Sunday, July 19, 2009

जाके पांव ना फटी बिवाई

36 सांसद और पूर्व मंत्री नई दिल्ली के महलनुमा सरकारी बंगले अवैध रूप से कब्जा करे बैठे हैं। जिनमें रामविलास पासवान, जार्ज फार्नाडीज, शंकर सिंह बाघेला व सुखवीर सिंह बादल शामिल हैं। कानून के मुताबिक चुनाव हारने या पद से हटने के 30 दिन बाद इन्हें ये बंगले खाली कर देने चाहिए। अन्यथा इन पर एक लाख रूपया महीना किराया चढ़ता है और यह भी सीमित समय तक ही करना संभव है। इन नेताओं की इस जबरदस्ती के कारण सर्वोच्च न्यायालय के पांच न्यायाधाीशों की नियुक्ति रूकी पड़ी है। क्योंकि उन्हें देने के लिए सरकार के पास बंगले नहीं है। इस कारण पहले से लंबित पड़े मुकदमों में और देरी हो रही है।

प्रश्न उठता है कि लोकतंत्र के कर्णधारों को आम जनता का वोट मिलने के बाद आम जनता से काटकर रातों रात राजसी ठाट-बाट क्यों दिया जाता है? क्यों उनकी आदत बिगाड़ी जाती है? क्यों उनके वैभव पर गरीब जनता के कर का पैसा बर्बाद किया जाता है? इंग्लैंड व अमरीका दो देशों के संविधान से नकल करके हमने अपने लोकतंत्र की कई परंपरायें स्थापित की हैं। यह दोनों ही देश भारत के मुकाबले कई ज्यादा संपन्न हैं। पर इन देशों में भी सांसदों और नेताओं को लंदन या वाशिंगटन डीसी में अपने परिवार के साथ रहने को बंगला या अपार्टमेंट नहीं मिलता। केवल एक काम चलाऊ यूनिट मिलती है जिसमें वह अपना दफ्तर चला सकते हैं। जब इतने धनी देश अपने नेताओं पर यह फिजूल खर्चे नहीं करते तो हम क्यों नहीं इस बर्बादी को रोकते? ममता बनर्जी जैसे राजनेता कम ही हैं, पर यह सिद्ध करने के लिए काफी है कि बड़े से बड़ा और गंभीर से गंभीर मंत्रालय संभालने वाले व्यक्ति को भी बंगले की जरूरत नहीं होती। पहली यूपीए सरकार में गृहमंत्री रहे इन्द्रजीत गुप्ता मंत्री बनने के बाद भी जनपथ स्थित वैस्टर्नकोर्ट के अपने सरकारी फ्लैट में ही रहते रहे व गृहमंत्री के लिए आवंटित बड़ा बंगला लेने से मना कर दिया।

होता यह है कि जब आप किसी छोटे से गांव, कस्बे या शहर से चुनाव जीत कर आये पार्टी के एक कार्यकर्ता को रातों-रात राजसी ठाट-बाट मुहैया करा देते हैं तो उसका जमीन से नाता टूट जाता है। उसका परिवार दिल्ली आकर बस जाता है। जिससे अपने मतदाताओं से उसका रहा बचा संबंध भी समाप्त होने लगता है। उसे पता ही नहीं चलता कि जनता कैसे रह रही है। यह लोकतंत्र के हित में नहीं है। जरूरत इस बात की है कि इन सांसदों व नेताओं को दिल्ली में या प्रांतों की राजधानी में दो-दो कमरे के फ्लैट दिये जांए जिनमें इनका कार्यालय चले और यह स्वयं संसद या विधान सभाओं के अधिवेशन के दौरान दिल्ली या राज्यों की राधानी में रह सके। जबकि हर सांसद या विधायक के लिए अपने परिवार को अपने संसदीय या विधान सभा क्षेत्र में ही रखना अनिवार्य होगा। इससे न सिर्फ भारी फिजूल खर्ची बचेगी बल्कि राजनेताओं में अपने मतदाताओ के प्रति जिम्मेदारी का भाव भी बढ़ेगा।

आर्थिक संकटों से जूझती सरकारें अपने सांसदों और विधायकों और मंत्रियों के लिए बनाए गए बंगलों को पर्यटन विभाग को सौंप कर उनका व्यवसायिक लाभ उठा सकती हैं या उनमें सामाजिक सारोकार के कार्यक्रम चला सकतीं हैं। जिनमें भाग लेने आने वाले देशभर के आम लोगों को इन बंगलों के खुले बगीचों में बैठकर देश की समस्याओं पर आपस में विचार विमर्श करने का मौका मिल सके। दिल्ली में सरकारी बंगलों को हासिल करने के लिए हमेशा मार मची रहती है। बड़े से बड़े अधिकारियों या अन्य आवंटियों की कोशिश बढि़या से बढि़या बंगला हथियाने की रहती है। बंगला मिलने के बाद कुछ लोग तो अपने या अपने मंत्रालय के साधनों से पचासों लाख रूपया इन बंगलों की साज-सज्जा पर खर्च करते हैं। जिसके लिए इनके पास कोई वैध अनुमति भी नहीं होती। इसमें कुछ क्षेत्रीय दलों को छोड़कर हर दल के नेता शामिल हैं। सुरेश कलमाडी व अमर सिंह के बंगले देखकर तो लगेगा ही नहीं कि यह कोई सरकारी बंगला है। इस प्रवृति का कारण यह है कि जिस नेता को मंत्री बनने के बाद बंगला मिल गया तो वे उसे निजी जायदाद समझने लगते हैं और उसमें इतना रूपया यही सोचकर लगाते हैं कि वे अब जीवन भर यहीं रहने वाले हैं।

यदि सांसदों व विधायकों को बंगले और फ्लैट मिलने बंद हो जांए और उन्हें भी शहर में रहने वाले लोगों की तरह अपने लिए आवास किराये पर ढूंढना हो तो उन्हें जिंदगी की हकीकत दिखाई देगी। वे जान पाऐंगे कि बिना बिजली आए, बिना पानी मिले, बिना चारों तरफ सफाई हुए आम आदमी कैसी जिंदगी जी रहा है। एक कहावत है कि, ‘‘जाके पांव ना फटी बिवाई, वो क्या जाने पीर पराई’’

मुश्किल इस बात की है कि संसद और विधान सभा में अन्य मुद्दों पर आसमान सिर पर उठा लेने वाले राजनैतिक दल जब सांसदों और विधायकों की सुविधाओं का सवाल आता है तो बिना हिचक एकजुट व एकमत हो जाते हैं और हर उस प्रस्ताव को झट से पारित कर देते हैं जिसमें उनकी सुविधायें बढ़ रही हों और हर उस कदम का विरोध करते हैं जहां उन पर अंकुश लगाने की बात सामने आती है। ऐसे में बिल्ली के गले में घंटी कौन बांधेगा? लोग कस्बों और शहरों में बिजली और पानी को तरसते रहेंगे और यह राजनेता इसी तरह जनता के पैसे पर राजसी जीवन जीते रहेंगे।

