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Monday, May 18, 2020

कोरोना से कैसे जीता ये परिवार ?

जब-जब हमने अपनी वैदिक परम्पराओं और ज्ञान की उपेक्षा करके पश्चिम का अंधा अनुकरण किया है। तब-तब हम लुटे, पिटे और बर्बाद हुए हैं। आज कोरोना के आतंक से पूरी दुनिया सहमी हुई है। लेकिन भारत में हर कोने से ऐसी खबरें आ रही हैं कि लोगों ने पारम्परिक अनुभव और ज्ञान का सहारा लेकर कोरोना से जंग जीती है। ऐसे ही एक अनुभव की चर्चा इन दिनों सोशल मीडिया में खूब वायरल हो रही है।   

62 वर्षीय वीरेंद्र के. बंसल दिल्ली के मॉडल टाउन में रहते हैं। देश में लॉक डाउन की घोषणा के बाद इनके पूरे परिवार ने इसका ईमानदारी से पालन किया। घर से कोई भी व्यक्ति सिवाय रोजमर्रा की चीजों के जैसे दूध, सब्ज़ी, दाल, चावल इत्यादि के दो दिनों में एक बार के अलावा घर से बाहर नहीं गया। और इन सब चीजों को घर में लाने के बाद साफ सफाई के सभी नियमों का पालन किया।

वे खुद विशेष तौर से एक बार भी घर के गेट से बाहर नहीं निकले। परंतु पता नहीं कहाँ से इनको 26 अप्रेल 2020 को बुखार हो गया। शुरू में दो तीन दिन बुखार हल्का था, उन्होंने अपने पारिवारिक डाक्टर के कहने पर बुखार के सभी रूटीन टेस्ट भी कराये, पर वो सब नेगेटिव निकले। इसके बाद डाक्टर से पुनः संपर्क करने पर उन्हें कोरोना टेस्ट के लिये बोला गया। बंसल जी इस बात को मानने को तैयार नहीं थे, क्योंकि उन्होंने  लॉकडाउन का सही से पालन किया था। फिर भी 4 मई 2020 को दिल्ली की एक नामी लैब से टेस्ट कराने पर 6 मई को इन्हें कोरोना पोसिटिव निकला। 

श्री बंसल ने तुरंत ही अपने आप को एक अलग कमरे में क्वारंटाइन कर सारे घर से अलग कर लिया। इनके छोटे भाई (57 वर्ष) व माताजी (89 वर्ष) का टेस्ट भी कोरोना पोसिटिव निकला, और वे दोनों भी क्वारंटाइन हो गए।

गौरतलब है कि, सरकारी संस्थाओं से लगातार संपर्क करने पर व प्रधानमंत्री जी को ट्वीट करने पर दिल्ली के हिन्दू राव अस्पताल से एक डाक्टर 9 मई 2020 को अपनी टीम के साथ इन्हें देखने आए। और यह कह गए कि पूरा परिवार पोसिटिव निकलेगा तथा सब के टेस्ट 11 मई 2020 को करा दिए जाएंगे। पर अफसोस की बात है कि 12 मई 2020 तक कुछ नहीं हुआ। पूरे बंसल परिवार ने कोरोना की इस बिमारी को एकजुट होकर 26 अप्रेल 2020 से ही इसे एक चैलेंज के रूप में लिया था। 

बंसल परिवार का सुबह से ही दिन भर का कार्यक्रम शुरू हो जाता ; दिन में दो बार गर्म पानी के नमक डाल कर गरारे, दिन में 4 बार घर पर बना हुआ काढ़ा, दो बार आँवले का गर्म पानी, तीन बार स्टीम, दो बार एक चम्मच हल्दी का दूध, नींबू की गर्म शिकंजी, दो समय नाश्ता और दो बार हल्का खाना।

