Friday, December 12, 2003

महासंग्राम की तैयारी


विधानसभा चुनाव में जो होना था, सो हो चुका। अब तो सबका ध्यान लोकसभा चुनाव की तरफ है। जहां भाजपा अपनी सफलता से उत्साहित है। वहीं उसके चुनाव प्रबंधक श्री प्रमोद महाजन, श्री अरुण जेटली व श्री सुधांशु मित्तल सरीखे लोग अभी से तलवार की धार पैनी करने में जुट गए हैं। श्री जेटली का श्री अजित जोगी पर ताजा वार इसका एक नमूना है। अब भाजपा और भी आक्रामक होकर चलेगी। सब मानते हैं कि श्रीमती सोनिया गांधी ही उनका मुख्य निशाना होंगी। उनका विदेशी मूल, उनकी हिंदी भाषा पर सीमित पकड़ और राजनैतिक अनुभव की कमी जैसे विषय भाजपा ने अभी से उठाने शुरू कर दिए हैं। भाजपा इस मुद्दे को उछालने में कोई कसर नहीं छोड़ेगी, यह तय है।

इलेक्ट्राॅनिक मीडिया में भाजपा ने अच्छी पैंठ बना ली है। एक - दो टीवी चैनल को छोड़कर लगभग सभी चैनलों पर भाजपा की खासी पकड़ है। हिटलर और स्टाॅलिन सिखा गए हैं कि प्रोपेगेण्डा करने के क्या-क्या तरीके होते हैं। यह जरूरी नहीं कि इन चैनलों पर भाजपा का सीधा प्रचार हो, बल्कि उन मुद्दों को उठाकर, जिनसे भाजपा की छवि बनती हो या उन मुद्दों को उठाकर जिनसे इंका की छवि गिरती हो, कोई भी टीवी चैनल बड़ी आसानी से प्रोपेगेण्डा कर सकता है। उदाहरण के तौर पर एक चैनल यह कह सकता है कि भ्रष्टाचार के कांडों में फंसी जयललिता ने कहाऔर दूसरा चैनल यह कह सकता है कि तमिलनाडु की राजनीति में सबसे ताकतवर नेता जयललिता ने कहा।दोनों बातें सच हैं, लेकिन कहने के अंदाज से संदेश अलग-अलग जाते हैं और यही तरीका आज इलेक्ट्राॅनिक मीडिया में अपनाया जाता है। वाजपेयी जी को भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ने वाला मसीहा भी बताया जा सकता है और उनके बारे में यह प्रश्न भी खड़ा किया जा सकता है कि इतने लंबे समय तक विपक्ष में रहने के बावजूद वह कभी किसी भ्रष्ट नेता को पकड़वा क्यूं नहीं पाए या बोफोर्स अथवा चारा घोटाला जैसे मामलों पर बरसों शोर मचाने वाले वाजपेयी जैन हवाला कांड उजागर होने पर खामोश क्यों हो गए? यह तो एक उदाहरण है। ऐसे तमाम उदाहरण दिए जा सकते हैं जिनसे यह सिद्ध किया जा सकता है कि टीवी रिपोर्ट्स के चयन, उनके प्रस्तुतिकरण में चालाकी से खेल खेलकर किस तरह जनता को गुमराह किया जा सकता है। ये बात दूसरी है कि इन टीवी चैनलों का असर शहरी जनता पर ही ज्यादा पड़ता है। देहात की जनता बुनियादी सवालों से जूझती है। 

जहां वाजपेयी सरकार की सबसे बड़ी उपलब्धि यह रही कि तमाम झंझावात झेलकर भी वह एकजुट बनी रही, वहीं यह बात भी महत्वपूर्ण है कि राजग सरकार के कार्यकाल में भारत के देहातों में बेरोजगारी बेइंतहा बढ़ी है। सत्ता में पांच साल पूरे कर चुकी सरकार देहातों में रोजगार पैदा करने में पूरी तरह नाकाम रही है। इससे ग्रामीण युवाओं में भारी निराशा है। इसी तरह भ्रष्टाचार के सवाल पर बार-बार अपने पाक-साफ होने की दुहाई देने वाली राजग सरकार कई बार घोटालों में फंसती रही। इसके कार्यकाल में शिखर से लेकर देहात के स्तर तक कहीं भी भ्रष्टाचार में रत्ती भर भी कमी नहीं आई। हिंदू धर्म की रक्षक होने का दावा करके राजनीति में अपना कद बढ़ाने वाली भाजपा ने राम जन्मभूमि, समान नागरिक संहिता और धारा 370 को समाप्त करने के शाश्वत एजेंडे को बार-बार पीछे धकेला है और कई बार तो उससे अपनी दूरी स्वीकारने में संकोच भी नहीं किया है। इसलिए लोग यह सवाल जरूर पूछेंगे कि आखिर भाजपा की विचारधारा है क्या? आज जिस विकास के मुद्दे को लेकर भाजपा उछल रही है, वह विकास का मुद्दा क्या हमेशा ही उसका मुद्दा बना रहेगा? या अपनी नैया डूबती देख वो फिर रामनाम का सहारा लेगी? एक वर्ष पहले गुजरात के स्वाभिमान को जगाने की बात कहने वाले नरेन्द्र मोदी जिस कामयाबी से जीतकर आए, उससे भाजपा ने अपने उन आलोचकों का मुंह बंद कर दिया जो उसके धार्मिक मुद्दों का मखौल बनाते थे। पर प्रश्न है कि क्या श्री मोदी एक वर्ष में गुजरात की जनता को फिर से आर्थिक विकास की पटरी पर ला पाए हैं? अगर नहीं तो फिर क्या केवल भावनाओं की रोटी खिलाकर देहातों की गरीबी और बेरोजगारी को दूर किया जाएगा? ऐसे तमाम सवालों के जवाब देने के लिए भाजपा को तैयार रहना होगा।

