थायी राहत देने के उपाय कुछ समय के लिए कारगर हो सकते हैं पर स्थायी समाधान के लिए कुछ दूसरे उपाय करने होंगे जिसके लिए भारत में पूरी संभावना है। बशर्ते कि हम कृषि के देशी तरीकों को फिर से और समझदारी से अपनाने को तैयार हों। पर जाॅर्ज बुश के अहमकाना बयानों की परवाह करने की हमें कोई जरूरत नहीं है। 

Sunday, May 4, 2008

क्या बताना चाहते हैं राहुल गांधी ?

Ranchee Express 5-5-2008
राहुल गांधी देश के पिछड़े इलाकों में दौरे करके आम आदमी की बदहाली का जायजा ले रहे हैं। इससे पहले सभी दलों के युवा सांसदों ने भी ऐसी ही एक साझी कोशिश की थी। ये युवा सांसद हैरान है कि सरकार की तमाम नीतियां गरीबों के हक में होने के बावजूद जमीनी हकीकत इतनी हृदयविदारक क्यों हैं ? ये बात दूसरी है कि इनमें से सभी बहुत सफल, संपन्न और दीर्घ काल तक सत्ता में रहे राजनेताओं के साहबजादे और साहेबजादियां हैं। आश्चर्य की बात यह है कि जो बात इस देश के साधारण स्कूलों में पढ़ने वाले बच्चे भी जानते हैं, उस बात को जानने के लिए विदेशों में पढ़े इन युवा सांसदों को इतनी कवायद करने की क्या जरूरत है ? खुद राहुल गांधी के पिता और पूर्व प्रधानमंत्री यह स्वीकार चुके हैं कि रूपए में 14 पैसे भी आम आदमी तक नहीं पहुंचते। नोबल पुरास्कार विजेता भारतीय मूल के अर्थशास्त्री डा. अमत्र्यसेन भी यही मानते हैं कि भारत में गरीबी का कारण भ्रष्टाचार है। इसलिए देश की गरीबी, बेरोजगारी और बदहाली पर आंसू बहाने की बजाए इन युवा सांसदों को प्रशासनिक भ्रष्टाचार के विरूद्ध मोर्चा खोलना चाहिए। क्योंकि गरीबी और बेरोजगारी का कारण है भ्रष्टाचार।

विकास की नीतियां बनाने वालों का जमीन से कोई मतलब नहीं होता। ये नीतियां राजनैतिक फायदे के लिए ज्यादा और आम आदमी को राहत पहंुचाने के लिए कम होती हैं। दूसरी तरफ नीतियां लागू करने वाली राज्य सरकारें और उसकी मशीनरी का मकसद हर योजना के आवंटन का अधिकतम पैसा अपनी जेब में पहुंचाना होता है। इसलिए कोई भी राजनैतिक दल इस बुनियादी समस्या पर चोट नहीं करता। क्योंकि हमाम में सब नंगे हैं। राजनैतिक लाभ के लिए भ्रष्टाचार पर केवल शोर मचाने का नाटक किया जाता है। वैसे भी हर आदमी दूसरे पर ही अंगुली उठाता है और खुद के दामन के दागों को छुपाता हैं। इसमें कोई अपवाद नहीं। यहां तक कि देश की सर्वोच्च न्यापालिका भी नैतिकता के मामले में दोहरे मानदंडों का समर्थन कर रही है। सूचना के अधिकार के दायरे में लाए जाने से न्यायपालिका खुश नहीं है। जबकि न्यायपालिका में फैले भ्रष्टाचार से निपटने का कोई तरीका आज उपलब्ध नहीं है। फिर भी न्यायपालिका न तो अपने ऊपर अंकुश चाहती है और ना ही जवाबदेही।

