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Monday, May 8, 2017

नया भारत कर रहा अपनी धार्मिक अस्मिता को पुर्नस्थापित

नया भारत अपनी धार्मिक अस्मिता और मानकों को पुर्नस्थापित करने की चेष्टा में पुरजोर लगा हुआ है। ऐसी ही एक चेष्टा पिछले 15 सालों से योगेश्वर श्रीकृष्ण की क्रीड़ा स्थली ब्रज में मूर्त रूप ले रही है। जिसका एक मनमोहने वाला दृश्य गिरि गोवर्धन की तलहटी में 24 फुट ऊँचे भगवान संकर्षण की स्थापना के दौरान सामने आया। बृजवासियों का उत्साह देखने लायक था। इन्द्र के मान मर्दन के समय जिस आत्मविश्वास का स्थापन हुआ था वही जनभावना दाऊ दादा की इस स्थापना के समय स्फूर्त हुई। जिन कतिपय ताकतों द्वारा ब्रज के सॉंस्कृतिक सोपानों को हड़पने का दुष्चक्र चलाया जा रहा है वो दाऊ दादा की जय के निनाद से भयभीत हो उठे से दिखे।
5000 वर्ष पूर्व श्रीकृष्ण के प्रपौत्र वज्रनाभ को भगवान संकर्षण (दाऊजी) का जो विग्रह प्राप्त हुआ था, उसी का एक विशालकाय व भव्य प्रतिरूप गोवर्धन की तलहटी में स्थित संकर्षण कुंड, आन्यौर में स्थापित किया गया। इस विग्रह को तिरूपति बालाजी में स्थित कार्यशाला में 22 अनुभवी शिल्पकारों के एक वर्ष की सघन परिश्रम के पश्चात निर्मित किया गया।
आध्यात्मिक भारत अनादि काल से एकीकृत रहा है। हमारी आस्थाएँ, हमारी परम्पराएँ और हमारे संस्कृतिक मानक भाषा व भूगोल से परे एक से ही रहे हैं। वैविध्यपूर्ण इकाइयाँ एक दूसरे से अंतरंगता बनाए रखती हैं। तभी तो दक्षिण के सर्वमान्य चिन्ना जीवर स्वामी तिरूपति स्थित अपनी शिल्पशाला में उत्तर के बलराम को संकर्षण स्वरूप देने को सहज तैयार हो जाते हैं। तो वेंकटेश्वर बालाजी के भक्त डॉ रामेश्वर राव उतर भारत की इस महाकृति को वित्तीय अनुदान सहज भाव से स्वीकृत कर देते हैं। भारत की यही आध्यात्मिक एकता ही तो नए भारत का निर्माण कर पाएगी।
सांस्कृतिक मानबिंदुओ की पुनः प्रतिष्ठा का एक गहरा प्रभाव सामाजिक अंतर्मन पर होता है जोकि समसामयिक अर्थ व राज व्यवस्था का निर्माण करता है। नए भारत के निर्माण हेतु यह एक प्रमुख अवयव होगा जिसके लिए किसी भी विदेशी धन और ज्ञान की जरूरत नहीं होगी। कम से कम 5000 वर्ष की सुसमृद्ध सभ्यता का धनी भारत अपने व्यक्तिक चिन्तन व कौशल से अपना पुनर्निर्माण करने में सक्षम है। श्रीकृष्ण सरीखे राजनयिक ने विकास का जो मोडेल ब्रज प्रांत में स्थापित किया उससे प्रेरणा लेने की जरूरत है।
इंद्र की अमरावती के ऐश्वर्य का मोह तज उन्होंने ब्रज की समृद्धि के मूल कारक गिरि गोवर्धन की प्रतिष्ठा की। ब्रज के वन और शैल को ही ब्रजवासियोंके मूल निवास स्थान के रूप में स्थापित किया। ऐसा नहीं की वो नगरीय संस्कृति से अनभिज्ञ थे। द्वारिका का प्रणयन तो उन्हीं के कर कमलों से ही हुआ था। सन्दर्भ की सारगर्भित व्याख्या और प्रतिष्ठा ने ही तो कृष्ण को जगतगुरु की पदवी प्रदान की। उन्होंने कंस जैसी विजातीय संस्कृति के अनुयायी के प्रभाव को ब्रज में प्रवेश ही नहीं होने दिया।
ब्रज की सम्पदा को संरक्षित करने के उनके अभिनव प्रयास ने उन्हें ब्रजराज की ख्याति भी दिला दी। ब्रज के वन्य-ग्राम्य जीवन को ना केवल उन्होंने प्रचारित किया बल्कि स्वयं अपनाया भी। नए भारत के निर्माताओं को श्रीकृष्ण द्वारा स्थापित मूल्यों और मानकों की ओर अपना ध्यान आकृष्ट करना चाहिए। एक भव्य और दिव्य भारत का निर्माण भारतीय अधिष्ठान पर ही हो पाएगा ऐसा विश्वास भारतीय जनमानस में सृष्टिकाल से रहा है।
1893 के शिकागो के विश्व धर्म सम्मेलन से लेकर संयुक्त राष्ट्र की महासभा के 2015 के अभिभाषण तक में भारत के इस चिर परिचित स्वरूप का निरूपण हुआ है। दोनों ही नरेंद्र नामराशियों ने भारत के आध्यात्मिक जन मानस की विशद व्याख्या की है। भगवान संकर्षण के इस विशालकाय स्वरूप की स्थापना भी इसी ओर इंगित करती है।नई संज्ञाएँ, नए समीकरण और नए सोपान भारत की धर्मभीः जनता को भ्रमित नहीं कर पाएँगे। इसका जीता जागता उद्घोष गिरि गोवर्धन की तलहटी में स्थापित भगवान संकर्षण का गगनचुंबी श्रीविग्रह कर रहा है। नया भारत, चिर पुरातन भारत की नित प्रवाहमान और सारगर्भित जीवन शैली के अनुक्रम में ही अँगड़ाई ले पाएगा। एक विजातीय परम्परा के अनुगमन के रूप में शायद कभी नहीं।
ब्रज भूमि में ही जन्मे और पले बढ़े एकात्म मानवतावाद के प्रवर्तक दीन दयाल जी ने भी कृष्ण के ही इस जल, जंगल, जमीन, जन और जानवर के दर्शन को ही अपने राजनैतिक जीवन का आधार बनाया। उनका विशद वॉंग्मय इस दिशा में स्पष्ट व सारगर्भित है। पश्चिम का अलक्षेन्द्र विविध मुखौटे लगा भारत का अतिक्रमण ही करेगा। भारत के फटे वसन को सीने की उसकी लालसा न होगी।

Monday, May 11, 2015

‘प्रो पूअर टूरिज्म’ के मायने

अखबारों में बड़ा शोर है कि विश्व बैंक उत्तर प्रदेश में गरीबों के हक में पर्यटन को बढ़ावा देने के लिए हजार करोड़ रूपये देने जा रहा है। जिसमें 400 करोड़ रूपया केवल ब्रज (मथुरा) के लिए है। प्रश्न उठता है कि ‘प्रो पूअर’ यानि गरीब के हक में पर्यटन का क्या मतलब है ? क्या ये पर्यटन विकास ब्रज में रहने वाले गरीबों के लिए होगा या ब्रज आने वाले गरीब तीर्थयात्रियों के लिए ? विश्व बैंक को अब जो प्रस्ताव भेजे जाने की बात चल रही है, उनमें ऐसा कुछ भी नजर नहीं आता। मसलन, वृंदावन के वन चेतना केंद्र को आधुनिक वन बनाने के लिए 100 करोड़ रूपये खर्च करने का प्रस्ताव तैयार किया जा रहा है। सोचने वाली बात यह है कि वृंदावन में तो पहले से ही सारी दुनिया से अपार धन आ रहा है और तमाम विकास कार्य हो रहे हैं और वृंदावन में ऐसे कोई निर्धन लोग नहीं रहते, जिन्हें वन चेतना केंद्र पर 100 करोड़ रूपया खर्च करके लाभान्वित किया जा सके।
वृंदावन पर अगर खर्च करना ही है, तो सबसे महत्वपूर्ण प्रोजेक्ट होता कि वृंदावन आने वाले हजारों निम्नवर्गीय तीर्थयात्रियों के लिए बुनियादी सुविधाओं का व्यापक इंतजाम। इस परियोजना को मैं पिछले 10 वर्षों से संबंधित अधिकारियों से आगे बढ़ाने को कहता रहा हूं। आज जहां रूक्मिणी बिहार जैसी अट्टालिकाओं वाली कालोनी बन गईं, जिनके 90 फीसदी मकान खाली पड़े हैं और वृंदावन की प्राकृतिक शोभा भी नष्ट हो गई, उनकी जगह यहां विशाल क्षेत्र में सैकड़ों बसों के खड़े होने का, गरीब यात्रियों के भेजन पकाने, शौच जाने का और चबूतरों पर टीन के बरामडों में सोने का इंतजाम किया जाना चाहिए था। आज ये गरीब तीर्थयात्री सड़कों के किनारे खाना पकाने, शौच जाने और सोने को मजबूर हैं, क्योंकि किसी तरह जीवनभर की कमाई में से इतना पैसा तो बचा लिया कि अपने बूढ़े मां-बाप को बंगाल, बिहार, राजस्थान, गुजरात, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, आंध्र प्रदेश जैसे सुदूर राज्यों से बसों में बैठाकर ब्रज घुमाने ले आएं। पर इतना धन इनके पास नहीं होता कि यह होटल में ठहरें या खायें। पर अब तक की बातचीत में कहीं इस विचार को प्रोत्साहन नहीं दिया गया। अभी हाल ही में एक समाचार पढ़ा कि इस विचार पर अब एक छोटा-सा प्रोजेक्ट मथुरा-वृंदावन विकास प्राधिकरण शुरू करेगा। वृंदावन की लोकप्रियता और यहां आने वालों की निरंतर बढ़ती तादाद को देखकर इस छोटे से प्रोजेक्ट से किसी का भला होने वाला नहीं है। दूरदृष्टि और गहरी समझ की जरूरत है।