पर भाजपाइयों को इन सवालों से ज्यादा चिंता नहीं है। वे लोकसभा के चुनावों को जीता हुआ मानकर चल रहे हैं। उनका मानना है कि श्रीमती सोनिया गांधी को उनके दल के ही बहुत से नेता प्रधानमंत्री के रूप में नहीं देखना चाहते। पार्टी के कड़े अनुशासन के चलते वे ऐसा कह पाने में संकोच भले ही कर रहे हों, पर उनकी नीयत साफ नहीं है। और यही कारण है कि जिस तत्परता और आक्रामक शैली से श्री प्रमोद महाजन और श्री अरुण जेटली सरीखे लोग भाजपा को जिताने के लिए तत्पर हैं, वैसा एक भी नेता इंका के खेमे में दिखाई नहीं देता। भाजपाई मानते हैं कि इंका के अस्तबल में बूढ़े, थके हुए और आरामतलब घोड़े बंधे हैं। जिनकी फितरत में सत्ता का सुख भोगना तो है, पर मैदान ए जंग में लड़ना नहीं। नई पीढ़ी के नाम पर जब ये बूढ़े घोड़े अपने बेटों को आगे करते हैं तो उससे इंका के कैडर में कोई नए रक्त का संचार नहीं होता, बल्कि इसके विपरीत बचे खुचे कार्यकर्ताओं में निराशा ही फैलती है क्योंकि उन्हें अपना भविष्य अंधकार में दिखता है। इसीलिए वे सुश्री मायावती, श्रीमुलायम सिंह जैसे क्षेत्रीय नेताओं के खेमों की तरफ दौड़ रहे हैं। भाजपाई यह भी मानते हैं कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की तरह इंका के पास कोई भी जमीनी संगठन नहीं है और उसके नेताओं में न तो यह क्षमता बची है और न ही उत्साह कि वे अपने दल का जमीनी संगठन पुनस्र्थापित करें। ऐसे में भाजपा को अपना प्रतिद्वंद्वी काफी कमजोर विकेट पर खड़ा दिखाई देता है। 

राजग के सहयोगी दल विधानसभा चुनावों में भाजपा की आशातीत सफलता के बाद अब उसका साथ नहीं छोड़ेंगे, इसमें कोई संदेह नहीं। राजग के सभी घटक लोकसभा का चुनाव एकजुट होकर ही लड़ेंगे, ऐसा न मानने का कोई कारण नहीं है। उधर, इंका अन्य दलों के साथ साझी चुनावी रणनीति बनाने के बारे में अभी पूरी तरह स्पष्ट नहीं है। इस अनिश्चितता के कारण ही उसे छत्तीसगढ़ में मुंह की खानी पड़ी और भविष्य में भी यह अनिश्चितता उसके लिए नुकसानदेह सिद्ध हो सकती है। इसके साथ ही इंका में सबसे बड़ी कमी इस वक्त अनुभवी नेताओं की है। राजनीति की कुटिल चालें और चुनाव जीतने की रणनीति बनाने वाले लोग इंका में या तो बचे नहीं हैं या उनकी सुनी नहीं जाती। इसलिए इंका को आत्मविश्लेषण करने की जरूरत है। क्रिकेट के खेल की तरह चुनाव आखिरी मिनट तक अनिश्चितता की स्थिति में रहता है। अभी काफी लंबा समय बाकी है। दोनों ही दलों के कुछ गुण भी हैं और दोष भी। जहां भाजपा अपने आत्मविश्वास, संगठन, कुशल रणनीति के बल पर जीतने का सपना देख रही है, वहीं इंका को भाजपा के सत्ता में होने का फायदा मिल सकता है और वह सरकार की जमीनी हकीकत को उछालकर आम जनता से जुड़ सकती है बशर्ते उसमें ऐसा करने की इच्छा हो। इच्छा ही नहीं, सफलता के लिए जूझने का माद्दा और आक्रामक तेवर भी होने चाहिए। अभी इतना समय है कि कांग्रेस पूरे देश में उन लोगों को ढूंढकर इकट्ठा करे जिनकी विश्वसनीयता है। जो जमीन से जुड़े हैं। जिनमें नेतृत्व करने की क्षमता है। जिन्होंने समाज के लिए कुछ किया है और जो भाजपा की विचारधारा से इत्तफाक नहीं रखते। ऐसे लोगों की काफी संख्या हर शहर में है। इनमें युवा भी बड़ी तादाद में हैं। ऐसे युवाओं को संगठन में लेकर इंका अपना संगठन भी मजबूत कर सकती है और जनाधार भी। पर इस प्रयास में सबसे ज्यादा मुश्किल इंका को बाहर से नहीं बल्कि भीतर से आएगी। उसके अपने ही लोग इस नई व्यवस्था को चलने नहीं देंगे। क्योंकि इससे उनको अपने अस्तित्व पर खतरा नजर आएगा। पर यह किए बिना इंका की नैया पार लगना मुश्किल है।