जबसे संसद की सलाहकार समिति ने न्यायपालिका को सूचना के अधिकार कानून के दायरे में लेने की सिफारिश की है तब से भारत के मुख्य न्यायाधीश काफी उखड़े हुए हैं। उनका कहना है कि वे संवैधानिक पद पर हैं और संवैधानिक पदों को ऐसे कानून के दायरे में नहीं लिया जा सकता। जबकि लगभग सभी सांसदों और सभी राजनैतिक दलों का मानना है कि न्यायपालिका की जवाबदेही सुनिश्चित होनी चाहिए। लोकतंत्र के चार खम्बों में से एक है न्यायपालिका। जो किसी के प्रति जवाबदेह नहीं हैं। बाकी तीन खम्बें हैं कार्यपालिका, विधायिका और मीडिया। कार्यपालिका की जवाबदेही विधायिका के प्रति होती है और विधायिका की जनता के प्रति और मीडिया की जवाबदेही उसके पाठकों के प्रति होती है। आदर्श स्थिति में ये चारों अंग एक-दूसरें के पूरक और एक दूसरे पर निगाह रखने का काम करें तो लोकतंत्र सुदृढ़ होता है। संविधान के निर्माताओं ने न्यायाधीशों को बाकी तीन अंगों के प्रति जवाबदेह न बना कर न्यायपालिका की गरिमा को स्थापित किया था। पर आज वह गरिमा न्यायपालिका के आचरण से ही टूट रही है। इसलिए देश में यह मांग उठ रही है। न्यायपालिका का आचरण अगर पारदर्शी नहीं होगा तो गरीब को उसका हक कैसे मिलेगा ?

जहां तक सरकार की नीतियों के क्रियान्वयन का प्रश्न है तो उसका एक दूसरा प्रभावी तरीका हो सकता है कि इन योजनाओं को लागू करने में समाज सेवी और जागरूक लोगों व प्रतिष्ठित स्वयं सेवी संस्थाओं की मदद ली जाए। क्यांेकि ये लोग सेवाभावना से, निष्ठा से और कम खर्चीले तरीके से काम करने के आदी होतीे है। मुश्किल इस बात की है कि सच्चे और अच्छे लोगों और संस्थाओं को ऐसे कार्यक्रमों में शामिल नहीं किया जाता। एन.जी.ओ. के नाम पर भी आला अफसरों और नेताओं के घरों की महिलाएं और बच्चे संगठन बना लेते हैं और योजनाओं का करोड़ो रूपया डकार जाते हैं। इसलिए देश के गरीब और आदिवासी बदहाल हैं।

कैसी विडंबना है कि सरकार के पास देश की बदहाली दूर करने के लिए हजारों करोड रूपया है। सैकड़ों योजनाएं हैं। लाखों कर्मचारी हैं। पर जमीनी हालत नहीं बदलती। एक तरफ हम विकास की दौड़ में तेजी से बढ़ना चाहते है और दूसरी तरफ हम अपनी बदहाली के कारणों को देखकर भी अनदेखा कर देते हैं। इसीलिए कुछ नहीं बदलता। हर नया नेता, नए सपने दिखाकर मतदाताओं को लुभाना चाहता है। राहुल गांधी भी ऐसे ही सपने दिखा रहे हैं। लोग सब समझते हैं। फिर भी कुछ कर नहीं पाते। क्योंकि उनके पास कोई विकल्प है ही नहीं। हां इतना बदलाव जरूर आया है कि अब मतदाताओं को आसानी से ठगा नहीं जा सकता। ठोस काम करने वाला मतदाता की निगाह में चढ़ता जरूर है। इसलिए राहुल गांधी को भी कुछ ठोस कार्यक्रम बनाने चाहिए। जिनसे देश में बदलाव आए। अभी उनके पास काफी वक्त है। वे जोखिम उठा सकते हैं। इसलिए जनता की बदहाली पर आंसू बहाने से बेहतर हो कि वे स्थायी बदलाव की कोशिश करें।