Sunday, July 12, 2009

समलैंगिकता पर नया बवाल

दिल्ली उच्च न्यायालय के निर्णय के बाद से समलैंगिकता को लेकर देश में एक नई बहस छिड़ गई है। नाज़ फाउण्डेशन वाले और समलैंगिक जीवन जीने वाले इस निर्णय से बेहद उत्साहित हैं। उन्हें खुशी है कि अब वे अपने सम्बन्धों को खुलकर जी सकेंगे। दूसरी तरफ अनेक धर्माचार्य इसके विरूद्ध उठ खड़े हुए हैं। बाबा रामदेव से लेकर मुसलमान, जैन, सिख, ईसाई सभी सम्प्रदायों के धर्म गुरूओं ने साझे मंच से इसका विरोध शुरू कर दिया है।  उनका तर्क है कि अप्राकृतिक यौनाचर अनैतिक कृत्य है जिसे वैधानिक छूट नहीं दी जा सकती। दूसरे भी अनेक महत्वपूर्ण व्यक्तियों व कुछ राजनेताओं ने दिल्ली उच्च न्यायालय के इस निर्णय के विरूद्ध जोरदार हमला बोला है। रोचक बात यह है कि हमला बोलने वाले इन लोगों में एक बड़े नेता ऐसे भी हैं जिन्हें कुछ दशक पहले अप्राकृतिक यौनाचार के कारण अपने दल के जयपुर कार्यालय से निकाल दिया गया था। सार्वजनिक जीवन में दोहरे मापदंड रखना आम बात है। सारी दुनिया में अगर अप्राकृतिक मामलों की जाँच गहराई से जाँच की जाए तो उसमें धर्माचार्यों की संख्या कम नहीं रहेगी। एक कृष्णभक्त संस्था के धर्मगुरू किशोरों के साथ यौनाचार के आरोप में अमरीका में एक बड़ा मुकदमा हार चुके हैं और उन्हें सैंकड़ों करोड़ रूपए का मुआवजा देना पड़ रहा है। फौज, पुलिस और जल सेना में जहाँ स्त्री संग संभव नहीं होता, इस तरह के यौनाचार के मामले अक्सर सामने आते रहते हैं।

प्रश्न उठता है कि क्या अप्राकृतिक यौनाचार नैतिक रूप से उचित है? क्या इसे कानूनी मान्यता दी जा सकती है? क्या इस विषय पर इस तरह खुली बहस की आवश्यकता है? क्या अप्राकृतिक यौनाचार से समाज में एड्स जैसी बीमारी बढ़ रही है?

जहाँ तक नैतिकता का सवाल है, इसके मापदंड अलग-अलग समाजों में अलग-अलग होते हैं। फिर भी यह मानने में कोई संकोच नहीं होना चाहिए कि अप्राकृतिक यौनाचार एक स्वस्थ मानसिकता का परिचायक नहीं। किसी व्यक्ति के इस तरफ झुकने के कारण जो भी रहे हों पर इस तरह की मानसिकता वाले लोग समाज में अटपटे तो लगते ही हैं। भले ही उसका असर बहुत सीमित रहता हो। हाँ, इस कृत्य को नैतिक बिल्कुल नहीं कहा जा सकता। पर जिस तरह समाज में ज्यादातर लोग अलग-अलग क्षेत्रों में अलग-अलग स्तर पर नैतिक या अनैतिक आचरण करते हैं, ऐसे ही सैक्स के मामले में भी अलग-अलग स्तर हो सकते हैं। सवाल है कि कोई समलैंगिक है या विषम लैंगिक यह समाज में मुक्त चर्चा का विषय क्यों होना चाहिए? क्या पति-पत्नी के शयन कक्ष के रिश्तों पर सड़कों पर बहस होती है? अगर नहीं तो दो युवकों या युवतियों के निजी सम्बन्ध को लेकर इतना बवाल मचाने की क्या जरूरत है?

दरअसल यह उसी पश्चिमी मानसिकता की देन है जो 364 दिन तो अपने माँ-बाप को ओल्ड ऐज होममें पटक देती है और एक दिन मदर्स डेया फादर्स डेका जश्न मनाकर अपने मातृ या पितृ प्रेम का इजहार करती है। उनके पोस्टरों पर छपा होता है इफ यू लव समवन - शो इट। हमारे देश में भी समलैंगिकता को लेकर साहित्य, चित्र व वास्तुकला उपलब्ध है। खुजराहो के मन्दिर में ही इस तरह का एक शिल्प है जहाँ गाइड बताते हैं कि यह गुरू व शिष्य में और एक सिपाही व घोड़े में अप्राकृतिक यौनाचार हो रहा है। पर इस विषय पर चर्चा करने की या उस पर शोर मचाने की हमारे यहाँ कभी प्रथा नहीं रही। आज भी अगर सर्वेक्षण किया जाए तो इस तरह का यौनाचार करने वालों की संख्या नगण्य है।

जहाँ तक अप्राकृतिक यौनाचार से एड्स फैलने का खतरा है तो इस भ्रम को बार-बार वैज्ञानिक रूप से झूठ सिद्ध किया जा चुका है। कुन्नूर (केरल) की एक संस्था ने तो नाको को बार-बार नाकों चने चबवाए हैं। नाको का भारत में एड्स मरीजों की संख्या के सम्बन्ध में बार-बार अपने आँकड़ों का बदलना इसे सिद्ध करता है।

नाज़ फाउण्डेशन ने जब यह याचिका दाखिल की तो उनका कहना था कि वे समलैंगिकों पर हो रहे पुलिस अत्याचार को रोकने के लिए यह कोशिश कर रहे हैं। अगर यह कोशिश संजीदगी से अपने मकसद को हासिल कर लेती है तो शायद इतना बवाल न मचता। पर अब तो ऐसा लगता है कि यह विषय काफी दिनों तक चर्चा में रहेगा और सैक्स को उद्योग की तरह चलाने वाले लोग इस माहौल का फायदा उठाते रहेंगे।

जरूरत इस बात की है कि इस पूरे मामले पर समाज कल्याण मन्त्रालय एक गहन अध्ययन करवाकर इन लोगों की समस्याओं का व्यवहारिक निदान खोजने का प्रयास करे। जो जैसे जीना चाहता है जिए, पर उसका भौंडा प्रदर्शन न हो। वैसे भी लोग अपने निजी जीवन में क्या करते हैं, यह कोई सड़क पर बताने नहीं आता। इसे सामाजिक दायरों में बहस का विषय न बनाया जाए। यह ठीक वही बात हुई कि देश में 80 फीसदी लोग पीने के गन्दे पानी के कारण बीमार पड़ते हैं पर देशभर में हल्ला एड्स का मचा हुआ है। न जाने कैसी महामारी आ गई जो पिछले 10 वर्षों से स्वास्थ्य मन्त्रालय की सबसे बड़ी प्राथमिकता बनी हुई है। मजाक ये कि अगर नाको के 10 साल पुराने आँकड़े देखें तो अब तक भारत में सारी आबादी को एड्स से मर जाना चाहिए था। पर ऐसा कुछ नहीं हुआ और न होगा। सारा खेल कुछ और ही है। इसी तरह समाज में बढ़ते सैक्स और हिंसा पर मीडिया में बवाल मचाकर एक पूरा उद्योग फल-फूल रहा है। वह उद्योग एड्स जैसे मुद्दों को हवा देकर अपना उल्लू सीधा करता रहता है।

इसलिए इस पूरे मामले को भी इसी दृष्टि से समझना चाहिए। हमारे सामने इससे कहीं गंभीर समस्याऐं मुँह बाएँ खड़ी हैं और हम उनकी तरफ देख भी नहीं रहे।

Sunday, July 5, 2009

रेल बजट अलग क्यों ?

