Monday, October 7, 2019

प्रधानमंत्री के ‘जल शक्ति अभियान’ को कैसे सफल बनाये?

देश में बढ़ते जल संकट से निपटने के लिए प्रधानमंत्री जी के अति महत्वपूर्ण ‘जल शक्ति अभियान’ की शुरूआत जुलाई 2019 में की भी। जिसका उद्देश्य जल संरक्षण और सबके लिए स्वच्छ पेयजल की आपूत्र्ति करना है। ‘स्वच्छता अभियान’ व ‘प्लास्टिक मुक्त भारत’  की ही तरह यह भी एक अति महत्वपूर्णं कदम है। जिसका क्रियान्वयन करने में देश के हर नागरिक, सामाजिक कार्यकर्ता, प्रशासनिक अधिकारी और राजनेताओं को ईमानदारी और निष्ठा से सहयोग करना चाहिए। जिससे बढ़ते जल संकट से निजात पा सके। 
आजादी के बाद से आजतक यही होता आया है कि बड़ी-बड़ी योजनाऐं सद्इच्छा से और देश को आगे बढ़ाने के उद्देश्य से घोषित की जाती है। पर जैसा 1984 में तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने कहा था कि, ‘‘दिल्ली से चले 100 रूपये में से केवल 14 रूपये ही खर्च होते हैं, शेष रास्ते में भ्रष्टाचार की बलि चढ़ जाते हैं।’’ इस स्थिति में आज भी कोई अंतर नजर नहीं आ रहा। प्रधानमंत्री जी ने केंद्र सरकार के स्तर तक दलाली और भ्रष्टाचार को बिल्कुल खत्म कर दिया है। किंतु जिला और ग्रामीण स्तर पर कोई बदलाव नहीं पाया है। यह एक ऐसा नग्न सत्य है, जिसे बिना राग-द्वेष के कोई भी आम नागरिक सिद्ध कर सकता है। 
एक उदाहरण से यह बात हम ‘जल शक्ति अभियान’ के संदर्भ में देखे। जिसकी धज्जियाँ ‘ब्रज तीर्थ विकास परिषद’ के उपाध्यक्ष शैलजाकांत मिश्रा के निर्देशन में मथुरा प्रशासन खुलेआम उड़ा रहा है और आर्थिक मंदी से जूझते भारत के सीमित संसाधनों को भ्रष्टाचार की बलि चढ़ा रहा है। मथुरा के सभी अखबारों में गत 2 हफ्तों से यह खबर छप रही है कि मथुरा प्रशासन ने जिले के 1000 से ज्यादा कुंडों और सरोवरों को पिछले 3 महीने में खोदकर जल से भर दिया है। चूँकि हमारी संस्था ‘द ब्रज फाउंडेशन’ गत 17 वर्षों से ब्रज के दर्जनों पौराणिक कुंडो के जीर्णोद्धार का कार्य बिना किसी सरकारी आर्थिक मदद के निष्ठा से करती आ रही है, जिसके लिए हमें 6 बार ‘यूनेस्को’ समर्थित ‘कुंडों व सरोवरों के जीर्णोंद्धार के लिए भारत की सर्वश्रेष्ठ स्वयसेवी संस्था’ के अवाॅर्ड मिल चुके हैं। इसलिए जो लोग 1000 कुंड खोद चुकने का दावा कर रहे हैं, उनसे हम अपने कुछ अनुभवजन्य प्रश्न यहाँ पूछ रहे हैं, जिन पर योगी महाराज व मोदी जी को निष्पक्ष जाँच के आदेश देने चाहिए।