Sunday, April 27, 2008

भाजपा को मुद्दों की तलाश


Rajasthan Patrika 27-04-2008
गत दिनों संघ समर्थित स्वदेशी जागरण मंच का राष्ट्रीय सम्मेलन वृन्दावन में हुआ। जिसमें भाजपा से बहुत पहले अलग हट चुके गोविन्दाचार्य को वैकल्पिक राजनीति के नेता के रूप में प्रस्तुत किया गया। देश भर से आये सैकड़ों लोगों ने जो जमीनी स्तर पर रचनात्मक  कार्यों से जुड़े हैं, देश में नई और देशी राजनीति की जरूरत पर जोर दिया। कई वक्ताओं ने साफ-साफ कहा कि गोविन्दाचार्य को देश के अगले प्रधानमंत्री के रूप में जनता के सामने पेश किया जाना चाहिए। क्योंकि उनकी सोच और जीवन जमीन से जुड़ा है। वे बेदाग है। उनमें राजनीतिक सूजबूझ है और उनको स्वीकारने में अनेक दलों को संकोच नहीे होगा। आश्चर्य की बात यह है कि जब इस तरह के वक्तव्य दिये जा रहे थे तो संघ के सह-सरसंघचालक मदन दास देवी, भाजपा के सांसद बलबीर पुंज, लालकृष्ण आडवाणी के निकट सहयोगी एस गुरू मूर्ति और तमाम दूसरे भाजपा नेता भी वहीं मौजूद थे। ऐसे में कई प्रश्न खड़े हुए।

 क्या संघ आडवाणी जी की प्रधानमंत्री की उम्मीदवारी से संतुष्ट नहीं है ? क्या गोविन्दाचार्य को फिर से भाजपा में लाने की तैयारी की जा रही है? क्या वास्तव में गोविन्दाचार्य यह महसूस करते हैं कि देश में वैकल्पिक राजनीति खड़ी करने का वक्त आ गया ? या फिर ये सारी कसरत भाजपा के लिए चुनावी मुद्दे तय करने को की जा रही है ? दशकों से देश के विभिन्न हिस्सों में काम करने वाले इन समर्पित लोगों को देश की मौजूदा परिस्थिति से घोर निराशा है। उनकी चिंता का विषय है आम आदमी का जीवन। देश के जंगल, पर्वत, पानी और जमीन पर मंडराते खतरे। कृषि की तेजी से बिगड़ती हालत। युवाओं में तेजी से बढ़ती बेरोजगारी, हताशा और हिंसा। अमीर और गरीब के बीच चैड़ी होती खाई और राजनेताओं में समाज के प्रति घटती प्रतिबद्धता। ऐसे लोगों को इस बात पर बेहद नाराजगी है कि देश की मौजूदा समस्याओं के समाधान देश में ही मौजूद होने के बावजूद हमारे हुक्मरान और वैज्ञानिक पश्चिम के बाजारीकरण के शिकंजे में फंसते जा रहे है। अपने ही हाथों अपने देश की स्वस्थ परंपराओं, संसाधनों और क्षमताओं का गला घोंट रहे हैं। इसलिए देश को आज वैकल्पिक राजनीति की जरूरत है।

जिस तरह के क्रान्तिकारी फैसले ऐसे सम्मेलनों में लिए जाते हैं उनका कोई प्रभावी क्रियान्वन कभी हो पाता हो ऐसा पिछले तीस साल में तो देखा नहीं गया। 1977 के जनता शासन के बाद से ही ऐसे तमाम सम्मेलन देश भर में होते रहे हैं और उनमें सŸाा पलटने के मंसूबे दोहराए जाते रहे हैं। पर व्यवाहरिक समझ की कमी और राजनीति की शतरंज पर बिछी गोटियों को पार पाने की कुटिलता के अभाव में ऐसे मंसूबे धरे के धरे रह जाते हैं। फिर ये गबायद क्यों की गई। एनडीए के राष्ट्रीय संयोजक जाॅर्ज फर्डानीज की मौजूदगी में इस तरह की बातें करना साफ जाहिर करता है कि इस सम्मेलन में कुछ लोगों का छिपा उदेश्य भाजपा के लिए मुदों की तलाश करना ही था।

