Friday, May 23, 2003

आईएसओ प्रमाणन में धांधली


जैसे-जैसे दुनिया के बाजार का एकीकरण होता जा रहा है वैसे-वैसे सेवाओं और उत्पादनों की गुणवत्ता निर्धारित करने के अंतर्राष्ट्रीय मानक भी स्थापित होते जा रहे हैं। यह जरूरी है ताकि उपभोक्ता को इस बात की गारंटी हो कि दुनिया के एक हिस्से मेें बैठकर दूसरे हिस्से से जो वस्तु या सेवा वह खरीद रहा है, वह सही है और उसके साथ कोई धोखा नहीं हो रहा है। इस तरह के मानक देने वाली एक अंतर्राष्ट्रीय संस्था आईएसओ है। जिसका मुख्यालय स्वीट्जरलैंड के शहर जिनेवा में है। दुनिया के सभी देश आईएसओ के सदस्य हैं। ज्यादातर देशों में राष्ट्रीय स्तर पर एक एक्रेडिटेशन काउंसिल होती है जो आईएसओ का प्रमाण पत्र देने वाली स्थानीय इकाइयों (सर्टिफाइंग बाॅडिज) को मान्यता देती है। एक्रेडिटेशन काउंसिल का फर्ज है कि वो हर साल सर्टिफाइंग बाॅडिज के काम की जांच करे और यह सुनिश्चित करे कि ये सर्टिफाइंग बाॅडिज अंतर्राष्ट्रीय मानकों के तहत ही काम कर रही हैं और जिन कंपनियों को ये प्रमाण पत्र प्रदान कर रहीं हैं वे वाकई इसके लायक हैं और सभी निर्धारित मापदंडों का पालन कर रही हैं। चिंता की बात ये है कि भारत में ऐसा नहीं हो रहा है।  

इस पूरी प्रक्रिया में काफी धांधली हो रही है। धांधली की शुरूआत वाणिज्य मंत्रालय से ही होती है। कायदे से भारत सरकार के वाणिज्य मंत्रालय को चाहिए था कि वो एक्रेडिटेशन काउंसिल व सर्टिफाइंग बाॅडिज की कार्य प्रणाली पर नियंत्रण रखे। पर हाल ही में वाणिज्य मंत्री श्री राजीव प्रताप रूड़ी ने संसद में एक प्रश्न के उत्तर में कि, ‘‘आइएसओ 9000 और आईएसओ 14001 प्रमाण पत्र प्रदान करने वाले इन अभिकरणों पर सरकार द्वारा निगरानी नहीं रखी जा रही है क्योंकि प्रमाणन की प्रक्रिया स्वैच्छिक है न कि अनिवार्य।’’ जबकि दूसरी ओर सरकार के ही अनेक मंत्रालय अपनी संस्थाओं और सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों को आईएसओ 9001/14001 लेने का आदेश दे रहे हैं। इतना ही नहीं सरकार जो निविदाएं आमंत्रित करती है उसमें यह सर्टिफिकेट अनिर्वाय रूप से मांगा जा रहा है। 7 अप्रैल 2003 को संसद में दिए गए इस उत्तर में ही वाणिज्य मंत्री श्री रूड़ी ने यह भी स्वीकार किया कि इस तरह की व्यवस्था से आइएसओ सर्टिफिकेट की विश्वसनीयता पर प्रश्नचिंह लग जाता है। 

सरकारी धांधली इतने पर ही खत्म नहीं होती। सरकार लघु उद्योगों को आईएसओ सर्टिफिकेट लेने के लिए प्रोत्साहित करती है और उन्हें इस प्रमाण पत्र को हासिल करने में हुए खर्चे का 75 फीसदी या 75 हजार रूपए तक की वित्तीय सहायता तक मुहैया कराती है। इस मामले में भी एक्रेडिटेशन काउंसिल व सर्टिफाइंग बाॅडिज की कार्य प्रणाली पर नियंत्रण न होने के कारण देश भर में खूब धांधली चल रही है। रातो-रात बनी सर्टिफाइंग बाॅडिज 10-15 हजार रूपया लेकर लघु उद्योग मालिकों को, बिना उनकी गुणवत्ता का परीक्षण किए, प्रमाण पत्र दे देती हैं। ये लघु उद्योग मालिक सरकार से 75 हजार रूपए वसूल लेते हैं। इस तरह 1994 से आज तक 3198 लघु उद्योग इकाइयां ये सर्टिफिकेट ले चुकी हैं। जिसके बदले में अनुमान है कि वे सरकार से लगभग 24 करोड़ रूपया वसूल चुकी हैं। 

वैसे सरकार ने यह योजना सद्इच्छा से चालू की थी। मकसद था अंतर्राष्ट्रीय बाजार में भारत के लघु उद्योगों को चीन, कोरिया, मलेशिया के समकक्ष खड़ा करना। पर इन धांधलियों को चलते यह मकसद पूरा नहीं हो पा रहा है। रातो-रात बनी फर्जी सर्टिफाइंग बाॅडिज और लघु उद्योग मालिकों की मिलीभगत से सरकार को चूना लग रहा है और उत्पादनों की गुणवत्ता सुधर नहीं रही है। जिसके लिए पूरी तरह भारत सरकार का वाणिज्य मंत्रालय और लघु उद्योग मंत्रालय जिम्मेदार है। जो सब कुछ जानते हुए भी कुम्भकरण की नींद सो रहा है। श्री रूड़ी का जवाब कितना विरोधाभासी है। एक तरफ तो वे मानते हैं कि सरकार का सर्टिफाइंग बाॅडिज पर कोई नियंत्रण नहीं है। और दूसरी ओर वे इनकी विश्वसनीयता को संदेहास्पद मानते हैं। यहां तक कि उन्हें ये भी नहीं मालूम की देश में ऐसी सर्टिफाइंग बाॅडिज की संख्या कितनी है । तो कोई उनसे पूछे कि मंत्री महोदय आप क्या कर रहे हैं ? अपना कारवां लुटते देख रहे हैं। 

