उत्तर प्रदेष के मतदाताओं की मनःस्थिति पंजाब और उत्तराखंड के मतदाताओं से भिन्न नहीं थी। वहां भी कांग्रेस भारी मतों से जीत सकती थी, बषर्तें उसने दीवार पर लिखी इबारत को समय रहते पढ़ा होता। उ.प्र. में पिछले पांच सालों के भाजपा कुषासन से जनता त्रस्त थी। इन पांच सालों में भाजपा ने तीन बार तो मुख्यमंत्री बदले और पूरे समय कलराज मिश्र जैसे उसके नेता अपने ही मुख्यमंत्रियों की जड़ें खोदते रहे। संघ के प्रचारक अपने आदर्षों और उद्देष्यों को भूल कर सत्ता के मोहजाल में फंस गए और जनता से उनका संवाद समाप्त हो गया। इसका सबसे बड़ा प्रमाण यह है कि पारंपरिक रूप से भाजपा का गढ़ माने जाने वाले मथुरा से भाजपा का पूरी तरह सफाया हो गया। हिंदू धर्म के संरक्षण और संवद्धन के जिन घोशित उद्देष्यों को लेकर भाजपा की उन्नति हुई थी उन्हें उसने पूरी तरह भुला दिया। राम मंदिर निर्माण का नारा महज एक चुनावी स्टंट बन कर रह गया। केंद्र में राजग सरकार की सीमाओं में चलते अगर भाजपा के लिए धर्म संबंधी मामलों में कड़े तेवर अपनाना राजनैतिक रूप से व्यवहारिक और संभव नहीं था तो भी ऐसा बहुत कुछ था जो भाजपा के उ.प्र. में पारंपरिक वोट बैंक को संतुश्ट करने के लिए किया जा सकता था। मसलन, तीर्थ स्थलों की देखभाल और साजसंवार को सुव्यवस्थित करना। पर ऐसा करने की बजाए भाजपा के छुटभैए से लेकर केंद्रिय नेता तक लालबत्ती की गाडि़यों में साॅयरन बजाते हुए तीर्थ स्थलों पर अपने लाव-लष्कर के साथ दर्षनों को आते रहे और वहां मौजूद आम दर्षनार्थियों की दिक्कते बढ़ाते रहे। इससे उनके प्रति जनता के मन में आक्रोष बढ़ा। जनता को लगा कि ये मंदिर भी आते है तो केवल अपने सत्ता सुख और संपत्ति की वष्द्धि की कामना लेकर। धर्म की सेवा करने का इनका कोई एजेंडा नहीं है।
धर्म की बात छोड़ भी दे तो प्रषासनिक स्तर पर भी उ.प्र.में भाजपा की सरकार पूरी तरह नाकारा साबित हुई। जनता को लगा ही नहीं कि इस सरकार में उसकी भी सुनी जाती है। बिजली, सड़क और पानी की आपूर्ति का आधारभूत ढांचा भाजपा के षासन में बुरी तरह चरमरा कर टूट गया। भय, भूख और भ्रश्टाचार से मुक्ति दिलाने का वायदा करके सत्ता में आई भाजपा के हर स्तर के नेताओं ने उ.प्र. में भ्रश्टाचार के नए कीर्तिमान स्थापित किए। पारंपरिक रूप से भाजपा को अपने हितों का संरक्षक मानने वाला प्रदेष का व्यापारी वर्ग भाजपा नेताओं के भ्रश्ट आचरण और अहंकार से न सिर्फ आहत हुआ बल्कि यह कहते सुना गया कि इनसे तो कांग्रेसी ही कहीं अच्छे थे जो बात भी सुनते थे और काम भी कर देते थे।
पिछले दो वर्शों से कमोबेष यही विचार पूरे प्रदेष की जनता का था। हर जगह यही बात होती थी कि षासन चलाना तो सिर्फ कांग्रेस को आता है। पर उ.प्र. के मतदाताओं की मजबूरी ये थी कि कांग्रेस ने उनकी इस नब्ज को नहीं पकड़ा। न तो कांग्रेस ने सजग विपक्ष की ही भूमिका निभाई और न ही प्रदेष में कोई प्रभावषाली नेतृत्व ही दे पाई। कांग्रेस को चाहिए था कि वह इन वर्शों में पूरे प्रदेष के स्तर पर भाजपा के कुषासन के विरूद्ध लगातार जनांदोलन चलाती रहती। इससे एक तो उसका संगठन मजबूत होता और दूसरा जनता के बीच यह संदेष जाता कि कांग्रेस ही प्रदेष को जिम्मेदार सरकार दे सकती है। पर ऐसा कुछ भी नहीं हुआ। कांग्रेस के वरिश्ठ नेता इन वर्शों में उ.