ममता दीदी का रेल बजट आ गया। सरल, सीधा और लोकप्रिय। दीदी को वाह वाही मिली। कुछ लेख इस पर इस हफ्ते छपेंगे। फिर सब समान्य हो जायेगा। पर हम कुछ बुनियादी सवाल उठा रहे हैं। जिनके जवाब और समाधान ममता बनर्जी को देने चाहिए।

रेल बजट अलग क्यों बनता है? पूरी दुनिया में किसी भी देश में रेल बजट अलग से प्रस्तुत नहीं किया जाता। भारत के संविधान में भी इसका कोई प्रावधान नहीं है। केवल एक परंपरा है जो अंग्रेज हुक्मरानों ने डाली थी। जिससे हम ढ़ो रहे है। बिना सोचे बिना समझे। अलग बजट का मतलब पूरी कैबिनेट का इसमें योगदान न होना। इसका मतलब यह कि रेल बजट भारत सरकार का न होकर केवल रेल मंत्री नाम के एक व्यक्ति का होता है। फिर वह चाहे जाॅर्ज फर्नाडीज हाs, लालू यादव हों या ममता बनर्जी हाs। रेल बजट एक व्यक्ति की सोच, अहमकपन या राजनैतिक महत्वाकांशा को दर्शाता है। लोकतंत्र में इसकी कोई गंqजाइश नहीं होनी चाहिए। रेल मंत्रालय क्या कोई निजी उद्योग है? जो इसे सरकार के मूल बजट से अलग बजट बनाने की छूट मिली हुई है? क्या रेल मंत्रालय भारत की संप्रभुता से अलग कोई स्वतंत्र राजनैतिक इकाई है? ऐसा कुछ नहीं है। फिर इस परंपरा को तोड़ा क्यों नहीं जाता? इस बजट की प्रस्तुति पर क्यों अनावश्यक खर्च किया जाता है? तर्क हो सकता है रेल मंत्रालय बहुत विशाल है। इसका अर्थ तो यह हुआ कि रक्षा, शिक्षा, प्रेट्रोलियम, ग्रामीण विकास व कृषि जैसे मंत्रालय भी अपने आकार के कारण अपने बजट अलग-अलग प्रस्तुत कर सकते हैं। अलग रेल बजट प्रस्तुत करने की इस गलत परंपरा को ममता बनर्जी तोड़ सकती है।

ममता बनर्जी अन्य राजनेताओं से भिन्न है। वे कैबिनेट मंत्री होकर भी मंत्री के बंगले में नहीं रहती। सरकारी गाडी पर भी नहीं चलती। उनसे मिलने जाओ तो रेल मंत्रालय के पांच सितारा केटरिंग स्टा¡फ से लज़ीज चाय नाश्ता नहीं मंगवाती। बल्कि कैंटीन की चाय पिलवाती हS और अपने पर्स में से पैंसे देती है। बहुत साधारण जीवन जीती हंै। बिलकुल एक आम आदमी का। ममता दीदी को चाहिए कि कुछ आर्थिक विशेषज्ञों को बिठाकर इस परंपरा का निष्पक्ष मूल्यांकन करवायें और इसे तोड़ने की पहल करें।

जहां तक बजट की बात है उसमें कुछ टिप्पणी करने जैसा विशेष नहीं है। एक लोकप्रिय बजट है। बिना जनता को तकलीफ दिये सुहावने नारों से भरा है। पर कुछ महत्वपूर्ण बातों की तरफ यह बजट ध्यान नहीं देता। साइडिंग आज देश के औद्यौगिक जगत की बहुत बड़ी जरूरत है। साइडिंग का मतलब होता है कि जब मालगाडी सीधे कारखानों के भीतर जाकर माल उतारतीं हैं। इससे ढुलाई की आफत और खर्चा बचता है। सड़कों पर यातायात में व्यवधान नहीं होता। औद्यौगिक कार्यक्षमता बढ़ती है। दुर्भाग्य से हमारे देश में साइडिंग व्यवस्था में सौ वर्षा में भी कोई तरक्की नहीं हुई। जबकि औद्यौगिक तरक्की के कारण हमरी साइडिंग की मांग सैकड़ों गुना बढ़ चुकी है। हर रेलमंत्री नारे बाजी से भरा बजट प्रस्तुत करके चला जाता है। पर साइडिंग जैसे महत्वपूर्ण सवाल पर किसी नीति या कार्यक्रम की घोषणा नहीं करता। जबकि देश के औद्यौगिक विकास के लिए यह बहुत महत्वपूर्ण है।

ममता बनर्जी ने देश के 50 रेलवे स्टशनों को अंतर्राष्ट्रीय स्तर का बनाने की घोषणा की है। अंतर्राष्ट्रीय स्तर क्या होता है यह आप जानते ही होंगे। 1984 में जब मैं पहली बार लंदन से पैरिस रेल से गया तो वहां का स्टेशन देखकर मुझे लगा कि मैं किसी रेलवे स्टेशन में नहीं पांच सितारा होटल में आ गया हूं। तो क्या ऐसा स्तर देने की सोच रही हैं ममता बनर्जी? पर सच्चाई कुछ और कहती है। बाकी देश को छोडि़ये नई दिल्ली स्टेशन पर लगे गंदगी के ढेर, रेलवे की भूमि पर चारों ओर हजारों की तादाद में अवैध निर्माण और बदबू और सड़ायधं से भरे प्लेटफाॅर्म हैं जहां 24 घंटे आदमी कंधे से कंधा छू कर चलता है। उसे अंतर्राष्ट्रीय स्तर का कैसे बनाया जा सकता है? जब तक कि उस पर से अवैध निर्माण व गंदगी के साम्राज्य को हटाया न जाय। आज तक किसी भी रेलमंत्री ने इस पहल की हिम्मत नहीं की। क्योंकि अवैध निर्माण के मालिक ताकतवर लोग हैं। क्या ममता बनर्जी यह पहल करेगी? यही बात बाकी स्टेशनों पर भी लागू होती है।

बजट में ममता दीदी ने रोजगार संबंधित घोषणायें भी की हैं। हर राजनेता के लिए यह लालच रोक पाना सरल नहीं होता कि वो अपने कार्यकर्ताओं को मंत्रालय में नौकरी न दे। नतीजतन आज रेलमंत्रालय में 14 लाख कर्मचारियों की भारी फौज जमा है। आप जरा सा कुरेदिये तो पता चलेगा कि हर कर्मचारी किसी न किसी रेलमंत्री का भर्ती किया हुआ है। हकीकत यह है कि रेलमंत्रालय का काम 12 लाख कर्मचारियों से भी अच्छी तरह चल सकता है। यह 2 लाख अतिरिक्त कर्मचारी रेल की अर्थव्यवस्था पर अनावश्यक आर्थिक बोझ डाल रहे हैं और कार्यक्षमता को घटा रहे हैं। ममता बनर्जी को नई भर्तियों की जगह अयोग्य और अकुशल कर्मचारियों को निकालने की कार्यवाही शुरू करनी चाहिए। नई भर्तियां करने का तो प्रश्न ही पैदा नहीं होता। पर क्या वह ऐसा करेंगी