इस संदर्भ में एक रोचक तथ्य यह भी है कि भारत सरकार की अपनी एजेंसियां भी किस तरह इस धांधली को होने दे रही है। इस तरह की एक सरकारी एजेंसी क्वालिटी काउंसिल आफ इंडिया एक भारतीय एक्रेडिटेशन काउंसिल है। इसका काम सर्टिफाइंग बाॅडिज को मान्यता देना है। इस पूरे घोटाले को लेकर चिंतित और सक्रिय प्रोफेशनल कैप्टन नवीन सिंहल ने जब इसके सेक्रेट्री जनरल से मार्च 2000 में इस पूरी धांधली की शिकायत की तो उन्होंने यह कह कर पल्ला झाड़ लिया कि उनकी संस्था का इस मामले से कुछ लेना-देना नहीं है। हमारा काम पुलिस की तरह तहकीकात करना नहीं है। यह एक हास्यादपद जवाब था। क्योंकि एक सरकारी मानक संस्था के वरिष्ठ अधिकारी होने के नाते उनकी नैतिक जिम्मेदारी थी कि इस मामले की सूचना सरकार को देते और उन्हें सलाह देंने कि इस धांधली से कैसे निपटा जाए। पर वे खामोश रहे। पर कैप्टन सिंहल खामोश नहीं बैठ सके। उन्होंने क्वालिटी काउंसिल आफ इंडिया के सेक्रेट्री जनरल श्री मेहदीरत्ता सहित कई अंतर्राष्ट्रीय संस्थाओं को एक प्रश्नावली भेजी। जिसमें उन्होंने इस सारे मामले को उठाते हुए इस समस्या से निपटने के सुझाव मांगे। इस प्रश्नावली के उत्तर में नाॅर्वे की एक मानक संस्था डीएनवी के क्षेत्रीय अध्यक्ष ने कहा कि क्वालिटी काउंसिल आफ इंडिया के सेक्रेट्री जनरल ही इस समस्या से निपटने के लिए सही व्यक्ति हैं। इसलिए उन्होंने भी यह प्रश्नावली श्री मेहदीरत्ता को भेज दी। पर जब संसद में वाणिज्य मंत्री श्री अरूण जेटली से यह प्रश्न पूछा गया कि इस मामले में क्वालिटी काउंसिल आफ इंडिया के सेक्रेट्री जनरल श्री मेहदीरत्ता को क्या कोई प्रश्नावली समय रहते, आगाह करते हुए, भेजी गई थी या नहीं तो आश्चर्य की बात है कि श्री जेटली ने संसद में उत्तर दिया कि ऐसी कोई प्रश्नावली श्री मेहदीरत्ता को नहीं भेजी गई। 

कहते हैं, ‘बीती ताहि बिसार दे, आगे की सुधि ले। जो बनी आवे सहज में, ताहि में चित दे।जो हो गया सो गया अब भी सुधरने का वक्त है। अगर वाणिज्य मंत्रालय चाहे तो इस धांधली को रोक सकता है। सबसे पहले तो वाणिज्य मंत्रालय को उन सर्टिफाइंग बाॅडिज का चयन करना चाहिए जो एक्रेडिटेड हैं और जिनका हर साल एक्रेडिटेशन काउंसिल से आॅडिट होता है। 

दूसरा काम ये करना चाहिए कि जितनी भी सरकारी और गैर सरकारी संस्थाओं ने आईएसओ सर्टिफिकेट ले रखा है उन सबकों सरकारी नोटिस भेज कर एक निर्धारित समय के भीतर अपने सर्टिफिकेशन के समर्थन में यह प्रमाण भेजना अनिवार्य हो कि उनकी सर्टिफाइंग बाॅडिज अपने भारतीय कामकाज के लिए एक्रेडिटेड है या नहीं है। अगर है तो प्रमाण दें और नहीं है तो निर्धारित समय के अंदर इसे उस सर्टिफाइंग बाॅडिज से प्राप्त कर लें जिन्हें सरकार ने मान्यता दी है। इस तरह फर्जी सर्टिफिकेट लेकर घूमने वाले खुद ही बेनकाब हो जाएंगे। 

इसके साथ ही जो सबसे जरूरी काम है वो ये कि सरकार एक स्वायत्त संस्था का गठन करे जिसकी जिम्मेदारी हो इस सब सर्टिफाइंग बाॅडिज पर निगाह रखना और उनके खिलाफ दंडात्मक कार्यवाही करना। जब तक सरकार ये करे तब तक कुछ उत्साही लोगों ने मिलकर जनहित में एक गैर मुनाफे वाली स्वयंसेवी संस्था ेंअमपेव/तमकपििउंपसण्बवउ का गठन कर लिया हैं। जो ऐसे सभी मामलों में शिकायतों की जांच करने का काम कर रही हैं। पर असली जिम्मेदारी तो सरकार की है। वाणिज्य मंत्री पलायनवादी उत्तर देकर अपनी जिम्मेदारी से बच नहीं सकते। एक तरफ तो हम भारत को अंतर्राष्ट्रीय आर्थिक शक्ति बनाना चाहते हैं और दूसरी तरफ हमें अपनी गुणवत्ता में हो रही धांधलियों की भी चिंता नहीं है। यह चलने वाली बात नहीं है। अगर सरकार अब भी नहीं जागी तो भारत के उद्योगों को अंतर्राष्ट्रीय बाजार में काली सूची में डाल दिया जाएगा। क्योंकि इनके आईएसओ प्रमाण पत्रों की विश्वसनीयता संदेहास्पद होगी।

Friday, May 9, 2003

न्यायायिक आयोग से भी कुछ नहीं बदलेगा


जब से दिल्ली उच्च न्यायालय के न्यायधीश शमित मुखर्जी डीडीए घोटाले में गिरफ्तार हुए हैं तब से एक बार फिर न्यायधीशों के दुराचरण पर बहस छिड़ गई है। संसद में अनेक सांसदों ने उच्च न्यायपालिका के न्यायधीशों के दुराचरण पर लगाम कसने की जरूरत पर जोर दिया है। वकीलों के संगठनों ने भी इसका समर्थन किया है। इस पूरे माहौल में केन्द्रीय कानून मंत्री श्री अरूण जेटली और उनकी सरकार का मानना है कि न्यायधीशों की नियुक्ति, पदोन्नति व आचरण पर नियंत्रण रखने के लिए एक राष्ट्रीय न्यायायिक आयोग का गठन किया जाना चाहिए। श्री जेटली का दावा है कि ऐसा आयोग काफी हद तक उन समस्याओं का हल दे सकेगा जो न्यायपालिका में पनप रही बुराईयों के कारण उपजी है।

