वे देश को वैकल्पिक राजनैतिक व सामाजिक व्यवस्था देना चाहते हैं। इसमें कुछ भी गलत नहीं। सद्इच्छा से किया गया कोई भी प्रयास वंदनीय है। पर प्रश्न उठता है कि क्या केवल सद्इच्छा से ही देश की राजनीति को धोया-पांेछा जा सकता है ? अगर ऐसा होता तो महात्मा गांधी अपने सपनों का भारत बनवा लेते। सुभाष चन्द्र बोस भारत के पहले प्रधानमंत्री होते। करपात्री जी महाराज 70 के दशक में भारत के नेता होते। जयप्रकाश नारायण को हताशा में शरीर नहीं छोड़ना पड़ता। दरअसल सद्इच्छा और जमीनी हकीकत में बहुत दूरी होती है।
अपनी पुस्तक में आठ पेजों में रामदेव जी ने भ्रष्टाचार पर अपने विचार विस्तार से रखें हैं और भ्रष्टाचार को ही देश की अधिकतर समस्याओं की जड़ बताया है। रामदेव जी ही नहीं देश में तमाम सुप्रसिद्ध संत ऐसे हैं जो भ्रष्टाचार के मामले में युवाओं से अपेक्षा रखते हैं कि वे समझौता नहीं करेंगे। पर अनुभव यह बताता है कि जब भी कोई युवा बड़े स्तर के भ्रष्टाचार के खिलाफ शंखनाद करता है तो इनमें से एक भी संत उसकी मदद को सामने नहीं आता। सामने न भी आयें पर पीछे से भी मदद नहीं करते। अगर कोई योद्धा सीधा इनसे टकरा जाए और केवल नैतिक सहयोग ही मांगे तो भी ये सामाने आने की हिम्मत नहीं करते। कोई बयान तक जारी नहीं करते। कारण बड़ा साफ है। यश और धन आने के बाद कोई उसे खोना नहीं चाहता। चाहें वो संत के ही भेष में क्यों न हों। उसे डर लगता है कि अगर मैं ऐसे सीधे संघर्ष में उतरूंगा तो सत्ताधीश मेरा जीना मुश्किल कर देंगे। मेरा साम्राज्य खतरे में पड़ जाएगा। उसे यह भी पता होता है कि उसकी तरक्की में तमाम ऐसे लोगों का धन लगा है जिनके पास बेशुमार दौलत है और यह दौलत उन्होंने उन्हीं तरीकों से कमाई है जिनसे देश में भ्रष्टाचार पनपता है। अगर वह संत इस लड़ाई में कूदेगा तो उसके ऐसे ठोस समर्थक कन्नी काट लेंगे। कुल मिलाकर बात इतनी सी है कि ‘‘पर उपदेस कुसल बहुतेरे, जे आचरही ते नर न घनेरे’’।
इसका अर्थ यह नहीं कि कोई प्रयास ही न किया जाए या कोई प्रयास कभी सफल ही नहीं होता। पर सच्चाई यह है कि प्रयास करने वाला इतना ठोस नहीं होता कि विपरीत परिस्थितियों को झेलकर अपनी जमीन पर टिका रहे। अगर टिका रहता है तो भी सफलता नहीं मिलती जैसा प्रायः क्रूसेडरों के साथ होता है तो फिर यही मानना चाहिए कि ईश्वर या प्रकृति बदलाव नहीं चाहती। अभी बदलाव का समय नहीं है।
अक्सर देखने में आता है कि शोहरत मिलते ही आदमी को यह गुमान हो जाता है कि वो देश में क्रान्ति ला देगा। जो लोग 1994 से 1997 तक देश के हालात पर नजर रखे थे उन्हें याद होगा कि तत्कालीन मुख्य चुनाव आयुक्त श्री टी.एन. शेषन कैसे तूफान की तरह उठे थे और मध्यम वर्गीय जनता ने उन्हें हाथों हाथ कंधों पर बिठा लिया था। पर वे जल्दी ही गर्द की तरह बैठ गए। उस दौर में मैंने उनके साथ देश के हर कोने में सैकड़ों जनसभाएं संबोधित की थी। उनके द्वारा स्थापित देशभक्त ट्रस्ट के चार ट्रस्टियों में से मैं भी एक था। बाकी दो वे पति-पत्नी और चैथी एक फिल्म निर्माता महिला। इसलिए मुझे उनकी असफलता के कारणों की गहरी समझ है। जिसका उल्लेख यहाँ जरूरी नहीं है। पर यह सच है कि बदलाव की हर लड़ाई कुर्बानी मांगती है। जो अपना यश, धन और सुख त्यागने को तैयार हों वे ही बदलाव ला सकते हैं। हम भौतिक सुख छोड़ना न चाहें और बदलाव की बात करें तो सफलता नहीं मिलेगी। क्योंकि सत्ता का सुख भोग रहे निहित स्वार्थ उन्हें भला क्यों सफल होने देंगे? क्योंकि ऐसी तथाकथित क्रांति से उन्हें अपने भौतिक सुखों के समाप्त होने का खतरा होगा।
रामदेव जी ने टी.वी. देखने वाले देश के लोगों पर अच्छी पकड़ बनायी है। आयुर्वेदिक दवाओं का विशाल कारोबार खड़ा कर अपना आर्थिक पक्ष भी मजबूत किया है। संयासी होने के कारण उन पर कोई पारिवारिक दायित्व भी नहीं है। फिर भी मुझे लगता है कि उनकी ये मुहीम शायद बहुत दूर तक नहीं जाये। अगर वे कामयाब हो जाते हैं तो ये हम सब के लिए अपार सुख और शांति की बात होगी कि देश की राजनीति को मजे हुए संत मार्ग निर्देशन करें। ऐसा नहीं है कि संत अपने मिशन में कभी कामयाब नहीं हुए। मराठा सम्राट शिवाजी महान को प्रेरणा देने वाले उनके गुरू संत रामदास ही थे। चन्द्रगुप्त को ज्ञान देने वाले विष्णु पंडित या चाणाक्य किसी संत से कम न थे। तो जो मध्य युग या प्राचीन युग में हुआ वह अब भी हो सकता है। बशर्तें कि देश को सुधारने का संकल्प लेने वाले संत निष्काम हांे और हर त्याग के लिए तैयार हों। यह तो वक्त ही बताएगा कि बाबा रामदेव किस श्रेणी के संत हैं और कहां तक अपने राजनैतिक मिशन में सफल होते हैं। हमें तो ईश्वर से प्रार्थना करनी चाहिए कि वह सद्मार्ग बताने वाले संत इस तपोभूमि पर भेजता रहे और हम ऐसे संतों के मार्ग निर्देशन में अपना जीवन और राष्ट्र का जीवन सुधारते रहें।