70 के दशक में जब कुकिंग गैस का परिचय
ग्रहणियों को मिला तो हर घर में एक बहस चल पड़ी कि इस गैस के चूल्हे पर खाना बनाना चाहिए
या नहीं।बहुमत इसके पक्ष में था कि दाल-सब्जी तो भले ही पका लो, पर रोटी मत सेंकना।
क्योंकि रोटी में जहरीली गैस चली जायेगी। पर बाद में जब ग्रहणियों को गैस पर खाना बनाने
में सुविधा महसूस हुई तो इसे हर घर ने इसे अपना लिया । यह बात दूसरी है कि चूल्हे पर
या तंदूर में सिकी रोटी का स्वाद गैस पर सिकी रोटी से बेहतर होता है। पर शहरों में चूल्हे जलाना संभव
नहीं होता।
1980 में जब रिचर्ड एटनबरो महात्मा गांधी
पर फिल्म बनाने भारत आए तो गांधीवादियों ने सड़कों पर उनके खिलाफ प्रदर्शन किए। उनका
सवाल था कि कोई अंग्रेज ये काम क्यों करे ? बाद में उसी फिल्म ने विश्वभर की
नयी पीढी को गांधी जी से परिचित करवाया। फिल्म की खूब तारीफ हुई।
1985 में जब प्रधानमंत्री राजीव गांधी
ने कम्प्यूटर क्रांति लाकर 21 वीं सदी में जाने की बात की तो भाजपा
सहित सारे विपक्ष ने देशभर में तूफान मचा दिया और राजीव गांधी का खूब मजाक उड़ाया। आज
गांव -गांव में हर नौजवान को कम्प्यूटर हासिल करने की ललक रहती है। कम्प्यूटर के आने
से बहुत से क्षेत्रों में कार्यकुशलता सैकड़ों गुना बढ़ गयी है। इसी तरह जब संजय गांधी
मारूति कार का विचार लेकर आये तो उनका भी खूब मजाक उड़ाया गया। बाद में उसी कार ने आटोमोबाईल्स
उद्योग में क्रांति कर दी।
प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की नोटबंदी को भी इसी परिपेक्ष में देखा जाना चाहिए।
जो लोग आज विरोध कर रहे है, बहुत संभव है कि वही लोग कल इसका
गुणगान करें। नोटबंदी के आर्थिक पहलुओं और बैंको के मायाजाल पर पिछले दो हफ्तों में
इसी कालम में मैं दो लेख लिख चुका हूं। पर आज बात दूसरे नजरिये से कर रहा हूँ । मान
लें कि मोदी जी का सपना सच हो जाए और भारत के लोग नकद पैसे का इस्तेमाल 92 फीसदी से घटाकर
20 फीसदी तक भी ले आयें, तो कितना बड़ा फायदा होगा, इस पर भी विचार कर
लिया जाए।
आज जब मजदूर महानगरों
से अपनी मेहनत की कमाई अंटी में खोसकर गांव जाते हैं, तो रेल गाड़ियों में लूट लिए जाते
हैं। पर कल जब वे डिजिटल सुविधाओं का प्रयोग करना सीख जायेंगे तो महानगरों से खाली
हाथ गांव जायेगें और अपने गांव के बैंकों से पैसा निकाल कर घरवालों को दे आयेंगे। हम
शहरी लोगों को तो इससे बहुत सुविधा होगी जब बिना पैसा जेब में रखे हर काम कर सकेंगे।
चाहे कहीं खाना हो, आना-जाना हो और चाहे कुछ खरीदना हो, सब कुछ बिना नकद
के लेनदेन के हो जायेगा। हिसाब हर वक्त उपलब्ध रहेगा। मोदी जी ठीक कह रहे हैं कि इससे
कारोबार में सबको ही बहुत सुविधा हो जायेगी। ग्रामीण अंचलों को छोड़कर।
12 वर्ष पहले इलाहाबाद
उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों ने मुझ पर वृंदावन के सुप्रसिद्ध बांकेबिहारी मंदिर और
गोवर्धन के दानघाटी मंदिर के रिसीवर की मानद जिम्मेदारी सौंपी। उन दिनों मुझे यह जानकर
