मानव संसाधन मंत्री कपिल सिब्बल ने उच्च शिक्षा जगत में हलचल मचा दी है। वे विश्वविद्यालय अनुदान आयोग व अखिल भारतीय तकनीकि शिक्षा परिषद् जैसी राष्ट्रीय संस्थाओं को पूरी तरह झकझोरना चाहते हैं। उनका कहना है कि उन सस्थाओं में काफी गिरावट आयी है। इनकी कार्यप्रणाली के कारण शिक्षा जगत में गुणवत्ता बढ़ने की बजाय शिक्षा का स्तर गिरा है। वे इन संस्थाओं को ज्यादा उत्तरदायी बनाना चाहते हैं। दूसरी तरफ ‘नोलेज कमीशन’ के अध्यक्ष सैम पित्रोदा का कहना है कि उच्च शिक्षा को पूरी तरह से सरकारी नियन्त्रण से मुक्त कर देना चाहिए। शिक्षा पर शिक्षाविदों का नियन्त्रण हो और इन शिक्षाविदों पर बाजार की शक्तियों का नियन्त्रण हो। यह शक्तियाँ तय करेंगी कि उन्हें किस किस्म की शिक्षा पाये नौजवानों की जरूरत है। अगर ऐसा होगा तो डिग्री हासिल करने वाले नौजवानों को नौकरी के लिए भटकना नहीं पड़ेगा। औद्योगिक जगत उन्हें नौकरी देगा। उनका मानना है कि केवल डिग्री हासिल करने के लिए जो शिक्षा आज देश में चल रही है, उससे हमारे देश के मानव संसाधन का विकास नहीं हो रहा है।
उदाहरण के तौर पर देश में हजारों डिग्री काॅलेज हैं, जिनमें पढ़ने वाले करोड़ों छात्र ऐसे हैं जिन्हें यह नहीं पता कि वे जिस विषय में ग्रेजुएशन या पोस्ट ग्रेजुएशन कर रहे हैं, उस विषय को पढ़ने से उन्हें क्या हासिल होगा और आगे चलकर यह शिक्षा उनके जीवन में कैसे काम आयेगी? एक बार एक विश्वविद्यालय में एम.ए. समाजशास्त्र की छात्राओं से मैंने अपने भाषण के दौरान प्रश्न किया कि आप यह विषय क्यों पढ़ रही हैं? चालीस छात्राओं में से एक छात्रा ने उत्तर दिया कि वह समाजसेवा करना चाहती है। दूसरी ने कहा कि वह अच्छी माँ बनना चाहती है, इसलिए यह विषय चुना है। बाकी अड़तीस छात्राऐं सिर झुकाकर बैठ गयीं। बहुत कुरेदने पर उत्तर आया कि जब तक शादी नहीं होती, घर बैठकर क्या करें, इसलिए एम.ए. कर रही हैं। एक दूसरे काॅलेज में व्याख्यान के दौरान एक छात्र से पूछा तो उसने बताया कि वह इंग्लिश में एम.ए. कर रहा है। उसके स्वरूप से ऐसा नहीं लगा कि वह अंग्रेजी जानता है। इसलिए उससे एक छोटा-सा सवाल अंग्रेजी मंे किया। वह नहीं समझा और बोला ‘सर हिन्दी में पूछिए’। मैंने पूछा कि तुम एम.ए. अंगे्रजी कैसे कर रहे हो? तो उसका उत्तर था, ‘‘हिन्दी मीडियम में’’। मेरा सर चकरा गया।
इन उदाहरणों से यह स्पष्ट हो ही जाता है कि बहुत बड़ी तादाद में युवा निरर्थक और निरूद्देश्य शिक्षा प्राप्त कर रहे हैं। कोठारी आयोग से लेकर आज तक तमाम आयोगों ने शिक्षा के आमूलचूल परिवर्तन की बात बार-बार कही है। पर बदला कुछ भी नहीं। शिक्षा सार्थक हो, उपयोगी हो, ज्ञानवर्धक हो, योग्यता बढ़ाने वाली हो और यदि आवश्यकता हो तो रोजगार दिलाने वाली हो, ऐसी बात इन आयोगों की रिपोर्टों में बार-बार कही गयी। पर शिक्षा जगत के माफियाओं और राजनैतिक आकाओं