जब भी बुखार 100 से ऊपर गया, तो वे डोलो 650 की एक गोली ले लेते और कई बार जब बुखार गोली लेने पर भी 102 से नीचे नहीं उतरा तो सर पर ठंडे पानी की पट्टी बुखार हल्का होने तक रखते। इसके साथ ही दिन में दो बार प्राणायाम भी करते।

बंसल जी का कहना है कि ईश्वर की कृपा से इनका बुखार पिछले कई दिनों से नॉर्मल चल रहा है, बिना किसी गोली के। इनके छोटे भाई व माता जी को भी पहले से आराम है। इनके परिवार में 11 सदस्य हैं जिसमें दो छोटी बच्ची तीन व चार साल की भी हैं।

बंसल जी ने सभी से करबद्ध प्रार्थना की है कि कोरोना से घबराएं नहीं इसे एक वायरल बुखार के तौर पर लें। इनके परिवार में किसी को भी सांस की कोई तकलीफ नहीं हुई। हल्की फुल्की खांसी या थोड़ा सा बलगम हुआ जो मौसम बदलने पर भी हो ही सकता है। उनकी सलाह है कि जहां तक सम्भव हो सके अपने आप को कोरोना से बचाइये । लेकिन यदि हो जाये तो हिम्मत से इसका सामना करें और इसको हरायें।

आज जिन सवालों और चुनौतियों को लेकर पूरी दुनियाँ परेशान हैं, उनको और उनके कुछ समाधानों को मैंने 1988 में, शिकागो (अमरीका) में एक वैश्विक सम्मेलन में बताया था। जिस पर तब मुझे वहाँ के टीवी और अख़बारों में छापा गया था। पिछले हफ़्ते अचानक उस सम्मेलन पर आधारित (1989 में अमरीका में छपी) ये पुस्तक पुरानी किताबों में रखी हाथ लगी, जिसमें कई जगह मेरे विचारों को उद्धृत किया गया है। 

वहाँ मेरा ज़ोर पर्यावरण संतुलन, आध्यात्मिक जीवन और भौतिकता की आधुनिक दौड़ पर लगाम कसने पर था। मैंने उनसे कहा था आप अंधे हैं और हम लंगड़े। दोनों मिलकर अगर सफ़र तय करें तो मानव जाति का भला होगा। आप हमें पिछड़ा या विकासशील कहना बंद करो। हमारे पारम्परिक ज्ञान और जीवन शैली से रहना सीखो और हमसे अपना तकनीकी ज्ञान साझा करो। जैसे थर्माकोल की जगह पत्तल और डिब्बे के दूध की जगह माँ का दूध, टॉयलेट पेपर की जगह पानी, रासायनिक खाद की जगह गोबर् की खाद, ताकि पर्यावरण का विनाश न हो। मेरे बोलते ही सम्मेलन में सन्नाटा छा गया। क्योंकि मैंने अपने ग्रामीण अनुभवजन्य विचारों से उनकी उपदेशात्मक शैली में चल रहे भाषणों पर प्रश्न खड़े कर दिए थे। 

इस सम्मेलन में कुल 35 लोग थे। जिनमें कई राष्ट्रों के प्रमुख लोग, विश्व बैंक के अध्यक्ष रहे और वियतनाम युद्ध के ज़िम्मेदार अमरीकी विदेश सचिव (मंत्री) रहे मैकनमारा और तत्कालीन अमरीकी राष्ट्रपति बुश की सचिव, दिवंगत राष्ट्रपति जॉन एफ कनेडी की भतीजी और बाद में राष्ट्रपति बिल क्लिंटन के कार्यकाल में राज्यपाल रहीं जैसी बड़ी-बड़ी वैश्विक हस्तियाँ और नईजीरिया, आर्जेंटीना और भारत से हम तीन युवा पत्रकार थे। 