आने वाले महीने इस महासंग्राम की तैयारी में देश की जनता को बहुत से राजनैतिक करतब दिखाएंगे। ऐसे में टीवी चैनलों के लिए मसाले की कमी नहीं रहेगी। ऐसे में इस देश के मतदाताओं को बहुत संजीदगी से अपने हित और अहित का ध्यान करते हुए फैसला लेना होगा।

Friday, December 5, 2003

भ्रष्टाचार क्या सिर्फ भाषण का विषय है


कोई भी पार्टी हो या कोई भी सरकार, सभी भ्रष्टाचार को जड़ से उखाड़ फेंकने का दावा समय-समय पर करते रहते हैं। दिलीप सिंह जूदेव रिश्वत कांड उजागर होने के बाद प्रधानमंत्री ने भी घोषणा की कि उनकी सरकार भ्रष्टाचार उन्मूलन के लिए कटिबद्ध है। इसके साथ ही उन्होंने इंका पर भ्रष्टाचार को बढ़ाने का आरोप भी लगाया। भ्रष्टाचार के मामले में कुछ रोचक तथ्यों को ध्यान में रखना जरूरी है। ऐसे सभी घोटाले प्रायः चुनाव के पहले ही उछाले जाते हैं। चुनाव के दौरान जनसभाओं में उत्तेजक भाषण देकर अपने प्रतिद्वंद्वियों पर करारे हमले किए जाते हैं। दोषियों को गिरफ्तार करने और सजा देने की मांग की जाती है। ये सारा तूफान चुनाव समाप्त होते ही ठंडा पड़ जाता है। फिर कोई उन घोटालों पर ध्यान नहीं देता। अगले चुनाव तक उसे ठंडे बस्ते में डाल दिया जाता है। इसका सबसे बढि़या उदाहरण बोफोर्स कांड है। पिछले सोलह साल से हर लोकसभा चुनाव के पहले इस कांड को उछाला जाता है और फिर भूल जाया जाता है। आज तक इसमें एक चूहा भी नहीं पकड़ा गया। दूसरी तरफ जैन हवाला कांड है जिसे किसी भी चुनाव में कोई मुद्दा नहीं बनाना चाहता। क्योंकि इस कांड में हर बड़े दल के प्रमुख नेता फंसे हैं तो शोर कौन मचाए 

अगर दिलीप सिंह जूदेव ने रिश्वत ली है तो इसमें कोई नई बात नहीं। देश में रिश्वत लेना इतना आम हो चुका है कि ऐसी खबरों पर किसी को कोई फर्क नहीं पड़ता। लोग तो मान ही चुके हैं कि राजनीतिक भ्रष्टाचार का पर्याय है। यहां तक कि भारत के प्रधानमंत्री पद पर रहते हुए श्री इंद्र कुमार गुजराल ने कहा था  कि वे भ्रष्टाचार को रोकने में असहाय हैं। उधर भारत के मुख्य न्यायाधीश पद पर रहते हुए न्यायमूर्ति एस.पी.भरूचा ने भी स्वीकारा था कि उच्च न्यायपालिका में 20 फीसदी भ्रष्टाचार है। विधायिका और न्यायपालिका के शिखर पुरुष अगर ऐसी बात कहते हैं तो कार्यपालिका के बारे में तो किसी को कोई संदेह ही नही कि वहां ऊपर से नीचे तक भारी भ्रष्टाचार व्याप्त है। लोकतंत्र के तीन खम्भे इस बुरी तरह भ्रष्टाचार के कैंसर से ग्रस्त हैं कि किसी को कोई रास्ता नहीं सूझता। ऐसे माहौल में जब कभी कोई घोटाला उछलता है तो दो-चार दिनके लिए चर्चा में रहता है और फिर लोग उसे भूल जाते हैं।