अपने पिछले कार्यकाल में जब ममता बनर्जी रेलमंत्री थीं तो एक रात दिल्ली में कोहरे के कारण अचानक उनका हवाई जहाज आधी रात में जयपुर उतर गया। वे चाहतीं तो रेलवे के जयपुर स्थित महाप्रबंधक अजीत किशोर को हवाई अड्डे बुलवाती और उनका सैलून किसी ट्रेन में लगवाकर दिल्ली आतीं। पर उन्होंने ऐसा नहीं किया। वह जयपुर के एक दैनिक अखबार के संवाददाता के स्कूटर पर पीछे बैठकर जयपुर रेलवे स्टेशन आ गयीं और स्टेशन मास्टर से बोलीं कि, ‘मैं रेलमंत्री हूं मुझे किसी दिल्ली की गाडी में बिठा दोउसे विश्वास नहीं हुआ कि ये रेलमंत्री हैं। उसने श्री किशोर को रात 2 बजे फोन करके जगाया। श्री किशोर हड़बड़ाये स्टेशन आये और अपने सैलून में ममता बनर्जी को दिल्ली भेजने का निवेदन किया पर वे नहीं मानी। बल्कि एक साधारण यात्री की तरह रेलगाडी में बैठकर दिल्ली चली गयीं। ऐसी क्रांतिकारी रेलमंत्री से रेलमंत्रालय में क्रांतिकारी कदमों की अपेक्षा की जानी चाहिए। अभी तो वे नई-नई बनीं हैं पर अगले बजट तक तो एक साल है। देखें ममता दीदी क्या करिश्मा दिखातीं हS?

Sunday, June 21, 2009

कपिल सिब्बल की पहल

मानव संसाधन मंत्री कपिल सिब्बल ने उच्च शिक्षा जगत में हलचल मचा दी है। वे विश्वविद्यालय अनुदान आयोग व अखिल भारतीय तकनीकि शिक्षा परिषद् जैसी राष्ट्रीय संस्थाओं को पूरी तरह झकझोरना चाहते हैं। उनका कहना है कि उन सस्थाओं में काफी गिरावट आयी है। इनकी कार्यप्रणाली के कारण शिक्षा जगत में गुणवत्ता बढ़ने की बजाय शिक्षा का स्तर गिरा है। वे इन संस्थाओं को ज्यादा उत्तरदायी बनाना चाहते हैं। दूसरी तरफ नोलेज कमीशनके अध्यक्ष सैम पित्रोदा का कहना है कि उच्च शिक्षा को पूरी तरह से सरकारी नियन्त्रण से मुक्त कर देना चाहिए। शिक्षा पर शिक्षाविदों का नियन्त्रण हो और इन शिक्षाविदों पर बाजार की शक्तियों का नियन्त्रण हो। यह शक्तियाँ तय करेंगी कि उन्हें किस किस्म की शिक्षा पाये नौजवानों की जरूरत है। अगर ऐसा होगा तो डिग्री हासिल करने वाले नौजवानों को नौकरी के लिए भटकना नहीं पड़ेगा। औद्योगिक जगत उन्हें नौकरी देगा। उनका मानना है कि केवल डिग्री हासिल करने के लिए जो शिक्षा आज देश में चल रही है, उससे हमारे देश के मानव संसाधन का विकास नहीं हो रहा है।

उदाहरण के तौर पर देश में हजारों डिग्री काॅलेज हैं, जिनमें पढ़ने वाले करोड़ों छात्र ऐसे हैं जिन्हें यह नहीं पता कि वे जिस विषय में ग्रेजुएशन या पोस्ट ग्रेजुएशन कर रहे हैं, उस विषय को पढ़ने से उन्हें क्या हासिल होगा और आगे चलकर यह शिक्षा उनके जीवन में कैसे काम आयेगी? एक बार एक विश्वविद्यालय में एम.ए. समाजशास्त्र की छात्राओं से मैंने अपने भाषण के दौरान प्रश्न किया कि आप यह विषय क्यों पढ़ रही हैं? चालीस छात्राओं में से एक छात्रा ने उत्तर दिया कि वह समाजसेवा करना चाहती है। दूसरी ने कहा कि वह अच्छी माँ बनना चाहती है, इसलिए यह विषय चुना है। बाकी अड़तीस छात्राऐं सिर झुकाकर बैठ गयीं। बहुत कुरेदने पर उत्तर आया कि जब तक शादी नहीं होती, घर बैठकर क्या करें, इसलिए एम.ए. कर रही हैं। एक दूसरे काॅलेज में व्याख्यान के दौरान एक छात्र से पूछा तो उसने बताया कि वह इंग्लिश में एम.ए. कर रहा है। उसके स्वरूप से ऐसा नहीं लगा कि वह अंग्रेजी जानता है। इसलिए उससे एक छोटा-सा सवाल अंग्रेजी मंे किया। वह नहीं समझा और बोला सर हिन्दी में पूछिए। मैंने पूछा कि तुम एम.ए. अंगे्रजी कैसे कर रहे हो? तो उसका उत्तर था, ‘‘हिन्दी मीडियम में’’। मेरा सर चकरा गया।

इन उदाहरणों से यह स्पष्ट हो ही जाता है कि बहुत बड़ी तादाद में युवा निरर्थक और निरूद्देश्य शिक्षा प्राप्त कर रहे हैं। कोठारी आयोग से लेकर आज तक तमाम आयोगों ने शिक्षा के आमूलचूल परिवर्तन की बात बार-बार कही है। पर बदला कुछ भी नहीं। शिक्षा सार्थक हो, उपयोगी हो, ज्ञानवर्धक हो, योग्यता बढ़ाने वाली हो और यदि आवश्यकता हो तो रोजगार दिलाने वाली हो, ऐसी बात इन आयोगों की रिपोर्टों में बार-बार कही गयी। पर शिक्षा जगत के माफियाओं और राजनैतिक आकाओं ने शिक्षा में बदलाव नहीं होने दिया। आज हालात बदल चुके हैं। एक तरफ वैश्वीकरण का दबाब, दूसरी तरफ सूचना क्रांति से युवाओं में बढ़ती जिज्ञासा, अपेक्षा और हताशा और तीसरी ओर मंदी व बेरोजगारी की मार। इन दबावों के चलते शिक्षा को सुधारने की बात की जा रही है। जिस तरह उद्योग व व्यापार की घुटन को दूर करने के लिए नब्बे के दशक में डाॅ. मनमोहन सिंह ने हमारी अर्थव्यवस्था के कपाट खोले थे, वैसे ही लगता है कि कपिल सिब्बल शिक्षा के कपाट खोलने जा रहे हैं। उनकी योग्यता और कार्यक्षमता पर किसी को संदेह नहीं। लेकिन इतना बड़ा कदम उठाने से पहले कुुछ सावधानी बरतने की जरूरत है।