 जहां तक भाजपा या एनडीए के नेतृत्व का प्रश्न है इसमें कोई संदेह नहीं कि लाल कृष्ण आडवाणी को नेता स्वीकार कर लिया गया है। अगर केन्द्र में एनडीए की सरकार बनती है तो प्रधान मंत्री पद के लिए उन्हीं का नाम रहेगा। हां अगर यह सरकार बसपा जैसे दलों के सहयोग से बनती है तो समीकरण बदल सकते हैं। गोविन्दाचार्य अगर भाजपा से फिर जुड़कर काम करना चाहेंगे तो उनके विचारों को तरजीह दी जा सकती है। उन्हें चुनावी रणनीति बनाने की छूट मिल सकती है। उनकी दिक्कत यह है कि पिछले कुछ वर्षों में उन्होंने अपनी जो छवि बनाई है वह उन्हें भाजपा में लौटने से रोक रही है।

दूसरी तरफ आज देश के हालात कुछ ऐसे है कि लोकसभा चनावों के परिणाम चैंकाने वाले आ सकते हैं। पिछले 10 वर्षों से देश की जनता को यह अनुभव हुआ है कि कई दलों कीसाझी सरकार से काफी नुकसान होता है। हर सहयोगी दल मोल-तोल की राजनीति करके Ÿाा में अपना हिस्सा बढ़ाना चाहता है। इन दलों की नजर मलाईदार विभागों पर रहती है। इनकी मंशा जनहित से अधिक अपना फायदा करने की होती है। दूसरी तरफ इस खींचतान में
सरकार कड़े निर्णय नहीं ले पाती। इसलिए लगता ये है कि इस बार जनता कांग्रेस या भाजपा को बहुमत देकर सŸाा में भेजे। आज यह आंकलन अटपटा लग सकता है। खासकर उन लोगों को जो खुद को राजनीति का पंडित मानते है। पर ये वही लोग है जिन्हें गुजरात और उ. प्रके विधानसभा के चुनावों के मतदान के दिन तक यह पता नहीं था कि हवा का रूख किस तरफ होगा। समस्या ये है कि टेलीविजन चैनलों पर ही नहीं राजनैतिक दलों के भीतर भी विश्लेक्षण करने वाले लोग जमीन से कटे हुए है। पर लगता यही है कि इस बार मतदाता चैकाने वाले परिणाम देगा। इसलिए दोनों ही दलों को ठोस मुदों की तलाश है।

जहां तक भाजपा का सवाल है उसके पास वाकई ठोस मुदों और विश्वसनीय चेहरों का अभाव है। इसलिए भाजपा का शिखर नेतृत्व हर संभव माध्यम से सूचना संचय करके अलगे चुनाव की ठोस रणनीति बनाना चाहता है। लगता है कि संघ की सभी इकाई मुद्दे खोजो अभियान में जुट गयी है। स्वदेशी जागरण मंच का राष्ट्रीय सम्मेलन भी इसी कड़ी में किया गया एक प्रयास था। पर जिन मुद्दों पर इस सम्मेलन में सहमति बनी उनको स्वीकारना भाजपा के लिए आसान नहीं है। दुख की बात ये है कि क्रान्तिकारी कदमों के बिना हालात बदलेंगे नहीं और दक्षिण पंथी दल क्रान्तिकारी फैसले लिया नहीं करते। इसलिए कुछ ठोस बदलता भी नहीं। आज के हालात में सŸाा चाहे भाजपा की हो या इंका की या यूं कहे कि एनडीए की हो या यूपीए की नीतियां बदलने वाली नहीं हैं। गत 10 वर्षों से दोनों सरकारों के कार्यकाल में ऐसा ही अनुभव देशवासियों का रहा है। जरूरत इस बात कि है कि भाजपा उन सवालों को उठाए जिन्हें हल करना उसके बस में हो। अगर कथनी और करनी में भेद की गुंजाइश कम से कम होगी तो विश्वसनीयता भी बढ़ेगी और जीत की संभावना भी। देश के सामने ऐसे तमाम सवाल हैं जिनका हल मौजूद है। बशर्तें कि भाजपा जनता को वायदों से आगे बढ़कर कुछ ठोस देना चाहती हो।