अगर राजग सरकार वाकई भ्रष्टाचार को दूर करना चाहती है तो क्या वह को यह बताएगी कि जिन आला अफसरों के खिलाफ सीबीआईने मामले दर्ज कर रखे हैं उसके खिलाफ सीबीआई को कार्यवाही करने की अनुमति आज तक क्यों नहीं दी गई? सरकार के प्रमुख नेता क्या ये बताएंगे कि आतंकवाद से जुड़े मामलों में सीबीआई के जिन अफसरों ने अपराधियों की मदद की, उन्हें सजा के बदले पदोन्नति या विदेशों में तैनाती देकर पुरस्कृत क्यों किया गया? क्या वे बताएंगे कि उनके दल के सभी नेता पद संभालते समय अपनी अपनी संपत्ति का पूरा ब्यौरा जनता को क्यों नहीं देते? क्या वे बताएंगे कि सर्वोच्च न्यायालय के आदेश के बावजूद केन्द्रीय सतर्कता आयोग को यह अधिकार क्यों नहीं दिया गया कि आयोग उच्च पदासीन अफसरों और नेताओं के विरुद्ध भ्रष्टाचार के मामले में जांच करने के लिए स्वतंत्र हों ? क्या वे बताएंगे कि उन्होंने अपने कार्यकाल में भ्रष्टाचार के आरोपित व्यक्तियों को महत्वपूर्ण पदों पर तैनात क्यों किया? क्या देश में उसी अनुभव और योग्यता के ईमानदार अफसरों की कमी हो गई है। ? क्या वे बताएंगे कि बार-बार घोषणा करने के बावजूद राजग सरकार ने आतंकवाद के ऊपर अपना श्वेतपत्र आज तक जारी क्यों नहीं किया? क्या सरकार बताएगी कि सीबीआई के पास भ्रष्टाचार के जो बड़े मामले ठंडे बस्ते में पड़े हैं, उनकी जांच में तेजी लाने के लिए उन्होंने क्या प्रयास किए? अगर नहीं तो क्यांें नहीं?
दरअसल कोई राजनेता देश को भ्रष्टाचार से मुक्त नहीं करना चाहता। केवल इसे दूर करने का ढिंढोरा पीटकर जनता को मूर्ख बनाना चाहता हैं और उसके वोट बटोरना चाहता है। यही वजह है कि चुनाव के ठीक पहले पर बड़े-बड़े घोटाले उछलते हैं। जब भारत के मुख्य न्यायाधीश ही मान चुके कि उच्च न्यायपालिका में बीस फीसदी लोग भ्रष्ट हैं, तो कैसे माना जाए कि सैकड़ों करोड़ों रुपये के घोटाले करने वाले राजनेताओं को सजा मिलेगी। दिवंगत हास्य कवि काका हाथरसी कहा करते थे -‘‘क्यूं डरता है बेटा रिश्वत लेकर, छूट जाएगा तू भी रिश्वत देकर।’’

चुनाव में धन चाहिए। धन बड़े धनाढ्य ही दे सकते हैं। बड़ा धनाढ्य बैंकों के बड़े कर्जे मारकर और भारी मात्रा में कर चोरी करके ही बना जाता है। ऐसे सभी बड़े धनाढ्य चाहते हैं कि सरकार में वो लोग महत्वपूर्ण पदों पर रहें जो उनके हित साधने वाले हों। ऐसे लोग वही होंगे जो भ्रष्ट होंगे। यह एक विषमचक्र है, जिसमें हर राजनेता फंसा है। चाहे वाजपेयी जी हों या फिर विपक्ष के नेता। भ्रष्टाचार से निपटने के लिए व्यक्तिगत रूप से व्यक्ति को परमत्यागी होना पड़ेगा। आज के राजनेता भोग के मामले में राज परिवारों को पीछे छोड़ चुके हैं। न तो वे त्याग करने को तैयार हैं और न ही अपने सुख पर कोई आंच आने देना चाहते हैं इसलिए उनमें जोखिम उठाने की क्षमता भी नहीं हैं। बिना जोखिम उठाए ये लड़ाई नहीं लड़ी जा सकती। इसलिए भ्रष्टाचार का प्रत्येक मामलेा पानी के बुलबुले की तरह उठता है और फूट जाता है। किसी को कोई फर्क नहीं पड़ता। मौजूदा विवादों को भी इसी परिप्रेक्ष्य में देखना चाहिए।

Friday, November 28, 2003

स्टैम्प घोटाले से हर आम आदमी भयभीत



आस्ट्रेलिया के मेलबाॅर्न शहर से एसबीएस रेडियो की न्यूज प्रोड्यूसर हर हफ्ते शुक्रवार को फोन पर मुझसे भारत के घटनाक्रम की रिपोर्ट लेती हैं और इसे सोमवार को आस्ट्रेलिया में प्रसारित करती हैं। पिछले कई वर्षों से ये सिलसिला जारी है। आस्ट्रेलिया में रहने वाले भारतीयों के बीच यह कार्यक्रम काफी लोकप्रिय है। भारत में जब भी कोई बड़ा घोटाला होता है तो वे उसके बारे में सवाल पूछना नहीं भूलतीं। पिछले हफ्ते उन्होंने मुझसे मुंबई के स्टैम्प घोटाले के बारे में अपनी शैली में प्रश्न किया, ‘विनीत जी यह स्टैम्प घोटाला क्या है ?’ मैंने रिकार्ड होते हुए इंटरव्यू को बीच में रोक कर उनसे कहा कि आप इस सवाल को फिर से पूछिए कि, स्टैम्प घोटाले का लोगों के जीवन पर क्या असर पड़ेगा ? सच ही तो है कि ये घोटाला बाकी सब घोटालों से अलग है यूं तो हर घोटाला अपनी कोई ने कोई विशेषता लिए हुए होता है। जैसे बोफोर्स, चारा, हवाला, यूरिया,  प्रतिभूति, झामुमो रिश्वत कांड, पर स्टैम्प घोटाले ने तो लोगों का सरकार पर से रिश्वास ही हिला कर रख दिया है। इस घोटाले के प्रभाव का आकलन फिलहाल मुंबई के बड़े-बड़े औद्योगिक घरानों के मुख्यालयों में ही किया जा रहा है। आम आदमी अभी इसका असर महसूस नहीं कर रहा। पर जैसे-जैसे इसकी परते खुलती जाएंगी वैसे-वैसे लोगों में दहशत फैलती जाएगी।