प्र. की आम जनता से कटे रहे। नतीजतन जिले स्तर का कार्यकर्ता दिषाहीन हो गया। पूरी पार्टी में हताषा और ऊर्जाहीनता व्याप्त रहीं। पता नहीं किंन लोगों ने हाईकमान को सलाह दी जो वे प्रदेष के एक सषक्त नेता नहीं दे पाई। अगर किसी जुझारू, ओजस्वी, पारदर्षी व ऊर्जावान नए चेहरे को प्रदेष का नेतृत्व दिया जाता तो उ.प्र. में मृतप्राय पड़ी इंका को पुर्नजीवित किया जा सकता था। यदि ऐसा होता तो कोई वजह नहीं है कि इन हालातों में उ.प्र. की विधानसभा के चुनावों के नतीजे भी पंजाब और उत्तरांचल की तर्ज पर ही इंका के पक्ष में आते।
सपा के जुझारू नेता मुलायम सिंह यादव ने इस कमी को कुछ हद तक पूरा किया। पिछले वर्शों में उन्होंने पूरे प्रदेष में काफी भागदौड़ की और लगातार किसी न किसी रूप में अपने दल की उपस्थिति का अहसास कराया। हालांकि संगठन के स्तर पर उनका दल भी कुछ सुधर नहीं सका। उधर सपा के षिखर नेतष्त्व पर कुछ लोगों के हावी होने व दल के दूसरे नेताओं की उपेक्षा करने के आरोप लगते रहे और कुछ विवाद भी खड़े हुए। पर भाजपा से जनता की नाराजगी इतनी ज्यादा थी कि जहां भी उसे ठीक लगा उसने सपा का साथ दिया। बावजूद इसके में अच्छे नेताओं और प्रभवषाली चेहरों की कमी के कारण सपा जनता का पूर्ण विष्वास नहीं जीत सकी और उसे खंडित जनादेष मिला। अब उसकी स्थिति भी सांप, छछुंदर वाली होगी। जोड़तोड़ से अगर उसकी सरकार बन जाती है तो यह जरूरी नहीं कि वह उ.प्र. की खस्ता हाल अर्थव्यवस्था को आसानी से सुधार सके। जिसे सुधारे बिना जनता में पैठ बनाना संभव न होगा। साफ छवि के योग्य लोगों की कमी के कारण उसकी सरकार के मंत्रियों का आचरण भाजपा से भिन्न होगा, ऐसा मानने का कोई आधार नहीं है। इसलिए अगर मुलायम सिंह यादव सरकार बनाने में कामयाब हो जाते हैं तो उन्हें दुधारू तलवार पर चलना होगा। एक तरफ दल से जुड़े लोगों के स्वार्थ और दूसरी ओर प्रदेष की जनता को संतुश्ट करने की चुनौती उनके सामने होगी। दूसरी तरफ अगर भाजपा पर्दे के पीछे कुछ खेल खेलकर सपा को सत्ता को बाहर रखने में कामयाब हो जाती है तो भी उसे इसका कोई राजनैतिक लाभ नहीं मिलेगा। क्योंकि जब उसकी पिछली सरकार ही कुछ नहीं कर पाई तो मौजूदा हालात में बनाई जाने वाली लूली-लंगड़ी सरकार क्या कर पाएगी ? इससे तो उसका रहा-सहा आधार भी टूटेगा।
उ.प्र. में किसकी सरकार बने यह प्रक्रिया चल ही रही है। पर अब सबकी निगाहें सन् 2004 के लोकसभा चुनावों पर है। जिनमें केंद्र की नई सरकार का स्वरूप निर्धारित होगा। आज पूरे देष में माना जा रहा है कि आगामी लोकसभा चुनाव में कांग्रेस को भारी विजय मिलने की संभावना है। केंद्र में उसकी सरकार बने इसके लिए उसे उ.प्र. में अपनी स्थिति को बेहद मजबूत करना होगा। इसलिए अब इंका हाईकमान के सामने तस्वीर बिलकुल साफ है। या तो उ.