अगर पश्चिमी देशों में सारी शिक्षा बाजार की शक्तियों से ही नियन्त्रित होती तो कला, संस्कृति, समाज व इतिहास जैसे क्षेत्रों में न तो विद्यार्थी ही बचते और न शिक्षक। सबके सब इंजीनियर, एकाउण्टेंट, मैनेजर या मार्केटिंग विशेषज्ञ ही बनते। पर ऐसा नहीं है। वहाँ बहुत सारे विश्वविद्यालयों में ऐसी शिक्षा दी जा रही है जिसका बाजार से कोई सीधा सम्बन्ध नहीं है। यह दूसरी बात है कि इस तरह की शिक्षा को सरकारी मदद के अलावा बड़ी फाउण्डेशनों से भी सहायता मिलती है। पर भारत में ऐसा सोचना कि सारी शिक्षा बाजार से नियन्त्रित हो, बहुत बड़ी भूल होगी। हमें इस मानसिकता से बाहर निकलना होगा कि एक युवा का अस्तित्व केवल नौकरी हासिल करने तक सीमित है। सच्चाई तो यह है कि इस देश में कुल युवाओं का बहुत नगण्य प्रतिशत नौकरी में जाता है। ज्यादातर युवा अपने पारिवारिक व्यवसाय, खेती, बागवानी, दुकान-कारखाने आदि सम्भालते हैं। जो कम साधन वाले होते हैं पर आत्मनिर्भर बनना चाहते हैं, वे अगर कारखाने खड़े नहीं कर पाते, तो सड़क के किनारे लकड़ी के खोखों में दुकानें खोल लेते हैं।

ऐसे करोड़ों नौजवानों को ऐसी शिक्षा चाहिए जो उन्हें एक जिम्मेदार नागरिक बना सके। उन्हें देश और दुनिया की समझ दे सके। उनके व्यक्तित्व को निखारकर उन्हें आत्मनिर्भर बना सके। उनमें आत्मविश्वास और उत्साह भर सके। साथ ही उन्हें अपने पर्यावरण और परिवेश के प्रति संवेदनशील बना सके। बाजार की शक्तियाँ देश की इन जरूरतों पर ध्यान नहीं देंगी। वे शिक्षा का पूरी तरह व्यवसायीकरण कर देंगी। देश के हर शहर में कुकुरमुत्ते की तरह उग आये लाखों इंजीनियरिंग, मेडीकल या मैनेजमेंट काॅलेज पैसा कमाने का उद्योग बन गये हैं। नौजवानों की महत्वकांक्षा को बिना ठीक शिक्षा दिये भुनाने में जुटे हैं। उनकी मजबूरी का फायदा उठा रहे हैं।

जरूरत इस बात की है कि उच्च शिक्षा पर नियन्त्रण ऐसी संस्थाओं का हो जिनमें बाजार की जरूरत और समाज की जरूरत दोनों का सामंजस्य हो। यह संस्था सरकार के अधीन हो या स्वायत्त, ये बहस का विषय हो सकता है पर यह कहना कि केवल बाजार ही शिक्षा का स्वरूप और भविष्य तय करेगा, भारत जैसे देश के लिए न तो सम्भव है और न ही आवश्यक।

Sunday, June 14, 2009

सर्वोच्च न्यायालय ने ठीक नहीं किया

हाल ही में आये एक फैसले में सर्वोच्च न्यायालय ने कहा है कि सूखे तालाब, झील या बरसाती नाले की जमीन पर कब्जा करके अगर कोई व्यक्ति खेती करने लगता है और वर्षों वह जमीन खेतिहर भूमि के रूप में उपयोग होती है तो सरकार सार्वजनिक स्थल कानून के तहत त्वरित कार्यवाही कर अवैध कब्जेदार को बेदखल नहीं कर सकती है। सुप्रीम ने अपने इस फैसले में कहा है कि खेतीहर जमीन पर सार्वजनिक स्थल कानून लागू नहीं होगा और ऐसी जमीन से अवैध कब्जा सरकार इस कानून के तहत खाली नहीं करा सकती है। खेतिहर जमीन के बारे में उत्तर प्रदेश जमींदारी उन्मूलन और भूमि सुधार कानून 1950 ही लागू होंगे। यह बहुत खतरनाक फैसला है। इसके दूरगामी परिणाम होंगे। इस फैसले से देश का पहले से बढ़ता जल संकट और भी गहरा जायेगा। सर्वोच्च न्यायालय का यह फैसला इसके अपने ही हिंचलाल तिवारी केसके  फैसले के विपरीत है। जिससे देशभर में भ्रम की स्थिति पैदा हो गयी है।

देशभर में वर्षा जल के संचयन का एक विशाल पारंपरिक तंत्र मौजूद था। कुण्ड, सरोवर, बावड़ी, पोखर व तालाब आदि देशभर के गाँव, कस्बों और शहरों में लाखों की तादाद में थे और आज भी इनकी संख्या 11 लाख से ज्यादा है। इनका संरक्षण स्थानीय समुदाय करता था। इन जल स्रोतों को पूज्यनीय माना जाता था। जन्म से मृत्यु तक अनेक कर्मकाण्ड इन जल स्रोतों के निकट किये जाते थे। प्रायः इन स्रोतों के निकट एक कुँआ, एक बगीचा और एक मन्दिर या मस्जिद हुआ करते थे। कुण्ड का जल छनकर कुँए में आता और कुँए से पेयजल की आपूर्ति होती। इन स्रोतों में कोई नाली या कूड़ा नहीं गिराता था। पर दुर्भाग्यवश आधुनिकीकरण की दौड़ में इनकी उपेक्षा कर दी गयी। बड़े-बड़े बांधों पर ध्यान दिया गया। लोगों को बताया गया कि सरकार पाइप लाइन बिछाकर घर-घर पानी देगी। पाइप लाइनें बिछीं, टंकियाँ बनी और हर कस्बे और शहर में जल आपूर्ति के तंत्र खड़े हो गये। पर अनेक कारणों से ये तंत्र धीरे-धीरे नाकारा होते गये। देश में आज सैंकड़ों कस्बे और नगर हैं जहाँ इन पाइपों में हफ्तों पानी की बूँद नहीं टपकती। हाहाकार मचा रहता है। दंगे हो जाते हैं। लोग घायल हो जाते हैं। प्रशासन हाथ बाँधे खड़ा रह जाता है।