कारण बिलकुल साफ है। दूसरे सभी घोटालों में जनता के पैसे हजम किए गए और राष्ट्रहितों से समझौता किया गया। पर स्टैम्प घोटाले ने तो देश के करोड़ इकरारनामों को संदेह के घरे में लाकर रख दिया है। चाहे वह इकरारनामा संपत्ति की खरीद-फरोक्त का हो या दो व्यावसायिक कंपनियों के बीच व्यापारिक समझौते का हो या पति-पत्नी के बीच तलाक का हो या दिवंगत माता-पिता की वसीयत के रूप में हो या किसी कंपनी की साझेदारी लेने संबंधी हो। ऐसा कौन सा इकरारनामा है जिसमें स्टैम्प पेपर का प्रयोग नहीं होता ? हर उस बात के लिए जिसका रिकार्ड रखना जरूरी हो या उस घटना को कानूनी स्वीकृति दिलानी हो तो फैसले स्टैम्प पेपर  पर ही लिख कर उनको अदालत में दाखिल किया जाता है या रजिस्ट्रार आफिस में उनका पंजीकरण कराया जाता है। 

जरा सोचिए अगर किसी के पिता वसीयत अपने चारो बेटे के नाम कर गए और उनका वसीयतनामा जिस स्टैम्प पेपर पर लिखा गया उसके बारे में पता चले कि वो मुंबई के अबदुल करीम लाडा साहेब तेलगी की नकली प्रिटिंग प्रेस में छपा था, तो उस वसीयतनामे की वैधता को कोई भी बेटा चुनौती देकर बाकी सभी भाइयों को मुसिबत में डाल सकता है। कल्पना कीजिए कि आपने कोई संपत्ति खरीदी और जैसाकि होता है उसकी कीमत चैक और नकद दोनो तरह से चुकाई और अब बेचने वाला कहे कि जिस इकरारनामे पर बिक्री का सौदा रजिस्टर्ड हुआ था वह स्टैम्प पेपर नकली है। इसलिए सौदा रद्द हो गया। तो क्या आपके पैरों के नीचे से जमीन नहीं खिसक जाएगी? अगर किसी महिला ने श्वसुराल के अत्याचारों से तंग आकर तलाक लिया हो और बहुत लंबी लड़ाई के बाद उसे पति की संपत्ति में से कुछ हिस्सा मिला हो। अब पता चले कि तलाक की शर्तों को जिस स्टैम्प पेपर पर लिखा गया था वो फर्जी था और उस तलाकशुदा का पति इसी आधार पर उस फैसले को रद्द मान ले, तो वो बेचारी किसके दरवाजे पर जाकर न्याय की भीख मांगेगी ? ये तो हुई आम लोगांे की जिंदगी में स्टैम्प घोटाले के असर की बात। पर औद्योगिक जगत में तो मामला और भी संगीन हो जाता है। मान लीजिए किसी कंपनी ने एक दूसरी कंपनी के साथ एक बड़ा व्यापारिक अनुबंध किया और सैकड़ों करोड़ रूपया उस कंपनी को दिया। जिसके बदले में उसे वस्तुएं या सेवाएं आदि लेने का काम अभी पूरा भी नहीं हुआ और पता चले की अनुबंध नकली स्टैम्प  पेपर पर हुआ था तो सारा का सारा कारोबार खटाई में पड़ जाएगा। बड़े वकीलों को मोटी-मोटी फीस देकर औद्योगिक जगत में रोज हजारों किस्म के अनुबंध स्टैम्प पेपरों पर किए जाते हंैं। जबसे मुंबई का स्टैम्प घोटाला प्रकाश में आया है तब से देश की आर्थिक राजधानी में सब सकते में हैं और एक अप्रत्याशित भय से पूरी तरह भयभीत हैं। ऐसा नहीं है कि तेलगी के स्टैम्प घोटाले की चपेट में केवल मुबंई शहर आया हो। अब तक की जांच से पता चला है कि उसका जाल पूरे महाराष्ट्र, गुजरात, मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश, पश्चिमी बंगाल, आंध्र प्रदेश, कर्नाटक, केरल, दिल्ली और चंडीगढ़ तक फैला है। यानी इन राज्यों और केन्द्र शासित प्रदेशों में पिछले 8 वर्षों से कचहरियों में जो स्टैम्प पेपर खरीदे व बेचे जा रहे थे उनमें भारी तादाद में नकील स्टैम्प पेपरों की थी। इन सभी राज्यों के सभी कानूनी इकरारनामे अब संदेह के घेरे में आ चुके हैं। कभी भी किसी भी इकरारनामें को लेकर कहीं भी कोई भी चुनौती दे सकता है और संबंधित लोगों को भारी मुसीबत में डाल सकता है। ये बेहद खतरनाक बात है। इससे लोगों का विश्वास भारत सरकार में पूरी तरह हिल जाएगा। इसीलिए वित्त मंत्री जसवंत सिंह ने आनन-फानन में बयान दे डाला कि 1998 से 2002 तक के बीच किए गए सभी इकरारनामे वैध करने पर विचार किया जाएगा।