Sunday, April 20, 2008

खुदा के लिए कुरान को समझो

Rajasthan Patrika 20-04-2008
पुरानी कहावत है कि ’अति सर्वत्र वर्जते यानी किसी भी चीज का ’हद से गुजर जाना है दवा हो जाना’। आंसमय से फिरकापरस्ती के खिलाफ इस्लाम के दीनी लोग ही खुलकर आवाज उठाने लगे हैं। जब से न्यूयार्क के वल्र्ड ट्रेड सेंटर की इमारतें आतंकवादियोंतकवाद जिस तेजी से पूरी दुनिया में फैला उससे गैर मुस्लिम ही नहीं इस्लाम के मानने वाले भी परेशान हो गए। इसलिए पिछले कुछ के हवाई हमले का शिकार हुई हैं तब से पूरी दुनिया के लोग इस्लाम को मानने वालों को शक की नजर से देखने लगे हैं। पर गेहूं के साथ अक्सर घुन भी पिसता है। ऐसा नहीं है कि इस्लाम को मानने वाले सभी लोग फिरकापरस्त हैं, जेहादी हंै या आतंकवादी हैं। हकीकत यह है कि ज्यादातर मुसलमान अमन चैन और तरक्की चाहते हैं। वे आतंकवाद के सख्त खिलाफ हैं। पर आतंकवादियों और कठ्मुल्लों के डर के कारण चुप रह जाते हैं। खुलकर विरोध नहीं करते। इस रवैए में पिछले कुछ महीनों में तेजी से बदलाव आया है। मुस्लिम समाज के अलग-अलग वर्गों के लोग अब आतंकवाद के खिलाफ खुलकर बोलने लगे हैं।

पूरी दुनिया के मौलवियों को दीनी तालीम देने के लिए मशहूर जमीयत उलेमा-ए-हिंद, देवबंद में पिछले दिनों दुनियाभर के मौलवियों का एक सम्मेलन हुआ। आपसी रजामंदी के बाद इस्लामवेत्ताओं ने एक अंतर्राष्ट्रीय फतवा जारी किया। जिसमें आतंकवाद की कड़े शब्दों में आलोचना की गई और यह कहा गया कि आतंकवाद इस्लाम का विरोधी है। यह भी कहा गया कि कुरान पाक आतंकवाद की इजाजत नहीं देती। इस फतवे के माध्यम से दुनियाभर के मुसलमानों को आतंकवाद का विरोध करने का आदेश दिया गया। यह एक ऐतिहासिक घटना थी जिसे पूरी दुनिया के मीडिया ने प्रचारित किया।

इसी क्रम में और भी कई तरह के प्रयास इस्लाम को मानने वालों ने हाल के दिनों में किए हैं। जिससे आतंकवाद को हतोत्साहित किया जा सके। पर पिछले दिनों भारत में आई पहली अधिकृत पाकिस्तानी फिल्म ’खुदा के लिए’ ने तो कमाल ही कर दिया। पाकिस्तान में बनी इस फिल्म ने पूरी दुनिया के मुसलमानों को फिरकापरिस्ती का घिनौना चेहरा उघाड़ कर दिखा दिया है।

