Sunday, July 22, 2007

यूएनपीए ने गलत परंपरा डाली राष्ट्रपति चुनाव का बहिष्कार करने वाले जनता के प्रति जवाबदेह

राष्ट्रपति का चुनाव संपन्न हो गया। यूनाइटेड नेशनल प्रोग्रेसिव एलाइन्स (यूएनपीए) ने इस चुनाव का बहिष्कार किया और साथ ही ममता बनर्जी की तृणमूल कांग्रेस और कर्नाटक में सत्तारूढ श्री देवगौडा के दल ने भी इस चुनाव का बहिष्कार किया। हालांकि इस बहिष्कार से राष्ट्रपति के चुनाव पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा। श्रीमती प्रतिभा पाटील का राष्ट्रपति बनना तय था और वे बन गईं। पर इस बहिष्कार ने कई गंभीर सवाल खडे कर दिए। अब तक सांसद और विधायक संसद और विधानसभाओं का बहिष्कार करते थे। तब भी यह सवाल उठते थे कि क्या यह बहिष्कार नैतिक रूप से उचित है। इस देश के मतदाता इस तरह के बहिष्कार को कभी पसंद नहीं करते। उनके खून-पसीने की कमाई में से वसूले गए कर का करोडों रूपया संसद और विधानसभा के बहिष्कार में बर्बाद हो जाता है। पर यहां तो सवाल राष्ट्रपति के चुनाव का है जो सदनों के सत्र जैसी अक्सर होने वाली घटना नहीं है।

दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र के सर्वोच्च पद पर लोकतांत्रिक तरीके से होने वाले चुनाव का भी अगर जनता के चुने हुए नुमाइंदे बहिष्कार करते हैं तो मतदाताओं को उनसे यह पूछने का हक है कि ऐसा उन्होंने किस अधिकार से किया ? साफ जाहिर है कि जिन करोडों मतदाताओं के प्रतिनिधि इस बहिष्कार को करने वाले सांसद व विधायक हैं, उन करोडों मतदाताओं को लोकतंत्र की इस प्रक्रिया में अपना प्रतिनिधित्व करने का अवसर ही नहीं मिला। इस तरह इन सांसदों और विधायकों ने इन करोडों मतदाताआंे द्वारा प्रदत्त अधिकार का सही उपयोग नहीं किया। ये सांसद व विधायक यह तर्क दे सकते हैं कि उन्हें सर्वोच्च न्यायालय या चुनाव आयोग से ऐसा कोई निर्देश नहीं मिला कि यह मत देना उनके लिए अनिवार्य हो। 

दरअसल, जिस समय भारत के चुनाव आयोग में मुख्य चुनाव आयुक्त अन्य सदस्यों के साथ इस विषय पर फैसला देकर निकले तब मैं चुनाव आयोग में ही था और उसके तुरंत बाद मेरी एक लंबी बैठक मुख्य चुनाव आयुक्त के साथ तय थी, जिसमें मैंने उनसे इस निर्णय को लेकर भी कुछ चर्चा की। चुनाव आयोग और सर्वोच्च न्यायालय ने निर्देश भले ही न दिए हांे और सांसदांे व विधायकों को अपने विवेक के अनुसार निर्णय लेने के लिए छोड दिया हो। पर प्रश्न उठता है कि जब हमारे यहां राष्ट्रपति के चुनाव की प्रक्रिया में अप्रत्यक्ष मतदान का प्रावधान है, यानी जनता सीधे राष्ट्रपति का चयन न करके अपने चुने हुए प्रतिनिधियों के माध्यम से चुनाव करती है। तो इन प्रतिनिधियों को यह निर्णय अपने मतदाताओं से पूछ कर लेना चाहिए था। दरअसल, बहिष्कार करने का आधार अगर सैद्धान्तिक मतभेद है और विरोध करने के लिए इतना कड़ा कदम उठाना अनिवार्यता है तो उसके बेहतर तरीके अपनाए जा सकते थे। मसलन जापान में एक बार एक जूता कारखाने के कारीगरों को अपने प्रबंधन से नाराजगी थी तो उन्होंने हड़ताल पर जाने का फैसला किया। इसका मतलब यह नहीं कि वे काम पर न आए हों या उन्होंने जूते का उत्पादन न किया हो। उन्होंने यह तय किया कि वे केवल एक पैर का जूता बनाएंगे और अन्य दिनों से ज्यादा उत्पादन करेंगे। नतीजतन एक पैर के जूतों का ढेर लगता गया जिन्हंे कंपनी बेच नहीं सकती थी। हार कर उसे कर्मचारियों की मांग माननी पड़ी। 