मेरी फटकार का ये असर हुआ कि 1988 के बाद मुझे गोरों ने कभी भाषण देने अमरीका नहीं बुलाया। हाँ अमरीका के भारतीय समाज और वहाँ के मशहूर विश्वविद्यालयों में पढ़ने वाले भारतीय छात्र लगातार बुलाते रहे और मैं जाता रहा। 

कोरोना लाक्डाउन के दौरान वृंदावन के अपने पैतृक निवास पर दिन में पुराने बक्से खोल कर देख रहा हूँ तो 50 साल पुराने भी दस्तावेज और ग्रंथ सामने आ रहे हैं। इसी क्रम में  पिछले हफ़्ते जब एक पुराना बक्सा खोला तो ये ग्रंथ हाथ आया, सोचा आपसे साझा करूँ। 

साथ ही यह भी कहना चाहता हूँ कि गांधी जी के ग्राम स्वराज्य का ही एक मॉडल है जो भारत की आम जनता को सुख, स्वास्थ्य, समृद्धि और सुरक्षा प्रदान कर सकता है। और यह बात हम जैसे लोग दशकों से कहते और लिखते आ रहे हैं। पर आज़ादी के बाद न तो प. नेहरू ने इस पर ध्यान दिया, न उनके बाद आज तक के प्रधान मंत्रियों ने। आज़ाद भारत का राजतंत्र, पश्चिम की चकाचौंध के पीछे दौड़-दौड़ कर विदेश जाता रहा और देश बहुराष्ट्रीय कम्पनियों और लुटेरों के हाथ लुटवाता रहा। चलो, जब जागो तब सवेरा। देर से ही सही मोदी जी ने भी आज आत्मनिर्भरता के महत्व को समझा है। पर यह तभी सफल हो पाएगा जब हमारे राजनेता, अफ़सर, वैज्ञानिक और हम सब तथाकथित पढ़े लिखे लोग पश्चिम का मोह त्याग कर अपनी जड़ों की ओर लौटेंगे और अपनी सोच और जीवन शैली को वाक़ई स्थानीय संसाधनों पर आधारित आत्मनिर्भर बनाएँगे। 

Monday, May 11, 2020

धर्म स्थलों का धन क्या विकास में लगे?

जब से कोरोना का लॉकडाउन शुरू हुआ है तब से अपनी जान बचाने के अलावा दूसरा सबसे महत्वपूर्ण चर्चा का विषय वैश्विक अर्थव्यवस्था को लेकर है। हर आदमी ख़ासकर व्यापारी, कारखानेदार और मज़दूर अपने भविष्य को लेकर चिंतित हैं। अर्थव्यवस्था के इस तेज़ी से पिछड़ जाने के कारण प्रधान मंत्री और मुख्यमंत्रीगण तक सार्वजनिक रूप से आर्थिक तंगी, वेतन में कटौती, सरकारी खर्च में फ़िज़ूल खर्च रोकना और जनता से दान देने की अपील कर रहे हैं। ऐसे में सबका ध्यान भारत के धर्म स्थलों में जमा अकूत दौलत की तरफ़ भी गया है। बार-बार यह बात उठाई जा रही है कि इस धन को धर्म स्थलों से वसूल कर समाज कल्याण के या विकास कार्यों में लगाया जाए। आरोप लगाया जा रहा है कि भारी मात्रा में जमा यह धन, निष्क्रिय पड़ा है। या इसका दुरुपयोग हो रहा है। 

कुछ सीमा तक उपरोक्त आरोप में दम हो सकता है। पर इस धन को सरकारी तंत्र के हाथ में दिए जाने के बहुतसे लोग शुरू से सर्वथा विरुद्ध रहे हैं। क्योंकि, तमाम क़ानूनों, पुलिस, सी.बी.आई., सीवीसी, आयकर विभाग और न्यायपालिका के बावजूद प्रशासनिक तंत्र में भारी भ्रष्टाचार व्याप्त है। इसलिए जनता का विश्वास सरकार के हाथ में धर्मार्थ धन सौंपने में नहीं है। 

