आजकल चुनाव पूर्व गठबंधन का दौर है। श्रीमती सोनिया गांधी से लेकर श्री लालू यादव तक और श्री शरद पवार से लेकर सुश्री मायावती तक धर्मनिरपेक्ष ताकतों को एकजुट होने की अपील कर रहे हैं। श्रीमती गांधी ने पत्रकारों से बात करते हुए कई बार ये कहा है कि हम हर उस दल से बात करेंगे जो भाजपा का विरोध करता हो। अन्य कई नेता भी ऐसी ही भाषा बोल रहे हैं जिसका सार ये है कि भाजपा को हराने के लिए सब एकजुट हो जाएं। ये बड़ी गलत सोच है। इसके खतरनाक अर्थ निकाले जा सकते हैं। पहला तो ये कि भाजपा एक शक्तिशाली दल है, जिससे जूझने की ताकत अब किसी एक दल में नहीं बची। इसलिए छोटे-छोटे दल मिलकर उससे साझा मुकाबला करने की तैयारी कर रहे हैं। इसका दूसरा अर्थ ये निकलता है कि भाजपा हिन्दुओं की धर्म रक्षक पार्टी है और जो दल अल्पसंख्यकों आदि के हितैषी हैं, उन्हें एकजुट हो जाना चाहिए। तीसरा अर्थ ये भी निकलता है कि जनता को क्या मिलेगा, ये प्रश्न इन दलों के लिए महत्वपूर्ण नहीं है, केवल भाजपा को हराना ही एकमात्र ध्येय है। जिस देश की जनता तुलसीदास जी की इस चैपाई से प्रेरणा लेती रही हो कि ‘कोई नृप हो हमें का हानि’ वो यह सोच सकती है कि भाजपा के हराने या दर्जनों दलों के गठबंधन को जिताने में उसे क्या लाभ? इसलिए ये सोच गलत है।
पहली बात तो यह भ्रम दूर हो जाना चाहिए कि भाजपा हिंदुओं की रक्षक पार्टी है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से प्रशिक्षण पाकर भी भाजपा में गए नेताओ ंने जितना धर्म विरुद्ध आचरण किया है, उतना तो कभी इंकाई नेताओं ने भी नहीं किया। इसके तमाम उदाहरण हैं, जिनके विस्तार में जाने की आवश्यकता नहीं। जिस तरह कोई भी दल किसी भी विचारधारा को पकड़कर उसका राजनैतिक दोहन करता है और उस विचारधारा के मूल सिद्धांतों की अर्थी निकालने में संकोच नहीं करता, उसी तरह भाजपा भी हिंदू धर्म का दोहन करने वाला एक दल है, जबकि इसके कारनामे ऐसे रहे हैं जिन्होंने हिन्दू समाज का अहित ज्यादा किया है और हित कम। याद दिलाने की जरूरत नहीं है कि हैदराबाद में अल कबीर के कसाईखाने के खिलाफ चल रहे जनांदोलन को विहिप ने किस तरह धोखा दिया। राम जन्मभूमि के नाम पर हर बार चुनावी रोटी सेंकने वाली भाजपा ने बरसों उत्तर प्रदेश पर राज किया, पर इनके राज में मथुरा, वृन्दावन, अयोध्या या ऐसे दूसरे धर्म क्षेत्रों का जैसा विनाश हुआ, वैसा पिछले कई सौ वर्षों में नहीं हुआ। अभी चुनाव तक बहुत मौके आएंगे, जब इन विषयों पर विस्तार से चर्चा की जा सकती है। मौजूदा संदर्भ में इतना ही काफी है कि बार-बार भाजपा को धर्मान्ध या हिन्दूवादी पार्टी बताकर विपक्षी दल भाजपा का बहुत बड़ा फायदा करते हैं। हिन्दुओं के लिए बिना कुछ ठोस किए ही भाजपा उन्हें बरगलाने में सफल हो जाती है और उनकी सहानुभूति बटोर लेती है। जैसा गुजरात में हुआ। अगर भाजपा में वास्तव में राम जन्मभूमि या हिन्दू धर्म से जुड़े सवालों के प्रति ईमानदारी थी, तो पिछले लोकसभा चुनाव या हाल ही संपन्न हुए विधानसभा चुनावों में उसने इन मुद्दों को क्यों नहीं उठाया। जिस तरह दूसरे दल हर चुनाव के लिए कोई नया मुद्दा तलाशते हैं, वैसे ही भाजपा भी चुनाव के माहौल के अनुरूप मुद्दे बदलती रहती है। आज तक हिन्दुओं के नाम पर वोट मांगने वाली भाजपा अब अचानक विकास के नाम पर वोट मांगने लगी है। ‘फील गुड’ का एक झूठा मायाजाल खड़ा करके लोगों को गुमराह करने की नाकाम कोशिश की जा रही है। ऐसे में विपक्षी दलों का बार-बार यह कहना कि वे धर्मनिरपेक्ष ताकतों को एकजुट करना चाहते हैं, बड़ा हास्यास्पद और निरर्थक सा लगता है।