इसी तरह ब्रज हाट का एक प्रोजेक्ट ब्रज फाउण्डेशन ने कई वर्ष पहले बनाकर जिलाधिकारी की मार्फत लखनऊ भेजा था, उसका तो पता नहीं क्या हुआ। पर विकास प्रािधकरण ने ब्रज हाट का जो माॅडल बनाया, उसे देखकर किसी भी संवदेनशील व्यक्ति का सिर चकरा जाय। यह नक्शा नीले कांच लगी बहुमंजिलीय इमारत का था। जिसे देखकर दिल्ली के किसी माॅल की याद आती है। गनीमत है कि हमारे शोर मचाने पर यह विचार ठंडे बस्ते में डाल दिया गया और अब ब्रज के कारीगरों के लिए ब्रज हाट बनाने की बात की जा रही है। दरअसल, हाट की परंपरा हजारों वर्ष पुरानी है। जहां न कोई दुकान होती है, न कोई पक्का ढांचा।  बहुत सारे छोटे-छोटे चबूतरे बनाए जाते हैं और हर चबूतरे से सटा छायाकार वृक्ष होता है। यह दृश्य भारत के किसी भी गांव में देखने को मिल जाएगा। यहां कारीगर कपड़े की चादर फैलाकर अपने हस्तशिल्प का सामान विक्रय के लिए सुबह आकर सजाते हैं और शाम को समेट कर ले जाते हैं। न किसी की कोई दुकान पक्की होती हैं और न किसी मिल्कीयत। इसी विचार को बरसाना, नंदगांव, गोकुल, गोवर्धन, वृंदावन, मथुरा की परिधि में शहर और गांव के जोड़ पर स्थापित करने की जरूरत है। जिसकी लागत बहुत ही कम आएगी। हां उसमें कलात्मकता का ध्यान अवश्य दिया जाना चाहिए, जिससे ब्रज की संस्कृति पर वो भौड़े निर्माण हावी न हों।

इसी तरह ब्रज के गरीबों को अगर लाभ पहुंचाना है, तो ब्रज के ऐतिहासिक छह सौ से अधिक गांव में से सौ गांवों को प्राथमिकता पर चुनकर उनके वन, चारागाह, कुंड और वहां स्थित धरोहर का सुधार किया जाना चाहिए। जिससे वृंदावन व गोवर्धन में टूट पड़ने वाली भीड़ ब्रज के बाकी गांव में तीर्थाटन के लिए जाए, जहां भगवान की सभी बाललीलाएं हुई थीं। इन गांव में तीर्थयात्रियों के जाने से होगा गरीबों का आर्थिक लाभ।

पर आश्चर्य की बात है कि विश्व बैंक को भेजे जा रहे प्रस्ताव में एक प्रस्ताव श्रीबांकेबिहारी मंदिर की गलियों के सुधार का है। यह आश्चर्यजनक बात है कि बिहारीजी का मंदिर, जिसकी जमापूंजी 70-80 करोड़ रूपये से कम नहीं होगी और जिसके दर्शनार्थियों के पास अकूत धन है। उस बिहारीजी के मंदिर की गलियों के लिए विश्व बैंक का पैसा खर्च करने की क्या तुक है ? इससे किस गरीब को लाभ होगा। यह कैसा ‘प्रो पुअर टूरिज्म’ है। बिहारीजी मंदिर तो अपने ही संसाधनों से यह सब करवा सकता है।

