पिछले हफ्ते कल्पना चावला और राजा भैया दोनों भारतीय समाचारों में छाये रहे। एक अपने अदम्य साहस और विज्ञान के क्षेत्र में महत्वपूर्ण योगदान करते हुए शहादत देने के लिये और दूसरा अपने साहस और क्षमता का उपयोग बाहुबल बढ़ाकर अपराध और राजनीति की दुनिया में झंडे गाड़ने के लिये। जहां कल्पना चावला दुनिया के करोड़ों नौजवानों खासकर युवतियों के लिये एक आदर्श बनकर सामने आईं वहीं राजा भैया अपराध और राजनीति के जरिये दौलत हासिल करने का सपना संजोने वाले नौजवानों के लिये आदर्श बनकर सामने आया। एक के प्रति पूरी दुनिया में श्रद्धा और संवेदना थी तो दूसरे के प्रति भारत के जागरूक समाज में हेय दृष्टि और आक्रोश। आक्रोश इसलिये भी कि विभिन्न राजनैतिक दलों के बड़े नेताओं ने खुलकर राजा भैया के ऊपर पोटा लगाने का विरोध किया। इतना मुखर विरोध कि समाचार सुनने देखने वाले तिलमिला गये। अपराध जगत से राजनीति में आने वाले के प्रति मुख्य राजनैतिक दलों के बड़े नेताओं का इस तरह खुलकर समर्थन देना जहां राजनीति में आई मूल्यों की गिरावट का परिचय देता है, वहीं यह भी सिद्ध करता है कि हम्माम में सब नंगे हैं। आज विरोध इसलिये कर रहे हैं कि कल कहीं ऐसी गाज उन पर न आ गिरे। अरे विरोध करना ही है तो सब मिलकर राजनीति में बढ़ते अपराधीकरण का करो। ऐसा विधेयक संसद में पारित करो कि अपराध करने वाला किसी भी विधाई संस्था में चुनाव लड़ने का अधिकारी न रह पाए। पर वहां विरोध कोई नहीं करता। कोई इस विधेयक के समर्थन में सशक्त आंदोलन नहीं चलाता। पर जब देश के युवाओं को संदेश देने की बारी आती है तो राजा भैया पर पोटा लगाने का विरोध करने वाले नौजवानों से गांधी, भगत सिंह और सुभाष चन्द्र बोस जैसों के त्याग को याद दिलाते हैं। सब चाहते हैं कि भगत सिंह पैदा हो पर पड़ोसी के घर। ऐसे दोहरे चरित्र वाले नेताओं के उद्बोधन युवाओं को न तो प्रभावित करते हैं और न आंदेालित। इसलिये कार्यशालायें, चिंतन शिविर व संभाषण चाहे जितने किये जायें समझदार और संस्कारवान युवाओं की भीड़ राजनैतिक दलों को बल देने सामने नहीं आती। आते हैं वही युवा जो बेरोजगारी से आजिज आ चुके हैं और पेट की आग बुझाने के लिये कुछ भी करने को तैयार हैं। चाहे राजनैतिक दल में नारे लगाने पड़ें या हत्या, बलात्कार या अपहरण करने पड़ें। दोष युवाओं का नहीं, उन्हें मिल रहे माहौल का है। देश के नेतृत्व का है जो उन्हें आदर्शों के साथ जीने को प्रेरित नहीं कर पाते। वरना हर बीज में वृक्ष बनने की संभावना निहित होती है। जैसी कल्पना चावला में थी। उसे ठीक खाद, पानी, हवा और रोशनी मिली तो वह भारतीय नारी की अबला छवि को तोड़कर एक जांबाज महिला के तौर पर सामने आई और रानी झांसी की तरह भारत की जहनियत में अपना अमिट स्थान सुरक्षित कर गयी। कल्पना चावला की अकाल मृत्य पर पूरी दुनिया के भारतीयों ने ही नहीं दूसरे समुदाय के लोगों ने भी जिस तरह अपनी संवेदना प्रकट की उससे दिवंगत कल्पना के परिवार का मस्तक जरूर ऊंचा हुआ है। उनको हुई इस अपूरणीय क्षति को तो अब पूरा नहीं किया जा सकता पर इसमें शक नहीं कि कल्पना की शहादत आने वाली पीढि़यों को प्रेरणा देती रहेगी। कहते हैं कि काल के आगे किसी का बस नहीं चलता। फिर भी भारत की परंपराओं में कुछ ऐसा है जो अनदेखा नहीं किया जा सकता।
