Rajasthan Patrika 18-11-2007 |
होता यह है कि जब कोई वाहन चालक चाहे वह बुजुर्ग हो या अधेड़, युवा हो या स्त्री सड़कों पर शालीनता से अपनी गाड़ी चलाते हुए जाता है तो ये रईसजादे उन्हें नाहक रौंद देते हैं। क्योंकि ये तेज गति से भीड़ चीरते हुए सबसे आगे निकलना चाहते हैं। अपनी गाड़ी के सामने कोई अवरोध इन्हें बर्दाश्त नहीं होता। चाहे सामने वाला हालात से मजबूर होकर ही वह अवरोध कर रहा हो। ऐसे में यह लोग अपनी गाड़ी से उतर कर दूसरी गाड़ी वाले को बाहर खींच लेते हैं। उसकी बुरी तरह धुनाई करते हैं। उसकी गाड़ी पर बार-बार जानबूझ कर टक्कर मारते हैं। कई बार तो उस पर गाड़ी सीधी चढाकर उसे मार डालते हैं। आए दिन राजधानी के अखबार ऐसी खौफनाक खबरों से भरे रहते हैं। इस रोड रेज में निरपराध आम नागरिक रोज शिकार होते हैं। पुलिस कुछ भी नहीं कर पाती। क्योंकि घटना स्थल पर तब पहुंचती हैं जब ये कांड हो चुकते हैं।
एडमिरल नन्दा का पोता बीएमडब्ल्यू कांड में फंसा हो या फिल्मी सितारा सलमान खान फुटपाथ पर सोने वालों को कुचलने का आरोप झेल रहा हो तो ये कोई अपवाद नहीं है। ऐसे नौजवानों की तादाद बहुत तेजी से बढ़ रही है। घर में आती अकूत दौलत, माता-पिता का कोई नियंत्रण न होना, नशे की आदत, जिम जाकर बनाई अपनी मांसपेशियों के प्रदर्शन की चाहत, फिल्मी हिंसा का असर सड़कों पर बढती करों की संख्या व तंग होती सड़कें कुछ ऐसे कारण हैं जो इस तरह की हिंसा के लिए जिम्मेदार हैं।
मौजूदा कानून सड़क दुर्घटना के लिए जिम्मेदार लोगों को कड़ी सजा नहीं दे पाता। सजा मिलने में भी 10-12 वर्ष से भी ज्यादा का वक्त लग जाता है। इसलिए इन बिगडै़ल साहबजादों के मन में कानून का कोई डर नहीं है। आधुनिकता ने नाम पर इन महानगरों में अब फार्महाउसों पर रात भर डांस पार्टियां चलती हैं। जिनमें शराब और अश्लीलता का नंगा नाच होता है और इनमें शिरकत करते हैं ताकतवर और पैसे वालों के बेटे-बेटियां। रात के डेढ-दो बजे जब ये पार्टियां खत्म होती हैं तब ये सड़कों पर खूब हंगामा काटते हैं। खाली सड़कों पर नाहक अपनी गाडि़यों के वीआईपी सायरन जोर-जोर से बजा कर आस-पास के घरों में सोने वाले लोगों की नींद में खलल डालते हैं। शहर की सड़कों को कार रेस का मैदान बना देते हंै। गाडि़यों में बजने वाले कान फोडू संगीत से पूरे इलाके में शोर मचा देते हैं। इसी मदमस्ती की हालत में अपनी गाड़ी में बैठी लड़कियों को प्रभावित करने के लिए ये बिगडै़ल साहबजादे सड़क चलते लोगों को रांैदते, पीटते और डराते हुए चलते हैं। पर इनका कोई इनका कुछ नहीं बिगाड़ पाता। इस तरह का आतंक रात में ही नहीं दिन में भी आए दिन देखने को मिलता है। पिटने वाला पिटता रहता है और कोई तमाशबीन मदद को सामने नहीं आता।
उधर पिछले दो दशकों में महानगरों में बढ़ते भवन निर्माण के कारण गांवों की जमीनें कई गुने दाम पर बिकने से अचानक इन गांवों में भारी दौलत आ गई है। जिसे संभालने की समझ, अनुभव व योग्यता इन परिवारों के पास नहीं थी। इनकी कृषि योग्य भूमि चली जाने से अब इनके लिए कोई रोजगार बचा नहीं। इनके लड़के इतने पढ़े-लिखे नहीं हैं कि अच्छी नौकरी पा सकें। इसलिए जमीनें बेच कर कमाए गए मोटे पैसे को यह नौजवान दारू, मौज-मस्ती और सड़कों पर गाडि़यां दौड़ाने में बिगाड़ रहे हैं। ये नौजवान तो पहले से ही मजबूत कदकाठी के होते हैं। पारिवारिक संस्कार देहाती होते हैं जिनमें आधुनिक समाज के सड़क के नियमों का पालन करना अपनी तौहीन समझा जाता है। फिर नए पैसे का मद। इसलिए जब ये सड़कों पर आम जनता की धुनाई करते हैं तो तमाषबीनों की रूह कांप जाती है।
हमारी आर्थिक प्रगति के ऊंचे दावों और आधुनिकता के नशे में हम अपनी सभ्यता और मानवीयता भूलते जा रहे हैं। हम अंधे बनकर पश्चिमी देशों के उन समाजों का अनुसरण कर रहे हैं जहां इस तरह की अनियंत्रित जीवनशैली ने समाज और परिवार दोनों को तोड़ा और हिंसा, बलात्कार व आत्महत्या जैसी प्रवृत्ति को आम बना दिया। सौभाग्य से भारतीय समाज अभी भी इस पश्चिमी प्रभाव से बहुत हद तक अछूता है। क्योंकि पश्चिमीकरण की आंधी ने गांवों और कस्बों में रहने वाली भारत की बहुसंख्यक आबादी को अभी प्रभावित नहीं किया है। आवश्यकता इस बात की है कि महानगरों में रहने वाले मां-बाप, शिक्षक, सामाजिक कार्यकर्ता व राजनेता इस तरह की उद्दंडता की खुलेआम भत्र्सना करें। उसे अपनी पूरी ताकत से रोकें और ऐसा करने वालो को सुधारे या कड़ा दंड देने का प्रावधान करें। वरना हालात काबू के बाहर हो जाएंगे और रोड रेज, रोड रेज न रहकर एक नए किस्म का आतंकवाद बन जाएगी।