इस फिल्म की खासियत यह है कि कट्टरपंथी जिन-जिन बातों पर युवाओं को बरगलाते हैं, उनका दिमाग काबू में कर लेते हैं और उन्हें फिदाईन बना देते हैं उन सभी बातों को कुरान शरीफ की ही आयतों की मार्फत इतनी खूबसूरती और तर्क के साथ काट कर रखा गया है कि कट्टरपंथी बेनकाब हो जाते है। फिल्म में दिखाई गई सैद्धांतिक तकरार अगर कोई गैर मजहबी फिल्म निर्माता दिखाता या गैर मजहबी कलाकारों के माध्यम से रखी जाती तो शायद अब तक बबेला मच जाता। पर ये फिल्म पाकिस्तान में बनी है और इसको बनाने वाले और इसमें भूमिका अदा करने वाले सभी किरदार मुसलमान है इसलिए विरोध की गुंजाइश नहीं बचती। इसकी सबसे प्रभावशाली बात तो यह है कि इस फिल्म में मौलवियों की टक्कर मौलवियों से ही करवायी गई है और हर सवाल का जवाब तर्का से और कुरान की आयातों से इस तरह दिया गया है कि कठ्मुल्ले खुद ही बगले झांक रहे हैं। आश्चर्य की बात यह है कि आमतौर पर फिरकापरस्त माने जाने वाले पाकिस्तान में यह फिल्म बेहद लोकप्रिय हो रही है। साफ जाहिर है कि पाकिस्तान की जनता कठ्मुल्लों के कारनामों से आजि़ज आ गई है और खुली हवा में सांस लेना चाहती है। वरना यह फिल्म पाकिस्तान में चलने नहीं दी जाती।

भारत की निरीह जनता अर्से से आतंकवाद का शिकार हो रही है। भारत के सूचना तकनीकि केन्द्र बंगलूर से लेकर कश्मीर की घाटी तक कितने ही पढ़े लिखे मुसलमान नौजवान कठ्मुल्लों के जाल में फंसकर बर्बाद हो रहे हैं। ऐसे में यह फिल्म महत्वपूर्ण भूमिका अदा कर सकती है। भारत में बनी मिशन कश्मीर, फिज़ा, ब्लैक एंड व्हाइट, रोज़ा, बोम्बे, दिल से जैसी फिल्में भी इसी मकसद से बनाई गईं थीं। जिनमें आतंकवाद का अमानवीय पक्ष और दोनों मजहबों की इंसानियत की मिसालें पेश की गईं। पर ‘खुदा के लिए’ फिल्म में जो कोशिश की गई है वह सबसे अलग और ज्यादा प्रभावी है। भारत सरकार को इस फिल्म को मनोरंजन कर से मुक्त करके दूरदर्शन व दूसरे टीवी चैनलों पर भी इसका प्रसारण करवाना चाहिए। इससे समाज में जागृति फैलेगी।

वैसे सरकार कोई निर्णय ले या न ले देश की जनता खुद ही इस फिल्म को देखेगी जरूर। जिसका अच्छा असर समाज पर पड़ेगा। दरअसल फिरकापरस्ती या धर्मान्धता किसी भी धर्म की क्यों न हो घातक ही होती है। जो धर्मगुरू नफरत, हिंसा और दूसरों को सताने या दुख पहुंचाने की सलाह देते हैं वे धर्म के व्यापारी तो हो सकते हैं पर आध्यात्मिक या रूहानी नहीं। हमेशा से ऐसे ही धर्मगुरूओं ने समाज में वैमनस्य के बीज बोए हैं। भोली भाली जनता को ठग कर ये लोग समाज को गुमराह करते हैं। समझदार लोग इनकी असलियत देख सुनकर भी खामोश रह जाते हैं। इनके आगे बोलने या इनकी बात काटने की हिम्मत नहीं जुटा पाते। नतीजतन समाज अंधेरी सुरंग में अनजाने ही धकेल दिया जाता है। जैसा मुस्लिम समाज के साथ अर्से से हो रहा है। ’खुदा के लिए’ फिल्म के निर्माता ने बहुत बहादुरी का काम किया है। हर मजहब के खोखलेपन को उजागर करने के लिए ऐसी बहादुरी समय-समय पर फिल्म निर्माताओं को दिखानी चाहिए। तभी फिल्म उद्योग जनता का हित कर पाएगा। वैसे भी फिल्म का माध्यम संदेश देने के लिए बहुत सशक्त तरीका है। जिसका अगर सही उपयोग हो तो समाज और देश को बहुत लाभ मिल सकता है।