जाहिर है इतना बड़ा तंत्र तेलगी ने एक रात में खड़ा नहीं कर लिया। नासिक की सरकारी प्रिंटिंग प्रेस से छापे की पुरानी मशीने हासिल करने से लेकर देश को लगभग 35 हजार करोड़ रूपए का चूना लगाने वाला तेलगी काफी होशियारी से चला। उसने राजनीति, प्रशासन और पुलिस के तमाम आला लोगों को इसमें साझेदार बनाया। यह हमारे शासन के नैतिक पतन का वीभत्स चेहरा है। अभी तो महाराष्ट्र के कुछ नेता ही पकड़े गए हैं जिनमें वहां की इंका सरकार के लोग भी शामिल हैं। बावजूद इसके भाजपा या शिवसेना इस मामले पर ज्यादा शोर नहीं मचा रही हैं। नासिक की प्रिटिंग प्रेस भारत सरकार के वित्त मंत्रालय के अधीन है। जहां भारत के नोट भी छपते हैं। इस प्रेस से जुडे़ आला अफसरों की तेलगी से सांठ-गांठ के बिना ये कारोबार पनप नहीं सकता था। इसलिए भारत सरकार के वित्त मंत्रालय और गृह मंत्रालय की भी इस मामले में पूरी जवाबदेही बनती है।  अगर इसकी ईमानदारी से जांच होगी, जिसकी संभावना न के बराबर है, तो देश के बड़े-बड़े राजनैतिक दिग्गज और आला अफसर इसकी चपेट में आ जाएंगे। इसलिए जिस तरह कश्मीर के आतंकवादी संगठन हिजबुल मुजाहिद्दीन को विदेशों से आ रही अवैध वित्तीय मदद के तमाम सबूतों के बावजूद जैन हवाला कांड की जांच की मांग न तो इंका के नेताओं ने की और न भाजपा के, क्योंकि दोनों ही इसमें शामिल थे, उसी तरह इस कांड को भी पूरी तरह दबा देने की साजिश रची जाएगी। ये बड़ी भयावह स्थिति है। 

स्टैम्प पेपर छापना या नोट  छापना सरकार का काम है। कागज के एक टुकड़,े जिसकी कीमत चार आने से ज्यादा नहीं होती, उस पर जब सरकार एक हजार रूपए का नोट या एक हजार रूपए का स्टैम्प छाप देती है तो वही चार आने का टुकड़ा एक हजारा रूपए का बिकता है। इस विश्वास के साथ कि आम आदमी जो ये एक हजार रूपया दे रहा है वो सरकार के खजाने में जा रहा है और ऐसे हजारों रूपए के स्टैम्प लेकर लोग करोड़ों रूपए के इकरारनामें लिखते हैं


अगर स्टैम्प पेपर ही नकली होेंगे, जैसा कि अब सिद्ध हो गया है तो देश के गांव-गांव में सरकार के प्रति अविश्वास फैल जाएगा। लोगों के मन में भारी आसुरक्षा और भय व्याप्त हो जाएगा। जनता का विश्वास खो देने वाली सरकार या व्यवस्था चल नहीं सकती। वो ध्वस्त हो जाती है। हो सकता है कि हमारे दुश्मनों ने देश की सरकार के प्र्रति जनता का विश्वास खत्म करने को ही नकली नोटों और नकली स्टैम्प छापने के काम की साजिश रची हो। पर यह आरोप लगा कर मौजूदा हुक्मरान अपनी जवाबदेही से बच नहीं सकते है। क्योंकि कोई भी साजिश तब तक कामयाब नहीं हो सकती जब तक हमारी पुलिस, खुफिया एजेंसी और सत्ताधीश अपने इमान को गिरवी रख कर करोड़ों रूपए कमाने के लालच में देश की अस्मिता का नंगा सौदा करने को तैयार न हों। उन्होंने ये सौदा किया है तभी स्टैम्प घोटाला इस हद तक फैला हुआ है। अब भगवान ही इस देश की रक्षा करें।

Friday, November 14, 2003

तलुवा चाटू अफसर और चरमराता लोकतंत्र


हाल ही में मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ राज्यों का दौरा करके लौटे मुख्य चुनाव आयुक्त श्री जे.एम. लिंग्दोह ने इन दोनों राज्यों के कुछ अफसरों के आचरण के बारे में नाराजगी जताई है। श्री लिंग्दोह के अनुसार यह अधिकारी निष्पक्ष नहीं हैं बल्कि सत्तारूढ़ दल इंका के हितों को साधते हुए काम कर रहे हैं।  उन्होंने ऐसे तमाम अधिकारियों को कड़ी चेतावनी दी है। श्री लिंग्दोह ही क्यों, हर भारतवासी चाहता है कि चुनाव निष्पक्ष हों। इसके लिए चुनाव में लगे अधिकारियों का आचरण पारदर्शी होना निहायत जरूरी होता है। पर देखने में आया है कि अनेक अधिकारी चुनावों में निष्पक्ष नहीं रह पाते। यहां मध्यम और निचले दर्जे के अधिकारियों या कर्मचारियों की बात नहीं, बल्कि आला अफसरों की बात की जा रही है। श्रीमती इंदिरा गांधी पर आरोप था कि उस वक्त प्रधानमंत्री कार्यालय के अधिकारी श्री यशपाल कपूर ने उनके चुनाव में रायबरेली जाकर चुनाव प्रचार का काम संभाला था। इस बात पर श्रीमती गांधी का चुनाव निरस्त कर दिया गया और उनकी काफी भद्द पिटी। यहां तक कि उन्हें इमरजेंसी लगाकर अपनी जान बचानी पड़ी। 