गनीमत है कि अभी कोई प्रस्ताव अंतिम रूप से तय नहीं हुआ। पर चिंता की बात यह है कि विश्व बैंक की टीम ने और उत्तर प्रदेश सरकार के पर्यटन विभाग ने अब तक जिन महंगे सलाहकारों की सलाह से ब्रज के विकास की योजनाएं सोची हैं, उनका ब्रज से दूर-दूर तक कोई नाता नहीं। इन सलाहकारों को ब्रज की वास्तविकता का अंश भी पता नहीं है। विश्व बैंक के अधिकारियों को कुछ वर्ष पहले ये सलाहकार मुझसे मिलाने मेरे दिल्ली कार्यालय लाए थे। उद्देश्य था कि मैं उन्हें ब्रज में पैसा लगाने के लिए प्रेरित करूं। अपनी संस्था के शोध एवं गहरी समझ के आधार पर मैंने यह कार्य सफलतापूर्वक कर दिया। उसके बाद किसी सरकारी विभाग में या विश्व बैंक ने इसकी जरूरत नहीं समझी कि हमसे आगे सलाह लेते। जब हमें अखबारों से ऐसी वाहियात योजनाओं का पता चला, तो हमने विश्व बैंक के सर्वोच्च अधिकारियों व उत्तर प्रदेश शासन के मुख्य सचिव, पर्यटन सचिव व अन्य अधिकारियों से कई बैठकें करके अपना विरोध प्रकट किया। उन्हें यह बताने की कोशिश की कि विश्व बैंक उत्तर प्रदेश की जनता को कर्ज दे रहा हैं, अनुदान नहीं। फिर ऐसी वाहियात योजनाओं में पैसा क्यों बर्बाद किया जाए, जिससे न तो ब्रज में रहने वाले गरीबों का भला होगा और न ही ब्रज में आने वाले गरीबों का।

Monday, October 13, 2014

कैसे सुधरे धर्मस्थलों का स्वरूप

आर्थिक मंदी और तेजी के दौर आते जाते रहते हैं। पर धर्म एक ऐसा क्षेत्र है, जहां कभी आर्थिक मंदी नहीं आती। कड़वी भाषा में बोंले तो धर्म का कारोबार हमेशा बढ़ता ही रहता है। धर्म कोई भी हो, उसकी संस्थाओं को चलाने वालों के पास पैसे की कमी नहीं रहती। भारत की जनता संस्कार से धर्मपारायण है। गरीब भी होगा, तो मंदिर, मस्जिद और गुरूद्वारे में अपनी हैसियत से ज्यादा चढ़ावा चढ़ाएगा। फिर तिरूपति बालाजी में 5 से 10 करोड़ रूपये के मुकुट चढ़ाने वालों की तो एक लंबी कतार है ही। फिर भी क्या कारण है कि भारतीय धर्मनगरियों का बुरा हाल है ?
 
