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Monday, June 27, 2016

अच्छे मानसून के बावजूद कितने निश्चिंत हैं हम ?

देश में मानसून की स्थिति पर नजर रखने वालों का ध्यान लगता है कि कहीं और लगा है। हर साल मौसम विभाग भी बहुत चैकस दिखता था। लेकिन इस बार मानसून आने के एक महीने पहले जो पूर्वानुमान मौसम विभाग ने बताए थे उसके बाद वह अपनी साप्ताहिक विज्ञप्ति जारी करने के अलावा ज्यादा कुछ बता नहीं पा रहा है। उसकी साप्ताहिक विज्ञप्तियों को देखें तो इस मानसून में अब तक औसत बारिश औसत से दस फीसद कम हुई है। जबकि मानसून के चार महीनों का अनुमान नौ फीसद ज्यादा बारिश होने का लगा था।

मानसून की अबतक की स्थिति का विश्लेषण करें तो दो अंदेशे पैदा हो गए हैं। एक यह कि अगर पूरे मानसून का अनुमान सही होने पर विश्वास करके चलें तो अब बाकी के दिनों में भारी बारिश का अंदेशा है और अगर अब तक के आंकड़ों के हिसाब से मानसून के मिजाज का अंदाजा लगाएं तो इस बार लगातार तीसरे साल  बारिश औसत से  कम होने का डर भी है।

अगर बारिश का अनुमान सही निकला तो आज की स्थिति यह है कि देश में एक साथ ज्यादा पानी गिरने से बाढ़ की आशंका सिर पर आकर खड़ी हो गई है। विशेषज्ञ जल विज्ञानी के के जैन के मुताबिक देश में सूखे पड़ने की आवृत्ति बढ़ रही है। आंकड़े बता रहे हैं कि पहले जहां 16 साल में एक बार सूखा पड़ता था वहां पिछले तीन दशकों से हर सोलह साल में तीन बार सूखा पड़ने लगा है। विशेषज्ञों की इस बात पर गौर करने का समय आ गया है कि बदलते हालात में हमें बारिश के पानी को बाकी के आठ महीनों के लिए रोक कर रखने के फौरन ही अतिरिक्त प्रबंध करने होंगे।

उधर इन विशेषज्ञों का यह अध्ययन भी ध्यान देने लायक हो गया है कि देश में जल संचयन या जल भंडारण की क्षमता बढ़ाने से हम बाढ़ की समस्या पर भी काबू पा लेंगे। अभी जो ज्यादा बारिश होने से अतिरिक्त पानी बाढ़ की तबाही मचाता हुआ वापस समुद्र में जाता है वह देश की 32 करोड़ हैक्टेयर जमीन पर जहां तहां कुंडों और पोखरों में जमा होकर नदियों को उफनने से रोक देगा और यही पानी सिंचाई की जरूरतों के दिनों में भी काम आने लगेगा। इससे बड़ी शर्मिंदगी की बात क्या हो सकती है कि किसी देश में उसी साल बाढ़ आए और उसी साल सूखा भी पड़ने लगे। सन् 2016 का यह साल इस जल कुप्रबंधन का जीता जागता उदाहरण बनने वाला है। हद की बात यह है कि वर्षा के सटीक अनुमान लगाने में सक्षम होने के बाद हमारी यह स्थिति है।

यह साल इस मायने में भी हमारी पोल खोलने जा रहा है कि अगर बाढ़ के हालात बने तो जानमाल का भारी नुकसान होगा। और अगर वर्षा का अनुमान गलत निकला, यानी पानी कम गिरा तो लगातार तीसरे साल सूखे के हालात को भुगतना पड़ेगा। तीसरी स्थिति सामान्य बारिश की बनती है। यह भी सुखद स्थिति का आश्वासन नहीं दे रही है। इसका तर्क यह है कि देश की आबादी हर साल दो करोड़ की रफ्तार से बढ़ रही है। यानी हमें हर साल डेढ़ फीसद ज्यादा पानी का प्रबंध करना ही करना है।

जल विज्ञानी बताते हैं कि अभी हमारी जल संचयन क्षमता सिर्फ 253 घन किलोमीटर पानी को रोककर रखने की है। यह पानी खेती की कुल जमीन में से आधे खेतों तक को सींचने के लिए पर्याप्त नहीं है। दूसरे शब्दों में कहें तो खेती लायक देश की आधी से जयादा जमीन पर बारिश के भरोसे ही खेती हो रही है। जलवायु परिवर्तन के कारण हो या अपने जल कुप्रबंध के कारण हो या फिर बढ़ती आबादी के कारण हो, यह बात सामने दिखने लगी है कि जरूरत के दिनों में पानी कम पड़ने लगा है।

