चार महीनों का वर्षाकाल खत्म हो गया है। पूरे देश में वर्षा का औसत देखें तो कहने को इस साल अच्छी बारिश हुई है। लेकिन कहीं बाढ़ और कहीं सूखे जैसे हालात बता रहे हैं कि यह मानसून देश पर भारी पड़ा है।
मघ्य भारत अतिवर्षा की चपेट में आ गया। मघ्य भारत में औसत से 26 फीसद ज्यादा पानी गिरा है। उधर पूर्व व उत्तरपूर्व भारत में औसत से 16 फीसद कम वर्षा हुई। ज्यादा बारिश के कारण दक्षिण प्रायद्वीप की भी गंभीर स्थिति है। वहां 17 फीसद ज्यादा वर्षा दर्ज हुई है। सिर्फ उत्तर पश्चिम भारत में हुई बारिश को ही सामान्य कहा जा सकता है। हालांकि वहां भी 7 फीसद कम पानी गिरा है। कुलमिलाकर इस साल दो तिहाई देश असमान्य बारिश का शिकार है। आधा देश हद से ज्यादा असमान्य वर्षा से ग्रस्त हुआ है। मघ्य भारत बाढ़ का शिकार है तो पूर्व व पूर्वोत्तर के कई उपसंभागों में सूखे जैसे हालात है। उत्तर पश्चिम भारत जिसे सामान्य वर्षा की श्रेणी में दर्शाया जा रहा है उसके 9 में से 4 उपसंभाग सूखे की चपेट में हैं।
पिछले हफते मघ्य प्रदेश में अतिवर्षा से किसानों की तबाही की थोड़ी बहुत खबरें जरूर दिखाई दीं। वरना अभी तक इस तरफ मीडिया का ज्यादा ध्यान नहीं है कि देश की अर्थव्यवस्था में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाला मानसून आखिर रहा कैसा। बाढ़ से जो नुकसान हुआ उसका आकलन हो रहा है लेकिन यह बात तो बिल्कुल ही गायब है कि इस मानसून की मार का आगे क्या असर पड़ेगा। खासतौर पर उन उपसंभागों का जो सूखे की चपेट में हैं।
एक अकेले मप्र में ही बाढ़ और बेवक्त बारिश से ग्यारह हजार करोड़ रूप्ए के नुकसान का आकलन है। मानसून ने जाते जाते उप्र के कुछ जिलों में भी भारी तबाही मचा दी है। यानी तीन चैथाई देश में मानसून की मार का मोटा हिसाब लगाएं तो यह नुकसान पचास हजार करोड़ से कम नहीं बैठेगा। इस नुकसान की भरपाई कर पाना केंद्र और राज्य सरकारों के लिए एक चुनौती बनकर सामने है।
खैर ये तो प्रकृति की उंच नीच का मामला है। इस पर किसी का कोई जोर नहीं है। लेकिन क्या इस नुकसान को कम किया जा सकता था। इसका जवाब हां में दिया जाना चाहिए। और यह इस आधार पर कि हम और दुनिया के तमाम देश मौसम की भविष्यवाणियों को लेकर बड़े बड़े दावे करने लगे हैं। इसी साल हमने अपने यहां औसत से थोड़ी सी ही कम बारिश का वैज्ञानिक अनुमान लगाया था। गैर&सरकारी एंजसियों का अनुमान थोड़ी और कम बारिश का था। लेकिन इस साल औसत बारिश का आंकड़ा ही कोई 10 फीसद गलत बैठ गया। वैसे देश सामान्य बारिश का जो पैमाना बना कर रखा गया है उसकी रेंज इतनी लंबी है कि मानसून में कितनी भी गड़बड़ी हो जाए मौसम विभाग यह साबित कर देता है कि सामान्य बारिश हुई। वैसे इस साल मघ्य भारत और दक्षिणी प्रायद्वीप में बारिश को मौसम विभाग भी सामान्य बता नहीं पाएगा। क्योंकि दोनों ही जोन में उंचनीच का आंकड़ा 20 फीसद से कहीं ज्यादा बड़ा है।
ब्हरहाल] मामला भविष्यवाणी का है। और ये पूर्वानुमान इसलिए किए जाते हैं ताकि देश के किसानों को अपनी फसल की बुआई का समय तय करने में सुविधा हो और इन्हीं पूर्वानुमानों से फसलों के प्रकार भी तय होते हैं। बैंक और फसल बीमा कंपनियों इन्हीं पूर्वानुमानों के आधार पर अपना कारोबार तय करते हैं। क्या इस बार के पूर्वानुमानों ने किसान बैंक और बीमा कंपनियों यानी सभी को ही मुश्किल में नहीं डाल दिया है।
बत यहीं पर खत्म नहीं होती। ज्यादा बारिश के पक्ष में माहौल बनाने वालों की कमी नहीं है। उन्हें लगता है सूखा पड़ना ज्यादा भयावह है और बाढ़ वगैरह कम बड़ी समस्या है। उन्हें लगता है कि ज्यादा बारिश का मतलब है कि बाकी आठ महीने के लिए देश में पानी का इंतजाम हो गया। यहां इस बात पर गौर किया जाना चाहिए कि वर्षा के पानी को रोक कर रखने के लिए देश के पास बहुत ही थोड़े से बांध है। इन बांधों की क्षमता सिर्फ 257 अरब घनमीटर पानी रोकने की है। जबकि देश में सामान्य बारिश की स्थिति में कोई 700 अरब घनमीटर सतही जल मिलता है। यानी जब हमारे पास प्र्याप्त जल भडारण क्षमता है ही नहीं तो ज्यादा पानी बरसने का फायदा उठाया ही नहीं जा सकता। बल्कि यह पानी बाढ़ की तबाही मचाता हुआ वापस समुद्र में चला जाता है।
क्हते हैं कि देश में अगले अभियान का ऐलान जल संचयन को लेकर ही होने वाला है। जाहिर है बूंद बूद जल बचाने की मुहिम और जोर से शुरू होगी। लेकिन क्या मुहिम काफी होगी। देश में जलापूर्ति ही सीमित है लोग खुद ही बहुत किफायत से पानी का इस्तेमाल करने लगे हैं। बेशक किफायत की जागरूकता बढ़ने से कुछ न कुछ पानी जरूर बचेगा। लेकिन जहां वर्षा के कुल सतही जल का दो तिहाई हिस्सा बाढ की तबाही मचाता हुआ समुद्र में वापस जा रहा हो तो हमें वर्षा जल संचयन के लिए बांध] जलाशय और तालाबों पर ध्यान लगाना चाहिए। कहा जा सकता है कि बड़ी जल परियोजनाएं बनाने के अलावा कोई दूसरा विकल्प उतना कारगर होगा नही।