एक तरफ तो सरकारी सेवाओं का दिवाला निकल चुका है, खासकर स्वास्थ्य के क्षेत्र में। देश के देहातों में यूं तो प्राथमिक चिकित्सालयों का एक लंबा चैड़ा जाल बिछा हुआ है, पर न तो उनमें डाॅक्टर होता है और न ही दवाई। ऐसे ज्यादातर अस्पतालों के भवन खस्ताहाल में वीरान पड़े हैं। इसलिए झोलाछाप डाॅक्टर लंबी चैड़ी फर्जी डिगरियों का बोर्ड लगाकर गांव वालों को ठगते रहते हैं। दूसरी तरफ उदारीकरण के दौर में निजी चिकित्सा सेवा का तेजी से विस्तार हो रहा है। कस्बों में खुलने वाले छोटे नर्सिंग होम से लेकर शहरों में बन रहे पांच सितारा अस्पताल तक बहुत तेजी से देश में फैलते जा रहे हैं। जो संपन्न हैं उनके लिए यह अस्पताल वरदान सिद्ध हो रहे हैं। इलाज का इलाज और पूरे ठाठ बाट। मरीज के कमरे में एसी, टीवी, फ्रिज से लेकर हर सुविधा उपलब्ध है। इन दो विरोधी छोरों के बीच के लोग कहां जाएं। जो इतने गरीब भी नहीं कि चार पैसे इलाज पर खर्च न कर सकें और इतने संपन्न भी नहीं कि महंगा इलाज करवा सकें। ऐसी परिस्थितियों में मिशनरी अस्पतालों की भूमिका महत्वपूर्ण हो जाती है। फिर वो चाहे ईसाई मिशनरियों द्वारा चलाए जाते हों या अन्य धर्मों और संप्रदायों द्वारा, क्योंकि इन अस्पतालों में मरीज को कम कीमत पर अच्छी चिकित्सा सेवा उपलब्ध हो जाती है। पर ऐसे अस्पतालों की संख्या बहुत ज्यादा नहीं है। राजधानी दिल्ली में तो ऐसे कई बड़े अस्पताल हैं, जिन्होंने सरकार से सस्ती जमीन यह कहकर एलाॅट करवाई है कि वे अपनी व्यवस्था का लगभग आधा हिस्सा गरीबों की सेवा में लगाएंगे, पर हकीकत में यह अस्पताल ऐसा नहीं कर रहे हैं और पूरी तरह से व्यावसायिक दृष्टिकोण से चलाए जा रहे हैं।
इस दिशा में 82 वर्षीय श्री अरविंद भाई मफतलाल जी का काम प्रशंसनीय भी है और अनुकरणीय भी। अरविंद जी का नाम भारत में अंजाना नही है। देश के तीन सबसे धनी उद्योगपतियों में टाटा, बिड़ला और मफतलाल माने जाते थे। मफतलाल परिवार की धर्म पारायणता, सादगी और दरिद्र नारायण की सेवा का भाव औद्योगिक जगत में चर्चा का विषय रहा है। 1968 में बिहार में अकाल के दौरान अरविंद भाई राहत की सामग्री लेकर बिहार पहंुचे। वहां उन्होंने रणछोड़ दास जी महाराज के दर्शन किए। भारत भर में जहां कहीं भी अकाल पड़ता था, रणछोड़ दास महाराज जी वहां जाकर महीनों तक निर्धनों के लिए भंडारे चलाते थे। उन्होंने अरविंद भाई को चित्रकूट जाकर दरिद्र नारायण की सेवा करने को कहा। इसके बाद अरविंद भाई ने अपनी काफी संपत्ति चित्रकूट, गुजरात और पूना के आसपास दरिद्र लोगों की सेवा में झोंक दी। उन्होंने लोगों के लिए सर्वोत्तम गुणवत्ता का आधुनिक अस्पताल चित्रकूट में बनवाया और साथ ही देहात की महिलाओं के लिए डेयरी और कुटीर उद्योगों का जाल फैलाया। अपना कारोबार छोड़कर हफ्तों चित्रकूट में रहकर अपने हाथों से जनसेवा की। आज चित्रकूट का आम नागरिक हो या वहां बसने वाले साधु संत, सभी एक स्वर से अरविंद भाई की सेवाओं का गुणगान करने में कंजूसी नहीं करते। इतने वृद्ध होने पर भी अरविंद भाई अस्पताल की सीढि़यां और जंगलों में आदिवासियों के घरों में दौड़-दौड़कर चढ़ जाते हैं और हर सेवा कार्य को अपने निरीक्षण में करवाते हैं। उनके साथ काम करने वाले सैकड़ों डाॅक्टर व अन्य कर्मचारी भी इसी तरह समर्पित भाव से दरिद्र नारायण की सेवा को पूजा मानकर वहां कार्य कर रहे हैं। इस टीम ने पिछले कुछ सालों में साढ़े पांच लाख लोगों के आंख के आॅपरेशन किए। किसी मरीज से एक पैसा फीस लेना तो दूर, उलटा उसका रहना, खाना और इलाज सब मुफ्त किया जाता है।