भले ही अंतर्राष्ट्रीय मानदंडों के लिहाज से भारत आज जल विपन्न देशों की श्रेणी में आ गया हो, लेकिन आंकड़े बता रहे है कि अभी भी हमारे पास पांच सौ घन किलोमीटर पानी रोकने की गुंजाइश बाकी है। यानी हम अपनी जल भंडारण क्षमता दुगनी करने लायक अभी भी हैं। बस दिक्कत यही है कि जल परियोजनाओं पर खर्चा बहुत होता है। मोटा अनुमान है कि जल के संकट से उबरने के लिए कम से कम एकमुश्त पांच लाख करोड़ का निवेश चाहिए। इससे कम में अब काम इसलिए नहीं हो सकता, क्योंकि फुटकर-फुटकर जो काम हम इस समय कर रहे हैं वह तो बढ़ती आबादी की न्यूनतम जरूरत पूरी करने के लिए भी नाकाफी है।

इन तथ्यों के आधार पर यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि इस बार मौसम विभाग की भविष्यवाणी सही निकलने के बाबजूद हम देश में पर्याप्त अनाज, दालों और दूसरे कृषि उत्पादन को लेकर निश्चिंत नहीं हैं। कृषि प्रधान देश में जहां दो तिहाई आबादी आज भी कृषि क्षेत्र पर निर्भर हो, वहां देश की मुख्य नीति अगर कृषि को केंद्र में रखकर न हो तो आने वाले दिनों में संकट को कौन रोक सकता है ?

Monday, September 1, 2014

कुण्ड ही हैं सूखे से राहत का कारगर तरीका

 
इस साल भी देश के ज्यादातर हिस्सों में सूखे की मार पड़ रही है। किसान हाहाकार कर रहे हैं। मीडिया अपना काम ही समस्या को बताना ही समझता है, लिहाजा सूखे की तीव्रता को बताने का काम वह गंभीरता से  करता रहता है। लेकिन हैरत की बात यह है कि इसके समाधान या इस सूखे की मार से बचाव के उपायों पर उतनी गंभीरता से कुछ भी होता नहीं दिखता। सरकारें और सरकारी एजेंसियां ऐसे मौकों पर समस्या की गेंद एक-दूसरे के पाले में फेंकने के अलावा कुछ खास करती नहीं दिखती। कुछ करती दिखती हैं, तो बस इतना कि पीड़ित इलाकों को सूखाग्रस्त घोषित करती हैं और सांकेतिक मुआवजे का मरहम लगाकर अपने फर्ज की इतिश्री समझती हैं।
 
सूखे या बाढ़ की समस्या का एक बड़ा ही शातिराना पहलू यह है कि इस समस्या के कारणों को आसमानी  या सुल्तानी मार बताकर बड़ी चतुराई से आसमानी साबित कर दिया जाता है। लेकिन क्या सूखे को महज प्राकृतिक विपदा कहकर यूं ही छोड़ सकते हैं ? 2 दिन पहले ब्रज क्षेत्र में चैरासी कोसीय परिक्रमा मार्ग पर इनोवेटिव इंडियन फाउण्डेशन की टीम कुछ गांवों में कुण्डों और जलाशयों का जायजा ले रही थी। संस्था के निदेशक संकर्षण कुण्ड पर पुनर्रोद्धार कार्य का जायजा लेने भी रूके थे। वहां जमा पास के आन्यौर गांव वालों ने उन्हें परिक्रमा मार्ग से 2 किलोमीटर भीतर ले जाकर अपने खेतों की हालत दिखाई। आईआईएफ के विशेषज्ञों को देखकर बड़ी हैरानी हुई कि सरकार की भरी-पूरी प्रणालियों की मौजूदगी के बावजूद बिना पानी के उनकी धान की फसलें तबाह हो चुकी थीं।
 
इसी दौरान इन विशेषज्ञों ने महाजलप्रबंधन और ब्रज में भगवान श्रीकृष्ण और राधारानी की लीलास्थलियों को संवारने में जुटी संस्था द ब्रज फाउण्डेशन के परियोजना निदेशक से भी बात की। उनसे ब्रज क्षेत्र के इन कुण्डों के उपयोगिता की भी चर्चा की। एक खास बात यह है कि आसमानी आफत से निपटने के लिए प्राचीनकाल से ही कुण्ड, तालाब और जलाशय बनते आए हैं। लेकिन आज शहरीकरण और भवन निर्माण की अपनी रोज बढ़ती जरूरतों के कारण नए कुण्ड और तालाब बनाना तो दूर पुरानी धरोहरों को भी हम बेदर्दी से मिटाने में लगे हैं। ऐसे कुण्ड और तालाब मैट्रोलॉजिकल ड्राउट यानी मौसमी सूखे के दौरान राहत देने के काम आते थे। अगर आधुनिक जलविज्ञान से किए गए उपाय यानी सिंचाई के प्रबंध को देखें, तो उसकी सीमाओं के कारण उत्पन्न होने वाली समस्या यानी हाइड्रोलिक ड्राउट के दौरान भी कुण्डों में जल होने से एग्रीकल्चरल ड्राउट के अंदेशे कम हो जाते हैं। अगर इस बात को सरलता से कहें, तो कुछ इस तरह से कहा जाएगा कि अगर पानी न बरसे और हमारी जलप्रबंध प्रणाली में जमा पानी भी न बचे, तो ये कुण्ड और तालाब खेतों में न्यूनतम पानी या नमी बनाए रखकर प्राणदायक की भूमिका निभाते थे।
 