पर मुझे नहीं लगता कि इस तरह के आयोग से किसी भी समस्या का कोई हल निकलेगा। जिस समस्या का हल मौजूदा कानूनांे के तहत नहीं निकल सकता उसका हल नई व्यवस्थाएं बना कर भी नहीं निकलता। इसके तमाम उदाहारण हैं। जिस समय राजनीति में भ्रष्टाचार के सवाल को उठाकर मैं  जैन हवाला कांड का केस सर्वोच्च न्यायालय में लड़ रहा था उस समय भी पूरे देश में यह मांग उठी थी कि राजनीति में पारदर्शिता लाने की व्यवस्था की जानी चाहिए और उच्च स्तरीय भ्रष्टाचार को रोकने के लिए पुख्ता इंतजाम होने चाहिए। इसी दौर में सीबीआई को स्वायतत्ता देने की मांग भी जोर-शोर से उठाई गई। मांग उठाने वालों में श्री राम जेठमलानी, श्री अरूण जेटली, श्री सोली सोराबजी सरीखे न्यायविद् सबसे आगे थे। यह दूसरी बात है कि ये प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से हवाला कांड के कुछ प्रमुख आरोपियों को बचाने में जुटे थे और इसीलिए इनकी कोशिश थी कि केस के मूल बिन्दुओं से ध्यान हटाकर भविष्य के किसी ऐसी व्यवस्था का माहौल बनाया जाए। मैंने उसी वक्त इसका विरोध किया। यह विरोध बाकायदा लिख कर सर्वोच्च न्यायालय में दर्ज कराया गया, जो इस केस के ऐतिहासिक दस्तावेजों का हिस्सा है। मेरा विरोध इस बात पर था कि जैन हवाला केस के उपलब्ध प्रमाणों की उपेक्षा करके, उसकी जांच में सीबीआई द्वारा जानबूझ कर की गई कोताही को अनदेखा करके, अगर इतने महत्वपूर्ण मामले को इस तरह दबा दिया जाएगा तो आतंकवाद को प्रोत्साहन ही मिलेगा। साथ ही मेरा तर्क यह भी था कि सीबीआई को स्वायतत्ता देने की बात कहना, देश को झूठे सपने दिखाने जैसा है। क्योंकि कोई भी सरकार यह नहीं चाहेगी कि सीबीआई इतनी आजाद हो जाए कि वो खुद सरकार के ही गले में घंटी बांध दे। 

मेरा अंदेशा सही निकला। देश के मशहूर और बड़बोले वकील कानूनी योग्यता से नहीं, बल्कि अन्य तरीकों से जैन हवाला केस को एक बार फिर दबवाने में कामयाब हो गए और देश और मीडिया को केन्द्रीय सतर्कता आयोग के नए प्रारूप पर बहस में उलझा दिया। पर जब सीवीसी के अधिकारों को लेकर कानून बनाने की बात आई तो सरकार सहित सभी प्रमुख दल आनाकानी करने लगे। आखिरकार वही हुआ जिसका अंदेशा अगस्त 1997 में अपने शपथ पत्र के माध्यम से मैंने व्यक्त किया था। आज सीवीसी एक बिना नाखून और बिना दांत का आयोग हैं। जिसे उच्च पदासीन अधिकारियों और नेताओं के खिलाफ जांच करने की आजादी नहीं है। 

शमित मुखर्जी की गिरफ्तारी क्या भारतीय न्यायपालिका के इतिहास की पहली ऐसी घटना है? यह सही है कि सीबीआई की अकर्मण्यता और सरकार की मिलीभगत के कारण न्यायपालिका के सदस्यों को पहले कभी गिरफ्तार नहीं किया गया। पर सर्वोच्च न्यायालय के न्यायधीशों के भ्रष्टाचार और दुराचरण के कई मामले तो मैं ही प्रकाश में ला चुका हूं जिन पर देश में काफी बवेला मचा और फिर सब तरफ खामोशी छा गई। जो लोग आज बढ़ - चढ़ कर बयानबाजी कर रहे हैं वही भ्रष्ट न्यायधीशों के बचाव में खड़े हो गये थे। शमित मुखर्जी पर आरोप है कि वे डीडीए घोटाले के आरोपियों से संपर्क में थे। एक जज के लिए इससे ज्यादा शर्मनाक बात और क्या हो सकती है ? पर इससे भी ज्यादा शर्मनाक बात इस देश में हुई है। सर्वोच्च न्यायालय के न्यायधीश न्यायमूर्ति एस.सी. सेन हवाला कांड के आरोपी जैन बंधुओं के निकट सहयोगी डा. जाॅली बंसल से संपर्क में थे। जुलाई 1997 को ही उन पर यह आरोप लग चुका था। जुलाई 1999 और जनवरी 2000 में क्रमशः डा. बंसल व न्यायमूर्ति सेन अपना ये     अपराध लिख कर कबूल कर चुके हैं। इतना ही नहीं भारत के तत्कालीन मुख्य न्यायधीश न्यायमूर्ति जे.एस. वर्मा ने 14 जुलाई 1997 को भरी अदालत में माना कि कोई व्यक्ति उनसे जैन हवाला कांड को दबाने के लिए लगातार मिलता रहा है। पर सारे देश की मांग के बावजूद न्यायमूर्ति वर्मा ने न तो उस व्यक्ति के नाम का खुलासा किया और न उसे सर्वोच्च न्यायालय की सबसे बड़ी अवमानना करने के आरोप में सजा ही दी। ऐसे दुराचरण के लिए न्यायमूर्ति सेन और न्यायमूर्ति वर्मा पर कार्यवाही होनी चाहिए थी, पर कुछ नहीं हुआ। 

यहां इस बात का उल्लेख करना इसलिए जरूरी है कि भारत के मुख्य न्यायधीश पद पर रहते हुए न्यायमूर्ति एसपी भरूचा साफतौर पर यह स्वीकार कर चुके हैं कि उच्च न्यायपालिका के 20 फीसदी सदस्य भ्रष्ट हैं। मतलब ये हुआ कि न्याय की उम्मीद में उच्च न्यायालयों या सर्वोच्च न्यायालय के दरवाजे खटखटाने वाला इस बात के लिए आश्वस्त नहीं है कि उसे न्याय मिलेगा ही। अगर उसका केस उन 20 फीसदी न्यायधीशों के सामने लग जाए जो भ्रष्ट हैं तो फैसला केस के गुणों के आधार पर नहीं बल्कि रिश्वत के आधार पर होगा। ऐसी भयावह परिस्थिति में सब कुछ देखकर भी कानून मंत्री, सरकार या विपक्षी दलों के नेता भी अगर खामोशा रहें, भ्रष्ट न्यायधीशों के विरूद्ध कुछ न करें, महाभियोग प्रस्ताव तक न पारित करें, तो यह मान लेना चाहिए कि व्यवस्था में आ रही मौजूदा गिरावट को रोकने के लिए कोई गंभीर नहीं है। जब कोई चाहता ही नहीं कि सीबीआई स्वायतत्त हो और उच्च न्यायपालिका के सदस्यों के भ्रष्टाचार पर अंकुश लगाया जाए तो यह कैसे माना जा सकता है कि भविष्य में बनने वाला राष्ट्रीय न्याययिक आयोग न्यायपालिका में से भ्रष्टाचार को दूर कर देगा? चाणाक्य पंडित का कहना था कि व्यवस्था कोई भी क्यों न हो जब तक उसमें काम करने वाले नहीं बदलेंगे वो व्यवस्था बदल नहीं सकती। आज इस देश के प्रशासन में जो भी कमी आईं हैं उसे मौजूदा कानूनों के तहत ही दूर किया जा सकता है। बशर्ते व्यवस्था को चलाने वालों की ऐसी प्रबल इच्छा शक्ति हो। 