दरअसल पारंपरिक जल स्रोतों की उपेक्षा के बाद उनमें मलबा भरा जाने लगा। उनपर इमारतें खड़ी होने लगीं। नतीजतन वर्षा का जो जल इनमें संचित होकर भूजल स्तर तक पहुँचता था, वो अब ठहरता नहीं है। तुरन्त बह जाता है। इसलिए भूजल स्तर तेजी से नीचे जा रहा है। मालवा इलाके में तो यह जल स्तर 600 फुट नीचे चला गया है। इस इलाके के शहरों में 21 दिन में एकबार लोगों को जल विभाग 15 मिनट के लिए जल दे रहा है। अभी पिछले दिनों मथुरा जिले के कोसी कस्बे में पानी के मामले पर दो समुदायों में हथगोले और तेजाब फेंके गये। एक-एक करके सारे ऐतिहासिक और पौराणिक महत्व के कुण्ड या सरोवर बर्बाद कर दिये गये। पर पिछले 5 वर्षों में कुण्डों के महत्व को पूरी दुनिया ने स्वीकारा। विश्व बैंक ने पारंपरिक जल स्रोतों को पुनः सक्रिय करने के लिए अनुदानों की घोषणा की। भारत के सर्वोच्च न्यायलय ने इन जलाशयों से कब्जे हटवाने के लिए निर्देश जारी किये। प्रांतों के राजस्व विभाग ने जिलाधिकारियों को अधिकार दिये कि वे अपने इलाके में कब्जा लिए गये कुण्डों को खाली करवायें। एकदम तो नतीजा नहीं आया पर निश्चित तौर पर इन कदमों से कुण्डों के जीर्णोद्धार की दशा में एक सकारात्मक पहल हुयी और कुण्डों का जीर्णोद्धार गैर सरकारी क्षेत्रों में भी प्राथमिकता बनने लगा। फिर भी तमाम दिक्कतें हैं जिनसे ये सभी समूह निपटने में लगे हैं। ताकि आने वाले वर्षों में देश का जल संकट दूर या कम किया जा सके।

सर्वोच्च न्यायालय के ताजा फैसले से इस पूरी प्रक्रिया को गहरा आघात लगा है। इतना ही नहीं, अब एकबार फिर पारंपरिक जल स्रोतों पर कब्जों की होड़ लग जायेगी। प्रांतों के राजस्व विभाग के भ्रष्ट अधिकारी अपने दस्तावेजों में फेरबदल कर ऐसे लोगों को मान्यता दे देंगे जो उन्हें घूस देकर कुण्डों पर काबिज होंगे और अपने को पुराना खेतिहार सिद्ध कर देंगे। कुण्ड बचाने की मुहिम में लगे स्वंयसेवी संगठनों, पर्यावरणविदों और सरकार के जल आपूर्ति विभागों के लोगों को भारी दिक्कत आयेगी। ये बात समझ के परे है कि सर्वोच्च न्यायालय ने इतने दूरगामी प्रभाव वाला यह फैसला बिना सोचे समझे कैसे दे दिया?

सर्वोच्च न्यायालय का यह फैसला पर्यावरण व मानव के बुनियादी हक के खिलाफ है। इसके खिलाफ फौरन आवाज उठनी चाहिए। देश के बहुत से ऐसे लोगों पर जो जल स्रोतों को लेकर सक्रिय रहे हैं, सर्वोच्च न्यायालय में एक रिवीजन पिटीशन डलवानी चाहिए जिसमें सर्वोच्च न्यायालय की बड़ी बेंच से इस फैसले को निरस्त करने की अपील की जाये। अगर ऐसा नहीं होता है तो यह पूरे समाज के लिए आत्मघाती स्थिति होगी। पानी इंसान की बुनियादी जरूरत है। गरीब और अमीर सबको जीने के लिए जल चाहिए। देश में जल का भारी संकट है। सर्वोच्च न्यायालय इस संकट को बढ़ाने वाले काम अगर करेगा तो उसे उसकी गलती का अहसास कराना होगा। किसी न किसी को तो यह पहल करनी ही होगी।

Sunday, June 7, 2009

देश को अपराध शून्य बनाने का नुस्खा

इस चुनाव के बाद हर दल गुड गवर्नेंस की बात कर रहा है। बिहार, उड़ीसा, मध्य प्रदेश, गुजरात, दिल्ली जैसे राज्यों में विधानसभा के चुनावों के नतीजे और हाल ही में आये लोकसभा चुनाव के नतीजों से इस बात का स्पष्ट संकेत मिला है कि जनता नारों में बहकने वाली नहीं, उसे जिम्मेदार सरकार चाहिए। पिछले 50 वर्षों में हजारांे अधिकारी जनता के पैसे पर अनेक प्रशिक्षण, अध्ययन व आदान-प्रदान कार्यक्रमों में दुनियाभर के देशों में जाते रहे हैं। पर वहाँ से क्या सीख कर आये, इसका देशवासियों को कुछ पता नहीं लगता। पिछले दिनों गुजरात की राजधानी गाँधीनगर आते हुए एक युवा आई.ए.एस. अधिकारी से सफर में मुलाकात हुई तो उसने बताया कि वह छः हफ्ते के प्रशिक्षण कार्यक्रम के बाद विदेश से लौटा है। उसे आज मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी के सामने दूसरे अधिकारियों को यह बताना है कि इन छः हफ्तों में उसने जो कुछ सीखा, उसका लाभ गुजरात को कैसे मिल सकता है। यह एक रोचक किन्तु प्रभावशाली सूचना थी। शायद ही किसी मुख्यमंत्री ने पहले कभी अपने अधिकारियों के साथ इस तरह समय बिताया हो।

हम हिन्दुस्तानियों की एक आदत है कि हम विदेश की हर चीज की तारीफ करते हैं। वहाँ सड़के अच्छी हैं। वहाँ बिजली कभी नहीं जाती। सफाई बहुत है। आम जीवन में भ्रष्टाचार नहीं है। सरकारी दफ्तरों में काम बड़े कायदे से होता है। आम आदमी की भी सुनी जाती है, वगैरह-वगैरह। मैं भी अक्सर विदेश दौरांे पर जाता रहता हूँ। मुझे भी हमेशा यही लगता है कि हमारे देशवासी कितने सहनशील हैं जो इतनी अव्यवस्थाओं के बीच भी अपनी जिन्दगी की गाड़ी खींच लेते हैं। पर मुझे पश्चिमी जगत की चमक-दमक प्रभावित नहीं करती। बल्कि उनकी फिजूल खर्ची देखकर चिंता होती है। पिछले हफ्ते जब मैं सिंगापुर गया तो जो बात सबसे ज्यादा प्रभावित की, वह थी, इस देश में कानून और व्यवस्था की स्थिति। वहाँ की आबादी में चीनी, मलय व तमिल मूल के ज्यादा नागरिक हैं। जिनसे कोई बहुत अनुशासित और परिपक्व आचरण की अपेक्षा नहीं की जा सकती। पर आश्चर्य की बात है कि सिंगापुर की सरकार ने  कानून का पालन इतनी सख्ती से किया है कि वहाँ न तो कभी जेब कटती है, न किसी महिला से कभी छेड़खानी होती है, न कोई चोरी होती है और न ही मार-पिटाई। बड़ी आसानी से कहा जा सकता है कि सिंगापुर में अपराध का ग्राफ शून्य के निकट है। एक आम टैक्सी वाला भी बात-बात में अपने देश के सख्त कानूनों का उल्लेख करना नहीं भूलता। वह आपको लगातार यह एहसास दिलाता है कि अगर आपने कानून तोड़ा तो आपकी खैर नहीं।