फिलहाल निर्माणाधीन संकर्षण कुण्ड अगर अपनी मूल स्थिति में आता है, तो गोवर्धन पर्वत की तलहटी में बसे गांव आन्यौर के खेतों में भूमिगत जलस्तर आश्चर्यजनक रूप से खुद-ब-खुद उपर आ सकता है। विशेषज्ञों का कहना है कि यदि पूरे उ0प्र0 के 9 लाख से ज्यादा तालाबों, पोखरों और कुण्डों का हिसाब लगाएं, तो इनकी क्षमता 10 हजार करोड़ रूपये की लागत वाले किसी भी बड़े से बड़े बांध की क्षमता से कम नहीं होगी। एक मोटा अनुमान है कि इन कुण्डों और तालाबों के जीर्णोद्धार, पुनरोद्धार या पुर्ननिर्माण पर आधी से कम रकम खर्च करके वहां गिरा पानी वहीं जमा किया जा सकता है। बाढ़ की विभीषिका कम की जा सकती है और उससे भी ज्यादा महत्वपूर्ण बात यह कि आसमानी हो या सुल्तानी हो, सूखे जैसे समस्या से निपटने का एक स्वचालित प्रबंध बड़ी आसानी से किया जा सकता है।
 
लगे हाथ यह कह लेना भी जरूरी लगता है कि सूखे की समस्या भले ही कालजयी साबित हो रही हो, लेकिन आधुनिक विज्ञान और प्रौद्योगिकी का काम उसके समाधान के लिए उपाय ढूढ़ना है। जब हमारे पास पारंपरिक ज्ञान उपलब्ध हो, ऐतिहासिक निर्माण कार्य के प्रत्यक्ष प्रमाण हों, और चिंतनशील विशेषज्ञ हों, तो सूखे जैसी आसमानी आफत से बचाव के उपाय हम क्यों नहीं कर सकते ? इसके लिए प्रबल राजनैतिक इच्छाशक्ति की जरूरत है। 
 

Monday, July 14, 2014

बढ़ती जा रहीं है देश की समस्याएं और चिंताएं


देश में समस्याएं और चिंताएं बढ़ती जा रही है | हाल ही में लोकसभा के चुनावों के दौरान इन समस्याओं को जनता के सामने बार बार रख कर सभी राजनेतिक दलों ने अपनी अपनी समझ से उपाए रखे और वादे किये | लोगों ने नरेन्द्र मोदी में भरोसा जताया | उनकी स्पष्ट बहुमत की सरकार बन गयी |

स्थायी समस्याओं के रूप में सरकार के सामने – महंगाई भ्रष्टाचार और बेरोज़गारी है | महंगाई घटती नहीं दिखती, भ्रष्टाचार की स्थिति का पता नहीं है और रोज़गार इतनी बड़ी समस्या है कि विकास की बात कहने के अलावा किसी के पास कभी कोई योजना होती ही नहीं है |

महंगाई को लेकर पिछली सरकार के खिलाफ सतत विरोध अभियान चलाया गया था | मोटे तौर पर कहा जा सकता है कि यूपीए सरकार इसी मुद्दे पर हारी थी | इस आधार पर हम अनुमान लगा सकते हैं कि नई सरकार के सामने सबसे पहले करने के लिए यही काम होना चाहिए था | संयोगवश और परंपरावश रेल बजट और आम बजट को इन्ही दिनों पेश होना था | रेल बजट के पहले रेल किराये और भाड़ा बढ़ाना पड़ा | सरकार ने खूब तर्क दिए और मजबूरियां बताई लेकिन नई सरकार की छवि को मजबूरी से किये गए इस काम से काफी नुक्सान पहुंचा है | जबकि सरकार चाहती तो यही काम करने के पहले जनता को जागरूक बना सकती थी | रेलवे पर श्वेतपत्र लाकर यह काम किया जा सकता था | और अगर श्वेतपत्र लाने में देर हो जाने का तर्क था तो वैसे में कम से कम रेलवे की वास्तविक स्थिति का प्रचार तो सरकार कर ही सकती थी |