चूंकि देश को ऐसी इच्छाशक्ति का कोई प्रमाण कहीं दिखाई नहीं दे रहा, इसलिए ये मानने का कोई आधार नहीं है राष्ट्रीय न्यायिक आयोग बन जाने के बाद सबसे योग्य, सबसे ईमानदार और सबसे ज्यादा निष्पक्ष लोगों का ही चयन न्यायपालिका के सदस्यों के रूप में होगा। आयोग क्या करेगा यह इस पर निर्भर करेगा कि आयोग के सदस्य कैसे हों और आयोग के सदस्यों का चयन उनकी ईमानदारी, राष्ट्र के प्रति निष्ठा व योग्यता को देख कर नहीं होगा बल्कि उनकी सत्ताधीशों से निकटता और सत्ताधीशों के इशारों पर नाॅचने की संभावना को देखकर होगा। 

उदाहारण के तौर जब प्रसार भारती बोर्ड बनाया गया तब भी यह दावा किया गया था कि प्रसारण में स्वायतत्ता लाई जाएगी। पर क्या ऐसा हो पाया ? प्रसार भारती बोर्ड के सदस्य वही करते हैं जो सत्तारूढ़ दल चाहता है। दूरदर्शन से कार्यक्रम बनाने का ठेका उन्हें ही मिलता है जो सत्ता के गलियारों में चाटुकारिता करते हैं या दलाली करते हैं। योग्यता के आधार पर दूरदर्शन के कार्यक्रमों के निर्माण का ठेका देना अभी सपना ही है और सपना ही रहेगा। इसलिए न्यायपालिका के आचरण को लेकर मौजूदा बहस बेमानी है। जनता को किसी न किसी मुद्दे में उलझाए रखने की जरूरत होती है ताकि वह भ्रम की स्थिति में बनी रहे। सपने देखती रहे और उम्मीद लगा कर बैठी रहे। राष्ट्रीय न्यायिक आयोग इसी कड़ी में एक और कदम होगा। उससे कुछ भी नहीं बदलेगा।

Friday, May 2, 2003

विहिप का धर्मसंकट


अयोध्या में जमा हुए विश्व हिन्दू परिषद् (विहिप) के नेताओं ने अब सांसदों का द्वार खटखटाने का निर्णय किया है। वे हर दल के सांसदों के घर जाकर उन्हें अयोध्या में राममंदिर बनाए जाने की आवश्यकता समझाएंगे। विहिप के संतों का यह भी दावा है कि राममंदिर निर्माण का भाजपा की राजनीति से कोई लेना-देना नहीं है। 

ये तो वही ढाक के तीन पात। सोचने वाली बात ये है कि अपने को धर्मनिरपेक्ष बताने वाले दल विहिप के एजेंडा पर कैसे सहमत हो सकते हैं? भाजपा भगाओ की लाठी रैली करने वाले लालू यादव हों या माक्र्सवादी नेता सोमनाथ चटर्जी। मुलायम सिंह यादव हों या सोनिया गांधी। यहां तक कि राजग के सहयोगी दलों के नेता चन्द्रबाबू नायडु, जार्ज फर्नाडीज, ओम प्रकाश चैटाला, उमर अबदुल्लाह जैसे नेता भी विहिप से सहमत नहीं होंगे। क्योंकि इन सब क्षेत्रीय दलों की अपनी राजनैतिक मजबूरियां हैं। इनके वोट बैंक में मुसलमानों के वोटों का महत्व रहता है। अगर विहिप यह सोचती है कि वह इन सभी दलों को समझा-बुझा कर यह मनवा लेगी कि राममंदिर निर्माण का भाजपा की राजनीति से कोई लेना-देना नहीं है तो यह उसकी भारी भूल है। ऐसा हो सकता था यदि यह आंदोलन शुरू से केवल हिंदूधर्माचार्यों के नेतृत्व में स्वतंत्र रूप से चला होता। जिसमें केवल हिंदू हित की बात को सर्वोपरि रख कर निरंतर जनजागरण किया जाता। व्यापक हिंदू समाज को इस मुद्दे के साथ भावनात्मक रूप से जोड़ा जाता। तब यह विहिप का आंदोलन न होकर हिंदू समाज का आंदोलन बन जाता। ऐसे में किसी भी दल के नेताओं के लिए बहुसंख्यक हिंदू समाज की भावनाओं की उपेक्षा करना आसान नहीं होता। पर सच्चाई तो यह है कि आंदोलन शुरू तो हुआ था इसी तरह के गैर राजनैतिक प्रयास से पर इसकी महत्ता को समझ भाजपा ने इसे तुरंत हड़प लिया और तब से यह लगातार भाजपा का मुद्दा रहा है। 

भारत छोड़ दुनिया में जो भी लोग भारत में रूचि रखते हैं वे सब जानते है कि राममंदिर निर्माण आंदोलन भाजपा का चुनावी एजेंडा है। जितना मीडिया कवरेज और राजनैतिक उथल-पुथल पिछले 14 वर्षों में इस मुद्दे को लेकर हुई है उतनी किसी दूसरे मुद्दे को लेकर नहीं। फिर विहिप कैसे सोचती है कि वह सब दलों के सांसदों के दिमाग से 14 साल का इतिहास भुला देगी ? हालांकि विहिप के नेताओं को यह अच्छा नहीं लगेगा पर सत्य यह है कि उनका आचरण भी संदेह से परे नहीं रहा। राममंदिर निर्माण के मामले पर विहिप ने तब-तब ही शोर मचाया है जब-जब प्रांतीय या केन्द्रीय चुनाव पास आए। इस तरह यह संदेश गया कि विहिप राममंदिर मुद्दे को भाजपा के चुनाव जीतने का सामान बनाए रखना चाहती है।