हमें लग सकता है कि कानून का पालन आम आदमी के लिए होता होगा, हुक्मरानों के लिए नहीं। पर आश्चर्य की बात ये है कि बड़े से बड़े पद पर बैठा व्यक्ति भी कानून का उल्लंघन करके बच नहीं सकता। 1981-82 में वहाँ के एक मंत्री तेह चींग वेन पर आठ लाख डाॅलर की रिश्वत लेने का आरोप लगा। नवम्बर 1986 में सिंगापुर के प्रधानमंत्री ने उसके विरूद्ध एक खुली जाँच करने सम्बन्धी आदेश पारित कर दिया। हाँलाकि एटाॅर्नी जनरल को सम्बन्घित कागजात 11 दिसम्बर को जारी किये गये।  परन्तु फिर भी वह अपने आप को निर्दोष बताता रहा तथा 14 दिसम्बर को ही अपने बचाव हेतु पक्ष रखने से पूर्व उसने आत्महत्या कर ली।


आश्चर्य की बात ये है कि तेह चींग वेन सिंगापुर को विकसित करने के लिए जिम्मेदार और उसके 40 वर्ष तक प्रधानमंत्री व राष्ट्रपति रहे, ली क्वान यू का सबसे ज्यादा चहेता था। दोनों में गहरी मित्रता थी। यदि ली चाहते तो उसे पहली गलती पर माफ कर सकते थे। पर उन्होंने ऐसा नहीं किया। तेह चींग वेन अपने प्रधानमंत्री को मुँह दिखाने की हिम्मत नहीं कर सका और आत्महत्या कर ली। उसने आत्महत्या के नोट में लिखा, ’’मैं बहुत ही बुरा महसूस कर रहा हूँ तथा पिछले दो सप्ताह से तनाव में हूँ। मैं इस दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति के लिए अपने आप को जिम्मेदार मानता हूँ तथा मुझे लगता है कि इसकी सारी जिम्मेदारी मुझे ले लेनी चाहिए। एक सम्माननीय एवं जिम्मेदार नागरिक होने के नाते मुझे लगता है कि अपनी गलती के लिए मुझे बड़ी से बड़ी सजा मिलनी चाहिए।’’

उसके इस कदम से सिंगापुर वासियों का दिल पिघल गया। उन्हें लगा कि अब तो ली उसे माफ कर देंगे और उसके जनाजे में शिरकत करेंगे। पर ऐसा नहीं हुआ। लोगों को आश्चर्य हुआ कि अपने इतने प्रिय मित्र और लम्बे समय से सहयोगी के द्वारा प्रायश्चित के रूप में इतना कठोर कदम उठाने के बाद भी ली उसके जनाजे में शामिल क्यों नहीं हुए? इसका उत्तर कुछ दिन बाद ली ने यह कहकर दिया कि मैं अगर तेह चींग वेन के जनाजे में जाता तो इसका अर्थ होता कि मैंने उसकी गलती माफ कर दी। न जाकर मैं यह सन्देश देना चाहता हूँ कि जिस व्यवस्था को खड़ा करने में हमने 40 साल लगाये, वो एक व्यक्ति की कमजोरी से धराशायी हो सकती है। हम गैरकानूनी आचरण और भ्रष्टाचार के एक भी अपराध को माफ करने को तैयार नहीं है। ऐसा इसी सदी में, एशिया में ही हो रहा है, तो भारत में हमारे हुक्मरान ऐसे मानदण्ड क्यों नहीं स्थापित कर सकते?

बात सब बड़ी-बड़ी करते हैं। पर इसी हफ्ते आई एक सर्वेक्षण रिपोर्ट के अनुसार देश के 58 फीसदी लोग मानते हैं कि हमारे हुक्मरान बेहद भ्रष्ट हैं। हर दल भ्रष्टाचार मुक्त शासन देने का वायदा करके सत्ता में आता है और सत्ता में आने के बाद अपने असहाय होने का रोना रोता है। इस देश का आम आदमी जानता है कि कानून सिर्फ उस पर लागू होता है। हुक्मरानों और उनके साहबजादों पर नहीं। सी.बी.आई. और सी.वी.सी. इस बात के गवाह हैं कि ताकतवर लोगों की रक्षा में इस लोकतंत्र का हर स्तम्भ मजबूती से खड़ा है और वे कितना भी बड़ा जुर्म क्यांे न करें, उन्हें बचाने का रास्ता निकाल ही लेता है। यथा राजा, तथा प्रजा। जब राजा को कानून का डर नही ंतो जनता को क्यों हो? इसीलिए हमारे यहाँ अपराध बढ़ते जा रहे हैं। सच्चाई तो ये है कि जितनेे अपराध होते हैं, उसके नगण्य मामले पुलिस के रजिस्टरों में दर्ज होते हैं। ज्यादातर अपराध प्रकाश में ही नहीं आने दिये जाते। फिर गुड गवर्नेंस कैसे सुनिश्चित होगी?

राहुल गाँधी से लेकर नवीन पटनायक तक और अशोक गहलोत से लेकर नरेन्द्र मोदी तक क्या हमारे नेता सिंगापुर के निर्माता व चार दशक तक प्रधानमंत्री रहे, ली क्वान यू से कोई सबक लेंगे? माना कि हमारा देश बहुत बड़ा है और तमाम विविधताओं वाला है, पर जहाँ चाह वहाँ राह।

Sunday, May 24, 2009

भाजपा की दशा और दिशा

मजबूत नेता निर्णायक सरकारका नारा जनता ने ठुकरा दिया। न तो लालकृष्ण आडवाणी में उन्हें किसी मजबूत नेता के लक्षण दिखायी दिये और न ही राजग की सम्भावित सरकार में निर्णय लेने की क्षमता। दरअसल इस नारे का चुनाव ही गलत किया गया। इसलिए चुनाव प्रचार पहले दिन से ही जनता की भावनाओं को स्पर्श नहीं कर पाया। इतनी बड़ी चूक कैसे हो गयी कि भाजपा के रणनीतिकार ने जनता की नब्ज को ही नहीं पहचाना? अगर पिछले वर्षों में विधानसभाओ के चुनावों में हुयी जीत का सेहरा अरूण जेटली के सिर बंधता रहा तो इस हार के लिए भी वही जिम्मेदार हैं जिन्होंने जनता को समझने में इतनी बड़ी भूल कर दी। जबकि कहा ये जा रहा है कि इस हार के लिए भाजपा नेतृत्व साझा जिम्मेदार है।

जब हार हो जाती है तो पोस्टमार्टम तो होता ही है। आज भाजपा में भी यही हो रहा है। अब भाजपाई खुलकर मान रहे हैं कि लालकृष्ण आडवाणी को भावी प्रधानमंत्री बनाकर प्रस्तुत करना गलत रहा। जीवन के नवें दशक में वे न तो नयी ऊर्जा का संचार कर पाये और न ही उनमें देश के युवाओं को अपना भविष्य दिखायी दिया। जरूरत भाजपा को भी युवा नेतृत्व प्रस्तुत करने की थी। ऐसा युवा कौन होता, इस पर भाजपा में आज भी मतभेद हैं। भाजपा का आम कार्यकर्ता नरेन्द्र मोदी को अपना आदर्श मानता है। जबकि संघ और भाजपा के कुछ नेता इससे सहमत नहीं हैं। यह कहने से नहीं चूक रहे कि चुनाव के बीच नरेन्द्र मोदी को प्रधानमंत्री पद का दूसरा प्रबल दावेदार बताकर ठीक नहीं किया गया। इससे भी दल को हार का मुँह देखना पड़ा। जबकि दूसरा पक्ष मानता है कि अगर शुरू से नरेन्द्र मोदी को सामने रखा जाता तो देश में एक नई ऊर्जा का संचार होता। यह सही है कि उन पर गोधरा को लेकर हमले होते तो भी मोदी अपने काम के बूते लोगों को आश्वस्त कर देते और भाजपा की नैया पार लगा देते। भविष्य में यही होने जा रहा है।