सांसद और विधायक सदनों में अपने विरोध के नए तरीके इजाद कर सकते हंै क्योंकि वे कोई ट्रेड यूनियन वाले तो हैं नहीं जो उन्हें हड़ताल पर जाना पड़ता हो। वे तो इस देश के कानून के निर्माता हैं। जब कानून के निर्माता ही कानून तोडेंगे तो जनता से अनुशासित रहने की अपेक्षा कैसे की जा सकती है। एक बात यह भी है कि यूपीए की उम्मीदवार श्रीमती प्रतिभा पाटील का विरोध इन सांसदों और विधायकों ने इसलिए नहीं किया कि वे योग्य उम्मीदवार नहीं हैं बल्कि इसलिए किया कि उनकी निगाह अगले चुनावों पर है जिसमें वे स्वयं को कांगे्रस पार्टी या यूपीए के साथ खड़ा देखना नहीं चाहते। उधर श्री भैरो सिंह शेखावत, जोकि एक निर्दलीय उम्मीदवार थे, उनका बहिष्कार इसलिए नहीं किया कि वे उनकी योग्यता से संतुष्ट नहीं थे बल्कि इसलिए किया कि यूएनपीए अपने अल्पसंख्यक मतदाताओं को यह संदेश देना चाहता था कि वे संघ या भाजपा समर्थित उम्मीदवार के पक्ष में नहीं हैं। कुल मिलाकर बात इतनी सी है कि राष्ट्रपति के चुनाव में यूएनपीए ने मात्र अपने वोटों पर दृष्टि रख कर फैसला लिया, उनका राष्ट्रपति के चुनाव की प्रक्रिया या उम्मीदवारों से कोई लेना-देना नहीं था। यह एक गलत परंपरा की शुरूआत हुई है। 

बहुदलीय सरकारांे के इस दौर में जब हर छोटा-बड़ा दल मोल-तोल की राजनीति कर रहा है तो भविष्य में इस बात की पूरी संभावना हो सकती है कि राष्ट्रपति का चुनाव करवाना ही एक जटिल समस्या बन जाए, जब दर्जनों दल ऐसे बहिष्कार का फैसला कर बैठें। आम मतदाता को तो अच्छी, साफ, जिम्मेदार व टिकाऊ सरकार की अपेक्षा होती हैं। अनेकों घोटालों में अनेक दलांे के वरिष्ठ नेताओं के लिप्त होने के बाद आम जनता यह समझ गई है कि भ्रष्टाचार को मुद्दा बनाकर लड़ने वाला कोई भी दल भ्रष्टाचार से निपटना नहीं चाहता। सब एक दूसरे को बचाने की कोशिश करते हैं। चाहे कोई किसी दल का क्यों न हो। इसलिए मतदाता अब विचारधारों के आडंबर से प्रभावित नहीं हो रहा है। सुश्री मायावती की अप्रत्याशित जीत ने यह सिद्ध कर दिया कि बेहतर प्रशासन की उम्मीद में ब्राहम्ण, वैश्य और ठाकुर सुश्री मायावती के पीछे लामबंद हो चुके हंै और उन्हें अब यह याद भी नहीं कि सुश्री मायावती इन सवर्णो के प्रति कैसे उत्तेजक भाषण दिया करती थीं।