यह बात दूसरी है कि राममंदिर निर्माण के मामले भाजपा नेताओं के दोहरे वक्तव्यों और कृतित्व ने अब विहिप को भी काफी निराश कर दिया है। विहिप के खेमों में बड़ी घुटन महसूस की जा रही है। विहिप के नेताओं को लगता है कि भाजपा उन्हें केवल चुनाव में डुगडुगी पीटने के लिए प्रयोग करती है और फिर ठंडे बस्ते में डाल देती है। विहिप में ही दो खेमे बने हैं। एक खेमा गरम दल वालों का है जो भाजपा से संबंध विच्छेद कर हिन्दू हित के मामलों पर एक नए राजनैतिक विकल्प की संभावना तलाश रहा है। क्योंकि इस खेमे को लगता है कि भाजपा अपने मूल चरित्र से बहुत दूर चली गई है और अब उसकी प्राथमिकताएं येन-केन-प्रकारेण सत्ता में बने रहने की है। इसके लिए वह किसी भी हद तक हिंदू हित का बलिदान करने को तैयार है। इसीलिए भाजपा का हिंदू वोट बैंक भी तेजी से सिकुड़ रहा है। विहिप के इस गरम दल को उम्मीद है कि अगर आक्रामक तेवर वाला शुद्ध हिंदूवादी राजनैतिक विकल्प कोई हो तो उसे व्यापक जन समर्थन मिलेगा। 

विहिप के दूसरे खेमे के वयोवृद्ध नेता श्री अशोक सिंहल जैसे लोगों का मानना है कि सत्ता में रहने की अपनी सीमाएं होती हैं। इन सीमाओं के भीतर भाजपा हिंदूधर्म के लिए जो कुछ कर सकती है, कर रही है। इससे ज्यादा करने से सत्ता खतरे में पड़ सकती है। इसलिए वे गरमपंथी विचार से असहमत हैं। साथ ही विहिप के एक बहुत बड़े हिस्से का मानना है कि चाहे गरमपंथियों की बात में कितना ही वजन हो, चाहे भाजपा नेतृृत्व ने देश के हिंदुओं को कितना ही नाराज क्यों न किया हो, पर संघ परिवार आज भी भाजपा के पीछे खड़ा है और बिना संघ परिवार के सहयोग के विहिप कोई राजनैतिक विकल्प खड़ा नहीं कर सकती। 

इन हालातों में विहिप के सामने एक तीसरा विकल्प हो सकता था और वो था शिव सेना के साथ सहयोग करना। अपने वक्तव्यों से बाला साहब ठाकरे हमेशा ही उग्र हिंदूवाद का समर्थन करते आए हैं। इसलिए यह बहुत स्वाभाविक संबंध हो सकता है। पर शिव सेना के व्यक्ति केन्द्रित ढांचे को विहिप पचा नहीं पाएगी। साथ ही शिव सैनिकों की हुड़दंगी कार्यवाहियां भी विहिप के गले नहीं उतरती। योग, ध्यान, आयुर्वेद और भारतनाट्यम जैसी महान वैदिक सांस्कृतिक विरासत की तुलना में भोंडी पाश्चात्य संस्कृति के प्रतीक माइकल जैक्सन के शो करवा कर शिव सेना ने अपने दिमागी दिवालियापन का परिचय दिया है। इसलिए शिव सेना के सुप्रीमो पर निर्भर नहीं रहा जा सकता कि वे कब क्या कर बैठें। हालांकि उधव ठाकरे के सामने आने से कुछ उम्मीद बंधी है। क्योंकि वे अपेक्षाकृत ज्यादा संयत व्यक्तित्व के धनी हैं। पर इसके लिए पहल उधव ठाकरे को ही करनी होगी। 

इन हालातों में विहिप की स्थिति सांप-छछुन्दर की हो रही है। उसे न तो भाजपा को निगलते बन रहा है और न उगलते। ऐसे में राममंदिर निर्माण के आंदोलन का भविष्य क्या होगा, कहा नहीं जा सकता। ये बड़े दुर्भाग्य की बात है कि हिंदू नवजागरण का जो आंदोलन इतने उत्साह से देशभर में उठा था वो कुर्सी की राजनीति में उलझ कर कांतिविहीन हो गया है। समय-समय पर आए परस्पर विरोधी बयानों के कारण नेतृत्व की विश्वसनीयता पर जनता को संदेह हो गया है। समय की मांग है कि विहिप अपनी प्राथमिकताओं का पुर्ननिर्धारण करे। अगर उसे लगता है कि भाजपा ने वाकई उसके साथ छल किया है तो वह खुलकर भाजपा का दोहरा चरित्र जनता के सामने रखे। अगर उसे लगता है कि भाजपा जो कर सकती थी किया पर इससे आगे उसके बस की बात नहीं है और उन्हें बाकी दलों का सहयोग लेना ही पड़ेगा तो विहिप को यह पता होना चाहिए कि बाकी दल तब तक उसका साथ नहीं देंगे जब तक विहिप इस मुद्दे पर व्यापक जनादोलन न खड़ा करे। उस स्थिति में उसे भाजपा से उतनी दूरी बना कर रखनी होगी जितनी दूरी से यह संदेश मिले कि उसका यह आंदोलन भाजपा की चुनावी रणनीति का हिस्सा नहीं है। 

यह कोई असंभव कार्य नहीं है। जैसे-जैसे पश्चिमी बाजारू संस्कृति का हमला देश पर बढ़ रहा है वैसे-वैसे हमारे समाज में असुरक्षा, मानसिक तनाव और घुटन भी बढ़ रही है। इसीलिए देश में चारो तरफ हिंदूधार्मिक कार्यक्रमों की बाढ़ सी आ गई है। भागवत सप्ताह हो या भजन संध्या। गीता पर प्रवचन हो या रामकथा, कोई अछूता नहीं है। साफ जाहिर है कि हिंदू समाज अपनी मान्यताओं को पल्लवित होते देखना चाहता है। उसके लिए वह तन, मन, धन से सहयोग करने को तैयार है। बशर्ते  उनकी भावनाओं से खिलवाड़ न किया जाए और उस पर राजनैतिक रोटियां न सेकी जाए। हम पहले भी कहते आए हैं कि हिंदू तीर्थ स्थलों की व्यवस्था, तीर्थ यात्रियों के लिए सुविधाओं में वृद्धि, मंदिरों में अराजकता और कुव्यवस्था का निराकरण और चढ़ावे के करोड़ों रूपए का धर्मस्थानों के विकास के लिए सदुपयोग, कुछ ऐसे कार्य हैं जिनमें विहिप को तन, मन, धन से जुट जाना चाहिए पर ऐसा हो नहीं रहा। इसके अनेक उदाहारण दिए जा सकते है। वैसे तो विहिप के नेता खुद ही अनुभवी हैं और ज्ञानी भी। समय के अनुसार अपनी रणनीति बदलना उनके और हिंदू धर्म के हित में रहेगा। आगे हरि इच्छा।

