अगर भावनाओं को एक तरफ रखकर विशुद्ध कानूनी आधार पर इस परिस्थिति का मूल्यांकन किया जाए तो कई महत्वपूर्ण बातंे सामने आएंगी। भाजपा यह जरूर तर्क देती है कि श्री आडवाणी व श्री जोशी पर राजनैतिक द्वेष की भावना से अयोध्या मामले में मुकदमा बनाया गया है। इसलिए उसके मंत्राी इस्तीफा नहीं देंगे। जबकि सच्चाई कुछ और है। इन दोनो ही केंद्रीय मंत्रियों पर मुकदमा किसी प्रांतीय सरकार ने नहीं थोपा बल्कि सीबीआई की लखनऊ स्थित विशेष अदालत ने इनके विरूद्ध आरोप निर्धारित किए हैं। सर्वविदित है कि अदालत द्वारा आरोप निर्धारित करना चार्जशीट किए जाने के बाद की स्थिति होती है। यानी चार्जशीट में जब इस बात का पर्याप्त आधार पाया जाता है कि आरोपी ने वाकई वह जुर्म किया है या इसके काफी प्रमाण मौजूद है तभी अदालत चार्ज-फ्रेम करती है, यानी आरोप निर्धारित करती है। जिसके बाद बाकायदा मुकदमा चलता है और आरोपी का ‘ट्रायल’ होता है। मौजूदा परिस्थिति में जहां राबड़ी देवी को मात्रा चार्जशीट किया गया है, वहीं आडवाणी जी व जोशी जी के विरूद्ध चार्ज-फ्रेम किए जा चुके हैं। यानी अदालत ने माना है कि इन दोनो केंद्रीय नेताओं के विरूद्ध साम्प्रदायिक उन्माद भड़काने और सार्वजनिक संपत्ति पर ’डाका डालने’ के काफी प्रमाण हैं। इसलिए इनके विरूद्ध भारतीय दंड संहिता की धारा 397 व 395 के तहत मुकदमा दर्ज किया गया है। जो सीधे-सीधे देश के संविधान के विरूद्ध किए गए संगीन जुर्म हंै। यह बड़े आश्चर्य की बात है कि जिस संविधान की इतनी बड़ी अवमानना का जिस पर आरोप हो, वही उसी संविधान की शपथ लेकर इतने महत्वपूर्ण पद पर बैठा हो। इसका अर्थ तो यह हुआ कि जिस संविधान की शपथ लेकर यह दो भाजपा नेता केंद्रीय मंत्राी बने हैं उस संविधान के प्रति उनके मन में कोई आस्था नहीं है। शायद यह सच भी है तभी भाजपा द्वारा संविधान की समीक्षा की पुरजोर कोशिश की जा रही है। अगर उसका संसद में बहुमत होता तो शायद देश के संविधान में कुछ ऐतिहासिक परिवर्तन कर दिए जाते। ऐसा करना राष्ट्र और संस्कृति के हित में होता या न होता यह विवाद का विषय हो सकता है। पर आज ऐसे परिवर्तन की कोई संभावना नहीं है क्योंकि भाजपा के सहयोगी दल ही इस मुद्दे पर उससे सहमत नहीं हैं। पर यहां जो चिंता की बात है वह यह कि कंेद्रीय मंत्राी पद ग्रहण करते वक्त क्या आडवाणी जी व डा. जोशी ने संविधान की जो शपथ ली थी, वह मात्रा दिखावा था ? अगर यह सच है तो यह अत्यंत गंभीर बात है कि देश के गृहमंत्रालय व मानव संसाधन विकास मंत्रालय जैसे महत्वपूर्ण मंत्रालयों को दो ऐसे व्यक्ति चला रहे हैं जो अपने पद ग्रहण की शपथ के प्रति भी ईमानदार नहीं हैं। अगर इन नेताओं व इनके समर्थकों के मन में वाकई इस संविधान के प्रति आस्था नहीं है तो ये तब तक राजसत्ता प्राप्त करने का इंतजार क्यों नहीं करते जब तक कि देश का संविधान इनकी आस्था के अनुरूप नहीं बन जाता ? ये तो वो बात हुई कि, ‘गुड़ खाएं और गुलगुलों से परहेज करें।’ हम संविधान के विरूद्ध भी काम करेंगे और उसी संविधान की शपथ लेकर हुकूमत भी करेंगे। आश्चर्य है कि संविधान की ऐसी छीछालेदर होने के बावजूद भाजपा के सहयोगी दल व विपक्ष इन मंत्रियों के इस्तीफे की मांग नहीं कर रहा। इससे ज्यादा आश्चर्य की बात तो यह है कि देश के राष्ट्रपति भी संविधान की ऐसी बेइज्जती के बावजूद अपनी असीम शक्ति का उपयोग करके कोई सख्त कदम नहीं उठा रहे हैं, आखिर क्यों ?
