हाल ही में मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ राज्यों का दौरा करके लौटे मुख्य चुनाव आयुक्त श्री जे.एम. लिंग्दोह ने इन दोनों राज्यों के कुछ अफसरों के आचरण के बारे में नाराजगी जताई है। श्री लिंग्दोह के अनुसार यह अधिकारी निष्पक्ष नहीं हैं बल्कि सत्तारूढ़ दल इंका के हितों को साधते हुए काम कर रहे हैं। उन्होंने ऐसे तमाम अधिकारियों को कड़ी चेतावनी दी है। श्री लिंग्दोह ही क्यों, हर भारतवासी चाहता है कि चुनाव निष्पक्ष हों। इसके लिए चुनाव में लगे अधिकारियों का आचरण पारदर्शी होना निहायत जरूरी होता है। पर देखने में आया है कि अनेक अधिकारी चुनावों में निष्पक्ष नहीं रह पाते। यहां मध्यम और निचले दर्जे के अधिकारियों या कर्मचारियों की बात नहीं, बल्कि आला अफसरों की बात की जा रही है। श्रीमती इंदिरा गांधी पर आरोप था कि उस वक्त प्रधानमंत्री कार्यालय के अधिकारी श्री यशपाल कपूर ने उनके चुनाव में रायबरेली जाकर चुनाव प्रचार का काम संभाला था। इस बात पर श्रीमती गांधी का चुनाव निरस्त कर दिया गया और उनकी काफी भद्द पिटी। यहां तक कि उन्हें इमरजेंसी लगाकर अपनी जान बचानी पड़ी।
पर तब से गंगा में बहुत पानी बह गया। अगर उस मापदंड को लिया जाए, तो देश के ज्यादातर बड़े नेताओं के चुनाव निरस्त हो सकते हैं। उन नेताओं के जो सत्ता में होते हुए चुनाव लड़ते हैं। मैं एक ऐसे आईएएस अधिकारी को जानता हूं जो अपने मंत्री के चुनाव प्रचार को संभालने के लिए एक महीने के अवकाश पर चले गए। सब काम गोपनीय तरीके से हुआ। पर निकट के लोग तो असलियत जानते ही हैं। एक ही उदाहरण क्यों, पिछले दस सालों में भारतीय प्रशासनिक सेवा के अधिकारियों में अच्छी-खासी तादाद ऐसे अफसरों की हो गई है, जिन्होंने नैतिकता, नौकरी की मर्यादा और लोक-लाज तीनों का बड़ी निर्लज्जता से परित्याग कर दिया। सुश्री मायावती के साथ जिन अधिकारियों के खिलाफ आरोप पत्र दाखिल किए गए, उन्होंने अगर अपने पद की गरिमा के अनुरूप विवेक से काम किया होता तो उनकी आज यह दुर्गति न होती। गुजरात विधानसभा चुनाव के पहले भी श्री लिंग्दोह ने गुजरात के तमाम बड़े अधिकारियों पर भाजपा की सरकार के प्रति जरूरत से ज्यादा झुक जाने का आरोप लगाया था। कोई दल इसका अपवाद नहीं है। हर बड़ा नेता चाहता है कि उसके अधीनस्थ आईएएस या आईपीएस अधिकारी उसके निजी गुलाम की तरह काम करें। जो ऐसा करते हैं, उन्हें ‘अपनी सेवा की भरपूर मेवा’ मिलती है। न सिर्फ सेवाकाल में वे सत्ता के केन्द्र बन जाते हैं बल्कि अपने आका की सत्ता छिनने के बाद भी उन्हें मलाई मारने का भरपूर अवसर मिलता है। इस बात का आभास मिलते ही कि उनके आका की सत्ता हाथ से खिसकने वाली है, यह तमाम अधिकारी अपनी पोस्टिंग या तो दूसरे राज्य या केंद्र सरकार में इस प्रकार करवा लेते हैं कि उन पर कोई आंच न आए। या फिर सरकारी वजीफे पर अध्ययन के बहाने विदेश चले जाते हैं। इंतजार करते हैं उस वक्त का जब इनके आका फिर सत्ता में लौटें या फिर तब तक जब तक लोग उनके कारनामे भूल न जाएं। जो अधिकारी अपने आका के साथ बड़े घोटालों में फंस जाते हैं, उन्हें भी कोई खास परेशानी नहीं होती। सब जानते हैं कि चाहे सीबीआई जांच करे, या अदालत मुकदमे सुने। जितने बड़े नेता, उतने बड़े घोटाले और उतनी ही आसानी से कानून के शिकंजों से मुक्ति। जब आका ही छूट जाएंगे तो उनके दाएं-बाएं रहने वाले अधिकारी भी कब तक फंसे रहेंगे। बम्बइया फिल्म की तरह ऐसे हर घोटालों की सुखद समाप्ति होती है। देश को गिरवी रखने वाले बेदाग होकर मालाओं से लदे ढोल-नगाड़ों के बीच विजय का प्रतीक हवा में लहराते हुए विजेता के रूप में अदालतों से बाहर निकलते हैं। फिर चुनाव लड़ते हैं। आश्चर्य है कि जीत भी जाते हैं। शायद जनता भी यह मान ही बैठी है कि जब सभी चोर चोरी कर रहे हैं, तो चोरी कोई जुर्म नहीं। जीतने के बाद ये नेता दुर्दिन में रहे अपने पुराने सेवादारों को वापस सत्ता में खींच लेते हैं। अगर उनका सेवाकाल समाप्त होने को होता है, तो उसे अकारण बढ़वा देते हैं। अगर वे इस बीच सेवामुक्त हो चुके होते हैं, तो