हास्यास्पद इसलिए कि इस देश की बहुसंख्यक जनता धर्मनिरपेक्ष ही है। इसके लिए उसे किसी दल या किसी वाद के ठप्पे की जरूरत नहीं। अगर विपक्षी दलों का चरित्र वाकई धर्मनिरपेक्ष है तो उन्हें इसका ढिंढोरा पीटने की जरूरत नहीं। लोग खुद ब खुद ये फैसला कर लेंगे। निरर्थक इसलिए कि धर्मान्धता या धर्मनिरपेक्षता फिलहाल कोई मुद्दा नहीं है। मुद्दा तो वही है जो आज से दो दशक पहले भी था, पिछले चुनाव में भी था और जब तक देश की आर्थिक तरक्की नहीं हो जाती, तब तक रहेगा। वह मुद्दा है आम आदमी की बदहाली का। गांव ही नहीं, शहर की भी आधी आबादी बहुत विषम परिस्थितियों में जी रही है। महंगाई और साधनों के अविवेकपूर्ण वितरण ने इस देश की बहुसंख्यक आबादी को बहुत नाराज कर रखा है। अपना गुस्सा वे सत्तारूढ़ दलों के खिलाफ वोट देकर उतारती रहती है। उसका दुर्भाग्य ये है कि जो दल सत्ता में आता है, वो भी कुछ नहीं कर पाता। इस लोकसभा चुनाव में ‘फील गुड’ का दावा करने वाली भाजपा की सही परीक्षा तो तब होगी, जब देश की आम जनता उसके शासन के तरीके पर अपनी स्वीकृति की मुहर फिर से लगा दे। अगर विपक्षी दल चाहते हैं कि ऐसा न हो और मानते भी हैं कि जनता केंद्र शासन के विरुद्ध मतदान करेगी तो उन्हें धर्मनिरपेक्षता की दुहाई देने के बजाए जनता के बुनियादी सवालों को उठाना चाहिए। सिर्फ उठाना ही नहीं चाहिए बल्कि उनके समाधान के ठोस विकल्प जनता के सामने रखने चाहिए।
आज देहातों और कसबों में सबसे बड़ी समस्या बेरोजगारी की है। इस चुनाव में सबसे ज्यादा वोट युवा वर्ग के होंगे। ये युवा वर्ग चाहे शिक्षित हों या अर्द्धशिक्षित या अशिक्षित, हर स्थिति में बेरोजगारी की भारी मार झेल रहा है। किसी आशा की किरण दिखाई न देने की हालत में ये अपराध करने को प्रेरित हो रहा है। ये भयावह स्थिति है। विपक्षी दलों को चाहिए कि जोड-तोड़ में समय लगाने के अलावा साथ बैठकर गंभीर चिंतन करें कि देहातों की बेरोजगारी दूर करने के ठोस और त्वरित उपाय क्या हो सकते हैं। ऐसे विशेषज्ञों की सलाह लें जिनके पास इस समस्या के संभावित समाधान उपलब्ध हैं। फिर अपना मन टटोलें कि क्या वाकई इन समाधानों को लागू कर पाएंगे? क्या उनमें अंतरराष्ट्रीय आर्थिक दबावों के विरुद्ध खड़े होने की शक्ति है? क्या वे ईमानदारी से ग्रामीण बेरोजगारी को दूर करना चाहते हैं? अगर उनकी अंतरात्मा से सकारात्मक उत्तर आएं तो उन्हें अपनी चुनाव सभाओं और प्रचार माध्यमों में इस बात को जोर-शोर से उठाना चाहिए। युवा वर्ग को जहां रास्ता दिखाई देगा वो स्वतः ही उधर आकर्षित हो जाएगा। सपने दिखाने में माहिर भाजपा तो ऐसे शगूफे छोड़ने में जुटी ही है। चुनाव के पहले ऐसी तमाम लाॅलिपाॅप बांटी जाएंगी, जो मतदाता को दिग्भ्रिमित कर दें। बेरोजगारों को भी रोजगार दिलाने के तमाम वायदे किए जाएंगे। विपक्षी दलों की जिम्मेदारी है कि वो ऐसे लुभावने मायाजाल की असलियत को देशवासियों के सामने रखें। इसी तरह आम जनता से जुड़े दूसरे सवालों पर भी ध्यान देने की जरूरत है। केवल वायदों से नहीं बल्कि शारीरिक भंगिमाओं, वाणी और मन की तरंगों से यह संदेश मिलना चाहिए कि विपक्ष बेहतर और जनउपयोगी सरकार देने में सक्षम है। अगर ऐसा संदेश विपक्ष दे पाता है तो उसे भाजपा के ‘फील गुड’ से घबराने की कोई जरूरत नहीं होगी। लोग असलियत जानकर ही मतदान करेंगे। पर अगर विपक्ष केवल आम जनता के दुख दर्द का घडि़याली रोना रोकर उसके वोट बटोरना चाहता है और येन केन प्रकारेण सत्ता हथियाना चाहता है तो जनता का फैसला बहुत अप्रत्याशित हो सकता है। हो सकता है जनता ये तय करे कि बेहतर विकल्प के अभाव में मौजूदा सरकार ही क्या बुरी है। या ये तय करे कि किसी भी एक दल को इतना मजबूत मत होने दो कि वो देश पर हावी हो जाए। छोटे-छोटे दलों की छोटी-छोटी सफलताओं से एक ऐसी खिचड़ी सरकार बने जिसमें हर दल हर समय असुरक्षित महसूस करता रहे। ऐसी सरकार भी क्या कोई सरकार होती है? पर इसकी संभावना भी पूरी है। इसलिए समय गठबंधन की जोड़-तोड़ में ऊर्जा लगाने से ज्यादा अपनी सोच, वाणी और आयुधों को पैना करने का है। जिसका रण कौशल बेहतर होगा, वही चुनावी वैतरणी पार करेगा।