ने शिक्षा में बदलाव नहीं होने दिया। आज हालात बदल चुके हैं। एक तरफ वैश्वीकरण का दबाब, दूसरी तरफ सूचना क्रांति से युवाओं में बढ़ती जिज्ञासा, अपेक्षा और हताशा और तीसरी ओर मंदी व बेरोजगारी की मार। इन दबावों के चलते शिक्षा को सुधारने की बात की जा रही है। जिस तरह उद्योग व व्यापार की घुटन को दूर करने के लिए नब्बे के दशक में डाॅ. मनमोहन सिंह ने हमारी अर्थव्यवस्था के कपाट खोले थे, वैसे ही लगता है कि कपिल सिब्बल शिक्षा के कपाट खोलने जा रहे हैं। उनकी योग्यता और कार्यक्षमता पर किसी को संदेह नहीं। लेकिन इतना बड़ा कदम उठाने से पहले कुुछ सावधानी बरतने की जरूरत है।
अगर पश्चिमी देशों में सारी शिक्षा बाजार की शक्तियों से ही नियन्त्रित होती तो कला, संस्कृति, समाज व इतिहास जैसे क्षेत्रों में न तो विद्यार्थी ही बचते और न शिक्षक। सबके सब इंजीनियर, एकाउण्टेंट, मैनेजर या मार्केटिंग विशेषज्ञ ही बनते। पर ऐसा नहीं है। वहाँ बहुत सारे विश्वविद्यालयों में ऐसी शिक्षा दी जा रही है जिसका बाजार से कोई सीधा सम्बन्ध नहीं है। यह दूसरी बात है कि इस तरह की शिक्षा को सरकारी मदद के अलावा बड़ी फाउण्डेशनों से भी सहायता मिलती है। पर भारत में ऐसा सोचना कि सारी शिक्षा बाजार से नियन्त्रित हो, बहुत बड़ी भूल होगी। हमें इस मानसिकता से बाहर निकलना होगा कि एक युवा का अस्तित्व केवल नौकरी हासिल करने तक सीमित है। सच्चाई तो यह है कि इस देश में कुल युवाओं का बहुत नगण्य प्रतिशत नौकरी में जाता है। ज्यादातर युवा अपने पारिवारिक व्यवसाय, खेती, बागवानी, दुकान-कारखाने आदि सम्भालते हैं। जो कम साधन वाले होते हैं पर आत्मनिर्भर बनना चाहते हैं, वे अगर कारखाने खड़े नहीं कर पाते, तो सड़क के किनारे लकड़ी के खोखों में दुकानें खोल लेते हैं।
ऐसे करोड़ों नौजवानों को ऐसी शिक्षा चाहिए जो उन्हें एक जिम्मेदार नागरिक बना सके। उन्हें देश और दुनिया की समझ दे सके। उनके व्यक्तित्व को निखारकर उन्हें आत्मनिर्भर बना सके। उनमें आत्मविश्वास और उत्साह भर सके। साथ ही उन्हें अपने पर्यावरण और परिवेश के प्रति संवेदनशील बना सके। बाजार की शक्तियाँ देश की इन जरूरतों पर ध्यान नहीं देंगी। वे शिक्षा का पूरी तरह व्यवसायीकरण कर देंगी। देश के हर शहर में कुकुरमुत्ते की तरह उग आये लाखों इंजीनियरिंग, मेडीकल या मैनेजमेंट काॅलेज पैसा कमाने का उद्योग बन गये हैं। नौजवानों की महत्वकांक्षा को बिना ठीक शिक्षा दिये भुनाने में जुटे हैं। उनकी मजबूरी का फायदा उठा रहे हैं।
जरूरत इस बात की है कि उच्च शिक्षा पर नियन्त्रण ऐसी संस्थाओं का हो जिनमें बाजार की जरूरत और समाज की जरूरत दोनों का सामंजस्य हो। यह संस्था सरकार के अधीन हो या स्वायत्त, ये बहस का विषय हो सकता है पर यह कहना कि केवल बाजार ही शिक्षा का स्वरूप और भविष्य तय करेगा, भारत जैसे देश के लिए न तो सम्भव है और न ही आवश्यक।