अपना मूल मुद्दा वही है कि इस ऐसे माहौल में राष्ट्रपति का चुनाव सतही राजनीति का शिकार न बन जाए। यदि हम ये मान बैठे हैं कि भारत में राष्ट्रपति का पद मात्र एक औपचारिता है तो फिर इस पद को समाप्त करने की बहस चलनी चाहिए और यदि हम ये मानते हैं कि मौजूदा संविधान के अनुसार लोकतंत्र की रक्षा के लिए राष्ट्रपति का पद अपने मौजूदा स्वरूप में बना रहना चाहिए। तो हमें इस बहिष्कार पर गंभीरता से विचार करना होगा। ऐसा बहिष्कार देश के मतदाताओं को स्वीकार्य नहीं है। ऐसे संवैधानिक पदो ंके चुनाव में मत डालने की बाध्यतास सभी सांसदों व विधायकों पर लागू होनी चाहिए या फिर देश में एक बहस छिडे जैसी पहले छिडती रही है और संविधान मंे संशोधन किया जाए और राष्ट्रपति पद का चुनाव सीधे जनता ही करे, ऐसा कानून बना दिया जाए। खर्चा और आफत बचाने के लिए इस चुनाव को लोक सभा के आम चुनाव के साथ भी करवाया जा सकता है। तब कम से कम भारत के हर नागरिक को अपना राष्ट्रपति चुनने का हक तो मिलेगा। जो हक यूएनपीए व अन्य कुछ दलों ने बिना उनकी मर्जी के उनसे छीन लिया। इसलिए राष्ट्रपति चुनाव के बहिष्कार के यूएनपीए के फैसले पर देश में गंभीर चिंतन की जरूरत है ताकि बहिष्कार की संस्कृति से पिण्ड छुडा कर हमारा लोकतंत्र सकारात्मक सोच से आगे बढ़ सके।

Sunday, July 15, 2007

भारत सरकार कटघरे में -एड्स का झूठा आतंक फैलाया

नाको (नेशनल एड्स कंट्रोल आर्गनाइजेशन) ने यह घोषणा की है कि भारत में एचआईवी पा¡जिटिव लोगों की संख्या तेजी से घटी है। इस घोषणा का समर्थन यूएन एड्स और विश्व स्वास्थ्य संगठन ने भी किया है। इस घोषणा के गंभीर परिणाम निकलेंगे क्योंकि इसने यह सिद्ध कर दिया है कि एड्स का भय दिखा कर नाको और अंतर्राष्ट्रीय संगठनों ने इस देश के करोड़ों लोगों की जिंदगी के साथ खिलवाड किया है और जनता के कर के अरबों रूपयों को पानी की तरह बहाया है जिसके लिए नाको के निदेशक व यूएन एड्स के भारतीय निदेश टेनिस ब्राउस व भारत सरकार के स्वास्थ्य मंत्रालय के खिलाफ कडी कानूनी कार्यवाही की जानी चाहिए और इन पर धोखाधड़ी, जालसाजी और सरकारी धन के दुरूपयोग के मुकद्दमें कायम करने चाहिए।



उल्लेखनीय है कि जून 2006 में नाको ने रिपोर्ट प्रकाशित की थी कि 2005 में भारत एड्स पीडि़त लोगों की संख्या 52 लाख से अधिक है जो कि विश्व में सबसे अधिक है। इस तरह भारत दुनिया की खबरों में एक ऐसे देश के रूप में सुर्खियों में आया जिसमें एड्स महामारी की तरह फैल रही है। आश्चर्य की बात तो यह है कि यूएन एड्स ने भी इस आकडे का समर्थन किया। जबकि उसके पास इसका कोई वैज्ञानिक आधार नहीं था। अन्य अंतर्राष्ट्रीय संगठनों जैसे विश्व स्वास्थ्य संगठन, यूनिसेफ व विश्व बैंक ने भी इस पर अपनी सहमति की मोहर लगाई और दावा किया कि यह आकडा वैज्ञानिक दृष्टि से सही है। यह सब हंगामा उस समय हुआ जब यूएन एड्स के अंतर्राष्ट्रीय निदेशक पीटर पियोट भारत का दौरा कर रहे थे। 3 दिन बाद वे असम गए और वहा गुवहाटी में एक सम्वाददाता सम्मेलन में उन्होंने कहा कि, ‘हमें विश्वास ही नहीं हो रहा कि भारत में पिछले साल के मुकाबले इस वर्ष केवल 35 हजार एड्स के मामले ही बढे हैं जबकि बिहार और उत्तर प्रदेश पूरी तरह एड्स की जकड में हैं।इसके दो हफ्ते बाद ही यूएन एड्स ने अपनी रिपोर्ट प्रकाशित की और कहा कि भारत में 52 लाख नहीं बल्कि 57 लाख लोग एड्स से ग्रस्त है यानी भारत एड्स के मामले में दक्षिणी अफ्रीका से भी आगे निकल गया। यूएन एड्स ने अपनी रिपोर्ट में यह कहा कि चूंकि नाको ने अपनी रिपोर्ट में बच्चों और बूढों को शामिल नहीं किया था इसलिए यह संख्या कम आंकी गई है।