दरअसल धार्मिक आस्था एक ऐसी चीज है जिसे कानून के दायरों से नियंत्रित नहीं किया जा सकता। आध्यात्म और धर्म की भावना न रखने वाले, धर्मावलंबियों की भावनाओं को न तो समझ सकते हैं और न ही उनकी सम्पत्ति का ठीक प्रबन्धन कर सकते हैं। इसलिए जरूरी है कि उस धर्म के मानने वाले समाज के प्रतिष्ठित और सम्पन्न लोगों की प्रबन्धकीय समितियों का गठन एक सर्वमान्य निर्देश के द्वारा कर देना चाहिए। इन समितियों के सदस्य बाहरी लोग न हों और वे भी न हों जिनकी आस्था उस मंदिर, मस्जिद, चर्च या गुरुद्वारे में न हो। जब साधन सम्पन्न भक्त मिल बैठकर योजना बनाएंगे तो दैविक द्रव्य का बहुजन हिताय सार्थक उपयोग ही करेंगे। 

जैसे हर धर्म वाले अपने धर्म के प्रचार के साथ समाज की सेवा के भी कार्य करते हैं। कोरोना क़हर के दौरान लगभग सभी धर्म स्थलों ने ख़ासकर गुरुद्वारों ने बढ़चढ़ कर ज़रूरतमंद लोगों के लिए उदारता से भंडारे चला रखे हैं। सामान्य काल में भी इन धर्मस्थलों द्वारा अनेक जनोपयोगी कार्य किए जाते हैं। जैसे अस्पतालों, शिक्षा संस्थानों, रैन बसेरों, अन्य क्षेत्रों , आपदा राहत शिविरों आदि का व्यापक और कुशलतापूर्वक संचालन किया जाता है। क्योंकि इन सेवाओं को करने वालों का भाव नर-नारायण की सेवा करना होता है न कि सेवा के धन का ग़बन करना । जैसा कि प्रायः सभी प्रशासनिक तंत्रों में होता है ।

ऐसा नहीं है कि सभी धर्मस्थलों में पूरी पारदर्शिता और ईमानदारी से धर्मार्थ धन का सदुपयोग होता हो । वहाँ भी इस धन के दुरुपयोग की शिकायतें आती रहती हैं। इसलिए आवश्यकता इस बात की है कि उस धर्मावलंबियों की जो प्रबंध समितियाँ गठित हों , उनकी पारदर्शिता और जबावदेही विस्तृत दिशानिर्देश जारी करके सुनिश्चित कर देनी चाहिए। ताकि घोटालों की गुंजाइश न रहे। इन समितियों पर निगरानी रखने के लिए उस समाज के सामान्य लोगों को लेकर विभिन्न निगरानी समितियों का गठन कर देना चाहिए। जिससे पाई-पाई पर जनता की निगाह बनी रहे। किसी भी धर्म के धर्मस्थानों का धन सरकार द्वारा हथियाना, उस समाज को स्वीकार्य नहीं होगा। 

देश में ऐसे हजारों धर्मस्थल हैं, जहाँ नित्य धन की वर्षा होती रहती है। इस धन का सदुपयोग हो इसके लिए उन समाजों को आगे बढ़कर स्वयं भी नई दिशा पकड़नी चाहिए और दैविक द्रव्य का उपयोग उस धर्म स्थान या धर्म नगरी या उस धर्म से जुड़े साधनहीन लोगों की मदद में करना चाहिए। इससे उस धर्म के मानने वालों के मन में न तो कोई अशांति होगी और न कोई उत्तेजना। वे भी अच्छी भावना के साथ ऐसे कार्यों में जुड़ना पसन्द करेंगे। अब वे अपने धन का कितना प्रतिशत मन्दिर और अनुष्ठानों पर खर्च करते हैं और कितना विकास के कार्यों पर, यह उनके विवेक पर छोड़ना होगा।

