भ्रष्ट कौन है? जो अनैतिक साधनों से धन कमाता है। देश की 70 फीसदी आबादी कृषि पर आधारित है। किसान छोटा हो या बड़ा या फिर भूमिहीन कृषि मजदूर। रात-दिन खेत में कड़ी मेहनत करता है, तपती धूप, जमाने वाली सर्दी झेल कर भी अनाज उपजाता है। वर्षा में अपना खेत, अनाज, पशु यहां तक कि अपने घर की रक्षा में महीनों जाग-जाग कर रात काट देता है। कहीं बाढ़ में उसका यह छोटा सा संसार ही न बह जाए। इतना ही नहीं खाद, पानी और बीज के लिए बैंक या महाजन के कर्जे में डूबा रहता है। इस सबके बाद जो फसल पैदा होती है, उसे जब मंडी में बेचने जाता है तो यह गारंटी नहीं कि उसे आढ़तिया अनाज के पूरे दाम दे दे। अब बताइये इस बेचारे किसान को भ्रष्ट होने का अवसर कहां मिलता है?
इसी तरह खदानों में काम करने वाले मजदूर हों या भवन निर्माण में काम करने वाले मजदूर, कारखानों में काम करने वाले मजदूर हों या छोटे और मजले दुकानदारों के यहां काम करने वाले मजदूर, यह सब रात-दिन कड़ी मेहनत करते हैं। इनके मालिक कोई ठेकेदार या ऐसे लोग होते हैं जो इनसे काम तो पूरा लेते हैं लेकिन पैसे खींच कर देते हैं। श्रमिकों की सुरक्षा के नियमों की अवहेलना करके इनकी जान जोखिम में डालकर इनसे काम करवाते हैं। एक राज्य के मजदूरों को दूसरे राज्य में ले जाकर काम करवाते हैं, ताकि अगर वो दुर्घटना में मर जाए तो उसकी लाश को ठिकाने लगा दे या उसके घर भिजवा दे। पर स्थानीय जनता में कोई आक्रोष न पनपने दें। इन अमानवीय दशाओं में काम करने वाले करोड़ों मजदूरों को भ्रष्ट होने का मौका कहां मिलता है?
देश की आधी आबादी महिलाओं की है। जिनमें से बहुत थोड़ी महिलायें सरकारी नौकरी में है। ज्यादातर अपने घर, खेत-खलियान या कुटीर उद्योग में लगी हैं। यह सब महिलायें सूर्याेदय से लेकर देर रात तक अपने परिवार की धुरी की तरह निरंतर काम में लगी रहतीं हैं और घर की अर्थव्यवस्था में महत्वपूर्ण योगदान देती हैं। यह सब करने वाली इन महिलाओं को भ्रष्ट होने की गुंजाइश कहां है?
इसी तरह देश के वनों में रहने वाले जन-जातीय समुदाय न्यूनतम साधनों में गुजारा करते हैं और वन संपदा की रक्षा करते हुए उसके उत्पादनो पर ही निर्भर रहते हैं। इन वनवासियों के नैसर्गिक अधिकारों की अवहेलना करके जंगल का माफिया जंगल काटता है और खदान का माफिया खनन करता है। पर इन वनवासियों की थाने से कचहरी और संसद तक कहीं नहीं सुनी जाती। तो इन बेचारों को भ्रष्ट होने का कहां मौका है?
इसी तरह फौज के सिपाहियों या सरकारी महकमों में भी काम करने वाले वो सब लोग जिनसे कसकर काम लिया जाता है और जिन्हें अपने विवके से आर्थिक निर्णय लेने की कोई छूट नहीं है, कैसे भ्रष्ट हो सकते हैं?
साफ जहिर है कि भारत की 90 फीसदी आबादी भ्रष्ट नहीं है। दरअसल भ्रष्ट वही हो सकता है या होता है जिसे अपने विवेक से आर्थिक निर्णय या नीतिगत निर्णय लेने का अधिकार मिला हुआ है। जैसे सरकार, सार्वजनिक क्षेत्र, सेवा क्षेत्र या निजी क्षेत्र में काम करने वाले अधिकारी। जो लेागों को नियुक्ति देने से लेकर बड़ी-बड़ी खरीद, ठेके आवंटित करना, विकास की नीति बनाना, विकास के लिए किसी क्षेत्र को चुनना और उसे विकसित करना या अंतर्राष्ट्रीय व्यापार जैसे क्षेत्रों में निर्णय लेते है। चूंकि इनके निर्णय से किसी को फायदा और किसी को घाटा हो सकता है, इसलिए इन्हें भ्रष्ट होने का हर क्षण अवसर मिलता रहता है। जिन्हें लाभ होने की संभावना होती है वह अपने लाभ का एक हिस्सा इन्हें रिश्वत के रूप में एडवांस देकर इनसे अपने हक में निर्णय करवाने की फिराक में रहते हैं।
अब यहां आदमी के संस्कार, उसकी चेतना, उसके परिवेश और उसकी पारिवारिक आवश्यकताओं के सम्मलित दबाव का परिणाम होता है कि वह भ्रष्ट मानसिकता से निर्णय ले या सदाचार से। ऐसे लोगों की संख्या पूरे भारत की आबादी की 2 फीसदी से ज्यादा नहीं होगी। इन 2 फीसदी में ही हर तीसरा भारतीय भ्रष्ट हो सकता है और है भी। इसलिए श्री सिन्हा का यह दुखभरा बयान सही ठहराया जा सकता है। जो उन्होंने अपने लंबे प्रशासनिक जीवन के अनुभवन के बाद इस हताशा में दिया कि केन्द्रीय सतर्कता आयुक्त होते हुए भी वे ऐसे भ्रष्ट लोगों का कुछ खास बिगाड़ नहीं सके। शायद बयान देते समय वे यह तथ्य स्पष्ट करना भूल गये अथवा उनके बायान को सही संदर्भ में प्रस्तुत नहीं किया गया।