दूसरी तरफ भाजपा इस बात की दुहाई देती आई है कि उसके वरिष्ठ नेता लालकृष्ण आडवाणी इतने उसूल वाले हैं कि जैसे ही उन्हें हवाला कांड में चार्जशीट किया गया उन्होंने लोकसभा से इस्तीफा दे दिया। इतना ही नहीं उन्होंने यह शपथ भी ली कि जब तक वे हवाला कांड में आरोप मुक्त नहीं हो जाते तब तक वे कोई चुनाव नहीं लड़ेंगे। सब जानते हैं कि हवाला कांड कश्मीर के आतंकवादी संगठन हिजबुल मुजाहिद्दीन को मिल रही अवैध आर्थिक मदद से जुड़ा है। अभी हाल ही में केंद्रीय गृह-सचिव कमल पांडे ने संवाददाता सम्मेलन में यह स्वीकारा कि हिजबुल मुजाहिद्दीन ने ही हाल में अनंतनाग में सिखों की हत्याएं कीं। अमरीकी राष्ट्रपति बिल क्लिंटन की भारत यात्रा के दौरान प्रधानमंत्राी के सुरक्षा सलाहकार बृजेश मिश्रा ने सम्वाददाता सम्मेलन में आरोप लगाया कि भारत में आतंकवाद फैलाने में सबसे प्रमुख हाथ हिजबुल मुजाहिद्दीन नाम के आतंकवादी संगठन का है। उन्होंने इस संगठन को पाकिस्तान का खुला समर्थन मिलने का भी आरोप लगाया। भारत के प्रधानमंत्राी व विदेश मंत्राी ने अमरीकी राष्ट्रपति से फरियाद की कि वे पाकिस्तान पर, भारत में आतंकवाद का समर्थन न करने पर दबाव डालें। कितनी बड़ी विडंबना है कि देश के प्रधानमंत्राी, विदेश मंत्राी, गृहमंत्राी, गृह सचिव व प्रधानमंत्राी के सुरक्षा सलाहकार एक स्वर से राग अलाप रहे हैं कि भारत में आतंकवाद फैलाने के लिए हिजबुल मुजाहिद्दीन जिम्मेदार है। पर उसी हिजबुल मुजाहिद्दीन को मिल रही अवैध विदेशी मदद के तमाम सबूत मौजूद होने के बावजूद सत्ता में बैैठे ये महत्वपूर्ण लोग हवाला कांड की जांच तक नहीं करवाना चाहते। यहां यह उल्लेखनीय है कि पिछले दिनो जी-टीवी पर हवाला कांड की जांच करने वाले सीबीआई के संयुक्त निदेशक रहे बीआर लाल ने स-प्रमाण कहा था कि हवाला कांड में राजनेताओं के विरूद्ध तमाम सबूत मौजूद हैं पर राजनैतिक दबाव के तहत वे सबूत अदालत में पेश नहीं करने दिए गए। हवाला कांड की सुनवाई कर रहे भारत के मुख्य न्यायधीश श्री जेएस वर्मा ने कहा था कि हवाला मामले को दबाने के लिए अदालत पर लगातार दबाव पड़ रहा है। पिछले दिनो जब केंद्रीय सतकर्ता आयुक्त एन. विट्ठल ने यह घोषणा की कि वे हवाला कांड की जांच ठीक से शुरू करवाएंगे तो हवाला कांड के आरोपी रहे राजनेताओं और उनके समर्थकों ने आसमान सिर पर उठा लिया। ऐसा कहने की ‘जुर्रत’ करने वाले केंद्रीय सतकर्ता आयुक्त पर सीधा हमला कर दिया ताकि हवाला कांड की जांच न हो पाए। अगर ये सब नेता हवाला कांड में निर्दोष है, अगर इनके विरूद्ध कोई प्रमाण नहीं हैं और अगर हवाला कांड में इनको नाहक साजिश करके फंसाया गया था, तो क्या वजह है कि ये हिजबुल मुजाहिद्दीन संगठन से जुड़े हवाला कांड की जांच के नाम से इतना घबड़ाते हैं ? विशेषकर तब जबकि कश्मीर की घाटी में हिजबुल मुजाहिद्दीन आए दिन निरीह लोगों की हत्या कर रहा हो और गृहमंत्राी उसे रोक पाने में नाकाम हों तब तो विशेषतौर पर वे और भी ज्यादा कटघरे में खड़े हो जाते हैं। इसलिए चाहे अयोध्या का मामला हो या हवाला कांड का या चारा घोटाले का जनता को यह साफ हो गया है कि न तो नैतिकता की दुहाई देने वाले नेता पाक-साफ हैं और ना ही उन लोगों के इरादे ईमानदार हैं जो केवल अपने राजनैतिक प्रतिद्वंदियों के इस्तीफे तो मांगते हैं पर अपने दल के या अपने सहयोगी दल के नेताओं के सवाल पर खतरनाक खामोशी अख्तयार कर लेते हैं।