जिस दिन अमरीका के शहर ह्यूस्टन के ऊपर अमरीकी अंतरिक्ष यान ‘कोलम्बिया’ ध्वस्त हुआ, उस दिन शनिवार था और मौनी अमावस्या भी। इसे इत्तफाक कहिये या हिन्दू मान्यताओं की पुष्टि कि एक बूढ़ी महिला उसी दिन सुबह एक सत्संग में यूं ही बोल उठीं, ‘‘आज शनिवार को मौनी अमावस्या पड़ रही है। जरूर कहीं कोई विस्फोट होगा।’’ अनुभव भी बताते हैं और ऐसा माना भी जाता है कि जब-जब शनिवार को मौनी अमावस्या पड़ती है कोई विस्फोट या बड़ी दुर्घटना होती है। यह शोध का विषय हो सकता है। पर यहां यह बात महत्वपूर्ण है कि रूस जैसे साम्यवादी रहे देश में डाक्टरों ने जब अपने अनुभव से यह पाया कि कुछ खास नक्षत्रों की स्थिति में जब मरीजों के आपरेशन किये जाते हैं तो वे आपरेशन नब्बे फीसदी सफल रहते हैं। जबकि दूसरे नक्षत्रों की स्थिति में किये गये आपरेशन या तो असफल रहते हैं या मरीज का जीवन ही नहीं बचता। अपने इस अध्ययन के बाद उन्होंने यह तय कर लिया कि वे नक्षत्रों की सकारात्मक स्थिति में ही आपरेशन करेंगे।
उधर अमरीका का मशहूर अंतरिक्ष शोध संस्थान नेशनल एयरोनाॅटिक एंड स्पेस एडमिनिस्ट्रेशन (नासा) यूं तो दुनिया भर से सूचनायें और ज्ञान इकट्ठा करने में संकोच नहीं करता पर यह बात भी तहकीकात करने वाली होगी कि क्या वह अपने अंतरिक्ष यानों को नक्षत्रों की शुभ घड़ी में भेजता है या नहीं। क्योंकि ज्योतिषियों का कहना है कि शनिवार को पड़ी मौनी अमावस्या को इतना बड़ा प्रयोग नहीं करना चाहिये। कोलम्बिया के पृथ्वी पर लौटने की घड़ी इतवार या सोमवार को रखी जा सकती थी।
इस मुद्दे पर विवाद हो सकता है। लोग अविश्वास भी कर सकते हैं। नास्तिक लोग इसे अंधविश्वास और मूर्खतापूर्ण बात भी कह सकते हैं। पर यह तथ्य भी रोचक है कि किसी व्यक्ति की जन्म कुण्डली में यदि अकाल मृत्यु का योग होता है तो ज्योतिष बड़े विश्वास के साथ ऐसा बता देते हैं। यह बात दूसरी है कि वे उसे सम्बन्धित व्यक्ति को न बतायें और उसके शुभचिंतकों तक ही यह सूचना सीमित रहे। ऐसे अनेक ज्योतिष देश में आज भी मौजूद हैं जो घटनाओं की काफी हद तक सही गणना कर लेते हैं। जब तमाम किस्म की वैदिक ज्ञान धाराओं को अंतर्राष्ट्रीय वैज्ञानिक समुदाय के सामने क्रमशः मान्यता मिलती जा रही है तो इसमे क्या हर्ज है अगर ज्योतिष के सही ज्ञान और पूर्वानुमानों की सहायता इस किस्म के महंगे और बड़े प्रयोगों के पहले ली जाए। यह भी सही है कि अक्सर ज्योतिष के नाम पर ढोंगी ही सामने आते हैं। पर यह बात तो विज्ञान के जगत में भी खूब प्रचलित है कि शोध करने वाले असली वैज्ञानिक अपनी मेहनत का फल नहीं पाते। उनके शोध पर चालू किस्म के प्रभावशाली और मशहूर वैज्ञानिक अपना दावा पेश करके ख्याति अर्जित कर लेते हैं। पर जिसे खरे ज्ञान की तलाश है वह खरे ज्योतिष भी तलाश ही लेगा। अरबों खरबों रुपये शोध पर खर्च करने वाला नासा निश्चय ही इस तरह की खोज करने में सक्षम हो सकता है।
कल्पना चावला की मौत हो या दुनिया के किसी और हिस्से में कोई हृदय विदारक घटना या कोई आनंद उत्सव, टेलीविजन की मार्फत उसकी सजीव रिपोर्ट कुछ मिनटों में दुनिया के हर कोने में पहंुच जाती है। यही कारण है कि जब कभी ऐसी घटना होती है तो सारी दुनिया टीवी के आगे जमकर बैठ जाती है और हर क्षण की रिपोर्टिंग को दिल थामकर देखती है। कल्पना चावला के मामले में भी यही हुआ। जिस उत्सुकता और आशा भरे उत्साह के साथ कल्पना की पृथ्वी पर वापसी का इंतजार हो रहा था उन्हीं क्षणों के बीच जब अचानक कोलम्बिया का धमाका हुआ तो सारी दुनिया स्तब्ध रह गयी। हम टेलीविजन के त्वरित विकास और प्रसार से हतप्रभ हैं। समाज पर इसके पड़ रहे कुप्रभावों के प्रति चिंतित भी हैं। पर ऐसी घटनायें टीवी की सार्थकता भी सिद्ध कर देती हैं। इसलिये इसके व्यापक और गहरे प्रभाव को ध्यान में रखते हुए यदि इस माध्यम का सकारात्मक उपयोग किया जाए तो दुनिया कुछ की कुछ बन सकती है। तकलीफ सिर्फ इस बात की है कि कल्पना चावला जैसी दुर्घटना दिखाने वाले या ज्ञान देने वाले नेशनल ज्योग्राॅफिक जैसे टीवी चैनल तो कम ही हैं, अधिकतर समय टीवी चैनलों पर समाज के लिये निरर्थक माल परोसा जाता है। वह चाहे वस्तुओं के रूप में हो या जीवन पद्धति के रूप में। वैश्वीकरण के इस दौर को अब लगता नहीं कि रोका जा सकता हैै। पूरी दुनिया एक होती जा रही है। कम से कम साधन सम्पन्न लोगों के लिये तो यह बात सत्य सिद्ध हो रही है। यही वो लोग हैं जो अपने अपने क्षेत्रों में कुछ नया करने की पहल कर सकते हैं। क्योंकि इनकी जिदंगी चूल्हे के चक्कर में बरबाद नहीं होती। पर इन्हीं लोगों को लक्ष्य बनाकर टीवी चैनल केवल बाजार संस्कृति को बढ़ावा दे रहे हैं। उसकी जगह अगर जीवन मूल्यों और मानवीय संवेदनाओं को बढ़ाने वाले कार्यक्रमों का पैकेजिंग किया जाए तो हो सकता है कि राजा भैया की जगह कल्पना चावला को आदर्श मानने वाले युवाओं की तादाद तेजी से बढे़।
दुनिया के दूसरे देशों से प्रसारित होने वाले टीवी कार्यक्रमों में इस बात की चिंता हो या न हो, भारत के टीवी चैनलों को तो यह सोचना ही चाहिये। पिछले कुछ वर्षों में जिस तेजी से भारत में टीवी चैनलों का विस्तार हुआ है उतनी ही तेजी से इन चैनलों पर आने वाले कार्यक्रमों की गुणवत्ता गिरी है। कितने टीवी कार्यक्रम हैं जो देश में युवाओं को भ्रष्ट प्रशासनिक व्यवस्था से लड़ने के लिये प्रेरित कर रहे हैं ? कितने टीवी चैनल हैं जिनसे लोकतांत्रिक शक्तियां प्रबल हो रही हैं ? कितने टीवी चैनल हैं जिनसे समाज में जन सहयोग और नागरिक संगठनों की वृद्धि हो रही है ? कितने टीवी चैनल हैं जो समाज और राजनीति के दुर्दान्त अपराधियों को ब्लैक आउट कर रहे हैं ? या उनके प्रति घृणा पैदा कर रहे हैं ? कितने टीवी चैनल हैं जो चरित्रवान और नैतिक मूल्यों के पक्षधर समाज के विभिन्न क्षेत्र के लोगों को महिमा मंडित कर रहे हैं ? क्या यह सही नहीं है कि टीवी न्यूज चैनलों पर सत्ता की दलाली करने वाले वे लोग, जिनके दोहरे जीवन से सब वाकिफ हैं, ही प्रमुखता से छाये रहते हैं ? यही कारण है कि समाज में बिना श्रम, बिना त्याग और बिना पुरुषार्थ के धन कमाने वालों की होड़ लगती जा रही है। राजा भैया तो एक प्रतीक है। पर देश के हर प्रांत में ऐसे कितने ही राजा भैया हैं जिन्हें राजनीति में सफलता सिर्फ इसलिये मिल रही है कि मीडिया उनके चरित्र का खंडन नहीं बल्कि महिमा मंडन कर रहा है। कल्पना चावला जैसी वीरांगनायें लगातार समाचारों में बनी रहें अपनी शहादत देकर नहीं बल्कि अपनी प्रभावशाली उपलब्धियों के कारण और हर राजनैतिक दल को पल्लवित और पोषित करने वाले अपराधी समाज की हिकारत का शिकार बने इसी में संचार माध्यमों की सार्थकता है, अन्यथा नहीं। शहादत केवल जान देकर ही नहीं की जाती, कभी कभी जीवन में तकलीफें उठाकर भी सुख सम्पत्ति पाने के अनैतिक प्रस्तावों को ठुकराने वाले भी अपने जीवन में जिंदा ही शहीद हो जाते हैं। देश में ऐसे सैकड़ों लोग हैं जिनका जीवन कल्पना की ही तरह युवाओं में नये रक्त का संचार कर सकता है बशर्ते कि हमारा मीडिया उन्हें उनका उचित स्थान दे।