पर तब से गंगा में बहुत पानी बह गया। अगर उस मापदंड को लिया जाए, तो देश के ज्यादातर बड़े नेताओं के चुनाव निरस्त हो सकते हैं। उन नेताओं के जो सत्ता में होते हुए चुनाव लड़ते हैं। मैं एक ऐसे आईएएस अधिकारी को जानता हूं जो अपने मंत्री के चुनाव प्रचार को संभालने के लिए एक महीने के अवकाश पर चले गए। सब काम गोपनीय तरीके से हुआ। पर निकट के लोग तो असलियत जानते ही हैं। एक ही उदाहरण क्यों, पिछले दस सालों में भारतीय प्रशासनिक सेवा के अधिकारियों में अच्छी-खासी तादाद ऐसे अफसरों की हो गई है, जिन्होंने नैतिकता, नौकरी की मर्यादा और लोक-लाज तीनों का बड़ी निर्लज्जता से परित्याग कर दिया। सुश्री मायावती के साथ जिन अधिकारियों के खिलाफ आरोप पत्र दाखिल किए गए, उन्होंने अगर अपने पद की गरिमा के अनुरूप विवेक से काम किया होता तो उनकी आज यह दुर्गति न होती। गुजरात विधानसभा चुनाव के पहले भी श्री लिंग्दोह ने गुजरात के तमाम बड़े अधिकारियों पर भाजपा की सरकार के प्रति जरूरत से ज्यादा झुक जाने का आरोप लगाया था। कोई दल इसका अपवाद नहीं है। हर बड़ा नेता चाहता है कि उसके अधीनस्थ आईएएस या आईपीएस अधिकारी उसके निजी गुलाम की तरह काम करें। जो ऐसा करते हैं, उन्हें अपनी सेवा की भरपूर मेवामिलती है। न सिर्फ सेवाकाल में वे सत्ता के केन्द्र बन जाते हैं बल्कि अपने आका की सत्ता छिनने के बाद भी उन्हें मलाई मारने का भरपूर अवसर मिलता है। इस बात का आभास मिलते ही कि उनके आका की सत्ता हाथ से खिसकने वाली है, यह तमाम अधिकारी अपनी पोस्टिंग या तो दूसरे राज्य या केंद्र सरकार में इस प्रकार करवा लेते हैं कि उन पर कोई आंच न आए। या फिर सरकारी वजीफे पर अध्ययन के बहाने विदेश चले जाते हैं। इंतजार करते हैं उस वक्त का जब इनके आका फिर सत्ता में लौटें या फिर तब तक जब तक लोग उनके कारनामे भूल न जाएं। जो अधिकारी अपने आका के साथ बड़े घोटालों में फंस जाते हैं, उन्हें भी कोई खास परेशानी नहीं होती। सब जानते हैं कि चाहे सीबीआई जांच करे, या अदालत मुकदमे सुने। जितने बड़े नेता, उतने बड़े घोटाले और उतनी ही आसानी से कानून के शिकंजों से मुक्ति। जब आका ही छूट जाएंगे तो उनके दाएं-बाएं रहने वाले अधिकारी भी कब तक फंसे रहेंगे। बम्बइया फिल्म की तरह ऐसे हर घोटालों की सुखद समाप्ति होती है। देश को गिरवी रखने वाले बेदाग होकर मालाओं से लदे ढोल-नगाड़ों के बीच विजय का प्रतीक हवा में लहराते हुए विजेता के रूप में अदालतों से बाहर निकलते हैं। फिर चुनाव लड़ते हैं। आश्चर्य है कि जीत भी जाते हैं। शायद जनता भी यह मान ही बैठी है कि जब सभी चोर चोरी कर रहे हैं, तो चोरी कोई जुर्म नहीं। जीतने के बाद ये नेता दुर्दिन में रहे अपने पुराने सेवादारों को वापस सत्ता में खींच लेते हैं। अगर उनका सेवाकाल समाप्त होने को होता है, तो उसे अकारण बढ़वा देते हैं। अगर वे इस बीच सेवामुक्त हो चुके होते हैं, तो उन्हें सलाहकार या विशेष कार्याधिकारी बनवाकर फिर बुला लेते हैं। ठीक ही तो है, नया नौ दिन, पुराना सौ दिन। जिसने पिछले कार्यकाल में लूट के रास्ते साफ किए हों और अपने आका के इशारे पर प्रदेश की जनता के हितों को अनदेखा करने में कोई हिचक न दिखाई हो वैसा अधिकारी ही सब राजनेताओं को रास आता है। किसी एक व्यक्ति का नाम लेने से कोई लाभ नहीं, पर जो लोग रोजाना समाचारों पर निगाह रखते हैं वे जानते हैं कि हर राज्य और केन्द्र सरकार में ऐसे अधिकारियों की भरमार है जिन्होंने अपने राजनैतिक आका को खुश करने के लिए उनके तलुवे चाटना ही अपना जीवन धर्म बना रखा है। यह लोग सेवामुक्त होने के बाद भी अपने इसी गुणके कारण बरसों तक सरकारी बंगले, गाड़ी, हवाई जहाज और वेतन का सुख भोगते रहते हैं। इनमें से जिनकी पकड़ सत्ता पर ज्यादा हो जाती है, वे अनेक महत्वपूर्ण पदों पर भेज दिए जाते हैं। देश में भी और विदेश में भी।