Sunday, April 6, 2008

दलित आकांशाएं नएं शितिज पर

Rajasthan Patrika 06-04-2008
भारतीय किसान यूनियन के जाट नेता महेन्द्र सिंह टिकैत का बिजनौर की अदालत में माफी मांगना कोई साधारण घटना नही हैं। ये वही टिकैत है जिन्होंने 1987 में मेरठ की कमिश्नरी का तीन हफ्ते तक घिराव करके उत्तर प्रदेश की सरकार को हिला दिया था। बाद के वर्षों में दिल्ली के बोट क्लब पर टिकैत की किसान रैलियों से भारत सरकार भी घबरा गई थी। टिकैत आज भी पश्चिमी उत्तर प्रदेश के किसानों के काफी ताकतवर नेता है। पिछले हफ्ते अपनी पुरानी ठसक में उन्होंने उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री मायावती के खिलाफ जाति सूचक अपमानजनक टिप्पणी की तो उन्हें सपने में भी अहसास नहीं होगा कि मायावती अपनी ताकत के बल पर घुटने टिकवा देंगी। दलित ताकत के सामने इस तरह समर्पण करने के गहरे मायने हैं।

पिछले 50 वर्षों के सफर के बाद दलित राजनीति और दलित आत्मस्वाभिमान आन्दोलन आज उस मुकाम पर पहुच गया है जहां दलित अब केवल हरिजनजैसे अलंकरणों से संतुष्ट होने वाले नहीं। अब उन्हें अपनी खुद की राजनैतिक सत्ता चाहिए वह भी अपनी शर्तों पर, कोई खैरात की तरह नहीं। भारत के सामाज सुधार आन्दोलनों की दिशा में यह एक ऐतिहासिक स्थिति पैदा हुई है। आज उत्तर प्रदेश के ब्राहमण विधायक मंत्री पद की शपथ लेते समय बहनजी के  चरण छूते है। सत्ता में हो या सत्ता के बाहर मायावती के तेवरों में दलित क्रान्ति की धार है और व्यवहार में दलित उत्पीड़न के इतिहास का आक्रोश। उधर अंबेडकर का धर्म परिवर्तन आन्दोलन भी अब महाराष्ट्र, तमिलनाडु, उड़ीसा व आन्ध्र प्रदेश में तेजी से फैल रहा है। जहां दलित बड़ी तादाद में बुद्ध धर्म स्वीकार कर रहे हैं।

दरअसल डा¡. भीमराव अंबेडकर ने इस बात को बहुत पहले समझ लिया था कि ब्राह्मणवादी हिन्दू व्यवस्था में दलितों के सामाजिक उत्थान की बहुत संभावना नहीं है। उनका मानना था कि भक्ति युग के सुधार आन्दोलनों में वो धार नहीं कि दलितों को राजनैतिक सत्ता में हिस्सा दिला सकें। इसीलिए उन्होंने एक तरफ तो दलितों को बुद्ध धर्म में दीक्षित कराने का अभियान चलाया। जिससे दलितों को एक निर्विवाद सामाजिक हैसियत मिल सके। दूसरी ओर उन्होंने रिपब्लिकन पार्टी आ¡फ इंडिया बनाकर दलितों के राजनैतिक भविष्य की आधारशिला रखी। अंबेडकर का मानना था कि आधुनिक लोकतंत्र में हिन्दू धर्म आधारित पारंपरिक सामाजिक व्यवस्था के चलते दलित अपनी अछूतछवि के कारण बहुत आगे तक नहीं जा पाएंगे जबकि आधुनिक राजनैतिक व्यवस्था में हर नागरिक को उसका हक और सत्ता में हिस्सा मिल सकता है।