Friday, April 25, 2003

बिन पानी सब सून

जो ठोकर खा कर संभल जाए उसे अकलमंद मानना चाहिए। पर जो ठोकर खाकर भी न संभले और बार-बार मुंह के बल गिरता रहे, उसे महामूर्ख या नशेड़ी समझना चाहिए। हिंदुस्तान के शहरों में रहने वाले हम लोग दूसरी श्रेणी में आते हैं। हम देख रहे हैं कि हर दिन पानी की किल्लत बढ़ती जा रही है। हम यह भी देख रहे हैं कि जमीन के अंदर पानी का स्तर घटता जा रहा है। हम अपने शहर और कस्बों में तालाबों को सूखते हुए भी देख रहे हैं। अपने अड़ौस-पड़ौस से हरे-भरे पड़ों को भी गायब होता हुआ देख रहे हैं। पर ये सब देख कर भी मौन हैं। जब नल में पानी नहीं आता तब घर की सारी व्यवस्था चरमरा जाती है। बच्चे स्कूल जाने को खड़े हैं और नहाने को पानी नहीं है। नहाना और कपड़े धोना तो दूर पीने के पानी तक का संकट बढ़ता जा रहा है। जो पानी मिल भी रहा है उसमें तमाम तरह के जानलेवा रासायनिक मिले हैं। ये रासायनिक कीटनाशक दवाइयों और खाद के रिसकर जमीन में जाने के कारण पानी के स्रोतों में घुल गए हैं। अगर यूं कहा जाए कि चारों तरफ से अकाल के पास आते खतरे को देखकर भी हम बेखबर हैं तो अतिश्योक्ति न होगी। पानी का संकट इतना बड़ा हो गया है कि कई टीवी समाचार चैनलों ने अब पानी की किल्लत पर देश के किसी न किसी कोने का समाचार नियमित देना शुरू कर दिया है। पिछले हफ्ते मध्य प्रदेश में पानी के झगड़े में कई मौत हो गई। विशेषज्ञों का मानना है कि आने वाले वर्षों में पानी के संकट से जूझते लोगों के बीच हिंसा बढ़ना आम बात होगी। 

देश के पर्यावरणवादी वर्षों से पानी के खतरे को लेकर चेतावनी देते आए हैं। इस काॅलम में भी हमने बार-बार पानी के प्रबंध के सस्ते, पारंपरिक और अजमाए हुए तरीकों पर लिखा है। पर सत्ता के मद में मद-मस्त सरकारें कुछ भी सुनने को राजी नहीं हैं। सत्ताधीशों की जिंदगी राजसी ठाट-बाट से गुजरती है। देश भले ही प्यासा मर जाए पर नेताओं के घर के तो कुत्ते और कार तक ठंडे पानी के फव्वारों में नहाते हैं। भला वे क्यों परवाह करने लगे ? पर तकलीफ तो इस बात की है कि हम खुद भी कितने बेपरवाह हैं। हर शहर में एक से एक बढ़कर आधुनिक बंगले और बहुमंजिली इमारतें खड़ी होती जा रही है। अखबारों में बड़े-बड़े विज्ञापन देकर इन्हें बेचा जाता है और आरामदायक सुनहरे भविष्य के सपने दिखाए जाते हैं। बेशक ये भवन बहुत सुंदर और कलात्मक होते हैं पर पानी का संकट इन्हें भी झेलना पड़ता है। शुरू-शुरू में ऐसी नई काॅलोनियों या इमारतों में कम ही लोग रहने जाते हैं इसलिए पानी बहुतायत से मिलता है। इस तरह उनमें बसने गए लोग ये सोचकर आश्वस्त हो जाते हैं कि यहां तो पानी की कोई कमी नहीं है। वे अपने मित्रों और रिश्तेदारों को भी प्रेरित करते हैं कि वे भी नए इलाकों में आकर बस जाएं। पर कुछ ही वर्षों में जब ये इमारतें और पाॅश कालोनियां पूरी तरह भर जाती हैं तो यहां पानी की किल्लत शुरू हो जाती है। तब लोग इन्हें छोड़-छोड़ कर भागते हैं। इतिहास साक्षी है कि पानी की कमी से बड़ी-बड़ी राजधानियां तक उजड़ गई। पर हम इतने मूर्ख है कि अपने घर या फ्लैट के बाॅथरूम में नहाने का टब जरूर लगवाते हैं। चाहे उसे भरने के लिए पानी हो या न हो। बड़े शहरों का कोई भी मध्यमवर्गीय घर ऐसा नहीं होगा जिसने बाॅथ टब न लगवाए हों या उन्हें लगाने का हसरत न रखता हो। इसी तरह कोई सरकारी इमारत न होगी जिसके आरकीटैक्ट ने उसमें फव्वारे या सरोवर का इंतजाम न किया हो। पर पानी की कमी से इन इमारतों के सरोवर सूखे पड़े रहते हैं और उनमें कूड़े का ढेर जमा होता रहता है। फिर भी यह मूर्खतापूर्ण कार्यवाही बार-बार की जाती है। 
पानी का संकट बढ़ाने में जिस चीज ने सबसे ज्यादा भूमिका अदा की है वो हैं पानी के पंप। इन्हें चाहे जहां बोरिंग करके लगा दिया जाता है और फिर बिजली का बटन दबाते ही असीमित जल जमा हो जाता है। जिसका हम लोग बेदर्दी से इस्तेमाल करते हैं। बिना ये सोचे कि जमीन के नीचे का पानी किस तरह तेजी से खत्म होता जा रहा है और जमीन अंदर ही अंदर पोली होती जाती है। गुजरात में भूकंप के दौरान तमाम बहुमंजिली इमारतें जमीन के अंधर ऐसे समा गई जैसे सीता माता पृथ्वी में समा गई थीं। पिछले दिनों दिल्ली-जयपुर हाइवे के पास बनी एक व्यावसायिक इमारत भी अचानक दो मंजिल तक जमीन में धस गई। दिल्ली के ही सबसे पाॅश इलाके मेहरौली फार्म हाउस इलाके में भूजल स्तर इतना नीचे चला गया है कि बोरिंग के बाद कम से कम 300 फुट नीचे जाकर पानी मिलता है। ये वो इलाका है जहां देश के अनेक मशहूर लोग और विपक्ष की नेता श्रीमती सोनिया गांधी तक के फार्म हाउस हैं। जब वीवीआईपी इलाके का ये हाल है तो सामान्य लोगों का क्या हाल होगा। पानी के संकट पर और अधिक लिखने की जरूरत नहीं है। सवाल है कि इस संकट का हल क्या है ?
वही पुरानी बात फिर काम आएगी। हर शहर और कस्बे में ज्यादा से ज्यादा तालाब खोदे जाएं। पुराने तालाबों की गाद साफ करके  उनके नए स्रोत खोदे जाए और उनका जीर्णोद्धार किया जाए। बरसात के पानी को हर घर में रीचार्ज करने की व्यवस्था की जाए। बोर-वैल लगाने पर सख्त पाबंदी की जाए। भारी मात्रा में वृक्षारोपण किया जाए और वनों की कटाई पर पूर्ण प्रतिबंध लगाए जाए। अपने नजरिए में बदलाव किया जाए और अपनी जीवनशैली ऐसी बनाई जाए जिसमें पानी की बर्बादी कम से कम हो। इस सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण है कि स्वच्छ जल स्रोतों को प्रदूषण से बचाना। सरकार के निकम्मे और भ्रष्ट अफसरों के चलते ज्यादातार उद्योगपति अपने कचरे से जल को प्रदूषित करने में लगे हैं। उन पर लगाम कसी जाए और जल को प्रदूषण करना, मनुष्य की हत्या करने जैसा संगीन अपराध बनाया जाए, जिसके लिए जेल में कैद किया जाना अनिवार्य सजा हो। दरअसल, पानी की कमी नहीं है। वर्षा अगर ठीक समय पर पूरी मात्रा में हो तो भारत के किसी भी कोने में पानी की कमी नहीं रहेगी। क्योंकि इन्द्र देवता जितना जल भारत के भूभाग पर बरसाते हैं उसका 10 फीसदी भी हम संचय नहीं कर पाते। 90 फीसदी जल नदी-नालों के रास्ते समुद्र में जाकर खारा हो जाता है। जल संकट से निपटने के समाधान सरकार के पास है। पर उनको लागू करने में किसी की रूचि नहीं है। क्यांेकि जितने बडंे बांध, जितनी बड़ी जल परियोजनाएं बनती है, उतना ही सत्ताधीशों का कमीशन भी बढ़ता है इसलिए पिछले 50 वर्ष में जल प्रबंधन पर किए गए खर्च का मामूली हिस्सा भी जल प्रबंध के पारंपरिक तरीकों पर खर्च नहीं किया गया। किया जाता तो आज ये नौबत न आती। पर उस तरीके के विकास माॅडल में कमीशन खाने की गुंजाइश नहीं बचती।
सरकार किसी भी दल की क्यों न हो उसे अपनी कुर्सी बचाने और आपसी झगड़े निपटाने से ही फुर्सत नहीं मिलती। इसलिए यह जिम्मेदारी तो हम सब की है कि अपने-अपने गांव, शहर और कस्बे में जल प्रबंधन दलों का गठन करें और सक्रिय रह कर इन संगठनों के माध्यम से अपने इलाके के जल स्रोतों को बचाएं। वो सब कदम उठाए जिससे जमीन के भीतर पानी का स्तर क्रमशः बढ़ता जाए। अगर हम अब भी न जगे तो वह दिन दूर नहीं जब हमारे खूबसूरत बाथरूम सूखे नाकारा और खाली पड़े होंगे। पूरे परिवार के लिए एक बाल्टी पानी भी हासिल करना असंभव हो जाएगा। 