लगातार रोजी-रोटी के जुगाड़ में लगी जनता बजट की बारीकी और आर्थिक बातों की गहराई समझ नहीं पाती | वह तो अपनी रोज़मर्रा की समस्याओं से निजात चाहती है और जबतक निजात ना मिले तो कुछ राहत चाहती है | महंगाई के मोर्चे पर वह राहत जनता को महसूस नहीं हुई | हालांकि वित्त मंत्री ने अपने व्यक्तित्व के हिसाब से दलीलें दीं, लेकिन इन्ही वित्त मंत्री को लोगों ने चुनाव के दौरान भी सुना था | उनके भाषणों के उस दौर को गुज़रे हुए अभी दो महीने भी नहीं हुए हैं | जो भी हुआ हो लेकिन अब एक ही स्थिति बनती है कि देश के वास्तविक हालात की जानकारी समझने लायक अंदाज़ में दी जाये और महंगाई से निपटने के कुछ फौरी उपाए भी किये जायें | यह बात कुछ ज्यादा गंभीर इसलिए भी है क्योंकि – अच्छा मौसम आने वाला है इस खुशफ़हमी में नहीं रहा जा सकता | इस साल बारिश के अब तक के आंकड़े निराशाजनक हैं | इस आसमानी आफत से सुल्तानी तरीके से कैसे निपटा जाये यह चुनौती खड़ी हो गयी है | वैसे बारिश के चार महीनों में अभी सिर्फ एक महीना ही गुज़रा है | इसमें हमें 40-50 फीसद पानी मिला है | लेकिन इसके आधार पर पता नहीं क्यों सूखे की आशंकाएं जताए जाने लगी हैं | यानी ऐसी आशंकाएं जताने में कहीं जल्दबाजी तो नहीं हो रही है | और अगर दुर्भाग्य से वैसा हुआ भी तब भी अभी से ऐसी आशंकाओं से महंगाई के हालात और ज्यादा बिगड़ सकते है |

साग सब्जियों, दाल और अनाज के व्यापारी बाज़ार की ‘धारणाओं’ से चलते हैं | सूखे और दूसरी आसमानी आफत की ज्यादा बातें फ़िज़ूल इसलिए भी हैं क्योंकि ऐसी आफतों से निपटने का उपाय हम जैसे देश अभी ढूंढ नहीं पाए हैं | प्रकृति बार बार चेता कर हमें जल संरक्षण सीखने का सुझाव देती है | लेकिन पता नहीं क्यों यह राजनैतिक मुद्दा नहीं बनता | यह बात चुनावी घोषणापत्रों में नहीं आती | हो सकता है इसका कारण यह हो कि इस काम के लिए लंबा समय चाहिए | जबकि सामान्य अनुभाव यह है कि हम चाहे सरकार गिराना हो और चाहे सरकार बनाना हो सिर्फ फौरी बातों का ही सहारा लेते हैं |

नए राजनैतिक माहौल में ऐसी बातें किन्हें पसंद आएँगी इसका अनुमान तो अभी नहीं लगाया जा सकता | लेकिन यह तय है कि जटिल समस्याओं के समाधान में लंबे सोच विचार की ज़रूरत पड़ती है और मजबूरी में दीर्घकालिक योजनाएं बनानी पड़ती हैं | खासतौर पर महंगाई जैसी फौरी समस्याओं के समाधान को भी हम जलप्रबंधन जैसे उपायों के संदर्भ में क्यों नहीं देख सकते |

पिछले एक महीने की बारिश में हमें सामान्य से आधा पानी मिला | अगर दुनिया के कुछ क्षेत्रों को देखें तो उनके यहाँ अपने देश की कुल औसत बारिश से एक चौथाई औसत बारिश से ही काम चल जाता है यह उनके जलप्रबंधन का कमाल है | और हैरत की बात यह है कि हमारे देश के और प्रदेशों के जल संसाधान मंत्री लगभग हर साल उन क्षेत्रों में दौरा करने जाते हैं और लौट कर तारीफें भी करते हैं लेकिन वैसा कुछ कर नहीं पाते | सामान्य अनुभव है कि वैसा करने के लिए पैसे की कमी का रोना रोया जाता है | लेकिन सवाल यह उठता है कि जब दूसरे क्षेत्रों में विदेशी निवेश का उपाय हम अपना लेते हैं तो इतने महत्वपूर्ण क्षेत्र में यानी जलप्रबंधन के क्षेत्र में विदेशी निवेश की छूट के नफे नुक्सान पर हम क्यों नहीं सोचते?