समाजशास्त्री हरीश वानखेड़े का कहना है कि डा¡. अंबेडकर भगवान बुद्ध की शिक्षाओं से बहुत प्रभावित थे। उन्हें बुद्ध धर्म में नैतिकता, सादगी, स्वतंत्रता, शुद्धता जैसे मूल्यों के प्रति आकर्षण था। वे अहिंसा के रास्ते सामाजिक परिवर्तन लाना चाहते थे। उन्हें लगता था कि भगवान बुद्ध के मार्ग पर चलकर भारत के दलित अपनी सामाजिक अवस्था सुधार पाएंगे। अंबेडकर के बाद के दलित आन्दोलनों ने इन नैतिक पक्षों की उपेक्षा कर दी। इसलिए ये आन्दोलन सामाज सुधार की दिशा में प्रगति नहीं कर पाए। केवल राजनैतिक सत्ता हासिल करने तक का लक्ष्य लेकर उलझ गये।

काशीराम ने बहुजन सामाज पार्टी के माध्यम से दलितों को एक जुट करने का, उन्हें भविष्य की दृष्टि देने का और उन्हें अंधविश्वासों से मुक्त करने का काम भी साथ साथ किया। इसीलिए शुरू से ही बसपा दलितों की राजनैतिक महत्वाकांक्षाओं को हासिल करने का मंच बनी। काशीराम ने अपने सोशल इंजीनियरिंग के फोर्मूले से दलितों को एक वैचारिक आधार दिया और ये समझा दिया कि धर्म, वर्ण व धर्मनिरपेक्षता के शब्द जालों से वे उंची जातियों के प्रभुत्व से अलग नहीं हो पाएंगे। इसलिए उन्होंने अल्पसंख्यकों को दलितों के साथ जोड़कर अपना वोट बैंक तैयार किया। बावजूद इसके काशीराम सत्ता में अपनी उल्लेखनीय भागीदारी सुनिश्चित नहीं कर पाए।

मायावती ने इस कमी को समझा और ये महसूस किया कि ब्राह्मण जैसी कुछ  सवर्ण जातियों को भी साथ लिये बिना कुर्सी पर काबिज नहीं हुआ जा सकता। उनका ये प्रयोग उतर प्रदेश में सफल हो गया। शायद यही वजह है कि अब वे इसी फोर्मूले को अन्य प्रांतों में अन्य जातियों के साथ जोड़कर परखना चाहतीं है। जैसे हरियाणा में उन्होंने दलित जाट एकता का नारा दिया। पर मायावती की रणनीति में बुद्ध धर्म की शिक्षाओं का कहीं स्थान दिखाई नहीं दे रहा। इस तरह पूरा दलित आन्दोलन केवल सत्ता हासिल करने की जोड़-तोड़ तक सिमट कर रह गया है। इसलिए इस रणनीति में दलितों के सामाजिक सुधार की संभावनाएं धूमिल पड़ गयी हैं। ये डा¡. अंबेडकर की विचारधारा और रणनीति के बिल्कुल विपरीत स्थिति है। जिसके चलते दलितों का सामाजिक उत्थान होना संभव नहीं है। केवल संवर्णों के राजनैतिक वर्चस्व को चुनौती देने की मानसिकता से मैदान में उतरी बसपा बहुत दूर तक नहीं चल पाएगी। इसके अंतर्विरोध व असंतुष्ट नेताओं की राजनैतिक महत्वाकाक्षांऐ इसे कई खंडों में विभाजित कर सकती है। जरूरत इस बात की है कि मायावती इन गंभीर विषयों को समझें और भारतीय समाज के यर्थाथ को ध्यान में रखते हुए अपना आगे का एजेंडा तय करें। केवल विरोध से कुछ हासिल होने वाला नहीं है। यह उन्होंने उत्तर प्रदेश में अनुभव कर लिया है। अगर वे शेष देश के दलितों को भी जोड़कर उनका हक दिलाना चाहती है। तो उन्हें और भी उदारता का परिचय देना होगा। दूसरे की भावनाओं  और आस्थाओं पर हमला किए बिना वे दलितों का ज्यादा भला कर पाएंगी। जिसके लिए उन्हें अपने आन्दोलन के नैतिक व आध्यात्मिक पक्ष को भी मजबूत बनाना होगा। दोनों प्रक्रिया साथ-साथ चलानी होगी। वरना राजनीति की शतरंज में कभी भी हाशिए पर बिठा दी जाएंगी।