जैसे-जैसे दुनिया के बाजार का एकीकरण होता जा रहा है वैसे-वैसे सेवाओं और उत्पादनों की गुणवत्ता निर्धारित करने के अंतर्राष्ट्रीय मानक भी स्थापित होते जा रहे हैं। यह जरूरी है ताकि उपभोक्ता को इस बात की गारंटी हो कि दुनिया के एक हिस्से मेें बैठकर दूसरे हिस्से से जो वस्तु या सेवा वह खरीद रहा है, वह सही है और उसके साथ कोई धोखा नहीं हो रहा है। इस तरह के मानक देने वाली एक अंतर्राष्ट्रीय संस्था आईएसओ है। जिसका मुख्यालय स्वीट्जरलैंड के शहर जिनेवा में है। दुनिया के सभी देश आईएसओ के सदस्य हैं। ज्यादातर देशों में राष्ट्रीय स्तर पर एक एक्रेडिटेशन काउंसिल होती है जो आईएसओ का प्रमाण पत्र देने वाली स्थानीय इकाइयों (सर्टिफाइंग बाॅडिज) को मान्यता देती है। एक्रेडिटेशन काउंसिल का फर्ज है कि वो हर साल सर्टिफाइंग बाॅडिज के काम की जांच करे और यह सुनिश्चित करे कि ये सर्टिफाइंग बाॅडिज अंतर्राष्ट्रीय मानकों के तहत ही काम कर रही हैं और जिन कंपनियों को ये प्रमाण पत्र प्रदान कर रहीं हैं वे वाकई इसके लायक हैं और सभी निर्धारित मापदंडों का पालन कर रही हैं। चिंता की बात ये है कि भारत में ऐसा नहीं हो रहा है।
इस पूरी प्रक्रिया में काफी धांधली हो रही है। धांधली की शुरूआत वाणिज्य मंत्रालय से ही होती है। कायदे से भारत सरकार के वाणिज्य मंत्रालय को चाहिए था कि वो एक्रेडिटेशन काउंसिल व सर्टिफाइंग बाॅडिज की कार्य प्रणाली पर नियंत्रण रखे। पर हाल ही में वाणिज्य मंत्री श्री राजीव प्रताप रूड़ी ने संसद में एक प्रश्न के उत्तर में कि, ‘‘आइएसओ 9000 और आईएसओ 14001 प्रमाण पत्र प्रदान करने वाले इन अभिकरणों पर सरकार द्वारा निगरानी नहीं रखी जा रही है क्योंकि प्रमाणन की प्रक्रिया स्वैच्छिक है न कि अनिवार्य।’’ जबकि दूसरी ओर सरकार के ही अनेक मंत्रालय अपनी संस्थाओं और सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों को आईएसओ 9001/14001 लेने का आदेश दे रहे हैं। इतना ही नहीं सरकार जो निविदाएं आमंत्रित करती है उसमें यह सर्टिफिकेट अनिर्वाय रूप से मांगा जा रहा है। 7 अप्रैल 2003 को संसद में दिए गए इस उत्तर में ही वाणिज्य मंत्री श्री रूड़ी ने यह भी स्वीकार किया कि इस तरह की व्यवस्था से आइएसओ सर्टिफिकेट की विश्वसनीयता पर प्रश्नचिंह लग जाता है।
सरकारी धांधली इतने पर ही खत्म नहीं होती। सरकार लघु उद्योगों को आईएसओ सर्टिफिकेट लेने के लिए प्रोत्साहित करती है और उन्हें इस प्रमाण पत्र को हासिल करने में हुए खर्चे का 75 फीसदी या 75 हजार रूपए तक की वित्तीय सहायता तक मुहैया कराती है। इस मामले में भी एक्रेडिटेशन काउंसिल व सर्टिफाइंग बाॅडिज की कार्य प्रणाली पर नियंत्रण न होने के कारण देश भर में खूब धांधली चल रही है। रातो-रात बनी सर्टिफाइंग बाॅडिज 10-15 हजार रूपया लेकर लघु उद्योग मालिकों को, बिना उनकी गुणवत्ता का परीक्षण किए, प्रमाण पत्र दे देती हैं। ये लघु उद्योग मालिक सरकार से 75 हजार रूपए वसूल लेते हैं। इस तरह 1994 से आज तक 3198 लघु उद्योग इकाइयां ये सर्टिफिकेट ले चुकी हैं। जिसके बदले में अनुमान है कि वे सरकार से लगभग 24 करोड़ रूपया वसूल चुकी हैं।
वैसे सरकार ने यह योजना सद्इच्छा से चालू की थी। मकसद था अंतर्राष्ट्रीय बाजार में भारत के लघु उद्योगों को चीन, कोरिया, मलेशिया के समकक्ष खड़ा करना। पर इन धांधलियों को चलते यह मकसद पूरा नहीं हो पा रहा है। रातो-रात बनी फर्जी सर्टिफाइंग बाॅडिज और लघु उद्योग मालिकों की मिलीभगत से सरकार को चूना लग रहा है और उत्पादनों की गुणवत्ता सुधर नहीं रही है। जिसके लिए पूरी तरह भारत सरकार का वाणिज्य मंत्रालय और लघु उद्योग मंत्रालय जिम्मेदार है। जो सब कुछ जानते हुए भी कुम्भकरण की नींद सो रहा है। श्री रूड़ी का जवाब कितना विरोधाभासी है। एक तरफ तो वे मानते हैं कि सरकार का सर्टिफाइंग बाॅडिज पर कोई नियंत्रण नहीं है। और दूसरी ओर वे इनकी विश्वसनीयता को संदेहास्पद मानते हैं। यहां तक कि उन्हें ये भी नहीं मालूम की देश में ऐसी सर्टिफाइंग बाॅडिज की संख्या कितनी है । तो कोई उनसे पूछे कि मंत्री महोदय आप क्या कर रहे हैं ? अपना कारवां लुटते देख रहे हैं।