केरल के कुन्नूर जिले की एक स्वयं सेवी संस्था जैक के अध्यक्ष श्री पुरूषोत्तम मुल्लोली व उनकी सहयोगी अंजू सिंह ने उसी समय नाको को खुली चुनौती दी और उनके आकडे को गलत बताया। उन्होंने यूएन एड्स के इस दावे को भी चुनौती दी जिसमें यूएन एड्स ने कहा था कि भारत में एड्स से 4 लाख लोग मर चुके हैं। श्री मुल्लोली गत अनेक वर्षों से एड्स को लेकर किए जा रहे दुष्प्रचार के विरूद्ध वैज्ञानिक तर्कों के आधार पर एक लम्बी लड़ाई लड रहे हैं। मणिपुर, आसाम, हरियाणा व राजस्थान के मामले में उन्होंने नाको को नाको चने चबवा दिए थे और अपनी रिपोर्ट बदलने पर मजबूर कर दिया था। उस वक्त देश का ज्यादातर मीडिया, अमिताभ बच्चन और नफीजा अली जैसे सितारे व हजारों स्वयंसेवी संगठन एड्स के आतंक का झंडा ऊंचा करके चल रहे थे और ये लोग सच्चाई सुनने को तैयार नहीं थे। उस वक्त भी मैंने अपने काॅलम में इस मुद्दे को बहुत जोरदार तरीके से उठाया था और ये बात कही थी कि एड्स या एचआईवी पाॅजिटिव को लेकर जो भूत खड़ा किया जा रहा है वह हवा का गुब्बारा है। 10 वर्ष पूर्व आस्ट्रेलिया के पर्थ शहर में दुनिया भर के 1000 डाक्टर वैज्ञानिक व अनेक नोबल पुरस्कार विजेता एकत्र हुए थे जहां से उन्होंने एड्स को लेकर दुनिया भर में किए जा रहे झुठे प्रचार को चुनौती दी थी। इन्हें पर्थ गु्रप के नाम से जाना जाता है। इनकी चुनौती का जवाब देने की हिम्मत आज तक यूएन एड्स ने नहीं की।

इस वर्ष नाको ने जो रिपोर्ट प्रकाशित की है उसमें यह दावा किया है कि भारत में एड्स पीडि़तों की संख्या में 60 फीसदी की कमी आ गई है। अपनी सफाई में नाको ने कहा है कि पिछले वर्ष उसने 700 निगरानी केन्द्रों के आधार पर आकलन किया था जबकि इस वर्ष उसने 1200 निगरानी केन्द्रों की मार्फत जांच की है। इससे बड़ा धोखा और जनता के साथ मजाक दूसरा नहीं हो सकता। नाको कह रही है कि पिछले एक वर्ष में 30 लाख लोग एड्स मुक्त हो गए। यह कैसे संभव है? क्या ये लोग मर गए या उसका इलाज करके उनको ठीक कर दिया गया ? मरे नहीं है, क्योंकि ऐसा कोई आकडा उपलब्ध नहीं हैं और इलाज भी नहीं हुआ क्योंकि अस्पतालों में ऐसे इलाज का कोई रिकार्ड उपलब्ध नहीं है। तो क्या जानलेवामानी जाने वाली एड्स अपने आप देश से भाग गई ? दरअसल, हुआ यह कि एड्स को लेकर नाको और यूएन एड्स ने 2006 में जो भारत में 57 लाख एड्स पीडि़तों का आकडा प्रकाशित किया था वह एक बहुत बड़ा फर्रेब था। क्योंकि अगर इतने लोगों को एड्स हुई होती तो अब तब लाखों लोग एड्स से मर चुके होते। लोग मरे नहीं क्योंकि उन्हें एड्स हुई ही नहीं थी और अपनी इसी साजिश को छिपाने के लिए अब नाको ने यह नया आकडा पेश किया है।

सवाल उठता है कि एड्स को महामारी बता कर विज्ञापनों और एड्स रोकथाम कार्यक्रमों पर जो रूपया पानी की तरह बहाया गया उसके लिए कौन जिम्मेदार है ? वो मीडिया वाले, स्वयंसेवी संगठन और फिल्मी सितारे भी कम गुनाहगार नहीं जो एड्स के प्रचार अभियान से जुड़ कर मोटी कमाई करते रहे और जनता के बीच भय और आतंक पैदा करते रहे। इस पूरे मामले की विस्तृत जांच होनी चाहिए ताकि इस अंतर्राष्ट्रीय साजिश का पर्दाफाश हो।