जिस महत्वपूर्ण बात पर अभी चर्चा नहीं हो रही, वो यह है कि भाजपा की इस हार के लिए मुसलमान वोटों का एकसाथ इंका के पक्ष में चले जाना भी है। अयोध्या में विवादास्पद ढाँचे के विध्वंस के बाद से इंका के पारंपरिक वोट बैंक मुसलमानों ने इंका का साथ छोड़ दिया था। 19 वर्ष बाद उन्हें लगा कि मौजूदा हालात में इंका ही इनके हितों का बेहतर संरक्षण कर सकती है। दूसरा कारण यह भी है कि जनता को लगा कि भाजपा के पास जनहित का कोई मुद्दा ही नहीं है। भाजपा के चुनावी घोषणा पत्र में आम आदमी को ध्यान में रखकर कई राहत योजनाओं का जिक्र था। पर पता नहीं क्यों अरूण जेटली की टीम ने इन मुद्दों को नहीं उछाला और सारी ताकत प्रधानमंत्री को कमजोर सिद्ध करने में लगा दी।  

दरअसल रामजन्मभूमि आन्दोलन के बाद से ही भाजपा नेतृत्व अपने भ्रमित होने का संदेश देता रहा है। इस देश की सनातनी सांस्कृतिक विरासत को हिन्दुत्व के तंग दायरे में सीमित कर उसकी रक्षा करने का दम्भ भाजपाई भरते रहे हैं। सच्चाई यह है कि उनके जीवन मूल्य और आचरण ऐसा कोई परिचय नहीं देते। इसके विपरीत भाजपा का चेहरा इंका की दसवीं कार्बन काॅपी जैसा रहा है। न खुदा ही मिला, न विसाले सनम, न इधर के रहे, न उधर के रहे। न तो भाजपा नेतृत्व सनातनी दिखायी देता है और न ही धर्मनिरपेक्ष, न तो उसकी नीतियाँ इस देश की जमीनी हकीकत से जुड़ी हैं और न हीं विकास के आधुनिक प्रारूप से। एक तरफ उसके कार्यकर्ता डिस्को में जाकर तोेड़-फोड़ करते हैं और जनता के नैतिक पुलिसिए बन जाते हैं, दूसरी तरफ उसके ही चुनावी प्रत्याशी पाश्चात्य संगीत को गगनभेदी स्वर में बजाकर रातभर शराब की दावत करते हैं और टोकने पर कहते हैं कि कार्यकर्ताओं को खुश करने के लिए चुनाव में यह सब करना पड़ता है। भाजपा का नेतृत्व यह सब देखता रहता है और भूल जाता है उस दौर को जब भाजपा के मात्र 2 सांसद लोकसभा में होते थे। रामजन्म भूमि का आन्दोलन चलाकर, जनसभाओं में रामधुन की अलख जगाकर और सौगंध राम की खाते हैं, हम मन्दिर वहीं बनायेंगेजैसे गगनभेदी नारे गुंजायमान करके भाजपा यहाँ तक पहुँची कि 1998 में उसकी केन्द्र में पहली बार सरकार बन गयी। फिर भी भाजपाईयों को समझ में नहीं आया। सबको खुश करने के चक्कर में वह अपनी पहचान खो बैठी। चैबे जी चले थे छब्बे बनने, दुबे बनकर लौटे।

इसी तरह आर्थिक विकास के मामले में भी भाजपा नेतृत्व भ्रमित रहा है। एक तरफ उसका सहोदर स्वदेशी जागरण मंच बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के विरूद्ध राष्ट्रव्यापी जागरण करता है और दूसरी ओर राजग के शासनकाल में उदारीकरण इस सीमा तक बढ़ जाता है कि राजग पर अमरीकी हितों का प्रतिनिधित्व करने का आरोप लगता है। अब अगर भाजपा विकास के माॅडल को लेकर ही स्पष्ट नहीं है तो जनता को क्या सपना दिखायेगी? गुजरात, हिमाचल, छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश, कर्नाटक में भाजपा के मुख्यमंत्रियों के काम को लोगों ने पसन्द किया है। इसलिए उसे वहाँ सफलता मिली है। पर सफलता का यह ग्राफ इसलिए गिरा भी है क्योंकि यह चुनाव राष्ट्रीय मुद्दों पर लड़ा गया। इसलिए इन राज्यों में भी इंका की छिपी लहर ने काम किया।

जो होना था सो हो गया। अब तो भाजपा को आगे की बात सोचनी होगी। आडवाणी जी को उनकी इच्छा के विरूद्ध विपक्ष का नेता बनाना ठीक नहीं है। जब वे घोषणा ही कर चुके थे तो उनको अब आराम करने देना चाहिए। पुस्तकें लिखें, देश-विदेश में भाषण दें और पार्टी नेतृत्व को अपने जीवन के अनुभवों का लाभ देते रहें। प्रधानमंत्री का सपना देखने वाला और इस उम्र में भी इस जीवट से चुनाव लड़ने वाला व्यक्ति अब घायल और हताश विपक्ष का नेतृत्व उत्साह से कैसे कर सकता है? यह उन पर अत्याचार है। पर भाजपा की अन्दरूनी कलह और वर्चस्व की लड़ाई में आडवाणी जी को ढाल बनाकर इस्तेमाल किया जा रहा है। इससे पहले कि यह गन्दगी और बढ़े, इस विषय पर भाजपा की चिन्तन बैठक होनी चाहिए और खुले दिमाग और साझी समझ से भाजपा का नया नेता चुना जाना चाहिए। जरूरी नहीं कि वो पुराने थके-पिटे चेहरों में से कोई हो। बेहतर तो यह होगा कि एक ऐसा चेहरा सामने आये जो उसी तरह नयी ऊर्जा का संचार कर सके जैसा इंका में राहुल गाँधी ने, रालोद में जयंत चैधरी ने, नेकाँ में उमर अब्दुल्ला ने किया है। बहुसंख्यक हिन्दु समाज से जुड़े ऐसे तमाम सवाल हैं जिन्हें अगर ठीक से और ईमानदारी से लेकर चला जाए तो एक बहुत बड़ा वर्ग साथ खड़ा रह सकता है। यह मानना गलत है कि अब इन मुद्दों की सार्थकता नहीं रही। तकलीफ इस बात की है कि इन मुद्दों को भाजपा के नेतृत्व ने कभी भी न तो ठीक से समझा, न अपनाया और न ही उनकी वकालत की। राजनीति में कभी कोई हाशिए पर नहीं जाता। फिर इतने बड़े हिन्दु समाज के हित साधने का लक्ष्य रखने वाले अगर ईमानदार हांेगे तो वे फिर से ताकत खड़ी कर पायेंगे।