Friday, April 18, 2003

बसपा और सपा में महाभारत


गली-मोहल्ले के नुक्कड़ के नल पर पानी के लिए लड़ने वाली दो महिलाओं के बीच जैसी तकरार होती है और जिस भाषा का एक-दूसरे के लिए प्रयोग होता है आज उत्तर प्रदेश की राजनीति उसी स्तर पर पहुंच गई है। एक तरफ सुश्री मायावती करोड़ों रूपया खर्च करके बसपा की पर्दाफाश रैली करती हैं तो दूसरी तरफ सपा उनके खिलाफ वीसीडी जारी करके उनका पर्दाफाश करती है। बहनजी कहती हैं कि, ‘मुलायम सिंह यादव की बाकी जिंदगी  जेल में गुजरेगी।जबकि श्री मुलायम सिंह यादव कहते हैं कि, ‘हिम्मत है तो गिरफ्तार करके दिखाओ।‘ 

जहां तक एक-दूसरे के ऊपर भ्रष्टाचार के आरोप लगाने का सवाल है तो इसमें कुछ नया नहीं। उत्तर प्रदेश की जनता पिछले एक दशक से लगातार उत्तर प्रदेश की राजनीति के निरंतर पतन की साक्षी है। अब उत्तर प्रदेश में राजनीति नहीं होती खुलेआम गुंडागर्दी होती है। जातिवाद का नंगा नाच होता है और जनता के पैसे की बेहयायी से बर्बादी होती है। एक अच्छे विकल्प के अभाव में उत्तर प्रदेश  की राजनीति उस स्तर पर जा पहुंची है जिस पर चल कर बिहार की आज यह दशा बनी है। यही हाल रहा तो उत्तर प्रदेश को बिहार बनने में लंबा समय नहीं लगेगा। 

उत्तर प्रदेश की जनता बेहाल है। बिजली आपूर्ति की हालत खस्ता है। वह बेहाल है, सड़कों के खस्ता हाल से। उत्तर प्रदेश के कस्बों और गांवों के लाखों नौजवान बेरोजगारी की मार झेल रहे हैं। बसपा या सपा के नेताओं को उनके लिए रोजगार मुहैया कराने की कोई चिंता नहीं है।
प्रदेश का आर्थिक विकास ठप्प पड़ा है। न तो नए उद्योग लग रहे हैं और न ही प्रदेश का आधारभूत ढांचा विकसित ही हो रहा है। एक तरफ उत्तर प्रदेश की सरकार कर्जें लेकर वेतन बांट रही है और दूसरी ओर बहनजी सैकड़ों करोड़ रूपया खर्च करके अम्बेडकर पार्क बनवा रही हैं। अब तो उन्होंने श्री कांशीराम के जीतेजी उनकी आदमकद प्रतिमा लगा कर उनका भी स्मारक बनवाने की घोषणा भी कर दी है। शायद बहनजी ने पिछले हफ्ते बगदाद में सद्दाम हुसैन की आदमकद प्रतीमाओं की बेकद्री और दुर्दशा की टीवी रिपोर्ट नहीं देखी। कल तक जो प्रतिमाएं शान से सीना तान कर खड़ीं थीं वह देखते ही देखते धराशाही हो गईं। लोगों ने उन्हें जूतांे से पीटा और लघु-शंका से उनका अभिषेक किया। रूस में लेनिन की प्रतिमाओं के साथ भी यही हुआ था। आजादी मिलने से पहले भारत के तमाम बड़े शहरों में अंग्रेज हुक्मरानों की प्रतिमाएं लगी थीं और उनके चारों ओर खूबसूरत पार्क बनाए गए थे। पर अंग्रेजों के सत्ता से हटते ही इन प्रतिमाओं को बड़ी बेकद्री के साथ हटा दिया गया। चाहे वह इंडिया गेट के सामने वाली छोटी छतरी में लगी इंग्लैंड के महाराजा की मूर्ति हो या लखनऊ में लगी मलिका विक्टोरिया की। रानी विक्टोरियों की यह भव्य मूर्ति वर्षों बनारसी बाग के अजायब घर में बने संग्रहालय के पिछवाड़े कूड़े के ढेर के बीच में पड़ी रही थी।  

