पिछले सप्ताह इसी का¡लम में हमने डा¡. मनमोहन सिंह पर आडवाणी जी के लगातार चल रहे व्यक्तिगत हमले और डा¡. सिंह के पलटवार की सम्भावना को लेकर जो लेख लिखा था, उसका असर तीसरे दिन ही देखने में आया। भाजपा के वरिष्ठ नेताओं ने यह तय किया कि अब आडवाणी जी और उनका दल डा¡. सिंह पर व्यक्तिगत हमला नहीं करेगा। दरअसल राजनीति में क्या जायज है और क्या नाजायज, इसका फर्क करना आसान नहीं होता। पश्चिमी देशों की कहावत है कि ‘ऐवरी थिंग इज फेयर इन वा¡र, लव एण्ड पालिटिक्स’ यानि युद्ध, प्रेम और राजनीति में सबकुछ जायज होता है। शायद इसीलिए हमारे देश के चुनावों में दलों ने अपने अभियानों को इस नीचाई तक गिरा दिया कि कोई भी स्वाभिमानी व्यक्ति इस कीचड़ में गिरना नहीं चाहता। कहते हैं कि अगर अपनी दस पीढि़यों तक की पोटली चैराहे पर खुलवानी हो तो राजनीति में जाओ। लोकतंत्र के लिए यह बहुत खतरनाक स्थिति है।
अगर अपनी किसी पिछली गलती या पूर्वजों की कमजोरी के डर से अच्छे लोग राजनीति से परहेज करते रहेंगे तो एक से एक गुण्डे, बकैल और लोफर राजनीति में हावी होते जायेंगे। वोरा समिति की रिपोर्ट हो या सर्वोच्च न्यायालय की टिप्पणियाँ, मीडिया में आये दिन छपने वाले घोटाले हों या एक आम आदमी की राय, राजनीतिज्ञों की छवि लगातार गिरने का ही प्रमाण देती है। एक मत यह भी हो सकता है कि सार्वजनिक जीवन जीने वाले व्यक्ति का कोई निजी जीवन नहीं होता। इसलिए उसकी और उसके परिवार की हर कमजोरी जनता के सामने आनी ही चाहिए। तभी मतदाता यह निर्णय कर पायेगा कि वह किसे अपना प्रतिनिधि चुने। यूं यह बात बहुत तार्किक लगती है पर इसकी अपनी सीमाऐं हैं। सार्वजनिक जीवन जीने वाले का भी एक निजी जीवन होता है। अगर उसके निजी जीवन का हर पक्ष गली मौहल्लों की चर्चा का विषय बन जायेगा तो उस बिचारे का जीना दूभर हो जायेगा। वह अपना मानसिक संतुलन खो बैठेगा। उसका परिवार इस त्रासदी को भोगने में अपना चैन गंवा बैठेगा। इसलिए एक सीमा निर्धारण करने की जरूरत होती है।
खोजी पत्रकार के रूप में अपने शुरू के वर्षों में मैंने उत्साह के अतिरेक में अनेक बार बहुत तीखे वार राजनेताओं पर किये। हाँलाकि उन सब का तथ्यात्मक आधार सुदृढ़ था और ऐसा करते वक्त मेरे मन में कोई राग द्वेष की भावना भी नहीं थी, फिर भी मेरा वह अनुभव अच्छा नहीं रहा। बाद के वर्षों में तो समझ बढ़ी और तरीका बदला। पर सबसे अच्छा पाठ उस दिन सीखने को मिला जिस दिन न्यूयाZक के वल्र्ड ट्रेड सsटर व वाशिंगटन के पेण्टागाॅन पर आतंकवादी हमले हुए और पूरा अमरीका दहल गया। तब सी.एन.एन. का एक वरिष्ठ संवाददाता जो गत दो दशक से व्हाईट हाउस की रिपोर्टिंग करता रहा था, उससे एंकर पर्सन्स ने बार-बार जानना चाहा कि इस समय व्हाईट हाउस के भीतर क्या घट रहा है? जार्ज बुश की मानसिक हालत कैसी है? आदि। उस संवाददाता ने कहा कि ये सही है कि मैं व्हाईट हाउस के अंदर घट रही हर हलचल से वाकिफ हूँ, पर जो कुछ मैं जानता हूँ वह पूरी दुनिया के सामने नहीं रख सकता। ऐसा करना देश और उसकी सुरक्षा के लिए जरूरी है। उसका यह कथन मेरे दिल को छू गया। मैंने मनन किया और सोचने लगा कि हममें से कितने पत्रकार ऐसे हैं जो पत्रकारिता के जुनून में इस सीमा का ध्यान रखते हैं?