इस संदर्भ में एक रोचक तथ्य यह भी है कि भारत सरकार की अपनी एजेंसियां भी किस तरह इस धांधली को होने दे रही है। इस तरह की एक सरकारी एजेंसी क्वालिटी काउंसिल आफ इंडिया एक भारतीय एक्रेडिटेशन काउंसिल है। इसका काम सर्टिफाइंग बाॅडिज को मान्यता देना है। इस पूरे घोटाले को लेकर चिंतित और सक्रिय प्रोफेशनल कैप्टन नवीन सिंहल ने जब इसके सेक्रेट्री जनरल से मार्च 2000 में इस पूरी धांधली की शिकायत की तो उन्होंने यह कह कर पल्ला झाड़ लिया कि उनकी संस्था का इस मामले से कुछ लेना-देना नहीं है। हमारा काम पुलिस की तरह तहकीकात करना नहीं है। यह एक हास्यादपद जवाब था। क्योंकि एक सरकारी मानक संस्था के वरिष्ठ अधिकारी होने के नाते उनकी नैतिक जिम्मेदारी थी कि इस मामले की सूचना सरकार को देते और उन्हें सलाह देंने कि इस धांधली से कैसे निपटा जाए। पर वे खामोश रहे। पर कैप्टन सिंहल खामोश नहीं बैठ सके। उन्होंने क्वालिटी काउंसिल आफ इंडिया के सेक्रेट्री जनरल श्री मेहदीरत्ता सहित कई अंतर्राष्ट्रीय संस्थाओं को एक प्रश्नावली भेजी। जिसमें उन्होंने इस सारे मामले को उठाते हुए इस समस्या से निपटने के सुझाव मांगे। इस प्रश्नावली के उत्तर में नाॅर्वे की एक मानक संस्था डीएनवी के क्षेत्रीय अध्यक्ष ने कहा कि क्वालिटी काउंसिल आफ इंडिया के सेक्रेट्री जनरल ही इस समस्या से निपटने के लिए सही व्यक्ति हैं। इसलिए उन्होंने भी यह प्रश्नावली श्री मेहदीरत्ता को भेज दी। पर जब संसद में वाणिज्य मंत्री श्री अरूण जेटली से यह प्रश्न पूछा गया कि इस मामले में क्वालिटी काउंसिल आफ इंडिया के सेक्रेट्री जनरल श्री मेहदीरत्ता को क्या कोई प्रश्नावली समय रहते, आगाह करते हुए, भेजी गई थी या नहीं तो आश्चर्य की बात है कि श्री जेटली ने संसद में उत्तर दिया कि ऐसी कोई प्रश्नावली श्री मेहदीरत्ता को नहीं भेजी गई।
कहते हैं, ‘बीती ताहि बिसार दे, आगे की सुधि ले। जो बनी आवे सहज में, ताहि में चित दे।’ जो हो गया सो गया अब भी सुधरने का वक्त है। अगर वाणिज्य मंत्रालय चाहे तो इस धांधली को रोक सकता है। सबसे पहले तो वाणिज्य मंत्रालय को उन सर्टिफाइंग बाॅडिज का चयन करना चाहिए जो एक्रेडिटेड हैं और जिनका हर साल एक्रेडिटेशन काउंसिल से आॅडिट होता है।
दूसरा काम ये करना चाहिए कि जितनी भी सरकारी और गैर सरकारी संस्थाओं ने आईएसओ सर्टिफिकेट ले रखा है उन सबकों सरकारी नोटिस भेज कर एक निर्धारित समय के भीतर अपने सर्टिफिकेशन के समर्थन में यह प्रमाण भेजना अनिवार्य हो कि उनकी सर्टिफाइंग बाॅडिज अपने भारतीय कामकाज के लिए एक्रेडिटेड है या नहीं है। अगर है तो प्रमाण दें और नहीं है तो निर्धारित समय के अंदर इसे उस सर्टिफाइंग बाॅडिज से प्राप्त कर लें जिन्हें सरकार ने मान्यता दी है। इस तरह फर्जी सर्टिफिकेट लेकर घूमने वाले खुद ही बेनकाब हो जाएंगे।
इसके साथ ही जो सबसे जरूरी काम है वो ये कि सरकार एक स्वायत्त संस्था का गठन करे जिसकी जिम्मेदारी हो इस सब सर्टिफाइंग बाॅडिज पर निगाह रखना और उनके खिलाफ दंडात्मक कार्यवाही करना। जब तक सरकार ये करे तब तक कुछ उत्साही लोगों ने मिलकर जनहित में एक गैर मुनाफे वाली स्वयंसेवी संस्था ेंअमपेव/तमकपििउंपसण्बवउ का गठन कर लिया हैं। जो ऐसे सभी मामलों में शिकायतों की जांच करने का काम कर रही हैं। पर असली जिम्मेदारी तो सरकार की है। वाणिज्य मंत्री पलायनवादी उत्तर देकर अपनी जिम्मेदारी से बच नहीं सकते। एक तरफ तो हम भारत को अंतर्राष्ट्रीय आर्थिक शक्ति बनाना चाहते हैं और दूसरी तरफ हमें अपनी गुणवत्ता में हो रही धांधलियों की भी चिंता नहीं है। यह चलने वाली बात नहीं है। अगर सरकार अब भी नहीं जागी तो भारत के उद्योगों को अंतर्राष्ट्रीय बाजार में काली सूची में डाल दिया जाएगा। क्योंकि इनके आईएसओ प्रमाण पत्रों की विश्वसनीयता संदेहास्पद होगी।