उन्हें सलाहकार या विशेष कार्याधिकारी बनवाकर फिर बुला लेते हैं। ठीक ही तो है, नया नौ दिन, पुराना सौ दिन। जिसने पिछले कार्यकाल में लूट के रास्ते साफ किए हों और अपने आका के इशारे पर प्रदेश की जनता के हितों को अनदेखा करने में कोई हिचक न दिखाई हो वैसा अधिकारी ही सब राजनेताओं को रास आता है। किसी एक व्यक्ति का नाम लेने से कोई लाभ नहीं, पर जो लोग रोजाना समाचारों पर निगाह रखते हैं वे जानते हैं कि हर राज्य और केन्द्र सरकार में ऐसे अधिकारियों की भरमार है जिन्होंने अपने राजनैतिक आका को खुश करने के लिए उनके तलुवे चाटना ही अपना जीवन धर्म बना रखा है। यह लोग सेवामुक्त होने के बाद भी अपने इसी ‘गुण’ के कारण बरसों तक सरकारी बंगले, गाड़ी, हवाई जहाज और वेतन का सुख भोगते रहते हैं। इनमें से जिनकी पकड़ सत्ता पर ज्यादा हो जाती है, वे अनेक महत्वपूर्ण पदों पर भेज दिए जाते हैं। देश में भी और विदेश में भी।
पूरे मामले का निचोड़ यह है कि जो अधिकारी राजनैतिक आकाओं के तलुवे चाटने में हिचक महसूस नहीं करते, वे फायदे में ही रहते हैं। उनका न तो कोई घाटा होता है, न हीं उनके दुर्दिन ज्यादा समय तक रह पाते हैं। इन हालातों में यह स्वभाविक ही है कि अफसरशाही का झुकाव अपने राजनैतिक आकाओं को हर हालत में खुश रखने की तरफ बढ़ता जा रहा है। भौतिकता की इस अंधी दौड़ में जब हर आदमी रातों रात हर तरह की सुविधा जुटा लेना चाहता है तो देश की अफसरशाही क्यों पीछे रहे? जबकि भ्रष्टाचार तो उसका जन्मसिद्ध अधिकार है ही। बहुत थोड़े अधिकारी ऐसे बचे हैं जो अपने काम से काम रखते हैं और बिना विरोध का स्वर मुखर किए अपने राजनैतिक आकाओं को अपने पर हावी नहीं होने देते। पर यह सही है कि ऐसे सभी अधिकारी गैर महत्वपूर्ण पदों को ही सुशोभित करते हैं और शक्तिशाली मंत्रियों या राजनेताओं की नजरों में उनकी कोई उपयोगिता नहीं होती। पर इससे इन निष्ठावान अधिकारियों को कोई असर नहीं पड़ता। न तो ये तबादलों के पीछे भागते हैं और न ही इन्हें साधारण पोस्टिंग से कोई गिला-शिकवा होता है। ऐसा बहुत कम होता है कि कोई मंत्री या मुख्यमंत्री किसी ऐसे व्यक्ति को अपने निकट रखना चाहे जिसका आचरण पाक साफ हो और जो केवल जनहित में कार्य करने की सोचता हो।
आला अफसरांे में बढ़ती इस वृत्ति के कारण भारतीय लोकतंत्र बहुत तेजी से कमजोर होता जा रहा है। जब चाटुकारिता, दलाली या घोटाले करने वाले वरिष्ठ अधिकारियों को केंद्र और राज्य सरकार के मंत्रालयों में महत्वपूर्ण पद मिलेंगे, तो उनसे वे राष्ट्र निर्माण की बात भला क्यूं सोचने लगे? जनता त्राहि-त्राहि करती रहे, उसकी हालत में रत्तीभर सुधार नहीं होता। पर ये चाटुकार अफसर और इनके आका को इससे क्या? इनका तो काम वो योजनाएं बनाना होता है जिससे रातों रात अकूत दौलत पैदा हो जाए। बहुत कम राजनेता होंगे, जो इस लोभ का संवरण कर पाते हैं। इसलिए एक-एक करके लोकतंत्र के सभी खंभे ढहते जा रहे हैं। विधायिका और कार्यपालिका के उपरोक्त आचरण से न्यायपालिका का आचरण भी भिन्न नहीं है। खुद भारत के पूर्व मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति एस.पी.भरूचा अपने पद पर रहते हुए कह चुके हैं कि उच्च न्यायपालिका में भी बीस फीसदी भ्रष्टाचार है। शायद इन्ही भ्रष्ट न्यायाधीशों के कारण भ्रष्ट राजनेता कानून की पकड़ से छूट जाते हैं। जनता में इससे हताशा फैलती है और लोकतंत्र के प्रति उसकी आस्था कमजोर पड़ जाती है। यह बहुत दुखद स्थिति है।
श्री लिंग्दोह ने केवल छत्तीसगढ़ और मध्य प्रदेश के अफसरों पर उंगली उठाई है। पर हकीकत यह है कि देश का कोई भी प्रांत इस बीमारी से अछूता नहीं है। जब सजा मिलने का डर ही नहीं रहा, तो फिर चोरी भी चोरी से क्यों की जाए? जहां मौका मिले, हाथ मार दो। काका हाथरसी कहा करते थे, ‘‘क्यों डरता है बेटा रिश्वत लेकर, छूट जाएगा तू भी रिश्वत देकर’’। लंबे चैड़े दावों के साथ आगामी विधानसभा चुनाव लड़े जा रहे हैं, पर जीतकर चाहे कोई भी आए आम जनता के हालात में कोई बड़ा परिवर्तन नहीं होने जा रहा। श्री लिंग्दोह भी कहां-कहां पकड़-धकड़ करेंगे?