धर्मस्थलों के धन पर अगर सरकार नज़र डालती है तो यह बड़ा संवेदनशील मामला  हो जाता है। और तब सवाल उठता है कि जनता की खून पसीने की कमाई के हज़ारों लाखों करोड़ रुपया बैंकों से क़र्ज़ लेकर भाग जाने वाले उद्योगपतियों या देश में ही रहने वाले वे उद्योगपति जिन्होंने अकूत दौलत जमा कर रखी है और अपने पारिवारिक उत्सवों में सैकड़ों करोड़ रुपया खर्च करते हैं, उनसे क्यों न धन वसूला  जाए। सब जानते हैं कि देश का हर बड़ा पैसे वाला पसीने बहाकर धनी नहीं बनता। प्रकृतिक संसाधनों का नृशंस दोहन, करों की भारी चोरी, बैंकों के बिना चुकाए बड़े-बड़े ऋण, एकाधिकारिक नीतियों से बाजार पर नियंत्रण और सरकारों को शिकंजे में रखकर अपने हित में कर नीतियों का निर्धारण करवाकर बड़े मुनाफे कमाए जाते हैं। ऐसे में केवल धर्मस्थलों को ही सजा क्यों दी जाए? यदि असीम धन संग्रह के अपराध की सजा मिलनी ही है तो वह राजपरिवारों, धर्माचार्यों को ही नहीं, बल्कि उद्योगपतियों, राजनेताओं, नौकरशाहों और मीडिया के मठाधीशों को भी मिलनी चाहिए। उन सब लोगों को जो अपनी इस विशिष्ट स्थिति का लाभ उठाकर समाज के एक बड़े वर्ग का हक छीन लेते हैं।     

पुरानी कहावत है कि, ‘इस संसार में हर एक की ज़रूरत पूरा करने के लिए काफ़ी धन और संसाधन हैं, लेकिन कुछ लोगों की हवस पूरी करने के लिए वे नाकाफ़ी हैं’। भारत में की भी यही स्थिति है। ‘सुजलां, सुफलाम् शस्य्श्यामलाम’ भारत माता अपनी 135 करोड़ संतानों को स्वास्थ्य और सुखी रखने में सक्षम है। समस्या तब खड़ी होती है जब नियत में खोट हो जाता है। इसलिए हमारे जैसे लोग बरसों से सार्वजनिक जीवन में पारदर्शिता के लिए संघर्ष करते रहे हैं। पर दुःख की बात यह है कि जिस स्तर की पारदर्शिता की आवश्यकता है वह तमाम क़ानूनी व्यवस्थाओं के बावजूद आजतक स्थापित नहीं हो पाई है। इसलिए जनता का विश्वास जीतने में देश की नौकरशाही आज तक सफल नहीं हो पाई है। ऐसे में आवश्यकता इस बात की है कि पहले सार्वजनिक जीवन में पूरी पारदर्शिता और जनता के प्रति जवाबदेही सुनिश्चित की जाए और तब सरकार से इतर इन संसाधनों पर निगाह डाली जाए।  

Monday, April 27, 2020

कैसे चलें देश के उद्योग व्यापार ?

कोरोना महामारी के कारण अगर हमारे जीवन की रफ़्तार पर गतिरोध लगा है तो ज़ाहिर है इससे सभी खुश नहीं हैं। लेकिन सोचने वाली बात है कि लॉकडाउन जैसे कठिन निर्णय लेने से पहले सरकार ने इसके हर पहलू पर सोचा ज़रूर होगा। जानकारों की मानें तो फ़िलहाल लॉकडाउन से जल्द राहत मिलना सम्भव नहीं है। ऐसे में जहां सरकार इस लॉकडाउन के एग्ज़िट प्लान के बारे में विचार कर रही है, वहीं समाज के कई वर्गों से भी इसके लिए कई सुझाव भी आ रहे हैं। 