आज से 40 वर्ष पहले हम जब छोटे बच्चे थे, बड़ी उत्सुकता से इस मूर्ति को देखते और आश्चर्य करते थे कि महारानी की मूर्ति कूड़े के ढेर में कैसे पहुंच गई ? आज तो हर बच्चा जानता है कि ज्यादातर राजनेता अपने लिए जी रहे हैं, न समाज के लिए और न राष्ट्र के लिए। ऐसे माहौल में जब राजनेताओं को जनता का विश्वास और प्रेम जीतना जरूरी हो तो अपनी मूर्तियां लगवा कर कोई भी राजनेता केवल अपनी मूर्खता का ही परिचय देगा। जिस प्रदेश में राजनैतिक अस्थिरता की तलवार हमेशा लटकी रहती हो वहां क्या यह संभव नहीं कि विरोधी दल सत्ता में आते ही ऐसी मूर्ति को मलिका विक्टोरिया की मूर्ति के साथ ही किसी कूड़ेदान में फिंकवा दें ? फिर जनता के पैसे की ऐसी बर्बादी क्यों?

जहां तक श्री मोतीलाल वोरा व श्री मुलायम सिंह यादव पर विवेकाधीन कोटे के धन के दुरूपयोग का मामला है तो यह एक अहम सवाल है और मायावती जी का खुलासा करना कोई गलत बात नहीं है। आखिर इस कोटे से धन किन्हें और किस मकसद से दिया गया यह साफ होना चाहिए। पर क्या ये कोई नई बात है ? पेट्रोल पंपों का आवंटन हो या सरकारी भूमि और संपत्ति का लीज पर दिया जाना, राजनेताओं के विवेकाधीन कोटे के नाम पर प्रायः खुलेआम अनैतिक रूप से होता है। सुपात्रों को छोड़ कर चारणों, भाटों और दलालों को रेवडि़यां बांटी जाती हैं। अगर बहन जी भी इस बात से सहमत हैं तो श्री यादव के पीछे पड़ने से बेहतर होगा कि वे अपने सहयोगी दल और केन्द्र में सत्तारूढ़ भाजपा के शिखर नेतृत्व से कहें कि विवेकाधीन कोटे को पूरी तरह समाप्त कर दिया जाए और जनता के पैसे के प्रयोग की व्यवस्था को  पूरी पारदर्शिता के साथ चलाया जाए ताकि शक और भ्रष्टाचार की कोई गुंजाइश ही न रहे। पर बहनजी ऐसा नहीं करेंगी। क्योंकि उनके दल सहित सभी दलों के सांसदों ने ऐसे सभी कानूनों का लगातार विरोध किया है जिनसे ऐसी पारदर्शिता स्थापित हो सके। चाहे वह राजनीति के अपराधिकरण का मामला हो या सीवीसी या सीबीआई को उच्च पदों पर बैठे लोगों के भ्रष्टाचार को जांचने की स्वायत्तता देने की बात हो। जब श्री अमरसिंह ने मायावती के विरूद्ध वीसीडी जारी की थी और उन पर विधायक और सांसद निधि से कमीशन मांगने का सीधा आरोप लगाया था तब भी हमने यही लिखा था कि इसमें नई बात क्या है ? इस निधि का इस्तेमाल कैसे होता है इसके लिए कहीं दूर जाने की जरूरत नहीं है। जहां यह खर्च की जाती है वहां जाकर देखा जाए कि कितना धन लगा और उससे क्या बन कर तैयार हुआ, तो सब साफ हो जाएगा।

दुर्भाग्य की बात है कि उत्तर प्रदेश की राजनीति बुनियादी सवालों से हट कर कीचड़ उछालने तक सीमित रह गई है। ये दूसरी बात है कि इस कीचड़ उछालने का मकसद प्रदेश की राजनीति से भ्रष्टाचार दूर करना नहीं बल्कि कुर्सी हथियाना या कुर्सी से चिपके रहना ही है। इसलिए जनता निर्लिप्त भाव से सब कुछ देखती रहती है। उस पर इस नौटंकी का कोई असर नहीं पड़ता। दरअसल आर्थिक रूप से पिछड़े राज्यों की साधारण जनता इसलिए किसी दल का साथ देती है कि मिलना तो हमें कुछ है नहीं क्यों न अपनी जाति के नेता का ही साथ दिया जाए। इस मानसिकता के पीछे जातिगत अहंकार की तुष्टि होती है। यही वजह है कि सब कुछ जानने के बावजूद जनता अक्सर भ्रष्ट राजनेताओं को भी चुनकर भेज देती है। जिन दिनों  बिहार में चारा घोटाले का शोर मचता था उन दिनों बिहार के यादव कहा करते थे कि क्या हुआ जो लालू ने चारे का पैसा खा लिया। इससे पहले ठाकुर और ब्राह्मण मुख्यमंत्री  पैसा खाते रहे तब तो कोई नहीं बोला, अब हमारा यादव भाई अगर पैसा खा रहा है तो ये लोग शोर क्यों मचाते हैं? ऐसी मूर्ख मानसिकता के व जाति अभिमान से ग्रस्त अल्पदृष्टि वाले लोग ही मायावती या श्री मुलायम सिंह की बयानबाजियों से प्रभावित हो सकते हैं। उत्तर प्रदेश की शेष जनता नहीं।

हमारे लोकतंत्र का दुर्भाग्य ये है कि विपक्ष अपनी भूमिका से विमुख हो चुका है। विपक्ष की जिम्मेदारी होती है कि सत्तारूढ़ दल की जनविरोधी गतिविधियों का पर्दाफाश करे और सत्तारूढ़ दल पर हमेशा नैतिक दबाव बनाए रखे। पर दुर्भाग्य से आज हमारे लोकतंत्र की यह स्थिति हो गई है कि विपक्ष में रहने वाले दल अपनी सार्थक भूमिका से हट गए हैं। वे बुनियादी सवाल इसलिए नहीं उठाना चाहते कि जो काम आज सत्तारूढ़ दल कर रहा है वही काम कल तक वे करते थे और फिर सत्ता मे आएंगे तो वही करेंगे। इसलिए सभी दल अपने विरोधियों के विरूद्ध शोर मचाने का नाटक करते हैं पर ऐसा कुछ भी नहीं करते जिससे राजनैतिक पतन को रोका जा सके और व्यवस्था में बुनियादी बदलाव आ सके। बसपा और सपा के महाभारत को इसी परिप्रेक्ष्य में देखने की जरूरत है।