कूड़े के अंबार, तंग गलियां, ट्रैफिक की भीड़, प्रदूषण, लूटपाट, सूचनाओं का अभाव और तमाम दूसरी विसंगतियां। बयान बहुत लोग देते हैं, सुधरना चाहिए ये भी कहते हैं। दर्शन या परिक्रमा को बड़े-बड़े वीआईपी आते हैं और स्थानीय जनता और मीडिया के सामने लंबे-चैड़े वायदे करके चले जाते हैं। न तो कोई प्रयास करते हैं और न पलटकर पूछते हैं कि क्या हुआ? जो कुछ होता है, वो कुछ व्यक्तियों के या संस्थाओं के निजी प्रयासों से होता है। सरकारी तंत्र की रोड़ेबाजी के बावजूद होता है। स्थानीय नागरिकों की भी भूमिका कोई बहुत रचनात्मक नहीं रहती। छोटे-छोटे निहित स्वार्थों के कारण वे सुधार के हर प्रयास का विरोध करते हैं, उसमें अडंगेबाजी करते हैं और सुधार करने वालों को उखाड़ने में कसर नहीं छोड़ते।
जहां तक सरकारी तंत्र की बात है, उसके पास न तो इन धर्मनगरियों के प्रति कोई संवेदनशीलता है और न ही इन्हें सुधारने का कोई भाव। अन्य नगरों की तरह धर्मनगरियों को भी उसी झाडू से बुहारा जाता है। जिससे सुधार की बजाय विनाश ज्यादा हो जाता है। पर कौन किसे समझाए ? कोई समझना चाहे, तब न ? मुख्यमंत्री बड़े-बड़े विज्ञापन छपवाकर योजनाओं की घोषणा कर देते हैं। पर क्या कभी उन योजनाओं के क्रियान्वयन की सार्थकता, गुणवत्ता और सततता पर कोई जांच की जाती है ? नहीं। की जाती, तो बनते ही कुछ महीनों में इन स्थलों का पुनः इतनी तेजी से विनाश न होता। एक नहीं दर्जनों उदाहरण है। जब केंद्र सरकार, अंतर्राष्ट्रीयों संगठनों या निजी क्षेत्र से करोड़ों-अरबों रूपया वसूल कर स्थानीय प्रशासन धर्मनगरी के सुधार के लंबे-चैड़े दावे करता है, पर जमीनी हकीकत कुछ और ही होती है। यह क्रम जारी है। किसी राज्य में ज्यादा, किसी में कम। इसे पलटने की जरूरत है। प्रधानमंत्री अकेले कोई धर्मनगरी साफ नहीं कर सकते। इसके लिए तो एक समर्पित टीम चाहिए। जिसे स्थानीय मुद्दों और इतिहास की जानकारी हो। यह टीम कार्यक्रम बनाए और वही उसके क्रियान्वयन का मूल्यांकन करे और फिर कोई समर्पित स्वयंसेवी संस्था उस स्थान की दीर्घकाल तक देखरेख का जिम्मा ले। तभी धरोहरों की रक्षा हो पाएगी, तभी धर्मस्थान सुरक्षित रह पाएंगे। वरना, सैकड़ों-करोड़ों रूपया खर्च करके भी कुछ हासिल नहीं होगा।
मथुरा जिले के बरसाना कस्बे में गहवर वन के पास एक दोहिनी कुण्ड है। जहां राधारानी की गायों का खिरक था। वहां राधारानी अपनी गायों का दूध दोहती थीं। एक दिन वहां कौतुकी कृष्ण आ गए और राधारानी को दूध दोहने की विधि समझाने लगे। उन्होंने ऐसा दूध दोहा कि दोहिनी कुण्ड दूध से भर गया। फिर ये सैकड़ों साल उपेक्षित और खण्डर पड़ा रहा। तब ब्रज फाउण्डेशन ने इसकी गहरी खुदाई करवायी। इसके घाटों का पत्थर से निर्माण करवाया और फिर इसके चहू ओर विकास की योजना बनाकर भारत सरकार के पर्यटन मंत्रालय को भेज दी। वहां से सवा करोड़ रूपया स्वीकृत हुआ। टेण्डर मांगे गए और एक नकली फर्म चलाने वाले धोखेबाज आदमी को एल-वन बताकर उसके क्रियान्वयन का ठेका दे दिया गया। जब इसकी शिकायत की गई, तो भारतीय पर्यटन विकास निगम के कई अधिकारी इस भ्रष्टाचार में लिप्त पाए गए। ठेका निरस्त हो गया। अब यही ठेका उत्तर प्रदेश पर्यटन विभाग ने निकाला और जयपुर के एक ठेकेदार को ठेका मिला। उसने आधे-अधूरे मन से जो काम किया, वह हृदयविदारक था। सवा करोड़ लगने के बाद दोहिनी कुण्ड आज लावारिस और उजड़ा पड़ा है। जो कुछ ढांचे बनाए गए थे, वो सब भी ढहने लगे हैं। जबकि इस कुण्ड का लोकार्पण अभी डेढ़-दो साल पहले ही हुआ है। इसी तरह अन्य धर्मनगरियों के भी उदाहरण मिल जाएंगे।
 
ऐसे में पर्यटन और तीर्थांटन की योजनाओं में अमूलचूल परिवर्तन की जरूरत है। जो संस्था या व्यक्ति पूरी समझ, निष्ठा और समर्पण के साथ इन धर्मनगरियों को समझता हो और जिसने कोई ठोस काम करके दिखाया हो। ऐसे लोगों को योजना बनाने की, उसके क्रियान्वयन की और उन स्थलों की दीर्घकाल तक देखरेख की जिम्मेदारी सौंपनी चाहिए। जिसके लिए प्रधानमंत्री और राज्यों के मुख्यमंत्रियों को भी कुछ क्रान्तिकारी निर्णय लेने होंगे। जिससे नए विचारों को खाद, पानी मिल सके और जो नौकरशाही 60 बरस से सत्ता चला रही है, उसे यह पता चले कि उनसे कम संसाधनों में भी कितना बढ़िया, ठोस और स्थाई काम किया जा सकता है।