पूरे मामले का निचोड़ यह है कि जो अधिकारी राजनैतिक आकाओं के तलुवे चाटने में हिचक महसूस नहीं करते, वे फायदे में ही रहते हैं। उनका न तो कोई घाटा होता है, न हीं उनके दुर्दिन ज्यादा समय तक रह पाते हैं। इन हालातों में यह स्वभाविक ही है कि अफसरशाही का झुकाव अपने राजनैतिक आकाओं को हर हालत में खुश रखने की तरफ बढ़ता जा रहा है। भौतिकता की इस अंधी दौड़ में जब हर आदमी रातों रात हर तरह की सुविधा जुटा लेना चाहता है तो देश की अफसरशाही क्यों पीछे रहे? जबकि भ्रष्टाचार तो उसका जन्मसिद्ध अधिकार है ही। बहुत थोड़े अधिकारी ऐसे बचे हैं जो अपने काम से काम रखते हैं और बिना विरोध का स्वर मुखर किए अपने राजनैतिक आकाओं को अपने पर हावी नहीं होने देते। पर यह सही है कि ऐसे सभी अधिकारी गैर महत्वपूर्ण पदों को ही सुशोभित करते हैं और शक्तिशाली मंत्रियों या राजनेताओं की नजरों में उनकी कोई उपयोगिता नहीं होती। पर इससे इन निष्ठावान अधिकारियों को कोई असर नहीं पड़ता। न तो ये तबादलों के पीछे भागते हैं और न ही इन्हें साधारण पोस्टिंग से कोई गिला-शिकवा होता है। ऐसा बहुत कम होता है कि कोई मंत्री या मुख्यमंत्री किसी ऐसे व्यक्ति को अपने निकट रखना चाहे जिसका आचरण पाक साफ हो और जो केवल जनहित में कार्य करने की सोचता हो। 

आला अफसरांे में बढ़ती इस वृत्ति के कारण भारतीय लोकतंत्र बहुत तेजी से कमजोर होता जा रहा है। जब चाटुकारिता, दलाली या घोटाले करने वाले वरिष्ठ अधिकारियों को केंद्र और राज्य सरकार के मंत्रालयों में महत्वपूर्ण पद मिलेंगे, तो उनसे वे राष्ट्र निर्माण की बात भला क्यूं सोचने लगे? जनता त्राहि-त्राहि करती रहे, उसकी हालत में रत्तीभर सुधार नहीं होता। पर ये चाटुकार अफसर और इनके आका को इससे क्या? इनका तो काम वो योजनाएं बनाना होता है जिससे रातों रात अकूत दौलत पैदा हो जाए। बहुत कम राजनेता होंगे, जो इस लोभ का संवरण कर पाते हैं। इसलिए एक-एक करके लोकतंत्र के सभी खंभे ढहते जा रहे हैं। विधायिका और कार्यपालिका के उपरोक्त आचरण से न्यायपालिका का आचरण भी भिन्न नहीं है। खुद भारत के पूर्व मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति एस.पी.भरूचा अपने पद पर रहते हुए कह चुके हैं कि उच्च न्यायपालिका में भी बीस फीसदी भ्रष्टाचार है। शायद इन्ही भ्रष्ट न्यायाधीशों के कारण भ्रष्ट राजनेता कानून की पकड़ से छूट जाते हैं। जनता में इससे हताशा फैलती है और लोकतंत्र के प्रति उसकी आस्था कमजोर पड़ जाती है। यह बहुत दुखद स्थिति है। 

श्री लिंग्दोह ने केवल छत्तीसगढ़ और मध्य प्रदेश के अफसरों पर उंगली उठाई है। पर हकीकत यह है कि देश का कोई भी प्रांत इस बीमारी से अछूता नहीं है। जब सजा मिलने का डर ही नहीं रहा, तो फिर चोरी भी चोरी से क्यों की जाए? जहां मौका मिले, हाथ मार दो। काका हाथरसी कहा करते थे, ‘‘क्यों डरता है बेटा रिश्वत लेकर, छूट जाएगा तू भी रिश्वत देकर’’। लंबे चैड़े दावों के साथ आगामी विधानसभा चुनाव लड़े जा रहे हैं, पर जीतकर चाहे कोई भी आए आम जनता के हालात में कोई बड़ा परिवर्तन नहीं होने जा रहा। श्री लिंग्दोह भी कहां-कहां पकड़-धकड़ करेंगे?