1. डिजिटल इंडिया के युग में क्या मथुरा प्रशासन ने हाल ही में खोदे गए इन 1000 कुंडों की सूची, वे किस ग्राम में स्थित हैं, खुदाई के पहले और बाद की इनकी तस्वीर और लागत की सूचना अपनी वेबसायट पर डाली है ? जिससे उस गांव के निवासी ये जान सकें कि उनके गांव का कुंड कब खुद गया और उस पर कितने दिन काम चला, कितने मजदूर लगे, कितनी ट्रैक्टर ट्रॉली लगीं, कितने अर्थमूवर्स मशीनें (जेसीबी) लगीं ? क्या इतनी जेसीबी मथुरा में एकसाथ उपलब्ध थीं ? अगर नहीं, तो कहाँ से कितने किराये पर मंगाई गईं ?
2. क्या मथुरा प्रशासन ने इसका हिसाब रखा है कि इतने बड़े खुदाई अभियान में कुंडों को कितने फुट गहरा खोदा गया ? कितने करोड़ टन मिट्टी निकली ? वो कहाँ बेची या डाली गयी ? या सैंकड़ों करोड़ रुपए की गीली मिट्टी रातों-रात हवा में उड़ गई ? हमारा हमेशा प्रयास रहा है कि हर कुंड की खुदाई इतनी गहरी की जाए कि उसके स्वाभाविक जल स्रोत खुल जाऐं। इसलिए हम औसतन 15 से 35 फुट गहरी खुदाई करते हैं। 
3. पूरे जिले के इतने बड़े खुदाई अभियान को शुरू करने से पहले क्या क्षेत्र के सभी कुंडों का व्यापक वैज्ञानिक सर्वेक्षण किया गया था ? जिससे उनके आकार, भूजल स्तर, जलसंग्रह क्षेत्र (कैचमेंट एरिया) उनमें गिरने वाले नालों को हटाने (डायवर्ट) की योजना आदि का अध्ययन किया गया ? अगर हाँ तो उसकी रिपोर्ट कहाँ है ? किस प्रफेशनल संस्था को इस काम पर लगाया गया ? कितने दिनों में उसके किन लोगों ने ये काम कब से कब तक किया ? उन्हें कितना भुगतान किया गया ? इसी से पता चल जाऐगा कि कार्य को कितनी गंभीरता से किया गया या कागजी खानापूत्र्ति की गई।
4. आदरणीय प्रधानमंत्री जी ने इस अभियान की शुरुआत जुलाई 2019 में की थी और 1000 कुंड खुद जाने का दावा प्रशासन ने सितम्बर 2019 के अंत में कर दिया । यानी तीन महीन में औसतन 14 कुंड रोजाना खोदे गए। इससे तो लगता है कि मथुरा प्रशासन ने कुंड खोदने में विश्व रिेकर्ड कायम कर दिया। वैसे हमारा अनुभव है वर्षाकाल में कुंडों की खुदाई का काम हो ही नहीं सकता। क्योंकि गीली मिट्टी पर जेसीबी मशीनें व ट्रैक्टर-ट्राॅली बार-बार फिसलती हैं, काम नहीं कर पातीं। इसके अलावा रोज-रोज बारिश होते ही खोदी गयी मिट्टी फिर से बहकर कुंड में चली जाती है। इससे सारी मेहनत और पैसा बर्बाद हो जाता है। इसलिए हम बरसात के बाद कुंड का पानी निकालकर उसे सूखने के लिए छोड़ देते हैं। फिर बरसात के 2 महीने बाद खुदाई शुरू करते हैं। इस तरह एक कुंड की खुदाई में द ब्रज फाउंडेशन की टीम को तीन साल तक लग जाते हैं। तब जाकर यह काम स्थायी होता है। आश्चर्य है कि मथुरा प्रशासन ने 3 से भी कम महीने में 1000 कुंड कैसे खोद डाले ?