जिस देश में 80 फीसदी बीमारियां पीने का स्वच्छ पानी न मिलने के कारण होती हों, उस देश में पानी की समस्या पर ध्यान न देकर एड्स जैसी भ्रामक, आयातित, विदेशी व वैज्ञानिक रूप से आधारहीन बीमारी का ढोंग रचकर जनता के साथ धोखाधडी की जा रही है। जिसके खिलाफ हर समझदार नागरिक को आवाज उठानी चाहिए।

Sunday, July 1, 2007

राष्ट्रपति के चुनाव में ये छीछालेदर सही नहीं

Rajasthan Patrika 01-07-2007
गत 10 वर्षों में जितने घोटाले देश के सामने आए हैं उतने आजादी के बाद पहले कभी नहीं आए थे। राजनेताआंे की छवि जनता के मन में गिरी हैं, इससे कोई भी राजनेता असहमत नहीं होगा। भ्रष्टाचार का मुद्दा हो या राजनीति के अपराधिकरण का, कोई दल इससे अछूता नहीं हैं। फिर भाजपा के वरिष्ठ नेता श्री लाल कृष्ण आडवाणी का राष्ट्रपति के उम्मीदवार श्रीमती विमला पाटील को दागी कहना गले नहीं उतरता। हकीकत तो यह है कि कोई भी राजनेता जो राष्ट्रीय स्तर तक पहुंचता है वो सत्यवादी राजा हरिशचन्द के पद्चिन्हों पर चल कर नहीं बल्कि उन सब हथकंडों को अपना कर आगे बढता है जिन्हें कानून की निगाह में अपराध कहा जा सकता है। सभी बड़े नेता यह बात वखूबी जानते हैं और वे ये भी जानते हैं कि हर दल जब सत्ता में आता है तो अपने दागी नेताओं का बचाव करने में चुकता नहीं। इतना ही नहीं श्रीमती विमला पाटील पर जिन दो आरोपों को भाजपा प्रमुखता से लगा रही है वे हैं बैंक के ऋण भुगतान से संबंधित व दूसरा हत्या के मामले में अपने भाई को बचाना। अगर इन आरोपो में सच्चाई है तो क्या वजह है कि भाजपा व उसके सहयोगी दलों ने इन सवालों को पहले नहीं उठाया  जब वे राजस्थान की राज्यपाल बनी थीं? इस मामले को ही क्यों आजादी के बाद जितने भी घोटाले सामने आए उनमें से कितने घोटाले ऐसे हैं जिनमें आरोपियों को सजा दिलाने के लिए भाजपा ने कमर कसी हो ? शोर मचाना, मीडिया का ध्यान आकर्षित करना और राजनैतिक लाभ को दृष्टि में रखकर जनता के बीच जाना ये हर दल की फितरत होती हैं। भाजपा भी किसी से कम नहीं। क्या वजह है कि 6 वर्ष के राजग के शासनकाल में भी किसी भी बड़े राजनेता या वरिष्ठ अधिकारी को सजा नहीं मिली। दरअसल कोई भी दल नहीं चाहता कि उसके नेताओं को सजा मिले। सब लीपापोती करते हैं। अब इस माहौल में कोई पूरी तरह बेदाग हो तो सामने आए।
 संतोष की बात यह है कि उपराष्ट्रपति श्री भैरोसिंह शेखावत ने अपनी उम्र और पद की गरिमा का ध्यान रखते हुए राष्ट्रपति पद की उम्मीदवार पर कोई भी व्यक्तिगत आरोप लगाने से मना किया है। वे इस चुनाव को अंतर्रात्मा की आवाज पर लड़ना चाहते हैं। उन्हें विश्वास है कि पिछले 6 दशकों से भारतीय राजनीति में उनके अभिन्न मित्र रहे दर्जनों नेता दलगत भावना से ऊपर उठकर उनका समर्थन करेंगे और वे वैसे ही जीत जाएंगे जैसे डा. नीलम संजीवा रेड्डी को हरा कर श्री वी.वी. गिरी जीते थे। राष्ट्रपति पद के लिए कुल वोट 10,98,882 हैं और 4,896 सांसद और विधायक नए राष्ट्रपति का चुनाव करेंगे। किक्रेट के खेल की तरह राजनीति कब पलटा खा जाए यह कोई नहीं कह सकता। आज वोटों का गणित भैरो सिंह जी के विरूद्ध दिख रहा हैं और विमला पाटील जी की विजय सुनिश्चित मानी जा रही है। पर क्या कांग्रेस आलाकमान इस बात के लिए पूरी तरह आश्वस्त हैं कि उनकी टीम के सभी सांसद और विधायक एकजुट होकर श्रीमती विमला पाटील के पक्ष में मतदान करेंगे ? क्योंकि इस चुनाव में पार्टी का व्हिप जारी नहीं होता इसलिए हर सांसद और विधायक अपना वोट देने के लिए स्वतंत्र है। ऐसे में अगर श्री भैरो सिंह शेखावत यूपीए के किले में सेंध लगा देते हैं तो कौन जाने क्या परिणाम सामने आएं? पर यदि राष्ट्रपति के चुनावों में व्यक्तिगत आरोपों-प्रत्यारोपों का सिलसिला शुरू हो गया तो यह दुर्भाग्यपूर्ण होगा। इससे राष्ट्रपति पद की प्रतिष्ठा गिरेगी जिसका लाभ किसी को नहीं मिलेगा, न जीतने वाले को न हारने वाले को। वेैसे भी भारत में राष्ट्रपति का पद केवल एक अलंकरण हैं, राष्ट्रपति नीति निर्धारण को प्रभावित नहीं कर पाते हैं। इसलिए राष्ट्रपति किसी भी दल का क्यों न हो संविधान के दायरे से बाहर जा कर कोई क्रांतिकारी कदम नहीं उठा सकता। 