बहुत अचम्भा हुआ कि मथुरा जनपद में ज्यादातर व्यापार कच्ची पर्ची से होता है। इससे
मुझे बहुत परेशानी हुई और मैने जोर देकर कहा कि हमारे मंदिरों में जो सप्लाई आयेगी
वह उन्हीं दुकानों से आयेगी जो पक्का बिल देंगे और चैक से भुगतान लेंगे। शुरू में मुझे
अपने ही प्रबंधको का विरोध सहना पड़ा। पर सख्ती करने पर यह व्यवस्था जम गयी। वहां एक
मंदिर में तो कर्मचारियों को वेतन तक नकद में मिलता था। उन्होंने मुझसे शिकायत की कि
वेतन देने वाला कुछ कमीशन काट लेता है। मुझे आश्चर्य हुआ कि जिस मंदिर के प्रांगण में
ही स्टेट बैंक आफ इण्डिया की शाखा मौजूद है, उसमें कर्मचारियों के बैक अकाउंट
आज तक क्यों नहीं खुले? 2003 में ही मैंने सबके अकाउंट खुलवाये
और उनका वेतन सीधा उनके खाते में जमा होने लगा।
इसी तरह आजकल भगवान
की लीलास्थलियों के जीर्णोद्धार का जो काम ब्रज में हम बड़े स्तर पर कर रहे हैं, उसमें भी यही दिक्कत
आ रही है। सीमेंट की आपूर्ति करने वाला किसी और आईटम के नाम से बिल देना चाहता है।
कारण यह बताता है कि वो उस वस्तु के विक्रय का अधिकृत डीलर नहीं है इसलिए दूसरी वस्तु
के नाम से बिल देता है। मैने इसे स्वीकार नहीं
किया। क्योंकि साईट पर जरूरत है 100 ईटों की पर बिल में लिखा है 1000 ईंट। क्योंकि 900 ईंट की जगह तो सीमेंट
आया है। तो हम अपने खाते में कैसें इस बात को सिद्ध करेंगे कि हमने 100 की जगह 1000 ईंट लगाई। सारा
घालमेल हो जायेगा। पक्के बिलों और चैक के भुगतान से इस समस्या का हल हो जायेगा। जो
खरीदो बेचो उसी का बिल बनाओ। इसी तरह टोल बैरियर हो या रोजमर्रा की खरीददारी, हमारी आधी उर्जा
तो फुटकर मांगने और देने में निकल जाती है। अगर आनलाइन ट्रांस्फर होगा तो चिल्लर की
जरूरत ही नही पड़ेगी।
तुर्की के राष्ट्रपति मुस्तफा कमाल पाशा ने जब दकियानुसी तुर्क समाज को आधुनिक
बनाने की कोशिश की तो उनका भारी विरोध हुआ। वे चाहते थे कि उनके कबिलाई समाज अरबी-
फारसी की लिपि को छोड़कर अंग्रेजी सीख जायें और दुनिया से जुड़ जाये। लड़कियां लड़के साथ-साथ
पढ़ें। उनके शिक्षा मंत्री ने कहा कि यह असंभव है कि निरक्षर जनता, खासकर महिलाएं बुर्के
के बाहर आकर शिक्षा ग्रहण करें। मंत्री महोदय का आंकलन था कि इस काम में कई दशक लग
जायेंगे। पर कमाल पाशा कहाँ मानने वाले थे। उन्होंने खुद ही गांव-गांव जाकर साक्षरता
की क्लास लेना शुरू कर दिया। नतीजा यह हुआ कि 2 वर्ष में ही तुर्की के लोग अंग्रेजी
लिखने, पढ़ने और बोलने लगे। अगर सरकार समाज
में जरूरी 8 लाख करोड़ रूपये के नोट जल्दी जारी
कर पाई, तभी यह योजना सफल हो पायेगी। इसके
अलावा भी मोदी जी को जनता के बीच जाकर कमाल पाशा की तरह कुछ करना पड़ेगा। पुरानी कहावत
है न कि ‘बिना मरे स्वर्ग नहीं दीखता।’ फिर चाहे स्वच्छता अभियान हो या बैंकिग प्रणाली
का विस्तार, मोदी जी को इसे एक सतत आंदोलन के
रूप में चलाना होगा। तभी देश बदलेगा।