इस साल जमकर बारिश हुयी, कड़ाके की सर्दी पड़ी और उतनी ही भीषण गर्मी पड़ने की आशंका है। उधर जापान के परमाणु विकिरणों का भी भूमण्डल की जलवायु पर खतरनाक प्रभाव पड़ने की संभावना है। ऐसी परिस्थितियों में उत्तर प्रदेश वालों का स्वास्थ्य रामभरोसे है। उन्हें गम्भीर बीमारियों और तकलीफ भरे दिनों के लिए मानसिक रूप से तैयार रहना चाहिए। क्योंकि भीषण गर्मी में ही बीमारी के बैक्टीरिया और कीटाणु तेजी से पनपते और फैलते हैं। वो चाहें हैजा हो, मलेरिया हो, डेंगू हो, चिकुनगुनिया हो या पीलिया हो। गर्मी की मार से आदमी बच सकता है, अगर उसका परिवेश स्वस्थ व साफ हो और उसे शुद्ध पेयजल उपलब्ध हो। ये दोनों ही न होने की स्थिति में गर्मी की मार दोगुनी हो जाती है।
Amar Ujala 4 Apr 2011 |
अब जरा उत्तर प्रदेश के नगरों और गाँवों की तरफ नजर डालिये। क्या ये आपको साफ-सुथरे और सजे-संवरे नजर आते हैं? या हर शहर, कस्बा और गाँव हर किस्म के विदू्रप कूड़े के अम्बारों से पटा पड़ा है? आप अपने चारों ओर नजर उठाकर देखिए तो आपको हफ्तों और महीनों से बेतरतीब पड़े कूड़े के ढेर ही ढेर नजर आयेंगे। जिनमें हर तरह की बीमारियाँ जन्म ले रही हैं और जो वायुमण्डल को 24 घण्टे प्रदूषित कर रहा है। इतना ही काफी न था। उत्तर प्रदेश के लगभग हर शहर की सीवर व्यवस्था ध्वस्त पड़ी है। नगरों के बढ़ते आकार की तुलना में न तो सीवर का जाल बढ़ा है और न ही उसकी चैड़ाई। सीवर के इन पाइपों में प्लास्टिक और रासायनिक कचरे ठोस अवयव के रूप में अटके पड़े हैं। नतीज़तन पानी रूक-रूककर आगे बढ़ता है। सीवरों के इस जाल को नियमित साफ रखने की भी कोई माकूल व्यवस्था नगर पालिकाओं के पास नहीं है। चाहें वह साधनों की कमी हो या व्यक्तियों की। नतीज़तन इन शहरों, कस्बों और गाँवों की नालियों में भीषण बदबूदार दूषित जल बुदबुदाता रहता है और उफनकर सड़कों पर बहता रहता है।
वर्तमान सीवरेज व्यवस्था हमें यूरोप से भेंट में मिली थी। वरना भारतीय संस्कृति में शहर की गंदगी को नदियों में डालने की प्रथा कभी न थी। यूरोप में सीवर का पानी नदी में डालने से पहले पूरी तरह साफ, यहाँ तक कि पीने योग्य बनाया जाता है। इसलिए उनके यहाँ यह व्यवस्था सफलतापूर्वक चल रही है। पर हमारे यहाँ सीवर का पानी ज्यों का त्यों नदियों में डाल दिया जाता है। इसका ट्रीटमेंट करने के जितने प्लांट, जिस भी जगह लगे हैं, वे या तो बन्द पड़े हैं या क्षमता से कहीं कम काम कर रहे हैं। ऐसे में प्रदेश की नदियाँ खतरनाक स्तर तक प्रदूषित हो चुकी हैं। इतना ही नहीं प्रदेश के रजवाहे और लघु सिंचाई योजना के तहत खोदी गई नालियाँ (माइनर) प्रदेश के प्रदूषण नियन्त्रण बोर्ड व जिम्मेदार अधिकारियों के भ्रष्टाचार के कारण औद्योगिक गन्दा पानी ढोने पर मजबूर हैं। जिससे किसान, खेती और पशु तीनों को भारी नुकसान हो रहा है। इस सबका सीधा असर हमारी पेयजल आपूर्ति पर पड़ रहा है।
प्रदेश का भूजल न सिर्फ प्रदूषित हो चुका है बल्कि अविवेकपूर्ण दोहन के कारण उसका स्तर तेजी से गिरता जा रहा है। गर्मी शुरू होने दीजिए और फिर देखिए पेयजल के लिए कैसा हाहाकार मचता है। हमारे पर्यटन की नाक माने जाने वाली ताजमहल की नगरी आगरा तक पेयजल के भारी संकट से बेहाल हो जाती है। जब संकट सिर पर आ जाता है, तब प्रशासन के सामने प्रदर्शन करने, घड़े फोड़ने, धरने देने और बयान देने की बाढ़ आ जाती है। पर क्या इस सबसे समस्या हल हो जाती है? वर्षों से सरकारों की अविवेकपूर्ण नीतियों ने प्रदेश को किस खस्ता हालत में लाकर खड़ा कर दिया है। आप ये सब सह लेते अगर प्रदेश में प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्रों की हालत अच्छी होती। पर इनकी क्या हालत है और इनमें कैसा इलाज होता है, यह आप बखूबी जानते हैं। कुल मिलाकर इधर कुँआ तो उधर खाई। अब तो वही फिल्मी गाना याद आता है ‘तैयार हो जाओ वतन की आबरू (प्रदेश की सेहत) खतरे में है, तैयार हो जाओ तुम्हारे इम्तिहान का वक्त है’।