प्र. इंका में आमूलचूल परिवर्तन कर उसे नए कलेवर और तेवर में पेष करे या फिर उसे इसी तरह रामभरोसे छोड़कर बैठी रहे। राजस्थान में इंका मुख्यमंत्री अषोक गहलोत के क्रांतिकारी कदमों को मिल रहे जनसमर्थन ने यह सिद्ध कर दिया है कि कांग्रेस में खुद को समय के अनुसार सुधारने और संवारने की क्षमता मौजूद है। इंका षासित प्रदेषों में जिस तरह सोनिया गांधी ने नए और युवा चेहरों को वरियता देकर खुली छूट दी है उसकेे ठोस परिणाम उनके सामने आ रहे है। इसलिए इसे मानने के पर्याप्त आधार हैं कि उ.प्र. में भी इंका पुनःजीवित हो सकती है। बषर्ते वहां संगठन और उसके नेतृत्व पर ध्यान दिया जाए। इंका आलाकमान को उ.प्र. में कुछ क्रांतिकारी कदम उठाने होंगे। जिससे प्रदेष में संगठन स्तर पर नए रक्त का संचार हो और नए विचारों से युक्त ऊर्जावान नया नेतृत्व उ.प्र. की इंका को नई दिषा दे।
आर्थिक मंदी, बेराजगारी और भ्रश्टाचार से त्रस्त भारत की जनता राजनीति की नई संस्कष्ति की अपेक्षा रखती है। जैसे तैसे, चुनावी हथकंडे अपना कर चुनाव जीतने और सत्ता सुख भोगने के पुराने ढर्रे से हर राजनैतिक दल को निकलना होगा वर्ना देष अराजकता और जन आक्रोष की ओर बढ़ता जाएगा। जिसका फायदा आतंकवादी मानसिकता के लोग उठाएंगे, जिससे और अस्थिरता ही फैलेगी। देष के मौजूदा हालात में भी राजनीति की नई संस्कष्ति अपनाना संभव है यह राजस्थान के मुख्यमंत्री ने कर दिखाया है। तमाम सीमाओं के बावजूद उन्होंने जिस किस्म की अनुषासित, जनोन्मुख और पारदर्षी सरकार दी है उससे यह विष्वास दष्ढ़ होता है कि दलों के नेता अगर माफियाओं, दलालों और चाटुकारों की चैकड़ी से निकल कर योग्य और समर्पित युवाओं को अपने दलों का नेतष्त्व सौंपे तो जनता उनके परचम तले आ खड़ी होगी।
आज देष की जनता मंडल और कमंडल की स्वार्थी राजनीति को खूब समझ गई है। यह सही है कि देष का लोकतंत्र निहित स्वार्थों की साजिष के चलते जातिवाद में फंसता जा रहा है। पर यह कोई ऐसी स्थिति नहीं जिससे उबरा न जा सके। अगर इंका जैसा राश्ट्रीय स्तर का बड़ा दल अपने तौर-तरीके में बुनियादी बदलाव लाता है तो जनता के बीच इसका सही संदेष जाएगा। यह रोचक और आष्चर्यजनक बात है कि राजनीति के, आज क,े पतनषील दौर में अपनी तमाम ऐतिहासिक भूलों के बावजूद इंका ने ही समय की इस मांग को पहचाना है और कुछ नया कर दिखाने का बीड़ा उठाया है। हालांकि अभी तो इसकी षुरूआत ही हुई है और मंजिल बहुत दूर है। पर आगाज से अंजाम का पता चलने लगा है। इसलिए यह माना जाना चाहिए कि उ.प्र. के विधानसभा के चुनावों में मिले नतीजों से इंका नेतृत्व कुछ सोचने समझने पर मजबूर होगा। कुछ ऐसा करेगा जिससे दल तो मजबूत हो ही जनता को भी राहत मिले। वैसे हर चुनाव के नतीजों के बाद यह बात हर दल पर लागू होती है कि वह आत्मावलोकन करे। नामचारे को सभी दल ऐसा करते भी है पर रहते हैं वहीं ढाक के तीन पात। अगली लोकसभा के चुनाव में अगर इंका सत्ता की प्रमुख बनना चाहती है तो उसे उ.प्र. के चुनावों के परिणामों को ज्यादा गंभीरता से लेेना होगा। जहां तक उ.प्र. की नई सरकार की बात है, ऐसा नहीं लगता कि बैसाखियों पर चलने वाली कोई भी सरकार जनता की आकांक्षाओं पर खरी उतर पाएगी। बाकी वक्त बताएगा।