भारत में लॉकडाउन को अब एक महीने से ज़्यादा हो चला है। व्यापार और उद्योग जगत, चाहे लघु हो या विशाल, इस लॉकडाउन के अंत की बेसब्री से प्रतीक्षा कर रहा है। ऐसे में सरकार की ओर से जो हिदायत और रियातें आईं हैं वो मध्यम और लघु उद्योगपतियों को नाकाफ़ी लग रहीं हैं। 

देश में एक लघु उद्योग चलाने वाले उद्यमी को उद्योग ठप्प होने और नियमित ख़र्चों की दोहरी मार झेलनी पड़ रही है। एक ओर जहां उस उद्योगपति की फ़ैक्टरी बंद पड़ी है वहीं उसे कर्मचारियों के वेतन के साथ-साथ फ़ैक्टरी के किराए और बिजली के बिलों पर लगने वाले फ़िक्स्ड चार्ज को भी भरना पड़ रहा है। अभी हाल ही में भारत सरकार द्वारा दी गई रियातों में इन ख़र्चों का कोई ज़िक्र नहीं किया गया। केवल बड़े उद्योगों को कुछ ज़रूरी हिदायतों के साथ चलाने की अनुमति दी गई है ।

उधर सोशल मीडिया में भी कई तरह के सुझाव आते हैं कि किस तरह हमें अपनी गाड़ियों को सप्ताह में एक बार स्टार्ट कर लेना चाहिए, या किस तरह हमें कुछ व्यायाम रोज़ कर लेने चाहिए। जिससे गाड़ी और शरीर दोनों चलते रहें। ऐसे में अर्थव्यवस्था को ठप्प होने से रोकने के लिए भी कुछ ठोस कदम उठाने की आवश्यकता है। 

सरकार ने ऐसी हिदायत दे दी हैं कि हर उद्योगपति को अपने किसी भी कर्मी के वेतन को नहीं काटना है और उसे पूरा वेतन देना है। यह भी कहा गया है कि अगर फ़ैक्टरी को सरकारी हिदायतों के साथ चलाया जाएगा तो उसमें काम करने वाले सीमित कर्मियों के रहने खाने की व्यवस्था साफ़ सुथरे वातावरण में, फ़ैक्टरी परिसर में ही करनी होगी। यदि किसी कर्मी को किसी भी कारण से कोरोना का संक्रमण हुआ तो उस उद्योग को दो दिन के लिये बंद करके संक्रमण मुक्त किया जाएगा  और तभी दोबारा चलने की अनुमति मिलेगी। 

अगर हमें देश की अर्थव्यवस्था को वापस ढर्रे पर लाना है तो हर उस उद्योग को खुलने की छूट देना अनिवार्य होगा जो इन बड़े उद्यमियों पर निर्भर हैं। केवल ट्रांसपोर्ट ही नहीं, उन सभी छोटी बड़ी दुकानों को भी सशर्त खुलने की छूट मिलनी चाहिए। अगर सामान की बिक्री नहीं होगी तो बड़ी-बड़ी फ़ैक्टरी में बनने वाली वस्तुएँ किस काम की? आज अगर सरकार ने कुछ सेवाकार्य करने वाले कारीगरों, जैसे कि इलेक्ट्रिशियन, प्लंबर आदि को छूट दी है तो उनसे जुड़े दुकानदारों को छूट क्यों नहीं दी गई? अगर किसी के घर में कुछ बिगड़ गया है और उसकी मरम्मत करने वाला उपलब्ध है लेकिन मरम्मत के लिए ज़रूरी सामान की दुकानें बंद है तो इस छूट का क्या फ़ायदा? अगर सभी को सशर्त छूट मिलेगी तो धीरे धीरे ही सही, पर अर्थव्यवस्था की गाड़ी तो चलती रहेगी।   