यह सब लिखने का उद्देश्य अपने प्रदेश की बदहाली पर आँसू बहाना नहीं है। मकसद है, ‘पीर पर्वत सी हो चुकी अब तो पिघलनी चाहिए। इस हिमालय से कोई गंगा निकलनी चाहिए।’ कब तक बैठे रहेंगे सरकार के आसरे हम? कब तक नगर पालिकाओं के नकारापन का रोना रोते रहेंगे? हमारे आसपास की गन्दगी से खतरा हमें और हमारे बच्चों को है। तो फिर कबूतर की तरह आँख मंूद लें या फिर कुछ करें? समाजसेवा के नाम पर फोटो खिंचवाने वाले क्लब, किटी पार्टी में ताश के पत्तेे फैंटने वाली कुलीन महिलाऐं, स्कूल-काॅलेजों के शिक्षक व छात्र तथा हर बात पर बयान देने को आतुर छुटभैये नेता अगर गम्भीर हो जाये ंतो हम अपने शहर के कूड़े से निजात पा सकते हैं। यह सारे समूह अलग-अलग संगठनों के माध्यम से और सब संगठनों के एक सामूहिक मंच के माध्यम से यह फैसला करें कि अपने नगर को साफ रखना हमारी जिम्मेदारी है। तो दो काम करने होंगे। एक तो हमें यह तय करना होगा कि हम अपने घर से बाहर जो कूड़ा फैंकते हैं, उसका आकार तेजी से घटायें और उसके प्रकार में ऐसा परिवर्तन लायें कि वह कूड़ा हमारे पर्यावरण पर बोझ न बने। मसलन प्लास्टिक, थर्मोकोल, रासायनिक पदार्थ व पैंकिग मेटिरियल जैसा कचरा जब तक फैंकना बन्द नहीं करेंगे, इस समस्या से छुटकारा नहीं मिलेगा। यह अभ्यास करना मुश्किल जरूर है, असम्भव नहीं। मेरी पीढ़ी के लोगों को अपना बचपन याद होगा, तब इस तरह का कूड़ा न तो गाँवों में होता था और न ही शहरों में। नलों में चैबीस घण्टे पानी आता था। बिना आर. ओ. या बिसलरी के हम टोंटी से मुँह लगाकर पानी पीते थे। हमने सबमर्सिबल पम्प लगाकर पानी की ऐसी बर्बादी शुरू की कि आज पीने के पानी को प्रदेश तरस जाता है।
इन सामाजिक संगठनों और उनके सामूहिक मंच को दूसरा काम यह करना होगा कि शहर के कूड़े को उठाकर निर्धारित जगह डालने के लिए जिम्मेदार इकाईयों और प्रशासन पर तगड़ा दबाव बनाकर व उनके साथ सक्रिय सहयोग करके इस काम को युद्ध स्तर पर करना होगा। इन सब प्रयास के लिए आवश्यक धन की व्यवस्था नगर और गाँवों के सम्पन्न लोगों को उदारता से करनी चाहिए। जैसाकि जर्मनी के चांसलर विली ब्रांट ने एक बार कहा था, ‘‘गरीबी कहीं भी हो, अमीरी के लिए हर जगह खतरा बन जाती है’’। इस सन्दर्भ में हमें कहना होगा, ‘‘गन्दगी कहीं भी हो, अमीरों के लिए भी खतरा है।’’ एक बार लखनऊ में उत्तर प्रदेश बाॅर एसोसिएशन के प्रांतीय सम्मेलन को मंच से सम्बोधित करते हुए मैंने अपने साथ बिराजे मुख्यमंत्री मुलायम सिंह यादव को बधाई दी कि आपका यह प्रदेश गाँधी जी के आत्मनिर्भरता के आदर्शों का पालन कर रहा है। बिजली, पानी और अपनी सुरक्षा के लिए आपने जनता को पूरी तरह आत्मनिर्भर बना दिया है। इस पर पूरे सम्मेलन में जोर का ठहाका लगा। मुलायम सिंह जी को बात बुरी लगी होगी। पर कमोबेश यही हाल देश के ज्यादातर शहरों का होता जा रहा है। इसलिए यह हंसी का नहीं चिंता का विषय है। पुरानी कहावत है, ‘आप काज-महाकाज’। फैसला आपको करना है।