आज के युग में जब औद्योगिक घराने वनवासी लोगों के पर्यावरण की चिंता किए बगैर उनकी प्राकृतिक संपदा को लूटने में लगे हैं। उनकी नदियों को प्रदूषित करने में लगे हैं। उनके जीने के अधिकार छीन रहे हैं। ऐसे में एक बड़े उद्योगपति का वनवासी लोगों के प्रति इतना प्यार और समर्पण अनुकरणीय है। देश में फील गुड की हवा बह रही है। मध्यम वर्गीय परिवारों को फील गुड का नशा चढ़ा हुआ है, जबकि देश का बहुसंख्यक युवा बेरोजगार खड़ा है। ऐसे में देश के उद्योगपतियों का यह कर्तव्य बन जाता है कि वे अरविंद भाई मफतलाल से प्रेरणा लेकर देश के विभिन्न पिछड़े इलाकों में इसी तरह की स्वास्थ्य व अन्य सेवाओं का विस्तार करें।
धन की दो ही गति हैं, या तो भोग या दान। दान किया धन बेकार नहीं जाता। अरविंद भाई ने पेट्रोलियम उत्पादों के अपने बड़े व्यवसाय के साझीदार के रूप में एक बहुराष्ट्रीय कंपनी के साथ दशकों पहले व्यापार अनुबंध किया था। वह कंपनी उन्हें 300 करोड़ रुपये का चूना लगाकर भाग गई, ऐसा वे स्वयं बताते हैं। जाहिर है इस अप्रत्याशित हमले ने मफतलाल परिवार के कारोबार को काफी झकझोर दिया। आर्थिक चुनौतियों के ऐसे दौर में प्रायः धनी और सक्षम लोग सेवा कार्य को छोड़कर अपनी निजी समस्या सुलझाने में लगे रहते हैं। पर मफतलाल परिवार ने ऐसा नहीं किया। दरिद्र नारायण की सेवा यथावत जारी रखी। वह भी पूर्ण निष्काम भाव से।
नतीजा ये हुआ कि आज उनकी सेवा के फलस्वरूप उनका कारोबार फिर तेजी से ऊपर उठ गया है। वे मानते हैं कि दरिद्र नारायण की सेवा के लिए साधन की कमी नहीं रहती। केवल भावना की जरूरत होती है। भावना है तो साधन स्वयं जुट जाते हैं। हां, ऐसे साधक को अकिंचन बनने का प्रयास करना चाहिए। जब सभी प्रांतों की अर्थव्यवस्था लड़खड़ाई हो, डाॅक्टर गांव में रहने को तैयार न हों तो ऐसे में इस देश की बहुसंख्यक आबादी का इलाज कौन करेगा? क्या उन्हें उनके हाल पर मरने को छोड़ दें या कोई विकल्प तलाशें? विकल्प यही है कि शुद्ध पेयजल और उनके इलाज के लिए निजी घराने सामने आएं और अरविंद भाई की तरह देश के विभिन्न इलाकों में अपने कीर्तिमान स्थापित करें।
बड़े शहरों में सेवा के नाटक तो बहुत किए जाते हैं, पर उनमें अखबार वालों के सामने फोटो खिंचवाने के शौकीन ज्यादा होते हैं, सेवा के कम। असली सेवा तो वनों और देहातों में होती है, जिन्हें भगवान ने असीमित दौलत दी है, वे इसका थोड़ा सा हिस्सा खर्च करके देहात के लोगों का स्वास्थ्य सुधार सकते हैं। अच्छे स्वास्थ्य के भारतीय नागरिक ज्यादा ऊर्जा से उत्पादन करेंगे। इससे उनकी आर्थिक स्थिति भी सुधरेगी और अर्थव्यवस्था का विस्तार होगा। हर धर्म में दरिद्र नारायण की सेवा को सबसे महत्वपूर्ण कार्य बताया गया है। फील गुड खाली टीवी पर बयान देने से नहीं आएगा, उसके लिए संवेदनशीलता की जरूरत है। चाहे नेता हो, उद्योगपति हो या अखबार मालिक, सबको संवेदनशील होकर आम जनता की भावनाओं को समझना चाहिए और वादों और नारों से ज्यादा ठोस काम करके दिखाने चाहिए। ऐसा काम करने वाले न तो पद्मभूषण और भारत रत्न के पीछे भागते हैं और न ही किसी सरकारी फायदे के पीछे। वे तो चुपचाप अपने काम में लगे रहते हैं। मफतलाल जी को भी पद्मभूषण का प्रस्ताव दिया गया था, पर उन्होंने विनम्रता से अस्वीकार कर दिया। जो भगवत भक्ति को आधार बनाकर समाज या राष्ट्र की सेवा करता है और किसी यश या पद की कामना नहीं करता, उसे इस लोक में भी पुण्य और सुख मिलता है और परलोक भी सुधर जाता है, ऐसा संत बताते हैं। शर्त है सेवा निष्काम होनी चाहिए। जिसकी जितनी सामथ्र्य हो, आगे बढ़कर अपनी सेवा ले ले, तो सारा देश चित्रकूट बन जाएगा। प्रायः सामाजिक चिंतन करने वालों के मन में उद्योगपतियों के प्रति आलोचनात्मक दृष्टि रहती है। जबकि अरविंद भाई पूरे समाज से सम्मानित होकर पिछले 38 साल से जनसेवा कर रहे हैं। इसलिए उनका उल्लेख करना और उनसे प्रेरणा लेना सभी सद् विचारवालों के लिए एक सुखद अनुभूति होगी।