Monday, September 30, 2019

बारिश की गड़बड़ी से निपटना सीखना पड़ेगा

चार महीनों का वर्षाकाल खत्म हो गया है। पूरे देश में वर्षा का औसत देखें तो कहने को इस साल अच्छी बारिश हुई है। लेकिन कहीं बाढ़ और कहीं सूखे जैसे हालात बता रहे हैं कि यह मानसून देश पर भारी पड़ा है।
मघ्य भारत अतिवर्षा की चपेट में गया। मघ्य भारत में औसत से 26 फीसद ज्यादा पानी गिरा है। उधर पूर्व उत्तरपूर्व भारत में औसत से 16 फीसद कम वर्षा हुई। ज्यादा बारिश के कारण दक्षिण प्रायद्वीप की भी गंभीर स्थिति है। वहां 17 फीसद ज्यादा वर्षा दर्ज हुई है। सिर्फ उत्तर पश्चिम भारत में हुई बारिश को ही सामान्य कहा जा सकता है। हालांकि वहां भी 7 फीसद कम पानी गिरा है। कुलमिलाकर इस साल दो तिहाई देश असमान्य बारिश का शिकार है। आधा देश हद से ज्यादा असमान्य वर्षा से ग्रस्त हुआ है। मघ्य भारत बाढ़ का शिकार है तो पूर्व पूर्वोत्तर के कई उपसंभागों में सूखे जैसे हालात है। उत्तर पश्चिम भारत जिसे सामान्य वर्षा की श्रेणी में दर्शाया जा रहा है उसके 9 में से 4 उपसंभाग सूखे की चपेट में हैं।
पिछले हफते मघ्य प्रदेश में अतिवर्षा से किसानों की तबाही की थोड़ी बहुत खबरें जरूर दिखाई दीं। वरना अभी तक इस तरफ मीडिया का ज्यादा ध्यान नहीं है कि देश की अर्थव्यवस्था में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाला मानसून आखिर रहा कैसा। बाढ़ से जो नुकसान हुआ उसका आकलन हो रहा है लेकिन यह बात तो बिल्कुल ही गायब है कि इस मानसून की मार का आगे क्या असर पड़ेगा। खासतौर पर उन उपसंभागों का जो सूखे की चपेट में हैं। 
एक अकेले मप्र में ही बाढ़ और बेवक्त बारिश से ग्यारह हजार करोड़ रूप्ए के नुकसान का आकलन है। मानसून ने जाते जाते उप्र के कुछ जिलों में भी भारी तबाही मचा दी है। यानी तीन चैथाई देश में मानसून की मार का मोटा हिसाब लगाएं तो यह नुकसान पचास हजार करोड़ से कम नहीं बैठेगा। इस नुकसान की भरपाई कर पाना केंद्र और राज्य सरकारों के लिए एक चुनौती बनकर सामने है।
खैर ये तो प्रकृति की उंच नीच का मामला है। इस पर किसी का कोई जोर नहीं है। लेकिन क्या इस नुकसान को कम किया जा सकता था। इसका जवाब हां में दिया जाना चाहिए। और यह इस आधार पर कि हम और दुनिया के तमाम देश मौसम की भविष्यवाणियों को लेकर बड़े बड़े दावे करने लगे हैं। इसी साल हमने अपने यहां औसत से थोड़ी सी ही कम बारिश का वैज्ञानिक अनुमान लगाया था। गैर&सरकारी एंजसियों का अनुमान थोड़ी और कम बारिश का था। लेकिन इस साल औसत बारिश का आंकड़ा ही कोई 10 फीसद गलत बैठ गया। वैसे देश सामान्य बारिश का जो पैमाना बना कर रखा गया है उसकी रेंज इतनी लंबी है कि मानसून में कितनी भी गड़बड़ी हो जाए मौसम विभाग यह साबित कर देता है कि सामान्य बारिश हुई। वैसे इस साल मघ्य भारत और दक्षिणी प्रायद्वीप में बारिश को मौसम विभाग भी सामान्य बता नहीं पाएगा। क्योंकि दोनों ही जोन में उंचनीच का आंकड़ा 20 फीसद से कहीं ज्यादा बड़ा है।
ब्हरहाल] मामला भविष्यवाणी का है। और ये पूर्वानुमान इसलिए किए जाते हैं ताकि देश के किसानों को अपनी फसल की बुआई का समय तय करने में सुविधा हो और इन्हीं पूर्वानुमानों से फसलों के प्रकार भी तय होते हैं। बैंक और फसल बीमा कंपनियों इन्हीं पूर्वानुमानों के आधार पर अपना कारोबार तय करते हैं। क्या इस बार के पूर्वानुमानों ने किसान बैंक और बीमा कंपनियों यानी सभी को ही मुश्किल में नहीं डाल दिया है।
बत यहीं पर खत्म नहीं होती। ज्यादा बारिश के पक्ष में माहौल बनाने वालों की कमी नहीं है। उन्हें लगता है सूखा पड़ना ज्यादा भयावह है और बाढ़ वगैरह कम बड़ी समस्या है। उन्हें लगता है कि ज्यादा बारिश का मतलब है कि बाकी आठ महीने के लिए देश में पानी का इंतजाम हो गया। यहां इस बात पर गौर किया जाना चाहिए कि वर्षा के पानी को रोक कर रखने के लिए देश के पास बहुत ही थोड़े से बांध है। इन बांधों की क्षमता सिर्फ 257 अरब घनमीटर पानी रोकने की है। जबकि देश में सामान्य बारिश की स्थिति में कोई 700 अरब घनमीटर सतही जल मिलता है। यानी जब हमारे पास प्र्याप्त जल भडारण क्षमता है ही नहीं तो ज्यादा पानी बरसने का फायदा उठाया ही नहीं जा सकता। बल्कि यह पानी बाढ़ की तबाही मचाता हुआ वापस समुद्र में चला जाता है।

क्हते हैं कि देश में अगले अभियान का ऐलान जल संचयन को लेकर ही होने वाला है। जाहिर है बूंद बूद जल बचाने की मुहिम और जोर से शुरू होगी। लेकिन क्या मुहिम काफी होगी। देश में जलापूर्ति ही सीमित है लोग खुद ही बहुत किफायत से पानी का इस्तेमाल करने लगे हैं। बेशक किफायत की जागरूकता बढ़ने से कुछ कुछ पानी जरूर बचेगा। लेकिन जहां वर्षा के कुल सतही जल का दो तिहाई हिस्सा बाढ की तबाही मचाता हुआ समुद्र में वापस जा रहा हो तो हमें वर्षा जल संचयन के लिए बांध] जलाशय और तालाबों पर ध्यान लगाना चाहिए। कहा जा सकता है कि बड़ी जल परियोजनाएं बनाने के अलावा कोई दूसरा विकल्प उतना कारगर होगा नही।