संविधान के निर्माताओं ने पहले ही इस बात के काफी प्राविधान रख दिए कि कोई राष्ट्रपति अपने पद का दुरूपयोग न कर सकें। हां जहां तक संविधान में प्रदत्त राष्ट्रपति के विवेक पर आधारित निर्णय का प्रश्न हैं तो वहां जरूर कभी गम्भीर स्थिति पैदा हो सकती है, जैसी 1984 में 31 अक्टूबर को तब पैदा हुई थी जब ज्ञानी जैल सिंह ने श्री राजीव गांधी को बिना संवैधानिक प्रक्रिया के पूरे हुए ही प्रधानमंत्री पद की शपथ दिलवा दी थी। चूंकि परिस्थितियां श्री राजीव गांधी के पक्ष में थी इसलिए यह मामला तुरंत ही संभाल लिया गया। ऐसी परिस्थितियां कभी-कभार ही आती है। इसलिए आवश्यकता इस बात की है कि जब राष्ट्रपति पद के लिए चुनाव की घोषणा हो गई है तो इस चुनाव को संजीदगी से और सम्माननीय तरीके से लड़ा जाए। बेहतर तो यही होगा यूपीए भैरो सिंह जी को उपराष्ट्रपति पद का एक और कार्यकाल देने पर राजी हो जाए और एनडीए श्रीमती विमला पाटील को अपना समर्थन दे दे। इससे पद की गरिमा भी बनी रहेगी और देश को दो विभिन्न दलों के योग्य, अनुभवी और सम्माननीय नेताआं का राष्ट्रपति और उपराष्ट्रपति के पद से मार्ग निर्देशन मिलता रहेेगा। दोनों ही पक्षों को गंभीरता से इस बात पर विचार करना चाहिए। होगा क्या यह तो भविष्य बताएगा पर अगर आडवाणी जी, वाजपेयी जी, चन्द्रबाबू नायडु जी, मुलायम सिंह जी, जयललिता जी व सोनिया गांधी जी आदि एक बार बैठ कर इस स्थिति को यहीं संभाल लें और बिगड़ने न दें वरना भविष्य में राष्ट्रपति  और उपराष्ट्रपति पद के चुनाव उसी तरह लड़े जएंगे जैसे अपराधग्रस्त प्रांतों में विधानसभा और लोकसभा के चुनाव लडे़ जाते हैं। यह पूरे देश के लिए दुर्भाग्यपूर्ण होगा।