अगर नीतिश कुमार व सुशील मोदी राबड़ी देवी के इस्तीफे की मांग कर रहे हैं तो इसमें गलत कुछ भी नहीं। यह एक नैतिक व जायज मांग है। पर साथ ही नैतिकता का तकाजा यह भी है कि वे अयोध्या मामले के आरोपी केंद्रीय मंत्रियों के इस्तीफे की मांग भी उतनी ही जोर से करें। इतना ही नहीं हवाला कांड की जांच की मांग भी उसी तेवर के साथ उठाएं जैसा पिछले कई वर्षों से चारा घोटाले को लेकर वे शोर मचाते रहे हैं। ठीक इसी प्रकार सोनिया गांधी से भी यह अपेक्षा की जाती है कि जहां वो अयोध्या मामले में आडवाणी जी व जोशी जी के इस्तीफे की मांग कर रही हैं, वहीं वे राबड़ी देवी के इस्तीफे की मांग करने में भी संकोच न करें। साथ ही हिजबुल मुजाहिद्दीन से जुड़े हवाला कांड की जांच की मांग पर उन्होंने जो खतरनाक चुप्पी साथ रखी है उसे वे देश के हित में तोड़ें। क्लिंटन के आगे आतंकवाद का रोना रोने से क्या फायदा जब हम देश के भीतर आतंकवादियों को मदद पहुंचाने वालों को बाकायदा सरकारी संरक्षण दे रहे हों। संरक्षण भी सर्वोच्च पदों पर बैठे लोगों द्वारा सुनिश्चित किया जा रहा है। फिर आतंकवाद में मारे गए आम मतदाताओं के सामने घडि़याली आंसू बहाने से क्या फायदा।
उधर दिल्ली की झुग्गी-झोपडि़यों में अपने एसपीजी कमांडो की फौज लेकर एक रात सोने का नाटक करने वाले पूर्व प्रधानमंत्राी विश्वनाथ प्रताप सिंह को अगर वाकई इस देश के आम आदमी की चिंता है तो उन्हें सस्ती लोकप्रियता के ये हथकंडे छोड़कर इन सवालों को उठाने चाहिए। इस मामले में सबसे बड़ी जिम्मेदारी तो स्वयं प्रधानमंत्राी की है। पिछले लोकसभाई चुनाव में देश के सामने अटल बिहारी वाजपेयी को एक मात्रा राष्ट्रीय नेता के रूप में प्रस्तुत किया गया था। आज भी उनका कोई प्रतिद्वंदी मैदान में नहीं है। यह सही है कि अल्पमत की सरकार होने के कारण वे कुछ मामलों में कड़े निर्णय लेने की स्थिति में नहीं हैं पर यहां उठाए गए सवाल तो ऐसे नहीं हैं जिनका हल खोजना वाजपेयी जी के लिए मुश्किल हो। क्योंकि केंद्रीय मंत्रिमंडल में कौन रहे या न रहे इसका अधिकार केवल प्रधानमंत्राी को ही होता है। हां अगर सहयोगी दल का मामला होता तो वे अपनी असहायता जता सकते थे। पर यहां तो उनके ही दल के नेताओं की नैतिकता के आगे प्रश्नचिन्ह लगे हैं। जिसकी पूरी जवाबदेही, प्रधानमंत्राी होने के कारण उनकी ही है। यदि वे इस मामले में कठोर निर्णय लेते हैं तो इससे उनकी विश्वसनीयता ही बढेगी। जहां तक भाजपा के इन वरिष्ठ और अनुभवी नेताओं की क्षमता की उपयोगिता का प्रश्न है तो आज भाजपा के संगठन को ऐसे वरिष्ठ नेतृत्व की अत्याधिक आवश्यकता है। ताकि पार्टी कार्यकर्ताओं में आ रही हताशा, विघटन और सत्ता के प्रति आक्रोश को कम किया जा सके। सरकार को जिम्मेदार बनाने के लिए उस पर दल का कड़ा दबाव बनाया जा सके। साथ ही कार्यकर्ताओं के समक्ष एक आदर्श प्रस्तुत किया जा सके कि भाजपा के नेता कुर्सी के लिए नैतिकता त्यागने को तैयार नहीं हैं। भगवान राम ने तो एक धोबी के लांछन मात्रा पर सीता का त्याग कर दिया। वह भी तब जबकि माता सीता अग्नि परीक्षा में खरी उतर चुकी थीं। यहां तो गंभीर आरोप हैं और उनके समर्थन में काफी प्रमाण भी।