कहीं ऐसा तो नहीं कि बढि़या रिपोर्ट यानि सनसनीखेज रिपोर्ट फाइल करने के चक्कर में हम अपनी हद तोड़ देते हों? आज ज्यादातर यही हो रहा है। इसलिए पाठकों और दर्शकों की रूचि ऐसी पत्रकारिता से हटती जा रही है। यही बात राजनीति पर भी लागू होती है। चुनाव लड़ना है तो अपने को बेहतर साबित करना होगा। अपने प्रतिद्विंदी को कमजोर साबित करना होगा। ऐसा करने में कुछ भावनाऐं तो आहत होंगी ही पर इसके बिना आपका अभियान सिरे नहीं चढ़ सकता। लेकिन विरोधी को नीचा दिखाने के लिए गरिमा से नीचा गिरकर गली-मौहल्ले के वाक्युद्ध के स्तर पर उतर आना, लोकतंत्र के कर्णधारों को शोभा नहीं देता। कानून के निर्माताओं से गम्भीर आचरण की अपेक्षा की जाती है। ऐसा आचरण न रखने वाले प्रतिनिधि ही सदन में कुर्सियाँ और माइक तोड़कर विरोधियों पर फैंका करते हैं और हमारी लोकतांत्रिक व्यवस्था का भौंडा प्रदर्शन करते हैं।
चुनाव अभियान मुद्दों पर आधारित हो। मुद्दे चाहें स्थानीय हों, प्रांतीय हों, राष्ट्रीय हों या अन्तर्राष्ट्रीय हों। इन मुद्दों पर प्रत्याशी या उसके दल की राय क्या है? उनकी नीति क्या रही है? वे यदि विपक्ष में हैं तो सत्ता पक्ष की किन नीतियों से उन्हें मतभेद है और अगर वे सत्ता में आयेंगे तो उनकी नीति क्या होगी? यह ऐसे बिन्दु हैं जिन पर अपनी बात रखनी चाहिए। व्यक्तिगत आरोप प्रत्यारोपों के माहौल में कोई गम्भीर मुद्दा सामने आ ही नहीं सकता। दुर्भाग्यवश इस बार भारत की लोकसभा का चुनाव बिल्कुल मुद्दा विहीन चल रहा है। किसी भी दल को नहीं पता कि वो चाहता क्या है? विरोध किस का कर रहा है? जिस बिन्दु पर विरोध कर रहा है, अपने शासनकाल में उसकी भी यही नीति थी। तो फिर विरोध किस बात का? ऐसे भ्रामक माहौल में मतदाता समझ नहीं पा रहा कि प्रधानमंत्री की कुर्सी का दावा ठोंकने वाले नेता और उनके दल कौन सा ठोस कार्यक्रम लेकर जनता के सामने आयें हैं? जब वे सत्ता में रहे तब इनमें से कितने कार्यक्रम उन्होंने लागू किये? अगर नहीं किये तो अब किस मुँह से दूसरों की आलोचना करते हैं? ऐसे बुनियादी सवालों का उठना और उन पर मीडिया में व जनसभाओं में सार्वजनिक बहस होना एक शुभ लक्षण होगा। उससे हमारी राजनीति परिपक्व होगी। उसमें गाम्भीर्य आयेगा और उस राजनीति से जनता को दिशा मिलेगी। फैसला प्रत्याशियों को करना है कि वे राजनीति में राजऋषि बनना चाहते हैं या सड़कछाप मवाली?