आज जब विश्व में कच्चे तेल क़ीमतों में भारी गिरावट आ चुकी है या कहें की उसके दाम शून्य तक पहुँच गये हैं फिर इसका लाभ अगर जनता को क्यों नहीं मिल रहा? तो इसका कारण ये है कि देश में महंगे दर से ख़रीदे हुए तेल के भंडार अभी भरे हुए हैं। लॉकडाउन के चलते पेट्रोल डीज़ल की बिक्री पर भी विपरीत असर पड़ा है। 

अगर लॉकडाउन के एग्ज़िट प्लान में सशर्त छूट दी जाए तो उपभोक्ता को न सिर्फ़ सस्ते दर पर पेट्रोल डीज़ल जल्द उपलब्ध होगा बल्कि सरकार को मिलने वाले कर में भी बढ़ौतरी होगी। वित्त मंत्रालय और रिज़र्व बैंक को भी इस दिशा में ऐसे ठोस कदम उठा कर देश में मुद्रा की वृद्धि कर उसका लाभ जनता तक पहुँचना चाहिए। 

आज सरकार द्वारा मुफ़्त में राशन बाँटने से कहीं अच्छा ये होगा कि सरकार द्वारा इस पर होने वाले खर्च को स्वास्थ्य योजनाओं में लगाया जाए। मुफ़्त में राशन वितरण का कार्य तो कई स्वयंसेवी संस्थाएँ और व्यापारी वर्ग कर ही रहे हैं। सभी कारीगरों को काम में वापस लेकर उनके वेतन दिए जाएं जिससे वो अपनी कमाई से राशन लें और अर्थव्यवस्था की गाड़ी को पटरी पर लाएँ।   

ग़ौरतलब है कि अगर पेट्रोल डीज़ल के दामों में कटौती होती है तो इसका सीधा असर माल की ढुलाई की लागत में होगा और ज़रूरी वस्तुएँ भी सस्ती होंगी। ऐसा ठीक उसी तरह से है जैसे कि मधु की पैदावार में फूल, माली, तितली और मधुमक्खी का योगदान होता है। परिवार के मुखिया को परिवार के सभी सदस्यों की बेहतरी के लिए सोचना होता है, तभी सबका भला होता है। 

इतिहास गवाह है कि चाहे वो गाँव मोहल्ले के स्तर पर रामलीला का आयोजन हो, दशहरा का रावण बनना हो या फिर देश में किसी संकट का समय हो तो मध्य और लघु उद्यमी और व्यापारी जितना बढ़ चढ़ कर सहयोग करते हैं उसकी तुलना किसी भी बड़े ऑनलाइन मार्केटों कम्पनी या उद्यमी से नहीं की जा सकती। ऑनलाइन मार्केटिंग को बढ़ावा देकर तो इन सबका कारोबार समाप्त हो जाएगा। जिससे देश में बेरोज़गारी बढ़ेगी। लाक्डाउन में ये लोग ही आम जनता के लिए जीवन रक्षक बनकर सामने आए हैं कोई ऑनलाइन पोर्टल नहीं आया।

हाँ यह ज़रूर है कि बड़े उद्यमी समाज के कल्याण के लिए उच्च स्तर पर कार्य करते हैं। फिर वो चाहे कोई विशाल मंदिर का निर्माण हो, स्कूल हो या फिर अस्पताल हो। वो ऐसे समाज कल्याण के कार्यों से पीछे नहीं हटते। 

‘रहिमन देख बड़ेन को लघु न दीजिये डारि।
जहां काम आवे सुई कहा करे तलवार ।। 

तो फिर लघु और मध्य उद्यमियों से सौतेला व्यवहार क्यों ? 

प्रधानमंत्री मोदी जी को देश के मुखिया होने के कारण इस दिशा में ठीक उसी तरह के ठोस कदम उठाने की ज़रूरत है जैसा उन्होंने अतीत में किया है। तभी ‘सबका साथ सबका विकास’ का नारा सच होगा।